बुधवार, 18 मई 2011

मास्टरसाब

"बाबूजी , चाय...।"
मलखान की यह पुकार बाबूजी यानी सेवा-निवृत्त मास्टर माणिकलाल को उत्साह से भर देती है । सर्दियों में सुबह की शुरुआत अगर सुमित्रादेवी के हाथ की बनी गाढ़ी मलाईदार गिलास भर चाय से हो तो क्या बात है ! आत्मा तृप्त होजाती है । पतली और फीकी चाय पीना उन्हें बेकार ही मुँह जलाना लगता है । इसलिये बाहर तो वे अक्सर कह देते हैं --"क्या ? चाय ? अरे भाई मैं चाय नही पीता...।"
लेकिन आज उन्होंने जैसे मलखान को सुना ही नही । अपनी दुबली-पतली काया को रजाई में समेटे , तखत पर लेटे अपने ख्यालों में खोए थे । आजकल उनकी नींद चार बजे ही खुल जाती है । और इसके लिये उन्हें पडौसी गनपति के मुर्गे से शिकायत है । कमबख्त ठीक चार बजे इतनी जोर से चिल्लाता है मानो उसके दड़वे में डाका पड़ गया हो । फिर जो चिल्लाना शुरु करता है तो चिल्लाता ही जाता है ।
 वैसे तो वे हमेशा से ही जल्दी जागने के आदी रहे हैं पर चार बजे कुछ ज्यादा ही जल्दी है वह भी सर्दियों में ,जब सूरज उगने में एक--डेढ़ घंटा लेट होजाता है । यों उनसे पहले आसपास के कई लोग जाग जाते हैं । मावसिया भैंस दुहने निकल पड़ता है और उसकी घरवाली भैंस और बैलों के लिये कुट्टी काटने लगती है । रामचरन भाई की घरवाली झीने से अँधेरे में ही गीतों के साश चाकी चलनी शुरु कर देती है । तो देवीलाल के घर में चूल्हे से धुँआ उठने लगता है उसे पहली बस से रोज पैट्रोल पम्प पर पहुँचना होता है । चिड़ियों के जागने से पहले ही लोग जाग जाते हैं ,उनकी गलबलाहट से गली--चौपालें भी जाग जाती है । सूरज निकलने का इन्तजार यहाँ कौन करता है । उसमें तो अभी दो घंटे होते हैं ।
पर मास्टर जी भला इतनी जल्दी जाग कर करें भी तो क्या करें ? भजन--पूजा में उनका मन नही लगता । भजन भी वही गिने चुने --'दर्शन दो घनश्याम.'... या 'साँवरिया रे अपनी मीरा को '...आदि, रोज गा गाकर ऊब गए हैं । वैसे भी अपनी सन्तुष्टि के लिये कोई कितना गाएगा ! दो-चार सुनने वाले संगीत रसिक हों तो गाने में भी आनन्द आए ।  पास में कोई और बोलने--बतियाने वाला है नही ।
दोनों सन्तानें  ,उर्मि और गिरीश , अपने--अपने रास्तों पर चले गए हैं । गिरीश ओवरसियर बन कर शिवपुरी और उर्मि अपनी ससुराल मुरैना । हालाँकि जब से उर्मि की नियुक्ति पास ही बिलौआ के मिडिल स्कूल में संविदा शिक्षक वर्ग दो पर हुई है वह कभी--कभी मुरैना न जाकर यही आजाती है , पर अब वह मेहमान जैसी ही तो है । और  सुमित्रादेवी को तो अपने रोजमर्रा के रागों से ही फुरसत नही है । हाँ सुमित्रा के अलावा मलखान जरूर सुबह तडके से संझा-बाती तक उनके साथ रहता है ।
मलखान उनके बँटाईदार गोरे काछी का इकलौता बेटा है । गाँव में बीस साल की नौकरी , गाँव वालों के व्यवहार व आग्रह तथा पर रिटायर होने के बाद मास्टरजी इसी गाँव में बस गए हैं । पैतृक गाँव शेखूपुरा में वैसे भी रहने-बसने लायक कुछ रह नही गया था । माँ तो बचपन में ही चली गई थी । बड़े भैया भी नही रहे । बची हैं केवल लाचार सी जसोदा भाभी और मनमौजी और शराबी भतीजे । क्वांरी नदी के किनारे बसा यह गाँव यों तो मास्टर जी की ससुराल भी है । पर बूढ़ी सास के अलावा वहाँ और कोई नही था । वह भी पिछले साल भगवान को प्यारी होगई । सुमित्रादेवी गाँव की बहन-बेटी हैं और मास्टरजी बहनोई व दामाद । तीज-- त्यौहारों पर उनका वैसा ही मान रखा जाता है । पर मास्टरसाब हैं अपने तरीकों व विचारों से जीने वाले आदमी । सास की कुछ जमीन है । चार--पाँच बीघा जमीन खुद भी खरीद ली है । जिसकी देखभाल गोरे ही करता है ।
गोरे अनपढ़ होकर भी चतुर और बुद्धिमान है ।उसे पता है कि मास्टरजी को फीस नही बच्चे में सीखने की लगन और सेवाभाव चाहिये । सो मास्टर जी की सेवा में छोड़ रखा है । मलखान भी महादेवी वर्मा के घीसू से कम नही । बोलता बहुत कम है पर बाबूजी की आँखों के इशारे पर चलता है उनकी सेवा में कसर नही रहने देता । सो बाबूजी उसे पढ़ाने में काफी मेहनत कर रहे हैं ।
बाहर से सूखी बर्फीली हवा हवा का एक झौंका आया और हड्डियों तक को कँपकँपा गया । कुन्दन ने इस बार रुई को ठीक से नही धुना इसलिये महीना भर में ही रजाई की रुई बिखर गई है । बीच-बीच में पिल्ले पड़ गए है ।और सर्दी किसी घुसपैठिये की तरह अन्दर आजाती है । आजकल उन्हें अकेलापन भी ज्यादा महसूस होता है । अकेलेपन का सम्बन्ध विचारों से ही अधिक होता है । दिसम्बर--जनवरी की कँपकँपाती ठंड में रुई के पिल्लों वाली रजाई में दुबके मास्टर जी ऐसे खाली समय में अक्सर अपने विगत को याद करते हैं । वर्तमान में जब  खालीपन महसूस होता है तब मन अतीत की ओर दौडता है ।
'वह भी क्या सुनहरा समय था ! सारे काम उनके हिसाब से होते थे । उनकी रुचि के ही.। कलाओं से भरेपूरे लोग..। ढोलक और हारमोनियम के साथ गुम्मत में जोग ,यमन, देस ,पूरिया, धनाश्री ,गूजरी तोड़ी ..जाने कितने रागों पर आधारित पक्की चीजों को गाते रात कब बीत जाती थी पता ही नही चलता था । न गाने वाला थकता था न सुनने वाला ऊबता था । कोई न कोई संगीत-रसिक ---"वाह...वाह ,क्या बात है ...!" कहकर उत्साह बढाता रहता था । महीने में दो--चार बार तो गुम्मत होनी ही थी । एक बार की गुम्मत को तो भुलाया ही नही जा सकता, जो सावन--भादों में क्वांरी नदी की बाढ में बहती हुई नाव पर हुई थी । आहा ,कैसा जुनून था ! कैसा रोमांचक दृश्य  ! चारों तरफ बाढ़ का नर्तन और उसमें नाचती हुई नाव में से उठती संगीत की निर्भय मधुर सुर-लहरियाँ.। कौतूहल से भरे लोग किनारों पर खड़े इस अद्भुत दृश्य को देख रहे थे । जैसे आकाश में भगवान की लीलाएं देखने व फूल बरसाने देवता खड़े होजाते हों ।
उन दिनों गाँव में बड़े कलाप्रेमी लोग थे । दशहरा ,दिवाली ,होली ,गणेश-उत्सव या और कोई अवसर होता ,सरपंच काका तुरन्त कलाकारों को बुलवा लेते । बड़ी बात यह थी कि तब कलाकार अपने आनन्द और सम्मान के लिये काम करते थे । पैसा कमाना मुख्य नही था सो बुलावा पाकर आ भी जाते थे । नौशे , बशीर , अजमेरी ,नन्दलाल ,लालपति आदि ऐसे ही अनूठे कलाकार थे । मास्टरजी खुद अपने समय में जितने संगीत रसिक थे उतने ही अभिनय-प्रवीण थे । आवाज बारीक और सुरीली थी सो द्रौपदी सीता यशोधरा आदि महिला पात्रों को अपने अभिनय और गायन से जीवंत कर देते थे । यों हँसते गाते बीतता समय जैसे आसमान में उड़ता विमान होजाता था ।
कलाकारी के साथ वैदगिरी में भी मास्टर जी ने खूब यश और सम्मान पाया था । मजे की बात यह कि जिस तरह उनका पढ़ाने का काम केवल स्कूल में ही कुछ घंटों तक सीमित नही था ,उसी तरह इलाज के लिये भी वे कही भी, कभी भी उपलब्ध रहते थे । इलाज गोलियों से कम और आसपास लगे पेड़--पौधों से से ज्यादा होता था । आज भी वे नाड़ी पर हाथ रख कर बता देते हैं कि वात कुपित है या कफ या फिर पित्त । बुखार किस किस्म का है और जिसके इलाज के लिये दवा से अधिक परहेज जरूरी है । और बच्चों को पढ़ाने में तो मास्टरसाब का कोई सानी रहा ही नही । केवल नाम के ही नही वे दिल-दिमाग से शिक्षक ही रहे हैं । और आज भी रिटायर होने के दस साल बाद भी वे सौ फीसदी शिक्षक ही हैं ।
..चर्रर...चूँ...---मास्टरसाब ने बेचैनी के साथ करवट बदली तो पुराना तखत बोल उठा । सुमित्रा जब भी यह सुनती है ,निर्देश देना नही भूलती ---"कितनी बार कह चुकी हूँ कि रामदयाल को बुला लाओ । कीलें ढीली पड़ गईं हैं . वह ठोक--पीट कर ठीक कर देगा ..। पर जाए कौन । यहाँ तो कुल्ला करने को भी पानी का लोटा हाथ में चाहिये और वश चले तो मंजन-दातौन पलंग पर ही करें ।"
"मलखान से कहदो न वह हाल बुला लाएगा ।"
"क्यों ! तुम क्या कर रहे हो बैठ--बैठे..? मलखान को और भी कई काम हैं ।"
जलती हुई तीली का काम अगर जुबान से लेना सीखना हो तो कोई सुमित्रा देवी से सीखे । बिना तानों--उलाहनों के बात नही करती । बात को जरा तरीके से नही कह सकती ?
"मुझे न तो वह तरीका आए और न बैठे--ठाले ख्याली पुलाव पकाने का और डींगें हाँकने का कोई शौक है । बिना हिलाए हाथ-पाँवों में जंग लग जाती है ।"--सुमित्रादेवी कुढ़कर कहती हैं ।
मास्टरजी जब कभी हल्के--फुल्के मिजाज में होते हैं तब पत्नी की बातों को उसी तरह सुनते हैं जिसतरह कोई अबोध बच्चे को सुनता है । दुगने जोश में भर कर कहते हैं---
"भई हमने सैकड़ों बच्चों को काबिल इन्सान बनाया है । कितने ही डाक्टर, थानेदार ,वकील ,इंजीनियर अपने शिष्य रह चुके हैं.। और आप हैं कि रामदयाल का रोना लेकर बैठी हैं । हँ..हँ..। अब तुम कहो कि थैला लेकर भिण्डी तोरई खरीदने जाऊँ तो वह नही होगा । हाँ किसी को पढ़वाना हो तो हमसे बात करो । वह तो सरकार ने जल्दी छुट्टी दे दी वरना ..। तुमने देखा नही कि कैसे लोग फेंटा ,गमछा रख देते हैं पैरों पर आज भी । बाहर के लोग कीमत समझते हैं मेरी ..। कहते हैं न कि---घर का जोगी जोगना ,आन गाँव का सिद्ध..। सुमित्रादेवी  काम का उलाहना देते समय भूल जाती हो कि मैं आज भी पचास बच्चों को पढ़ा सकता हूँ ..।"
"अब तुम्हारे पुराने तरीकों से कोई नही पढ़ना चाहता ।"
"न चाहें तो अपना नुक्सान ही कर रहे हैं । उचित तो हमेशा हमारा ही तरीका रहेगा सुमित्रादेवी....बिना पक्की नीव के मकान मजबूत नही बना करते , समझी..!"
"बस ,अपना बखान करते रहने का ही एक काम रह गया है और कुछ नही "-- सुमित्रा देवी कुढती हैं--"रोटी तो खाओगे कि वह भी नही.?"
"अजी तुम भी क्या याद करोगी , हम खाना खाएंगे ही नहीं । तुम भी आराम से बैठो ।"--मास्टर जी राजपूताना शान से कहते हैं ।
गली में चलते--चलते लोग मास्टरसाब की बातें सुन कर रुक जाते हैं । तब सुमित्रादेवी को ही अन्दर जाने में भलाई लगती है ।
"ऐसे आदमी से कौन मुँह जोड़े...चौबीसों घंटे बुलवा लो ,बस ।.. इसमें कौन हाथ--पाँव हिलाने पड़ते हैं । स्कूल में पढ़ाने के अलावा किया ही क्या है ! घर में तो गिलास इधर से उधर नही रखा । नौकरी से छुट्टी मिलने के बाद बस तखत पर बैठे चार लोगों डीगें हाँकते रहते हैं । बैठक की हालत देखी है , जब देखो अधजली बीड़ियों के ढेर लगे रहते हैं । ..जाले लगे हैं । तकिया चीकट हो रहा है । गद्दा फटकारो तो में पावभर धूल निकलेगी ..। अपने काम तो आदमी कर ही सकता है पर नही...। छठे--चौमासे कभी काम कर भी देते हैं तो सुभानअल्ला....कपडों पर प्रेस बैठे तो कुरता जला लिया । बीज के लिये चने मँगाए तो आधे थोथे निकले । आलू टमाटर आधे सड़े , बस पढ़ाना , पढ़ाना "---- सुमित्रा देवी मन ही मन खूब भुनभुनाती हैं ।
" मास्टर भी कोई ऐसा होगा कहीं ? दुनिया पहले अपना घर और बाल--बच्चों को देखती है । अगर मैं घर को नही सम्हालती तो कर लेते मास्टरी ऐसे मौज-मौज में ? कभी सोचने की भी जहमत नही उठाई कि लकड़ी कैसे आती है । गेहूँ कौन पिसवाता है । साग--भाजी की व्यवस्था कहाँ से होती है । कि स्कूल में बच्चों को क्या-क्या दिक्कतें आती हैं । सिवा बातों के और स्कूल में पढ़ाने के इन्होंने तो किया ही क्या है आज तक ?"
सुमित्रादेवी जब ऐसे तर्क करती हैं तब मास्टर माणिकलाल जी को पूरा यकीन होजाता है कि उनकी पत्नी में समझ की कमी है । तभी तो वह नही समझपाती कि उन्होंने नौकरी कितने सम्मान के साथ की है । भला आसपास ऐसा कौन होगा जो उनके पढ़ाने का प्रशंसक न हो । उनका काम ही ऐसा था । छह महीने में ही बच्चे को किताब पढ़ना , गिनती-पहाड़ों के साथ जोड़ बाकी करना न सिखा दिया तो मास्टर माणिकलाल नाम नही । लोगों को पक्का विश्वास था कि जो पाँचवीं कक्षा तक उनसे पढ़ लिया समझो बन गया । आगे पढ़ने से उसे कोई रोक नही सकता । उनके स्कूल में हर बच्चा दूसरी-तीसरी कक्षा में ही ऐसी इबारत लिखता था कि लोग देखते रह जाते । एकदम मोती से अक्षर । सुलेख पर वे सबसे पहले ध्यान देते थे । और गलतियाँ एक-दो मिल जाएं तो बड़ी बात समझो । .पढ़ाई के साथ--साथ दूसरी गतिविधियाँ----खेल, भाषण, निबन्ध गीत--कविता ,नाटक आदि प्रतियोगिताएं भी चलतीं रहतीं थी । और अनुशासन ऐसा कि अगर मास्टर जी को आने में देर भी होजाती तो कक्षाओं के मॅानीटर ही सारी व्यवस्था कर देते थे ।राष्ट्रगान-गायन , इबारत ,गिनती--पहाड़े ,वाचन---पाँचों कक्षाओं को कुछ न कुछ काम दे दिया जाता था । कोई कह नही सकता था कि स्कूल में मास्टर नही है । इस बात पर खुद डी.ई. ओ. साब उनकी पीठ ठोक कर गए थे । सो अपने बच्चों को पढ़वाने के लिये लोग मिन्नतें करते थे । ...तो भैया , इज्जत यों ही रास्ते में पड़ी नही मिल जाती ।
 सुमित्रादेवी क्या समझें इन बातों का मरम .....!"
मास्टर जी खाली समय में तखत घेर कर आ बैठे लोगों को यह सब सुनाते रहते हैं और लोग भी सुन कर गद्गद् हो उठते हैं ।
"सत्त बात है , सत्त बात है "--
"आजकल ऐसी पढ़ाई कहाँ मिलती है। अब तो दसवीं पास बच्चा ठीक से चिट्ठी तक नही पढ़ पाता ..। न ऐसे मास्टर रहे न वैसे बच्चे..।"
"इसमें बच्चों का कोई दोष नही है हाकिम भाई !"---मास्टरसाहब हाकिम गौड़ की बात पर उत्तेजित होकर बोले--" बच्चे तो आज भी वैसे ही हैं । इसमें  कुछ दोष तो सरकार का है । और बाकी सारा शिक्षकों का । सरकार बिना सोचे समझे नियम बना रही है पर भाई साहब ! शिक्षक भी तो अपना काम पूरी ईमानदारी से नही करता ।  मैंने जब नौकरी शुरु की थी तब शायद तनखा के पन्द्रह-बीस रुपए मिलते थे । सूखी दाल रोटी के भी लाले थे । पर पढ़ाई में कभी कमी नही आने दी । अब तो सरकार ने दशहरा--दिवाली की चौबीस-पच्चीस दिन की और क्रिसमस की आठ दिन की छुटिट्याँ रद्द करदीं हैं , पर हमारे समय में होतीं थी तब भी मैं अपना स्कूल खोलता था । चिन्ता रहती थी कि कहीं फुलवारी सूख या उजड़ न जाय या बच्चे पढ़े-पढ़ाए को भूल न जाएं ।
"मास्टरसाब और सुनाओ बड़ा आनन्द आता है आपकी बातों में "---लोगोंके ऐसे आग्रह से उनका उत्साह बढ़ जाता है और आवाज में जोश---
"  सुना है जब गुरुजी नया गाँव पढ़ाने जाते थे , बीच में नदी पड़ती थी । पुल था नही । बरसात में तीन--तीन दिनों तक बाढ़ नही उतरती थी , पर तैरकर भी  माड़साब स्कूल पहुँचते थे । कुरता धोती को लपेट कर एक हाथ में लेते और एक हाथ से तैर कर नदी पार करते ." --रमले खेत पर जाते जाते रुक जाता है . नया गाँव में वह इनका विद्यार्थी रह चुका था .
" और भैया, पढ़ाई क्या केवल स्कूल में होती थी ? जहाँ बच्चे दिख गए वहीं गुरुजी के सवाल-जबाब शुरु होजाते थे कि देखो आम का पेड़ किस दिशा में है । कि देखो क्षितिज ...जहाँ धरती आकाश मिलते हुए दिखाई देते हैं ..।" 
ऐसे प्रसंगों से मास्टर साहब का उत्साह बढ़ जाता है .
" हाँ तो असली पढ़ाई कमरों में बैठकर नही होती  । सो भैयाजी ! मास्टरी में जो आनन्द तब था अब कहाँ !
एक बार कैमारा के किसना जाटव ने चुनौती दी थी कि असली मास्टर तो हम उसे मानें जो हमाए ठसबुद्धि दाताराम को पढना सिखादे । बस किसना की बात लग गई । जब तक किसना के सात साल के बेटे दाताराम को स्कूल नही बुलवा लिया ,  डर से नही खुशी से ,  मुझे चैन नही मिला था । भैया वही दाताराम  आज पुलिस अधिकारी है । जब भी ,जहाँ भी मिलता है , पैरों में झुक जाता है .।"
 "इसी तरह बडागाँव के अक्खड़ करतारा को जिससे गाँवभर के लोग खौफ खाते थे , झुकने पर मजबूर कर दिया । वह जानबूझ कर अपनी बकरियाँ स्कूल की फुलवारी में छोड़ देता था । और टोकने पर लड़ने आमादा हो जाता था । पर मास्टर क्या डरने वाला था । करतारा को साफ कह दिया कि बकरी ने अगर स्कूल के अन्दर पाँव रखा तो टाँगें तोड़ दूँगा । तब गाँव वालों ने करतारा को ही समझाया कि मान जा भाई मास्टरसाब बड़े जिद्दी और धुन के पक्के हैं । अगर यहाँ से चले गए तो अपना ही नुक्सान होगा । बस दूसरे दिन वही अनपढ़ करतारा खुद 'बकरी' बना हुआ था  ।
"इतना रुतबा और मान यों ही नही मिल जाता । सुना तुमने सुमित्राजी !"
"बैठा--ठाला बनिया क्या करे । कुछ नही तो खाली सेर-बाँट ही तौले । जुबान के साथ कुछ हाथ--पाँव भी चलते रहें तो क्या बुराई है ।"
 सुमित्रादेवी जब-तब जैसे खीर में नमक डालती रहतीं हैं ।
मास्टरजी का जायका बिगड़ जाता है एकदम । सेवाकाल में मिला सारा मान-सम्मान सुमित्रादेवी की उपेक्षा की आँधी में उड़ जाता है सूखे पत्ते सा ...।
"बाबूजी चाय"
मलखान ने फिर से पुकारा तो मास्टरसाब के विचारों का धागा झटके टूटा और बेमन ही मलखान को देखा । आज उसके चाय लाने पर मास्टरजी प्रसन्न नही हुए । लगा जैसे आपस की किसी जरूरी तकरार के बीच में कोई पड़ौसी दो गाँठ प्याज माँगने आगया हो । यह सुमित्रा तो खुद चाय लेकर कभी आती ही नही है । न कभी पास बैठ कर बोलती बतियाती है । क्यों रोज मलखान के हाथों बैठक में ही चाय भेज देती है ? क्या उनका मन नही होता कि वे चौका में बैठ कर चाय पियें ? सर्दियों में चूल्हे के सामने बैठने का आनन्द वही जानता है जो कभी फुरसत में अलाव पर लकडियाँ बुझने तक , राख को कुरेदते हुए बैठा बतियाया हो या  सुदूर अतीत, से भविष्य तक की अन्तर्यात्रा की हो ।
सर्दियों में चौका में बैठ कर तापना मास्टर जी का सर्वाधिक प्रिय शौक रहा है । साथ में भूनने के लिये शकरकन्द या मूँगफलियाँ हों तो क्या बात है ! हाँ सुमित्रा को इसमें हमेशा ऐतराज होता है । पति अगर चूल्हे से पाँव टिका कर बैठे तो  नाराजी और गाँव के सरपंच भैया , या सिकट्टरी काका आ जाएं तो हँस-हँस कर चाय पिलाएगी । यह मायके में रहने का ही फल है ।
"लेकिन वह हमेशा कठोर रहे ऐसा भी नही है। बस बोलने में ही थोड़ी.... "--- मास्टर जी की सोच की दिशा जल्दी बदल भी जाती है । उन्हें पत्नी की सिर्फ अच्छी बातें याद आतीं हैं । अब मायके में रहेगी तो उसी तरह चलना ही पड़ेगा न । फिर उनके लिये तो कोई कमी नही होने देती । कोई भी परेशानी होती है तो कैसे तत्परता से दूर करने में जुट जाती है सुमित्रा । खुद खाने की बजाय उनकी चाय में कैसी मोटी मलाई पटक देती है । और रोटियों पर घी चुपड़ती नही सीधे डिब्बे से उँडेलती है । फिर रोटी को दबा--दबा कर सारा घी समा देती है ।
"उर्मि की माँ ! क्या यह घी की फिजूलखर्ची नही है ? छह रोटियों का घी एक ही ..?"
"तुम चुपचाप नही खा सकते ?"----सुमित्रादेवी ऐसे में कहाँ बोलने देती है ।
मास्टर जी उस आत्मीयता की स्मृति से पुलकित हो उठे । मन में आया कि आज चौका में बैठकर ही चाय पियेंगे ।उनका भी तो फर्ज है कि वे पत्नी के पास बैठ कर घर की समस्याओं को सुनें और दूर करें । घर की तरफ देखना उन्होंने कभी जरूरी नही समझा ,यह ठीक है क्या ।सुमित्रा की नाराजी उचित ही है ।
"तेरी भुआ क्या कर रही है मलखान ?"
"बहनजी से बात कर रहीं हैं "---मलखान ने चाय का गिलास मास्टर जी को पकड़ाते हुए बताया ।
"क्या उर्मि आई है ?"--मास्टर जी एकदम उत्साहित हुए । उर्मि के आने पर घर में चहल--पहल हो जाती है । रसोई जैसे आबाद होजाती है ।  एक वही तो है जो उनके पसन्द की चीजें बना देती है । मँगौडे , गुलगुले , दहीबडे खीर मालपुआ ,बथुआ की कढी ,तिल--बाजरा की मीठी टिकिया...। बिना किसी आलस या तनाव के । सुमित्रादेवी हार मान जाती हैं बेटी की पाककला के आगे । 
उर्मि आई है तो आज कुछ 'इस्पेसल' बनना चाहिये...।
लेकिन दूसरे ही पल मास्टरजी की उमंग बुझ सी गई । शादीशुदा बेटी घर में कब आती है ,कब चली जाती है , पिता को पता ही नही चलता । यह तो गिरीश से भी चार कदम आगे है । दोनों भाई--बहन अपनी माँ के पास ही घुसे रहते हैं ।
"रात में लेट बस आई थी सो...आप शायद सोगए थे ।"--मलखान एकदम चलने खड़ा था । बहनजी के लाए कपडों और मिठाई पर उसका ध्यान लगा था पर मास्टरजी उस पर बरस पडे--"अरे ,सो रहा था तो क्या , जगा नही सकती थी ? पर लड़की का मन ही नही होता कि दो पल पिता से भी आकर मिल ले ..।"
मास्टर जी की सोच जब नकारात्मक होती है तो फिर होती चली जाती है ।
" माँ ने भी कभी बच्चों को नही सिखाया कि पिता की जगह भी माँ के बराबर होती है । यह तो माँ का काम है कि वह पिता का आदर करना सिखाए । पर पिता से तो वे मन मार कर बस औपचारिकता वश मिल लेते हैं ,कि काकाजी कैसे हो ,कोई तकलीफ तो नही है ...बस संवाद खत्म..। ...अरे तकलीफों की पूछो तो पचास तकलीफें हैं । कमजोरी आती जा रही है । खून की कमी होगई है । अकेले राम बैठक में पड़े रहते हैं । प्रेम बाजपेई और रानू के उपन्यास पढ़कर समय काटते रहते हैं । धूप चाहिये तो अपना खटोला आप ही चबूतरा पर डाल लेते हैं और आप ही अन्दर ले जाते हैं ।चार आवाज लगाओ तब एक लोटा पानी मिलता है । कोई एक परेशानी थोड़े ही है ।"
"तो फालतू कौन बैठा रहता है ?"--सुमित्रादेवी जानती हैं कि ये सारी बातें उर्मि और गिरीश को नही उन्हें सुनाई जारही हैं । फिर तो सुमित्राजी भी उनके पूरे दोष गिना देतीं हैं कि," कभी बच्चों को दुलारा--पुचकारा जाता, छाती से लगाया होता तो बच्चे दिल से जुडते । "
"अब इस स्त्री को कौन समझाए कि बाप ही बच्चों को दुलराने बैठ जाएगा तो उन्हें क्या खाक पढ़ाएगा । माना कि माँ घर चलाती है पर उसे चलाने के लिये रुपया-पैसा लाता कौन है ?" कैसे गिरीश ओवरसीयर होगया ? उर्मि मास्टरनी बन गई ? अगर वो सख्ती नही करते , बडे भैया की तरह दुलारते रहते तो क्या पढ़ पाते बच्चे ? जसोदा भाभी को ही देखलो । बेरोजगार और शराबी लड़कों की कारगुजारियाँ देखकर आठ-आठ आँसू रोतीं हैं । सुमित्रादेवी !  तंगी के दिनों में कौन पाँच--पाँच मील दूर से साइकिल पर लकडियाँ लाद कर लाता था ताकि लकड़ी चार--छह रुपए सस्ती मिले । जो गट्ठर वहाँ दस रुपए का मिलता था , सहरनी यहाँ पन्द्रह--सोलह रु. का देती थी । बचत के लिये ही तो वे बस से जाने की बजाय बाजार साइकिल से जाते थे । बच्चे क्या यों ही पढ़ा लिये मास्टर माणिकलाल ने । पर सुमित्रादेवी क्या समझेंगी और क्या समझाएंगी बच्चों को ।. दो कदम चल कर पिता को चाय देने तक भी नही आई उर्मि । पौने आठ होने जारहे हैं । क्या अभी तक माँ से बतियाना चल रहा है ? क्या एक बार उसे आना नही चाहिये था ?"
" खैर जब उसी को पिता से मिलने की चाह नही तो वह भी क्यों परवाह करें ।" उन्होंने निरपेक्ष होकर सोचा । चाय का सारा मजा जाता रहा ।
पर मास्टर जी निरपेक्षता के भाव को देर तक कायम नही रख सकते । रसोई में से ठहाके निकल कर गली तक बह रहे थे ।
" जरूर कोई दिलचस्प बात होगी ।"-- उन्हें ऐसा लगा मानो किसी बच्चे के हाथ से मेला जाने का अवसर छूटा जारहा हो । बस चाय को आधी बचा कर रसोई की ओर चल पड़े । उर्मि बच्ची है नासमझ है । भूल गई होगी । नही आ पाई तो क्या । क्या वह खुद नही जासकते । अपने घर में अपने ही बच्चों से कैसा अभिमान...। वैसे भी वह अब इस घर में मेहमान है ।
लेकिन वात्सल्य की यह लहर एक बार फिर विलीन होगई जब उन्हें देखते ही चौके में चुप्पी छागई .
उर्मि ने उन्हें देख कर बस इतना ही कहा --"अरे काकाजी ! चाय पी ली ?"---और फिर माँ को अपने स्कूल की कोई बात बताने लगी । मास्टर जी आँगन में खड़े इन्तजार करने लगे कि कब माँ--बेटी दोनों उनकी उपस्थिति को महत्त्व देतीं है । वे दो मिनट मास्टरसाब को दो घंटे लगे । पत्नी और बेटी की यह बेदिली उन्हें अखर गई । मन हुआ कि लौट चलें पर नही ...सुमित्रादेवी को ध्यान देना ही पड़ेगा ।
दूसरे ही पल मास्टरजी का चेहरा ऐसा होगया मानो हफ्तों से बीमार हों । हल्की सी कराह भी निकली जैसे कोई अंग दुख रहा हो पर माँ--बेटी दोनों ही थीं कि बातों में मशगूल थी । एक बार भी पूछना जरूरी नही समझा कि क्या तकलीफ है । अब कोई पूछे तभी तो बताएं कि बड़ी गहरी और तकलीफदेह बात है जो आदमी को खोखला बना कर रख देती है और वह है अपनों की बेध्यानी । खासकर सुमित्रादेवी की बेध्यानी ।
"आज चाय में मजा नही आया । कुछ फीकी थी या फिर...।"---मास्टर जी ने सुमित्रादेवी की ओर लक्ष्य करके कहते हुए ऐसा मुँह बनाया मानो शक्कर की जगह नमक फाँक गए हों ।
"अरे काकाजी ! तो बता देते ,मैं शक्कर डाल देती । लाइये दूसरी चाय बना देती हूँ ।" ---उर्मि ने अपनेपन और कोमलता से कहा ।
"अरे बेटी तू कब आई ? अच्छा हुआ..।" मास्टर जी ने जैसे अभी उर्मि को देखा हो । उसकी तत्परता देख उनका मलाल कुछ कम हुआ । पर बीच में ही सुमित्रादेवी ने सुलगता हुआ सा तीर छोड दिया--- "आज की चाय ?फीकी ?...हमें तो नही लगी । क्यों उर्मि..?"
बात सहज होते हुए भी सहज नही थी । मास्टरसाब ने माँ-बेटी के संवादों में जो रुकावट डालने की कोशिश की थी उस पर सीधा कुठारा घात किया सुमित्रादेवी ने । बात के उद्देश्य को जान कर भी अनजाना बना कर काट दिया । मानो उनकी बात को झुठलाना ही सुमित्रा का एकमात्र धर्म हो । वह भी खासतौर पर दूसरों के सामने । पत्नी के ऐसे वाक्य मास्टर जी को अन्दर एक झुलसा देते हैं । तिलमिलाकर बोले--- "यानी कि मैं झूठ बोल रहा हूँ । एक पाँच सौ का नोट दूँगा अगर कोई माई का लाल साबित करदे कि चाय फीकी नही थी ।"
इसके साथ ही उन्होंने गिलास को जमीन पर दचक दिया । स्टील का जो था ।
"अरे काकाजी , आप भी किसकी बात सुन रहे हैं !...मैं आपके लिये बढ़िया अदरक-इलायची वाली पेशल चाय बनाती हूँ ।"----उर्मि ने पास आकर पिता को समझाया । जैसे कोई रूठे हुए बच्चे को ढेर सारा श्रेय देकर समझाता है ।
"और अब माँ की बात छोड़िये , मैं हूँ न ?" आप तो मुझे यह बताइये कि आज आप क्या खाना पसन्द करेंगे --आलूबडा, भजिये ,समोसे , हलवा ,...।"
उर्मि ने मन खुशकर दिया । बोले---"भाई बेटी हो तो उर्मि जैसी..। 
 अब उनके मन में पत्नी के प्रति भी कोई शिकायत या कडवाहट नही है । बल्कि मधुरता का भाव है ।  वह नाराज सी बैठी है । मास्टर जी खुश हैं तो फिर सुमित्रादेवी नाखुश क्यों रहें भला ? बल्कि उसका खुश होना निहायत ही जरूरी है । अच्छे भाव ,दूसरों में भी अच्छे भाव ही पैदा करते हैं न ? लगे हाथ पत्नी की भी तारीफ कर डाली ।  बोले---
"बेटी तू तो है ही पर तेरी माँ जैसी स्त्री भी दूसरी नही देखी मैंने ...। मेरा बहुत खयाल रखती है बेटी । मैं जो कुछ हूँ इन्ही की बदौलत हूँ । समय पर चाय दूध, खाना ..। जब मेरी टाँग का आपरेशन हुआ था तब महीना भर इन्होंने ही टट्टी--पेशाब उठाया । इसके बदले मैंने क्या दिया है भला..।"
यह कहते हुए वे बराबर पत्नी के चेहरे को पढ़ते रहे । कैसी कठोर स्त्री है । तारीफ सुन कर भी खुश नही हुई ।
"अरे , काकाजी माँ की तारीफ बाद में ,पहले बताइये खाने में क्या बनाऊँ ।"--उर्मि ने पिता के कन्धे पर दबाब दिया । उर्मि की ऐसी आत्मीयता देख उनमें बच्चों का सा उल्लास जागा---" तो ठीक है ,आज भरवाँ बैंगन , मट्ठा के आलू या फिर अदरक लहसुन और टमाटर वाली , उडद की चटपटी दाल और बाजरा के करारे टिक्कर घी में डूबे...मजा आजाएगा ।"
लेकिन उल्लास में अगर सुमित्रादेवी शामिल न हो तो मास्टरसाब का उल्लास अधूरा है । सो उन्होंने सुमित्रादेवी से पूछा---"तुम क्या कहती हो ?"
"किस बारे में ?"--सुमित्रादेवी कुछ उदासीनता के साथ बोली ।
"लो ...उर्मि ! सारी रामायण होगई और इन्हें पता नही कि हनुमान कौन हैं ।--मास्टर जी उसी उल्लास में भरे हुए बोले----" अरे भाई , आज के खाने के लिये जो प्रस्ताव बना है उसमें गृह-मंत्री की सहमति तो चाहिये ।"
"मुझे क्या पता ?"---सुमित्रा निरपेक्ष भाव से बोली---"घर में कोई सब्जी तो है नही । लेने खेतों पर जाना पडेगा । मेरे तो पाँव टूट रहे हैं ।"
एकदम दिलफटी बातें कर देती है सुमित्रा । अरे प्रेम से कहे तो सब्जी खेत से क्या , बाजार जाकर ले आएंगे मास्टर माणिकलालजी । कोई बड़ी मुश्किल वाली बात है क्या..। पर असल बात सब्जी की नही , उनकी खुशी में , उनके प्रस्ताव में शामिल न होने की है । कैसी रूखी औरत है । अड़ियल । कुत्ते की पूँछ जैसी । हमेसा बेमौसम का राग अलापती है । मास्टरजी का जी उचाट होगया । झल्ला कर बोले---
"और जो गाँव में चार--चार चक्कर होते हैं ,कभी इस चाची के यहाँ तो कभी उस भाभी के यहाँ तब पाँव नही दुखते । साली कोई इज्जत ही नही है अपनी । गाँव के छुट्टन धोबी या कुन्दन कड़ेरे की पूछ हो सकती है पर मास्टर माणिकलाल की नही । जब स्कूल में था तब लोग पाँव धो धोकर पीते थे । पर आज ...।वह तो सरकार ने रिटायर कर दिया वरना कौन अपनी इतनी बेइज्जती सहता जी...।"
"हओ, बस जेई बातें हाथ में रह गईं हैं । न अपनी बात का ख्याल है न औरों की । लड़की घर आई है और इन्हें चोंचले सूझ रहे हैं ।"
"बस ! ....और अपमान नही "--मास्टर जी ने छड़ी उठाई -- "अब हम खाना खाएंगे ही नही ।"-- और तनतनाते हुए बैठक में चले गए । उर्मि पिता के यों चले जाने से दुखी होगई । पर उन्हें मनाने गई तो उलटे पाँव लौट आई । उन्होंने साफ कह दिया कि अब वे इस घर में एक कौर ग्रहण नही करेंगे । यही नही अब वे अपने पैतृक गाँव शेखपुर चले जाएंगे । यहाँ रह कर बहुत अपमान सह लिया । उर्मि बेटी तू तो अब इस घर में केवल मेहमान है । इसलिये मेरी चिन्ता करने की जरूरत नही । उर्मि की आँखें भर आईं । माँ पर बरस ही पड़ी---
"माँ तुम भी खूब हो । हर समय बाण चढाए रहती हो । भला क्या जरूरत है इतनी कड़वी कसैली बातें करने की ?"
"अरे कुछ नही । इनकी बातों को सहती भी तो मैं ही हूँ । इन्हें तो पता ही नही है कि घर कैसे चल रहा है । घर में क्या नही है ,. कब कौनसा काम करवाना है ,कोई जरूरत नही जानने की । बस बैठे--बैठे बातों के किले बनाते रहते हैं । बरसात में धौ की गीली लकड़ियों को टाँकी--हथौड़ा से फाड़--फाड़ कर धुँआ खाते-खाते कैसे रोटी बनाती हूँ । लक्खू के द्वार पर लगे हैंडपम्प से पीने का पानी लाती हूँ । कभी उनके भरोसे काम नही छोड़ती ..। वह नही दिखता ?"
"तुम्हारी सारी बातें सही हैं  ,पर माँ ऐसे लट्ठ मार कर खिलाओगी तो किसको लगेंगी तुम्हारी रोटियाँ ..!"
"अरे तू चिन्ता मत कर "---सुमित्रादेवी ने बेटी का कन्धा थपथपाया ---" अभी टैम ही क्या हुआ है । जरा ग्यारह तो बजने दे । तब तक तू बैंगन का मसाला तैयार कर मैं दाल चढाती हूँ । और ...फिर तू क्या नई है इस घर में ..?"
 माँ--बेटी खाने की तैयारी में लग गईं । उर्मि ने देखा कि माँ ने ग्यारह बजे जैसे बैठक की खिड़की की ओर जोर से सुनाया--"खाना तैयार है ...।"
और ठीक साढ़े ग्यारह बजे नहा--धोकर , बालों में ब्राह्मी आँवला तेल लगा कर , और पानी का लोटा भर कर मास्टरसाब रसोई के सामने पढे आसन पर आ बैठे । सुमित्रादेवी ने मुस्कराहट को दबाते हुए उर्मि की ओर देखा और थाली परोसकर मास्टरसाब के आगे सरका दी । यही नही आज साथ में मूली-प्याज और टमाटर का कचूमर भी था ।
"अरे वाह ...भाई पाककला तो इसे कहते हैं .।"----थाली को देख मास्टरसाब का चेहरा खिल गया । उन्होंने भी जैसे पत्नी को सुनाने के लिये बेटी से कहा--- " उर्मि ! सब कुछ बहुत ही बढ़िया है । आ तू भी मेरे साथ खा ले ।"
 उर्मि को याद आया कि सचमुच वह नई कहाँ है इस घर में ?

समाप्त