शनिवार, 19 जनवरी 2013

अपराजिता

यह कहानी भी  'अपनी खिडकी से ' संग्रह में है लेकिन अधूरी ।जाने कैसे यह भूल प्रकाशक से हुई है या प्रूफ देखने में मुझसे । इसलिये कहानी को मूल व सम्पूर्ण रूप में यहाँ दे रही हूँ ।
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वह लडकी ,जो आँगन में अक्सर कंकड उछाल-उछाल कर खेलती रहती है और जहाँ-तहाँ उछलती-फुदकती रहती है ,चाहे इसके लिये उसे कितना ही रोका-टोका जाए ,उसका नाम कंकू  है । कंकू यानी कंकुम कुछ ही दिन पहले नानी के घर से आई है और सबके लिये खासतौर पर मेरे लिये एक चुनौती बन गई है ।
कंकुम का भाई छोटा है और माँ को ज्यादा प्यारा भी लेकिन जब भी मन होता है वह भाई को खोह देकर माँ की गोद पर कब्जा कर लेती है चाहे भाई रोए या माँ धकेलती रहे ।
"आखिर दिन भर माँ की गोद में यही तो घुसा रहता है । मैं तो जरा सी देर के लिये ही बैठी हूँ ।"
उसके पास हमेशा एक मजबूत तर्क होता है । उसे गोद से उतारने के लिये माँ को कंकू की खूब मिन्नतें करनी होतीं हैं ।
दूध भाई के लिये आता है पर आधे से अधिक दूध जाता है कंकू के पेट में । कहती है --"जब मुन्ना दूध पी सकता है तो मैं क्यों नही । दूध मुझे भी तो अच्छा लगता है । "
साँवली दुबली-पतली कंकू बहुत चंचल है ।  आँखों में एक विशेष चमक है । बाल अक्सर  उलझे और बिखरे रहते हैं और नाक भी बहती रहती है .
"नाक है कि परनाला-"-माँ नाक पौंछते समय खीज उठती है । कभी-कभी जोर से रगड भी देती है मानो नाक को उखाड कर सारा झंझट ही मिटा देना चाहती हो पर कंकू खिलखिलाती है । माँ की खीज को जबरन ही दबी-दबी हँसी में बदल देती है ।
कंकू से जान-पहचान करने की पहल किसी को करनी नही पडती । यह काम वह खुद ही बखूबी कर लेती है । और कर ही नही लेती दीदी ,मौसी, नानी, भैया मामा ,चाचा, आदि सम्बोधन भी फिट कर लेती है ।
कंकू ने मेरे साथ भी यही किया । एक दिन जब मैं अपनी बालकनी मैं खडा यों ही गली में गुजरते लोगों को देख रहा था कि किसी ने मुझे बडी लय के साथ पुकारा---"राजू भैयाsss,क्या कर रहे हो ?"
मैंने चौंक कर देखा कि पाँच--छह साल की एक दुबली पतली लडकी बडी आत्मीयता से मेरी ओर मुस्करा रही है । मैं हैरान हुआ । कमाल है न जान न पहचान ,बडे मियां सलाम । लेकिन इतने अपनेपन से पुकारे जाने पर जबाब तो देना ही था सो मैंने हाथ हिलाया । बस उसे तो जैसे सिग्नल मिल गया । तुरन्त आ खडी हुई ।
"पता है ,मेरा नाम कुंकुम है पर प्यार से सब कंकू कहते हैं । मैं सामने वाले घर में रहती हूँ ।"---उसने फटाफट अपना परिचय दे डाला । मैं कुछ कहता इससे पहले ही उसने सवालों और जानकारियों की लाइन लगा दी ।
"तुम पहले तो यहाँ नही थे फिर कहाँ रहते थे भैया ? कि तुम क्या करते हो ? पढने के साथ पढाते भी हो । तो क्या तुम भी बच्चों को पीटते हो जैसे एक ट्यूशन वाले सर पीटते हैं । उनके पास नीम की हरी संटी रहती है ..। राजू भैया क्या तुमने बुलबुल को देखा है ? नही देखा हो तो हमारे घर आना । आँगन में जो मनीप्लांट है न उसी में बुलबुल ने घोंसला बनाया है । पता है उसमें कितने बच्चे...?"
"उफ्..किस मुसीबत को बुला लिया .मैंने । फालतू समय खराब करेगी ।" मैं पहली बार उस बतोडी लडकी से ऊब गया । और उसे टालने के लिये कहा ---
"कुंकुम अब तुम घर जाओ बच्चे । माँ परेशान होगी ।"
"मेरी माँ परेशान नही होती । उसे पता है कि मैं आसपास ही खेलती हूँ ।"--वह स्टूल पर बैठ गई ।
"लेकिन मुझे अभी कहीं जाना है जरूरी काम से ...। "
"अच्छा ठीक है ।" उसने मेरी बात मान कर जैसे मुझपर उपकार किया फिर अधिकार से कहा "लेकिन मैं फिर आऊँगी जरूर ।"  पूछने की तो जरूरत ही कहाँ थी ।
अब वह जब चाहे मेरे कमरे में आजाती है और मेरी हर बात का निरीक्षण सा करती रहती है ---"राजू भैया ,अभी क्या पढ रहे थे ? किताब तो थी पर बन्द क्यों करदी ? मैं पढने से थोडी रोकूँगी ।...राजू भैया क्या खा रहे थे अभी ? खा कैसे नही रहे मुँह तो चल रहा था ।... वहाँ धूप में मत बैठा करो । मेरी मम्मी कहती है कि धूप में रंग काला हो जाता है । ....अरे यह नही ,आप पर वो चैक वाली शर्ट अच्छी लगती है ।"
मैं बौखला कर उस बित्ते भर की लडकी को देखता हूँ  जो बेझिझक मेरे बडेपन पर हमला सा करती रहती है । मेरी दादी सही कहती थी कि लडकियों को इतना बोलना शोभा नही देता ।
"कम बोला कर ।" मैं डाँटता हूँ । पर मेरी डाँट पर वह हँस पडती है मानो मैंने कोई चुटकुला सुना दिया हो और फिर दूसरी बात करने लगती है -- "राजू भैया वो पतंग ,जो दीवार पर टँगी है ,तुमने बनाई है । मेरे लिये बना दोगे ?"
"तेरे लिये ?"--मैंने उसे आश्चर्य से देखा--"तू क्या करेगी पतंग का ?"
"उडाऊँगी "--वह बडे विश्वास के साथ कहती है ।
"तू ?? तू पतंग उडएगी !!"---मैं और भी चकित होता हूँ । मेरे सवाल पर वह हँसती है जैसे मैंने कोई बचकानी बात कहदी हो ।बोली---"राजू भैया पतंग तुम भी तो उडाते हो । मन्नू ,डबलू और डौलू उडाते हैं फिर मैं पतंग क्यों नही उडा सकती ? जरूर उडा सकती हूँ ।"
"अच्छा ,अब मेरा दिमाग मत खा । जा यहाँ से मुझे पढने दे ।"
"अच्छा पढना है ?"--वह जाने की बजाए कभी मेरा उठाती है कभी किताब पलटती है ।
"तू पढती-लिखती तो है नही क्या करेगी ये पेन किताब देख कर ?" मैंने कहा । उसकी माँ एक दिन कह रही थी कि पाँच साल की होगई अभी तक अक्षर ज्ञान तक नही है । पढाई में दिमाग ही नही लगता । नाम डुबाएगी बस और क्या...।
"मैं बडी हो जाऊँगी तब खूब पढूँगी । मेरे बाबा कहते हैं कि तू अभी छोटी है ।"
"छोटी है !"---मुझे हैरानी होती है---"बडों-बडों के कान काटती है और कहती है कि छोटी है । बिल्कुल चालाक लोमडी लगती है ।"
मेरी बात पर वह खिलखिला उठती है । मैं हारा हुआ सा देखता हूँ
लेकिन कोई यह समझने की गलती न करे कि कंकू सिर्फ हँस कर परास्त करती है । जहाँ हँसी काम नही करती वहाँ रोकर भी काम चलाती है । रोना भी ऐसा-वैसा नही । कानों को पार कर जाने वाला । चेहरा लाल होजाता है आँखें निकलीं पडतीं हैं भले ही आँसू न दिखें ।
एक दिन उसकी माँ ने जाने कैसे उसके सामने ही कह दिया---"लडकी बहुत तंग करती है । इससे तो डौलू ही अच्छा है ...।"
"अच्छा मैं काम नही करती ? सुबह अंकल की दुकान से माचिस लाकर डौलू ने दी थी ?? छोटू सोगया तो उसे डौलू झुलाता रहा था ?और छत से सूखे कपडे क्या डौलू ने उतारे ? दूध खतम होजाता है तब डेयरी से दूध कौन लाता है ? डौलू ? डौलू ही तुम्हारा प्यारा बेटा है न ? अब हर काम उसी से करवा लेना ।
कहते-कहते कंकू फूट पडी और रो रोकर ऐसी आफतखडी की कि माँ को कहना पडा कि, "कहाँ के डौलू-वौलू , मेरी तो कंकू ही सबसे अच्छी है । मेरा कितना सारा काम वही तो करती है ।"
जब से कंकू आई है ,मोहल्ले के सभी बच्चों ने उसके विरुद्ध संगठन बना लिया है । उसे कोई पास तक नही आने देता । पर उसे किसी की परवाह नही वह अकेली जोर-जोर से कविता गाती है ---'तितली उडी ,बस में चढी...।'
"यह तो हमारी कविता है "-- कविता सुनकर संजू और डौलू भडक उठे--- "चोर, कविता--चोर,..एक चोट्टी ने हमारी कविता चुराई है।"
"हमने किसी की कविता नही चुराई । हमें तो एक लडके ने सुनाई थी ।"-- कंकू भी अकड कर बोली ।
"किस लडके ने बता । मजा चखाएंगे उसे..।" एक लडका सीना तान कर बोला ।
"हाँ जरूर मजा चखाओ "--कंकू मुस्करा उठी ---"वह लडका थोडा छोटा है ,थोडा मोटा है ..। नीली नेकर और धारियों वाली शर्ट पहने है । हमारे घर के सामने ही रहता है ।"
"तू मेरा नाम लेती है !!"--डौलू गुर्राया---"भला मैं तुझे सुनाऊँगा ?? पागल लडकी । अच्छा सुन, तुझे हमारी कविता सीखने की जरूरत नही है समझी ।"
"जोर से गाओगे तो हम खूब सीखेंगे ।"--कंकू हँस पडी । अब डौलू जी जब भी कोई गीत या कविता सीख कर आते हैं अपने कमरे में ही गा लेते हैं ।
एक दिन संजू महाशय नई कार लेकर आए । उसे जमीन पर रगडकर चलाने पर अलग आवाज और रोशनी होती थी । सब बच्चे उसे देखकर खासे प्रभावित हुए । कुछ ललचाए भी । इतना अच्छा खिलौना उनके पासजो नही था लेकिन सबके लिये उस कार का बढिया उपयोग था कि मिल कर कंकू को ललचाएं । बस वे कार को कंकू के घर के सामने आकर चलाने लगे और उसे सुना सुना कर कहने लगे-----" अर् रे...वाह , इतनी सुन्दर कार !! किसी--किसी ने तो देखी भी नही होगी । चलाना तो दूर की बात है ।"
कंकू उस दिन कुछ नही बोली । लडकों को अपनी कामयाबी पर बडी खुशी हुई लेकिन उनकी खुशी दूसरे दिन उडन-छू होगई जब उन्होंने कंकू को चहकते हुए देखा ।
"मेरे पास तुम्हारी कार से ज्यादा अच्छी चीज है-"---कंकू ने सुनाया---" कार में कोई बैठ तो नही सकता पर मैं अपनी गाडी में बैठ भी सकती हूँ और उसे खुद ही चला भी सकती हूँ ।"
"हाँssss...?"--सबने विस्मय से देखा । कंकू ने चबूतरा के किनारे एक मुडे तार पर लकडी का छोटा सा तख्ता रखा था । और उस पर बैठ कर तार को घुमा रही थी । तख्ता तेजी से आगे सरक रहा था और कंकू खिलखिला रही थी ।
"यह भी कोई खिलौना है !"--लडकों ने उपेक्षा से कहा ---"बाजार से तो नही खरीदा गया न । पैसे जो लगते हैं ।"
लेकिन  दूसरे दिन मैंने उन लडकों के हाथ में वैसा ही मुडा हुआ तार देखा । वे सपाट पत्थर या लकडी की तलाश में थे । खासतौर पर डौलू इस फिराक में था कि वह किसी तरह कंकू का पटरा और तार पार करदे ।
वैसे भी डौलू जी की हालत आजकल खस्ता है । उन्हें खासकर जो काम दिया जाता है उसे कंकू जाने कहाँ से प्रकट होकर तुरन्त कर देती है और यह जताना भी नही भूलती कि मम्मी का काम हमने कर दिया । कि राजू भैया को तो सिर्फ मेरा काम अच्छा लगता है ..। फिर डौलू जी चाहे नोंचें खसोटें ,कंकू मुस्कराती रहती है । कुल मिला कर हाल यह है कि सब बच्चे कंकू को अपनी प्रतिद्वन्दी मानते हैं और कुछ न कुछ कह कर उसे चिढाने की कोशिशें करते रहते हैं ।
"एक लडकी ..जिद्दी और गन्दी....इसकी नाक कितनी छोटी है ।"
"उसके दो ही काम हैं ...एक दिन भर खाना और रोना...।"
"एक और काम है "---डौलू आवाज को ऊँची करके कहता है ---"दूसरों की कविता चुराना ..।"
"वह अक्सर दूसरों के आजू--बाजू मँडराती रहती है  । उसके पास एक ही फ्राक है । पुरानी और बदरंग...."
"मेरे पापा रक्षा-बन्धन पर लाए थे ।"---कंकू यह सुन कर बोले बिना नही रह पाती । गर्व से कहती है----"जब यह नई थी तब बहुत अच्छी लगती थी । अब भी ,मेरी नानी कहती है कि तू इसमें बहुत सुन्दर लगती है ।"
"सुन्दर..! यह लडकी..!! हो ..हो ..हो "---लडके ताली बजा कर हँसते हैं ।
"हो..हो..हो..."---कंकू उनसे भी तेज हँसती है ।
मैं हैरान होता हूँ । यह लडकी कमअक्ल है क्या । पर ऐसा लगता तो नही है । उसमें चीजों को समझने व पकडने की क्षमता दूसरे बच्चों से ज्यादा है । वह दूर से ही सूँघ कर बता देती है कि कमरे में आम रखे हैं या केले । संजू पाठ्यपुस्तक पढ रहा है या उसमें छुपाकर कामिक्स । मेरे गिलास में कडवी दवा नही मीठा शरबत है । मैं उसे अ से अनार पढाता हूँ तो मुझे पीछे छोड कर वह अनार के पेड का पूरा इतिहास--भूगोल बताने लगती है---
राजू भैया ,अनार का पेड तो कितना सुन्दर होता है । तुम्हें पता है ,अनार में सफेद दाने भी होते हैं और लाल गुलाबी भी होते हैं और मरून रंग के दाने भी । पडोस के अंकल हैं न वे अनार के छिलकों से दाँतों का मंजन बनाते हैं । पहले हमारे आँगन में भी अनार का पेड था । पर दादी ने एक दिन उस पेड को कटवा दिया । कहती थी कि इसे घर में लगाना अशुभ होता है । दादी को कुछ भी पता नही है न ।...राजू भैया तुम अनार खाया करो । पापा कहते हैं कि इससे खून बढता है ।
किसी अक्लमन्द के पास भी अब कुछ शेष रह गया पढाने को ??
कुंकुम का आना धीरे-धीरे मेरी दिनचर्या का एक जरूरी व रोचक प्रसंग बन गया है । वह जब तक नही आती मेरा सबेरा नही होता ।
मैं जब तब उसके लिये चाकलेट बिस्किट या खट्टी--मीठी टाफियाँ ले आता हूँ लेकिन उसे ये चीजें प्रलोभित करेंगी या वह मेरे प्रति कोई कृतज्ञता का भाव रखेगी यह सोचने की भूल अब नही करता । एक बार मैंने ऐसा करना चाहा था ।
बात यों हुई कि मैं एक दिन खूब सारे पके आम लाया था । मुझे पता था कि कंकू को भी आम बहुत पसन्द हैं और अपनी माँ से आए दिन आम लाने की माँग करती है । मेरा विचार था कि मेज पर रखे पके खुशबू वाले आमों को देख वह चहक उठेगी और मैं उसकी नजर में बडा और सम्माननीय हो जाऊँगा लेकिन उसने आम ऐसे नजरअन्दाज कर दिये जैसे मलाई वाला दूध पीने वाली बिल्ली पानी मिले पतले दूध को अनदेखा कर देती है । और जैसे अपने आप से ही कहने लगी---
मेरे पापा बहुत अच्छे हैं । मेरे लिये पके मीठे वाले आम लाते हैं । अब भी जब आऐंगे न ,तब बहुत सारे आम लाऐंगे..।"
मैंने उसे पास बिठा कर जताया---" कंकू ,मैं भी तो ये आम तो तेरे लिये ही लाया हूँ । तुझे पसन्द हैं न । ये आम इतने मीठे हैं कि इनके बाद दूसरे आम तो फीके ही लगेंगे ।"
"मेरे पापा भी ऐसे ही लाते हैं ।" उसने मेरी बात को एक तरफ सरकाते हुए गर्व से कहा । यानी कि मेरी दी हुई चीज का कोई महत्त्व ही नही ।
यह तो सरासर मेरी भावनाओं की तौहीन थी । अपनी महत्ता बनाए रखने के लिये मैने अपनी बात पर जोर देकर कहा--- "वह तो ठीक है कंकू लेकिन मैं जो तेरे लिये चीजें इतने प्यार से लाता हूँ , वो कुछ नही...??"
"जब मेरे पापा लाऐंगे मैं तुम्हें बहुत सारे आम दे जाऊँगी ।"
मैं अवाक् रह गया । शब्द ही नहीं ,भावों और इरादों को भी समझ जाने वाली यह लडकी कहीं भी कमजोर नही पडती । मैं चाहता था कि वह कहीं कमजोर व छोटी पडे तो मैं बडापन और हमदर्दी दिखा सकूँ ।
एक दिन ऐसा अवसर आया भी । हुआ यूँ कि किसी बात पर उसकी माँ उसे बेतरह पीट रही थी । हर तमाचा ऐसा कि लगते ही कंकू गिर पडे । मेरे अन्दर खदबद सी होने लगी । बच्चों की पिटाई मुझे अपने बचपन से जुडी हुई महसूस होती है । मुझे पता है कि थप्पड लगते ही कुछ समझ आना तो दूर , उल्टे  दिमाग पर ताला ही लग जाता है । इसी बात पर मेरी चाची से मेरा अक्सर झगडा होजाया करता है । वह जब भी नन्नू को पढाती हैं बिना संटी के बात ही नही करती । और मैं हमेशा झपट कर उनसे संटी छीन कर फेंक देता हूँ । वे गुस्सा होजातीं हैं । होती रहें । कंकू की माँ पर भी मुझे गुस्सा आया और उन्हें रोकने पहुँच गया । पर उसकी माँ ने दूर से ही कह दिया---
"राजू ,तुझे बीच में आने की जरूरत नही । इसे फालतू की शह मिलेगी । यह लडकी बहुत बिगड रही है । चाहे जिस बात पर अड जाती है चट्टान की तरह । बिना मार के सीधी न होगी ।"
मेरी आँखों में दिन भर रोती हुई कंकू की तस्वीर घूमती रही । शाम को जब वह मेरे पास आई तो उसकी आँखें अनार के फूल सी लाल और फूली हुईं थीं । मुझे उस बच्ची पर बडा प्यार और तरस आया ।
"कंकू ,बेटू ऐसी जिद क्यों करती है कि इतनी बडी सजा मिल जाती है ।----- मैंने उसके बालों को सहलाते हुए पूछा ।
"राजू भैया "---उसने मेरी बात जैसे सुनी ही नही---"अब मैं रस्सी कूदना सीख गई हूँ । मैं कूद कर दिखाऊगी । तुम गिनोगे..?"
"उफ्."..मैं कहीं हल्का सा आहत हुआ । मैं चाहता था कि वह अपनी पीडा या गुबार मेरे सामने निकाले और मैं उसे सहानुभूति देने का बडप्पन पा सकूँ ।
"जो भी हो ..लेकिन कंकू आज जो हुआ मुझे बहुत बुरा लगा । माँ को तुझे इस तरह पीटना नही चाहिये था  ।"
"माँ मुझे प्यार भी तो करती है ।"--उसने मेरी बात काट कर कहा ----
"अब मैं रस्सी कूदूँगी । तुम गिनना...।"
मैं हैरान पर पराजित सा उस लडकी को देखने लगा जो रस्सी कूदती हुई उजाला सा फैला रही थी । चाँदनी के फूलों की तरह ।------------------------------------------------------------------------------------ 

14 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत बढ़िया -
    सटीक-
    शुभकामनायें ||

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  2. वाह!
    आपकी यह पोस्ट कल दिनांक 21-01-2013 के चर्चामंच पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ

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  3. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  4. बच्चों का मन ऐसा ही साफ और निर्मल होता है तब ही तो राजा भोज को सिहासन बत्तीसी की पुतली ने कहा राजन यदि तुम बच्चे जैसे पवित्र हो तब बैठ जाओ सिहासन पर अन्यथा

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  5. बहुत अच्‍छी कथा। आपके-हमारे से अनुभव से गहन मेल करती।

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  6. बडे दिनो के बाद इतनी मनभावन कहाणी पढणे मे आयी..! कंकू ने दिल मोह लिया, सही मे अपराजिता लगी !

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  7. ये कहानी इतनी अच्छी है कि आज तक मैंने जितनी भी कहानियाँ पढी हैं उनमें से सबसे अच्छी मैं बहोत सारे अपने जानने वालों को ये लिंक भेज रहा हूँ ताकि ......सच में आँख नम हो गएी है

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  8. अद्भुत............अद्वितीय.........मजेदार...........सुंदरता से भी सुंदर ढंग से प्रस्तुत

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