“ बाबूजी ! ”
शिवकुमार
ने दरवाजे की तरफ से आई वह पतली और हल्की आवाज सुनी नहीं थी या सुनकर अनसुनी करदी थी
यह नहीं ठीक से तो नहीं कहा जा सकता लेकिन यह तय है कि उसने एक बार भी मुड़कर दरवाजे
की ओर नहीं देखा था । वह सुबह ग्यारह –साढ़े ग्यारह का समय रहा होगा ।
‘बाबू’ नाम की प्रजाति आम लोगों से हटकर होती है ,अलग
ही दिल दिमाग वाली । एक-दो बार तो सुनते ही नहीं ..सुनलें तो काम के लिये दोचार
बार चक्कर लगवाते हैं । समय पर फाइल कम्प्लीट कर देना ,बिना हील हुज्ज़त के ही
किसी शिकायत का निराकरण कर देना ,बिना कोई अडंगा लगाए किसी का रुका पेंमेंट निकलवा
देना , भेंट पूजा बिना कोई एरियर निकाल देना आदि सारे कर्म ‘बाबूधर्म’ के खिलाफ है । असल में नेताओं की तरह बाबू भी प्रायः जन्मजात होते हैं । कुछ
जन्म से नहीं तो सतत अभ्यास से बन जाते हैं । शिवकुमार श्रीवास्तव बेशक उस प्रजाति
का नहीं है । उसमें अठारह-बीस साल में भी कथित ‘बाबूपना’ नहीं आ पाया है । इसलिये उस दिन शिक्षिका रंजना गौतम की आवाज पर कोई प्रतिक्रिया
न देने के पीछे एक क्लर्क का मिज़ाज तो नहीं था बेशक ।
लेकिन
कभी कभी ऐसा होता है कि आँखें देखकर भी नहीं देखतीं और कान सुनकर भी नहीं सुनते । हमें
याद है क्लास में इसी कारण बच्चों की खूब धुनाई होती थी । माँ दही लेने डेरी पर
भेजती थीं और हम पहुँच जाते बगीचे में । पता ही नहीं चलता कि पाँव किधर जा रहे हैं
। जब ध्यान कहीं और हो तो न कान किसी काम के होते हैं न आँखें । शिवकुमार भी उस समय ऑफिस में होकर भी नहीं था । शिक्षिका
रंजना गौतम की आवाज सुनने की बजाय दाँत में फँसे तिनके की तरह उसका सारा ध्यान कल
शाम को हुई कलह पर था ,जो अभी तक शान्त नहीं हुई थी । रसोईघर में हड़ताल थी इसलिये
आज वह बिना चाय-नाश्ते के ही ऑफिस आया था इसलिये पेट की आँतें विकलता से सिकुड़
फैल रही थीं ।
देखा
जाय तो बात इतनी बड़ी थी नहीं जितनी कान्ता ने बना दी थी जैसा वह आदतन किया करती
है । भला ज़रूरत के वक्त किसी अपने की सहायता कर देना कोई बड़ी बात तो नहीं होती ,
वह भी कोई अपना खास हो ,लेकिन कोई बात कितनी बड़ी हो सकती है और कितनी छोटी और
मामूली इसे तय करना कान्ता ने अपने अधिकार में ले रखा है । अपनी मर्जी से दस से
लेकर पच्चीस पचास हजार रुपए तक किसी को दे डालना उसके लिये मामूली बात है तो
शिवकुमार द्वारा किसी को दिये हजार दो हजार भी बड़े विवाद और कलह का रूप ले लेता
है । कल भी क्लेश का कारण यही था । शिवकुमार ने पिछले सप्ताह कान्ता को बिना बताए
बहिन को पाँच हजार रुपए दे दिये जिनका पता कान्ता को कल ही चला था ।
वह
कल शाम को जब घर पहुँचा और थकाहारा तन मन एक अच्छी चाय और आराम की चाह कर रहा था
कि एक कान्ता ने चाय की जगह एक गरमागरम सवाल सामने रख दिया --“ क्यों , मंजू को पाँच हजार तुमने किस खुशी में दे दिये ?”
“किस खुशी में !...
शिवकुमार
के मन में एक लहर की तरह सवाल उठा ---"बहुत ज़रूरत के वक्त मदद के रूप में किसी को कुछ
रुपए देना क्या खुशी में देना होता है ?
खासतौर पर जब मुसीबत में उसकी अपनी छोटी बहिन हो ।” पर सवाल वहीं
होठों से टकराकर विलीन होगया क्योंकि इसकी व्यर्थता खुद शिवकुमार भी जानता है । माँ
बाबूजी तो अब हैं नहीं पर दो बहिनें भी कान्ता के लिये स्वभावतः प्रतिद्वन्दी जैसी
ही हैं । कान्ता तो माँ बाबूजी के लिये भी वह कभी उदार नहीं रही । जबकि उन्हीं की
बदौलत कान्ता न केवल हमारे घर में , ज़िन्दगी आई थी ,बल्कि उससे बेटी जैसा स्नेह
भी पाया । उसे याद है कि जब इस रिश्ते का प्रस्ताव आया था शिवकुमार बिल्कुल तैयार
नहीं था । नई नौकरी थी । स्थापित होने के लिये कुछ समय चाहिये था । पर बाबूजी ने
रिश्ता स्वीकार कर लिया बोले---"घर आई लक्ष्मी को
लौटाया नहीं जाता ,मैंने वचन दे दिया है .”
“देखने समझने के लिये मुझे थोड़ा वक्त तो देते बाबूजी ।”
“असली समझ बेटा शादी के बाद ही आती है ।”—बाबूजी ने
समझाया । सकारात्मक विचारों वाले दूर तक नहीं सोचते । ‘अच्छे
लोगों के साथ हमेशा अच्छा होता है’, वाला सिद्धान्त उन्हें
हमेशा आशा विश्वास और स्नेह से परिपूर्ण रखता है । बाबूजी ने खूब मन से विवाह की तैयारियाँ कीं थीं । बहू
के लिये अलग कमरा बनवा दिया । माँ के तो पाँव ही ज़मीन पर नहीं पड़ते थे। चुन
चुनकर साड़ियाँ व गहने बनवाए । यह सब बाबूजी की हैसियत से ऊपर था पर बहू लक्ष्मी
के आने का उल्लास सिर चढ़कर बोल रहा था । शिवकुमार ने भी मान लिया कि भले ही लड़की
उसकी कल्पना जैसी सुगढ़ सुन्दर नहीं है ,पढ़ी भी सिर्फ आठवीं पास पर कुँवारे सपने
लिये वह एक निर्दोष लड़की तो है जो उसे अपना पति मानकर बैठी है । रिश्ते से मना
करना उसके साथ भी अन्याय होगा । और क्या ज़रूरी है कि पसन्द से की गई शादी सदा
अपने अनुकूल ही रहे । सारी आशंकाओं को मिटाकर उसने पत्नी का हदय से स्वागत किया था
।
पर
क्या कान्ता ने इस स्वागत को महत्त्व दिया ?
शिवकुमार को सब याद है कि किस तरह कान्ता ने खुद को शुरु से ही अलग रखा था । और कब
किस तरह उस पर हावी रहने की शुरुआत करदी थी ।
आते
ही उसने ससुराल की कमियाँ निकालनी शुरु करदीं थीं .
“तुम्हारे घर में अभी तक गैस चूल्हा नहीं है !”---बात
साधारण पर लहजा दर्प से भरा हुआ ।
“हमारे यहाँ तो पाँच साल पहले ही आगया ,..बाबूजी ने पाजेब तो बहुत पुराने
डिजाइन की खरीदी इन्हें अब कोई नहीं पहनता बाथरूम में टाइल्स लगवा लो ..सीमेंट का
फर्श अच्छा नहीं लगता ..तुम ऐसे रंग क्यों पहनते हो ,एकदम गँवारू ..पढ़ लिख भले ही
गए हो पर लगते नहीं हो पढ़ लिखे ..मुझे तो बड़ी शर्म आती है कि बाबूजी बाजार से
चार केले उठाकर ले आते हैं ,हमारे घर में तो इतने आते हैं कि चार दिन तक खाते रहो
...।”
“बेटी सब धीरे धीरे ठीक हो जाएगा .. तू आगयी है जो भी चीज घर में ज़रूरी है
बताती जाना ।” माँ ने समझाया । उन्होंने सास के परम्परागत
कठोर रूप से बिल्कुल अलग कान्ता के साथ ममतामय व्यवहार रखा था । उन्होंने कान्ता
को कभी उसके मैके की कमियाँ नहीं गिनाई जबकि सबने मेरी ससुराल में रूखे सूखे
बर्ताव की आलोचना की । हमारे आशानुरूप कुछ भी नहीं था । न मान सम्मान और न हीं
भेंट व्यवहार । माँ और बाबूजी के लिये बहू ही सब कुछ थी ,दहेज नहीं । लेकिन बाबूजी
के स्नेह और माँ के वात्सल्य की फुहारों में भी कान्ता बिना भीगे कैसे परे खड़ी
रही यह शिवकुमार को भी हैरानी थी ।
पहली
रात ही कान्ता ने अपनी मंशा ज़ाहिर करदी---
“मैं यहाँ तुम्हारे बिना नहीं रह सकती ।”
“अभी से.. !---शिवकुमार को हैरानी हुई --“शादी को पूरा महीना भी नहीं हुआ ! इतनी जल्दी
सास-ससुर और भरे पूरे परिवार को छोड़कर पति के साथ अलग गृहस्थी बसाने का चलन न
हमारे परिवार में था न ही कान्ता के परिवार में । नई बहू पति से कहीँ अधिक सास
ननदों देवरों और दूसरे परिजनों के बीच रहती है । लल्लन भैया वाली भाभी अभी तक ननद
देवरों के साथ खुशी खुशी घर सम्हाल रही है । खुद कान्ता की भाभी ससुराल वाले घर
में हैं । उसके भैया हर हफ्ते घर आजाते हैं । जैसा देश वैसा वेश ही अच्छा लगता है ।
दादी कहती थीं कि प्रेम और अपनापन हो तो सबके साथ रहने की आदत हर परिस्थिति में
आदमी को मजबूत रखती है । हमारे घर में कान्ता के लिये प्रेम और सम्मान की कहाँ कमी
थी ? वैसे
भी जब तक शादी के मेंहदी महावर नहीं छूटते बहू घर-आँगन की शोभा बढ़ाती हैं ।“
हालाँकि
यह एक नवविवाहिता पत्नी की पति के प्रति प्रेम की विकलता भी हो सकती थी पर कान्ता
के प्रस्ताव में उसे प्रेम कम और उसके माता-पिता के प्रति उपेक्षा और परिवार के नियमों
को तोड़ने का भाव अधिक लगा । शिव ने समझाया –--"देखो कान्ता जहाँ मेरी नियुक्ति हुई है मेरे लिये भी नई जगह है मुझे पहले अपने
पाँव जमाने दो । फिर चलना अभी कुछ दिन माँ बाबूजी के साथ भी रहलो उन्हें अच्छा
लगेगा । कुछ दिन बाद मैं खुद तुम्हें ले जाऊँगा । हमें तो साथ ही रहना है । कुछ
दिन माँ की खुशी के लिये यहाँ रहलो ।”
पर
उसे नहीं रहना था । खाना पीना बन्द कर दिया तब बाबूजी ने कह दिया –--"बहू को साथ ले ही जाओ बेटा । जबरदस्ती किसी को साथ नहीं रखा जा सकता ..अब
उसे खुश रखना तुम्हारी जिम्मेदारी है । “
माँ
भरे मन से बहू के साथ आईं और गृहस्थी जमाकर लौट गईं ।
‘न्यारा पूत पड़ोसी बराबर’ कहावत किसी ने सही कही है ।
खासतौर पर जब जीवनसंगिनी के विचार अलगाववादी हों , बेटा पड़ोसी से भी गया-गुजरा
होजाता है ।घर-परिवार से दूर अब कान्ता बहुत खुश थी । यह खुशी पति के साथ के रहने
की नहीं ,अपनी विजय की खुशी थी ।पति पर विजय पा ली तो समझो दुनिया जीतली । किसी पर
विजय पाना केवल अपनी शक्ति का ही परिचायक नहीं माना जाता । उसमें प्रतिपक्षी की
शारीरिक मानसिक दुर्बलता या लड़ने और जीतने की भावना न होना भी है । शान्ति बनाए
रखने की चाह पीछे कदम हटा लेती है और प्रतिपक्षी आगे बढ़ता आता है । स्त्री हो या
पुरुष , शोषण उसी का होता है जो शान्तिप्रिय संवेदनशील और उदार होता है । कान्ता
आगे बढ़ती गई और शिवकुमार पीछे हटता गया । माता पिता की सीख कि बहू को हर हाल में
खुश रखना है , और परिवार में शान्ति बनाए रखने की चाह में शिवकुमार को पता ही न
चला कि कब कान्ता ने उसे अपने स्थान से लगभग पूरी तरह बेदखल कर दिया है ।
अब
हाल यह कि अपने अधिकार क्षेत्र से पति का एक कदम भी बाहर बर्दाश्त नहीं है कान्ता
को । उसके अधिकार क्षेत्र में आर्थिक सामाजिक और पारिवारिक के अतिरिक्त उन सभी
नियमों का पालन भी है जो खुद कान्ता ने तय किये हैं । किसे कब सोना-जागना है , कब
नहाना है ,कब और कितना खाना है , किससे कब और कितनी देर बात करनी है ,कहाँ जाना है
और कहाँ नहीं । नियमों का उल्लंघन या व्यवस्था में दखल कान्ता को नागवार है । चाहे
बात एक गुलदस्ता की जगह बदलने की हो ।
“हटो , जब तुम्हें सलीका ही नहीं कि किस चीज़ को कहाँ रखना है ,तो रखते ही
क्यों हो ?....कि तस्वीर वहाँ क्यों लगाई है ..गमले उस तरह
क्यों नहीं रखे जिस तरह मैंने माली से रखवाए थे ?..कि मैंने
सब्जी लेने जाने को कहा था और तुम अखबार लेकर बैठ गए ! ..कि
मना करने के बाद भी तुमने क्यों गाड़ी निकाल ली !..चार कदम
पैदल नहीं चल सकते | माँ-बाबूजी से मिलने ,क्या करोगे
जाकर.... रहने दो ...अब क्या पढ़ रहे हो इतनी पढ़ाई लिखाई का भी क्या फायदा ..बाबू
बनकर रह गए थोड़ी मेहनत करते तो इंजीनियर या डाक्टर होते !..
बातों में कबसे समय बरबाद कर रहे हो ।सही है , जब भी किसी से देर तक बात करनी पड़
जाती तो कान्ता एक कहावत के साथ उसे झिड़कना नहीं भूलती थी--- “घर या ‘चट्टो’(चटोर) का उजड़ता
है या ‘बत्तो’(बातूनी) का । बातों में
समय बर्बाद करने की बजाय घर के कामकाज ही देख लिया करो ।”
यह
बात अलग है कि सुबह ऑफिस जाने तक और शाम को आने के बाद रात तक शिवकुमार को कोई न
कोई काम लगा ही रहता है । चाहे वह मटर –लहसुन छीलने का हो या हर तीन दिन बाद सुबह
सुबह सारे कवर चादर उतारने और नए चढ़ाने बिछाने का हो ..छुट्टी वाले दिन तो पूरी
तरह आराम की छुट्टी रहती है । हर हफ्ते कमरे की सेटिंग बदल जाती है । भारी अलमारी
और पलंग सरकाना क्या कम मेहनत का काम है की पूरी ताकत झोंक देनी पड़ती है ।
“हर हफ्ते बदलना ज़रूरी है ?”
“सवाल मत किया करो , काम करो !”
–कान्ता किसी पुलिस सुपरिन्टेंडेंट की तरह बोलने का भी मौका नहीं देती ।
हाल
यह कि शिवकुमार को अब पत्नी की बात चुपचाप मान लेने की आदत पड़ गई है । पहले प्रेम
और सद्भाव के कारण कान्ता की बात मानता था ,अब कलह से बचने के लिये मान लेता है । उसे
गाने बजाने का शौक है । कभी हारमोनियम बजाने की इच्छा प्रबल होती है तो कान्ता
थैला सामने लाकर पटक देती है ।”
“आते ही इसे लेकर बैठ गए !...सब्जी अब्जी लानी है कि
नहीं ?”
“अभी लाता हूँ बस पाँच मिनट ।”
“पाँच नहीं पच्चीस लगाओ ,पर इसे उठाकर रख दो। ..जब देखो हा हा हू हू ...रें
रें पें पें ...”
शिवकुमार
चुपचाप हारकर हारमोनियम बन्द कर देता है .।साथ ही उसकी लालसाएं व रुचियाँ भी किसी
सन्दूक में बन्द होजाती हैं ।
नियन्त्रण
और आलोचना हमेशा ‘निन्दक नियरे….’ की तरह स्वभाव को निर्मल नहीं करती बल्कि उसके पीछे हमारे विश्वास को
कमज़ोर और सीमित करके अपनी जगह बनाने की एक सुनिश्चित योजना होती है । ऐसी जगह
जहाँ बैठकर वह निर्बाध शासन कर सके । राजनीति में सत्ता पाने के लिये ऐसा ही तो
होता है । दाम्पत्य जीवन भी कई अर्थों में राजनीति की तरह है । सत्ता हथियाने और
उसे कायम रखने के लिये संकीर्ण , निष्ठुर और स्वार्थी होना पड़ता है . जो नहीं हो
पाता वह शासित होता है जैसे शिवकुमार । अपने घर मोहल्ला और पूरे गाँव में सुन्दर
,समझदार , इंटेलीजेंट ,सच्चा और मेहनती माने जाने वाले शिवकुमार को अनपढ़ कान्ता
ने जता दिया कि उसमें कितनी कमियाँ है । एक स्त्री की शक्ति और क्षमता को मान गया
शिवकुमार .
जब
जिन्दगी का ढाँचा इतना पक्का हो जाता है तो उसे बदलना पहाड़ को हटाने जैसा असंभव
नहीं तो दुष्कर हो जाता है .शिवकुमार के लिये तो असंभव सा ही है ।
“यह तुम्हारी अतिरिक्त संवेदना और स्नेह का परिणाम है ।” –मित्र कहते हैं । पर शिवकुमार ही जानता है कि पहले था पर अब तो यह न
संवेदना है न प्रेम है । यह तो महज कलह से बचने का एक उपाय है ,वरना कान्ता गरजती ही नही है बरसती भी है वह भी मूसलाधार । अभी गरज रही थी
।
“ तो अब बात यहाँ तक आ गयी है कि भाई बहिन अपनी अलग खिचड़ी पका लेते हैं ..और
मुझे खबर भी नहीं होती ! ”
शिवकुमार
विमूढ़ सा पत्नी के सुलगते हुए तेवर देख रहा था । कैसे कहता कि जब लोगों में सच
सुनने का साहस नहीं होता , सब कुछ ठीक रखने के लिये झूठ का सहारा लेना ही पड़ता है
। हालाँकि पता तो चलना ही था । कान्ता भले ही कम पढ़ी लिखी है पर पति के एरियर
,इन्क्रीमेंट ,बढ़े हुए भत्ता और विभाग व कार्यालय की गतिविधियों का पता पूछ पूछकर
चला ही लेती है । उसके लिये खाते से पैसे निकलने की जानकारी होजाना कोई बड़ी बात
नहीं है .हाँ कब और कैसे बताना है , यह सोचना शेष रह गया था ।
असल
में सालों तक किसी दूसरे के तय किये रास्ते पर चलने का अभ्यस्त व्यक्ति किसी कारण
से ज़रा सी भी राह दिशा बदलता है तो पाँव लड़खड़ाते ही हैं । शिवकुमार के भी
लड़खड़ाए .एकदम कोई जबाब सूझा ही नहीं । अपराधी की तरह चुप रह गया । ऐसे मौकों पर पति
की खामोशी पत्नी के अधिकार भाव और रौब को और प्रबल बनाती है । कान्ता उसी प्रबलता
से वार करती रही --
“आखिर क्या सोचकर सदाव्रत सा बाँटते रहते हो ? क्या यहाँ
कुबेर का खजाना भरा है ?
“बात सदाव्रत की नहीं किसी की ज़रूरत की है ,वह भी अपनी सगी बहिन की । भागवानी
की कृपा से हमारे पास ऐसी कमी तो नहीं है कि ज़रूरत पड़ने पर अपनों की सहायता न कर
सकें ।” शिवकुमार ने तब भी संयत रहकर पत्नी को समझाने की
कोशिश की ।
“हाँ...ऊँट की गर्दन लम्बी है तो काटलो ! हमने
जिन्दगी भर का ठेका ले रखा है ?”
“ तुम तो ज़रा सी बात पर ।”
“यह ज़रा सी बात है कि मुझे पूछे बताए बिना चुपचाप घूँस सी भर आते हो ! क्यों ? ऐसा कौनसा पहाड़ टूट पड़ा उस पर ?”
“ज़रूरी तो नहीं कि पहाड़ टूटे तभी किसी की सहायता करो ,पर वह सचमुच मुसीबत
में है ।“
“ मंजू की किस्मत में आराम नहीं है तो क्या हम अपनी जान निकालकर दे दें ?”
शिवकुमार
विमूढ़ सा पत्नी को देख रहा था जो धुले बर्तनों को ठोक-पटककर अलमारी में जमा रही
थी । कुछ दिन पहले अपनी बहिन की ननद को दस हजार रुपए खुद कान्ता ने दिलवाए थे ।
भाई-भतीजों के लिये भी कुछ न कुछ भेजती रहती है . उसने छोटी बहिन को थोड़े से पैसे
दे दिये तो गज़ब होगया ..इस विचार ने शिव को कुछ उत्तेजित किया । बोला--
“
तुम जब अपनी मर्जी से खर्च करवाती हो कभी भतीजे के लिये तो कभी अपनी
बहिन के लिये , तब मैं तो कोई सवाल नहीं करता ?”
“
हाँ हाँ अब इस बात के भी ताने मारो ।”---कान्ता
हाथ में मग लिये खड़ी थी । मारे आवेश के हाथ का मग फेंका शिवकुमार बाल बाल बच तो
गया पर मग सीधा दीवार से टकराकर चूर चूर होगया ।
स्तब्ध
रह गया शिवकुमार । वृन्द कवि ने गलत नहीं कहा ---“दुष्ट न छाँड़े दुष्टता कितनों हू सुख देत ..।”
कौन
कहता है कि नारी अबला है ? कौन कहता है कि प्रेम और सद्भाव
के बदले प्रेम और सद्भाव ही मिलता है ? कहाँ हैं नारी की
दुर्दशा पर घड़ियाली आँसू बहाने वाले ? देखें कि तुम्हारी ‘अबला नारी’ कैसे पुरुष की धज्जियाँ उड़ा सकती है कि
शोषण केवल पुरुषों के मत्थे बेकार ही मढ़ दिया गया है । स्त्री भी जीना हराम कर सकती
है , कर रही है ।वह तय करती है कि पति को कब कहाँ कितनी देर साँस लेनी है ।”
“बाबूजी ! अन्दर आ जाऊँ |”–--कुछ
मिनट इन्तज़ार करने के बाद महिला अन्दर आते हुए बोली . शिवकुमार अभी उस हदसे से
निकलकर पूरी तरह अपने कक्ष में आ नहीं पाया था । साँसें तेज थीं । एक महिला की अचानक
उपस्थिति ने उसे कुछ असहज बना दिया ।
“ओह ..अब आप अन्दर आ ही गई हैं तो पूछना क्या ।”
“मैंने पहले पूछा था ..आपका ध्यान कहीं और था इसलिये आपने सुना नहीं ।”
“मेरे ध्यान को छोड़ो मैडम अपनी बात करो ..”
“हद है, मैं अपनी ही बात करने आई हूँ । शौक नही है यहाँ चक्कर लगाने का ।”
“अरे, यह खूब रही ..मेरे ध्यान पर ध्यान देने की बजाय
अपना काम बताओ ..।“
“मुझे सन् दो हजार सोलह से दो हजार अठारह तक पेमेंट का पूरा विवरण चाहिये .जी
पी एफ में मिसिंग है |”
“इसमें तो थोड़ा टाइम लगेगा ..आप बैठ जाएं या ।”
“बैठने का अवकाश नहीं है मेरे पास ..क्लास छोड़कर आई हूँ ।”
“यानी यह भी एक एहसान ..कोई बात नहीं कल आजाना ..।”
“क्या यही काम रह गया है कि ऑफिस के चक्कर लगाती रहूँ ?... कल नहीं मुझे आज ही चाहिये अभी ..।”
शिवकुमार
का दिमाग भन्ना गया । हाथ में चाबुक लिये हर कोई हवा के घोड़े पर सवार है ।
“अभी तो नहीं कर पाऊँगा मैडम मुझे और भी ज़रूरी काम हैं । आप लिखकर दे जाएं
। स्टेटमेंट कल आकर लेजाना । “
“यानी आप मना कर रहे हैं ..।”
“मैंने ऐसा तो नहीं कहा ।”
“और कैसे कहा जाता है ?”
“तो फिर मना ही समझ लें ।”–शिवकुमार न चाहते हुए भी
खीज उठा ।
“आप बेकार समय खराब कर रही हैं अपना भी और मेरा भी । अब तो सब कुछ ऑनलाइन
है । यूनिक आई डी से आप भी देख सकती हैं ।”
“नहीं देख सकती और क्यों देखूँ .आप यहाँ किसलिये बैठे हैं ?”
“कम से कम आपका रौब सहने के लिये तो नहीं ।”
“श्रीवास्तव जी , कहाँ से बोल रहे हैं ?..आपको क्या
क्या सहना पड़ सकता है आपको अन्दाज़ नहीं है ?”
“अरे मैडम बेकार ही दिमाग खराब मत करिये । न अपना न मेरा , समय होगा निकाल
दूँगा . ले जाना ..।”
“तो आप चाहते हैं कि महिला ज़रा से काम के लिये आपके आसपास चक्कर लगाती
रहे...।”
“ जो भी समझें ..।”
“ठीक है । समझ रही हूँ कि आप किन लोगों की सुनते हैं किनका काम तुरन्त करते
हैं और कैसे करते हैं ..।” रंजना दनदनाती चली गई ।
“जो समझना हो समझ लेना । हद होगई ...जिसे देखो आज सींग निकाले बैठा है । ये
मोहतरमा भी रौब झाड़कर चली गई ।” –--शिवकुमार ने अपने आपसे
ही कहा और चुपचाप की बोर्ड पर उँगलियाँ चलाते रहे .
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महीने
का अन्तिम सप्ताह । संकुल के लगभग पचास शिक्षकों के पे-बिल , सीम एम हैल्प लाइन पर
तीन चार शिकायतों के निराकरण की कवायद , प्राचार्य के अलग आदेश , ऐसे में बाबू के
साथ , जिसके पास सर्विस का पूरा विवरण , प्रपत्र और उनमें फेर बदल करने का भी अवसर
होता है , ऐसा बर्ताव कौन करता है भला ? वह
भी अकारण अपनी स्त्रीवादी संकुचित सोच के साथ , जो हर जगह तो नहीं चल सकती ना । पर
चलती है और धड़ल्ले से चलती है वहाँ , जहाँ न्याय की जगह सीधे सच्चे और संवेदनशील
लोगों अन्याय बन जाती है । दूसरे दिन प्राचार्य ने शिवकुमार को अपने कक्ष में
बुलाया ।
“यह क्या रायता फैला दिया शिवकुमार ?”
“ कैसा रायता ? मैं कुछ समझा नही सर ।”
इसके
उत्तर में प्राचार्य ने जिला शिक्षाधिकारी का पत्र सामने रख दिया । पढ़कर शिवकुमार
कुर्सी से लगभग उछल पड़ा । पत्र में शिवकुमार से रंजना के साथ की गई बदसलूकी का
स्पष्टीकरण माँगा गया था ।
“सर ! ..यह तो ..।” शिवकुमार स्तब्ध ।
“रंजना से तुम्हारा जो विवाद हुआ ..शिकायत डी ई ओ तक पहुँच गई है कि क्या
समझकर शिवकुमार ने एक महिला के साथ बदतमीज़ी की है ? वह हर
काम के पैसे चाहता है , पुरुषों का काम तुरन्त करता है जबकि
महिलाओं से खुशामद चाहता है वगैरा वगैरा ।”
“सर यह सब झूठ है ।”
“यह तुम कह रहे हो । तुम्हारी कौन मानेगा ? एक तो
मामला महिला का है ऊपर से , तुम जानते हो न कि वह...उस एक्ट में फँस गये तो चक्कर
लगाते रहोगे अदालतों के ।”
“सर यह तो सरासर ज्यादती है । क्या आप भी मानते हैं कि ..?”
“मैं तो यह मानता हूँ कि तुम उसका काम कर देते चुपचाप ..।”
“सर मैने मना नहीं किया था केवल कुछ देर बैठने को कहा था ।
“एक महिला को अपने पास रुकने को कह रहे थे तुम ।” –प्राचार्य
ने अर्थपूर्ण दृष्टि से देखा ।
“ सर !” –शिवकुमार सिर्फ इतना ही कह सका उसका दिमाग
भन्ना गया ।
“यह मैं नही ,रंजना कह रही है । उसने लिखकर दिया है ।
सच उसी के लिखे को माना जाएगा । जब तक कि तुम अपनी सफाई पेश न करो ।
“जी सफाई पेश कर दूँगा ।“ वह अकारण ही मेरे काम मैं
बाधा डाल रही थी जबकि मैंने विनम्रता से थोड़ी देर बैठने को कहा था ।”
“यही तो गलत किया शिवकुमार । रंजना जैसी महिला को मौका मत दो अपनी बेइज्जती
का ।”
“ मेरी मानो यहाँ सही गलत को बीच में मत लाओ । और मेरे विचार से माफी माँगलो
। इसमें कोई बुराई नहीं ।”
“लेकिन सर बात बुराई की नहीं ,अनावश्यक दबाब की है । मैं
भी आखिर मशीन तो नहीं ।”
तुम
लाख तर्क दो ,कोई नहीं सुनेगा..।
स्टाफ
के दूसरे साथियों ने भी कहा –-“मेरे भाई कोर्ट
कचहरी के चक्कर नहीं लगाने हों तो माफी माँगले । महिला से माफी माँगने पर कोई कुछ
नहीं कहेगा । पर उसके साथ कानूनी लड़ाई में ज़रूर तुम्हारी ही हँसी होगी । क्योंकि
सुनी मानी उसी की जाएगी ।“
वाह! अति रोचक कहानी !
जवाब देंहटाएंकहानी का नायक मूढ़ जान पड़ता है, इसका ही फ़ायदा कांता उठा रही है, उसके पिता भी शायद हद से ज़्यादा अच्छे थे। घर की परेशानी का असर उसके काम पर भी पड़ गया।