सोमवार, 14 अक्तूबर 2013

कर्जा-वसूली

वर्तमान-साहित्य ( सितम्बर 2010) में प्रकाशित यह कहानी पिछले सप्ताह उज्जैन में प्रेमचन्द सृजन-पीठ द्वारा आयोजित कथा गोष्ठी में भी पढी गई । आप सबके अवलोकनार्थ यहाँ भी प्रस्तुत है ।
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बलीराम बौहरे का हाल वैसा ही था जैसा सरेबाजार जेब कटा बैठे किसी मुसाफिर का होता है । वह ठगा सा खडा रह जाता है । कोई उपाय सूझता ही नही ।
यह तो हद ही होगई । 
रामनाथ ने इस चैत में रुपए लौटाने की कैसी कसमें खाईं थीं कि, " पिरान बेचकर भी तुम्हारे रुपए लौटाऊँगा कक्कू ।" लेकिन वह सब भूलकर मानो बौहरेजी को ठेंगा दिखाता ठाठ से कैलादेवी की जात करने गया है । अकेला नही पूरे कुरमा को लेकर । बस वाला क्या इसका बहनोई है ? कि दुकानवाले चाचा-ताऊ ? जो इसे सेंतमेंत ही मेला करा देंगे । पाँच-सात सौ से क्या कम खर्च होंगे ! फिर रामनाथ का हाथ 'जगन्नाथ का भात.'.। पैसा आया चइये हाथ में ....। 
बलीराम को तो पता भी नही चलता पर सुबह नदी स्नान को जाते समय कलुआ खवास ने घेर लिया---"बौहरेजी इस बार तो रामनाथ ने रुपए लौटा ही दिये होंगे ।"
"नही "...क्यों ?"
"नही बस ऐसे ही । आज तडके ही रामनाथ को गाडी भर कर मेला जाते हुए देखा तो सोचा कि इस बार तो बौहरे का कर्जा को पटा ही दिया होगा उसने । पर सच्ची ?..नही लौटाया ? राम-राम बडी 'धरमारी' है...।" 
बलीराम दुबे का मन जैसे भाड का चना होगया । गाँव का बच्चा-बच्चा जान चुका है कि रामनाथ ने बौहरेजी से रुपए उधार लिये हैं । छह महीने के छह साल होगए हैं पर उसने लौटाने का नाम भी नही लिया है अब तक । और अब यह जात-मेला...।
"यह तो होना ही था ।"---गाँव के लोग आपस में बतराते हैं---"भैया बलीराम काका को 'बौहरगत' का शौक भी हुआ तो रामनाथ के लिये । सब जानते हैं कि रामनाथ को रुपए देकर तो भूल जाना ही ठीक है । वरना वसूली के लिये इतने चक्कर लगवाता है जितने ऑफिस का बाबू क्या लगवाएगा । गाँव में सालों से देखते आरहे बौहरेजी क्या जानते नही थे ।
बेशक जानते थे । सच्ची बात तो यह है कि वे अब लेन-देन का काम भी छो़ड चुके थे । लेन देन का काम तो उसी के वश का है जिसकी लाठी में दम हो । ईमानदार लोग तो खुद ही वादे पर रुपया लौटा जाते हैं पर सब तो इतने ईमानदार नही होते । उनसे रुपया निकलवाने के लिये तो जूता का जोर ही काम आता है । हाँ बलीराम के पिता ,दादा और परदादा को यह व्यवसाय खूब फला-फूला था । लोग न केवल समय पर रुपया लौटाते थे बल्कि एहसान तले दबे हुए बौहरे जी के बहुत से कामों को यों ही खुशी-खुशी करते थे । खाट बुनने, छप्पर छाने ,रस्सी बटने या दीपावली पर गाय-बैलों के लिये मोरपंख के बन्धन बनाने जैसे कामों के लिये बौहरेजी को किसी से कहने की जरूरत नही होती थी । साग-भाजी, गन्ना-गुड, और मौसम की चीजें अपने आप ही उनके घर आजातीं थीं इसीलिये न कि उनके पास लाठी थी ,जूता था ? "ज़र ज़मीन जोर के ,नही तो किसी और के..।" 
बलीराम जी तो नाम के बौहरे (गाँवों में ऋणदाता को बौहरे कहा जाता है ) हैं । उनकी न तिजोरी में दम है न जूता में और ना ही आवाज में । लेन देन का धन्धा ?, राम भजो । 
लेकिन उस दिन आषाढ की भरी दुपहरी में पसीने में लथपथ रामनाथ बलीराम के पैरों में गमछा रखकर रोने लगा तो वे असमंजस में पड गए ।
"मेरी उजडती मडैया को बचालो कक्कू"---रामनाथ गिडगिडा रहा था--"तुम्हारी बहू की 'नबज' भी नही मिल रही है । अस्पताल लेजाने के लिये जेब में एक छदाम भी नही है । एक हजारक रुपए हों तो दे दो काका । तुम्हारा औसान 'जिनगी' भर नही भूलूँगा ।" 
बलीराम बौहरे पल भर के हिचकिचाए पर संकट में फँसे आदमी से ना कहें भी तो कैसे । फिर भी एक बारगी उन्होंने उसकी याचना की धारा से खुद को किनारे करते हुए कहा--- "रुपए लेकर तू लौटाता तो है नही रामनाथ ।" 
"अब वो रामनाथ नही रहा काका । घर की लक्ष्मी जा रही है उसे बचालो । तुम्हारा गुलाम बनकर रहूँगा । 'पिरान' बेचकर भी तुम्हारे रुपए लौटाऊँगा ।" 
 बौहरे जी की तटस्थता कागज की तरह याचना की उस तेज धार में बह गई । पल्लू से आँसू पौंछते हुए पास ही खडी बौहरी राजबाई ने भी सहारा लगाया---"दे दो बिचारे को मुसीबत का मारा है ।" 
बौहरेजी ने बडी हिफाजत से रखे सौ सौ के दस नोट लाकर रामनाथ को थमा दिये । ये रुपए उन्होंने हरिद्वार जाने के लिये अलग से बचा रखे थे । आमदनी का जरिया अब केवल छोटी सी दुकान ही है । । जमीन की आधी उपज तो जमीन में ही लग जाती है । वैसे भी पैसे को वे बहुत सोच-समझकर खर्च करते हैं । उन रुपयों को देते समय उन्हें लगा कि जैसे कोई अपनी जमा की हुई गुल्लक को सौंप रहा हो । रामनाथ ने माथे से लगाकर कहा--
"भगवान ने चाहा तो इसी कातिक में लौटा दूँगा काका । तिली बाजरा ठीक-ठाक होगए तो...नही तो चैत में पक्के ..।"
कार्तिक की फसल आई । बाजरा कुट-फटककर घर आगया । तिली झडाकर कनस्तरों में भर ली गई 
थोडी मूँग भी होगई थी । रोज मँगौडे बनने लगे । तिली गुड के साथ कूटी जाने लगी । महक बलीराम बौहरे की नाक तक पहुँची पर इससे पहले कि वे पैसों का तकाजा करते रामनाथ की घरवाली खुद काकाजू को पल्लू से पाँव छूकर गुड तिली वाली बाजरे की टिकिया और तिलवा लड्डू दे आई । बौहरे जी स्वाद-सम्मान पाकर कह उठे--"वाह" । 
रुपयों की बात भूल ही गए ।
चैत में यह हुआ कि गेहूँ-चना खलिहान से घर पहुँचता इससे पहले ही सियाराम सेठ के आदमी अपना हिसाब चुकाने आधे से ज्यादा अनाज भरकर लेगए । 
"अब तो बच्चों को भी पूरा न पडेगा काका । अभी तो मजबूर हूँ ..।" रामनाथ ने खुद आकर बौहरे जी को बताया । बौहरे जी क्या कहते । बच्चों का निवाला तो नही छीन सकते वे ।
लेकिन तब से कितने चैत कातिक निकल गए । गढी--अनगढी नई-नई कथाओं के साथ । 
कभी बहनोई के भाई को 'टिसनिस' होगई तो कभी साले का बैल ऐन जुताई के मौके पर ही मर गया कभी बुआ के लडके के ससुर का एक्सीडेंट होगया । कभी लडकी कातिक न्हाई है या ससुर का 'चिन्नामित्त' (चरणामृत) लिया है सो उसके सास-ससुर को 'सवागा' (पाँचो कपडों सहित कई उपहार )भेजा है । तो कभी बच्चों के लिये नई रजाइयाँ भरवालीं । 
"अब काका घर-गिरस्ती लेकर बैठे हैं तो नातेदारी भी देखनी पडती है और जिम्मेवारी भी । मजबूरी है लेकिन मैं तुम्हारे रुपयों को भूला नही हूँ ..।"
मजबूरी में बौहरे जी भला क्या कहते और कैसे कहते ! लेकिन लोग हँसते हैं ---
"रामनाथ की बात ,गधे की लात..। बलीराम काका को बौहरगत करने मिला भी तो रामनाथ लुहार?" रामनाथ ,हरीचरन लुहार की निकम्मी औलाद । बाप के पाँवों पर रत्तीभर नही गया । वह बातवाला आदमी था । मेहनती था और पानीदार भी । पाँच--छह बीघा जमीन के अलावा अपना पुश्तैनी धन्धा भी चालू रखे था । जब भी फुरसत मिलती चिमटा-सँडासी, हँसिया-खुरपी, कन्नी-बसूला,  
बना कर गाँववालों को दे देता था । सालभर का अनाज तो ऐसे ही मिलजाता था ।
रामनाथ ने न कभी घन उठाया न हल की मूठ पकडी । दो-तीन बीघा जमीन तो पट्ठा बैठे बैठे ही खागया । रूपवती घरवाली आगई । आए दिन जलेबी--पकौडियाँ छनतीं । खाट में पडे सतरंगे सपने देखे जाते । वह तो एक दिन दुलारी को पता चल गया कि ये मौज-मजे जमीन बेच कर कराए जारहे हैं तो उसने अनशन ठान लिया । बोली--"खेती नही होती तो मिट्टी डालो ,खान में पत्थर तोडो पर काम करो ।"
अब दुलारी है रामनाथ की 'नाक का बाल' । सो बँटाईवाले को हटाकर खुद खेती सम्हाल ली है लेकिन रुपए को वह सुख का साधन मानता है संचय का नही । 
"रुपया तो रुपया है अपना हो या दूसरे का । रुपया हाथ का मैल होता है "---वह अक्सर दार्शनिकों की तरह कहता है---"इसे चिपकाकर क्या रखना । माया महा ठगिनी हम जानी .ये काहू के ना ठहरानी । खूबचन्द काका को ही देखलो जिन्दगी भर जोडते रहे । न ढंग का खाया न पहना । घी शक्कर को ताले में रखते थे । घरवाली के माँगने पर कटोरी भर ही निकालते थे । जब मरे तो गद्दे-तकिया तक से नोट झरे थे जैसे हवा से पके सूखे पत्ते झरते हैं । किसके काम आए । सन्तान को लडने-झगडने का कारन और देगए । रुपया तो खरच करने के लिये होता है ..।"
अपना यह दर्शन रामनाथ को इतना प्रिय है कि रुपया हाथ में आना चाहिये बस..खर्चने के दस रास्ते निकल आते हैं । चन्दा लँहगा-चुन्नी माँगती है उसे तुरन्त बढिया लहँगा-चुन्नी ला दिये जाते हैं । दीना ने घडी माँगी ,उसकी घडी आगई । और जो दुलारी उसाँस भरकर कहदे कि--"जिनगी बीत गई कभी नाक में सोने की लौंग तक न पहनी", तो रामनाथ के कलेजे को लग जाती है उसका वश चले तो लौंग क्या घरवाली को सोने से मढ दे । कहाँ के काका बाबा के रुपए । उनकी तिजोरी में पडे-पडे सड जाएंगे । क्या करेंगे लेकर ? हम उनका उपयोग तो कर रहे हैं कम से कम..।" 
पिछले साल रामनाथ के घर भैंस आगई थी । कहा तो यही कि ससुराल से ले आया है । वहाँ चारे-पानी का इन्तजाम नही था और यहाँ बच्चे दूध-दही को तरसते थे । लोगों ने बौहरेजी को सलाह दी कि तुम रामनाथ के घर से दूध क्यों नही बाँध लेते । नगद रुपए तो पता नही मिलेंगे या नही । रामनाथ ने सुना तो उसने भी यह प्रस्ताव खुशी-खुशी मान लिया । दो-चार दिन दुलारी खुद बढिया 'निपनिया' दूध ले जाकर काकाजू के घर दे आई । पर यह क्रम आठ दिन भी न चला । कभी दुलारी को 'कास्स-बाबा' की खीर चढानी होती तो कभी बेटी के सासरे खोआ भेजना होता । कभी पडिया छूट कर सारा दूध पी गई तो कभी भैंस ही उचक गई । इस तरह बौहरे जी चाय तक को तरस जाते । इससे तो डेरी से ही दूध लेना अच्छा था । मजबूरन वही शुरु कर दिया ।
इधर तो बलीराम इन्तजार करते कि कब रामनाथ अपना करार पूरा करेगा और उधर कोई न कोई सूचना चूल्हे के धुँआ की तरह रामनाथ की पाटौर से निकलकर हवा में फैल ही जातीं थीं और उसकी गन्ध बलीराम बौहरे तक पहुँच ही जाती कि कि रामनाथ के घर 'रेडू' ( रेडियो) बज रहा था कि रामनाथ का लडका आज बढिया 'सुपाडीसूट' (सफारी-सूट) और चमडा के चरमराते जूते पहन कर कहीं गया है । कि दुलारी कल बाजार से नए डिजान की पाजेबें लाई है कि.....भई रामनाथ के तो ठाठ हैं  । ऐसे ही एक दिन अचानक रामनाथ के आँगन में गाया जाने लगा था--"जच्चा मेरी सरद पूनों का चाँद...।"
कैलाबुआ ने नारद की सी भूमिका निभाते हुए राजबाई को सुनाया---"बौहरी सुना तुमने , रामनाथ की लडकी को बेटा हुआ है । खूब तगडे पछ की तैयारियाँ चल रहीं हैं । सबके कपडे ,बच्चे को चाँदी के कंगन ,सोने की हाय दो सूट दो कलसा लड्डू एक में बूँदी के और एक में सोंठ के ।"    
"सोंठ के ?"---राजबाई मन मसोस कर रह गई । दो जापे हुए पर एक बार भी न उसे हरीरा चखने मिला न सोंठ के लड्डू । डाक्टरनी ने साफ कह दिया---"चिकनाई बिल्कुल नहीं । सिर्फ दूध...।"
"दुलारी के हाथ के बने सोंठ के लड्डू तो बस.."..--कैला बुआ ने चटखारे लेकर कहा---"मुझसे तो आधा भी न खाया गया । निचुडवां घी, मेवों की भरमार सोंठ अजवाइन की 'खसबोई' अलग..।"
"तो इस बार भी रामनाथ का वायदा कुम्भ का मेला हुआ समझो ।"--बलीराम ने निराश होकर रामनाथ को बुलवा भेजा ।
"मैं तो खुद ही आ रहा था कक्कू ।"--रामनाथ पाँव छूकर बोला---"तुम्हारा नाती आया है । तुम्हारा 'आसिरबाद' है ।"
"मेरा आशीर्वाद तब मिलेगा रामनाथ जब तू रुपए लौटाएगा ।"--बलीराम ने ताकत लगाकर अपना रोष निकाला---"तूने जैसी मेरी बात खराब की है ,कोई कर नही सकता । जग हँसाई होरही है कि मैं किस फरेबी की सहायता करने चला था । तू एक बार कहदे कि रुपए नही देगा । समझ लूँगा जेब कट गई । उस दिन कैसे बकरी की तरह मिमिया रहा था । और अब रंग ही बदल गया । तेरे जैसा मक्कार आदमी नही देखा ।"    
तुम्हारा गुस्सा बाजिब है काका । पर समधियाने की बात आन पडी है । इसमें मेरी क्या तुम सबकी इज्जत है । पूरे गाँव की ...फिर काकाजू तुम्हारे रुपए तो समझो दूध पी रहे हैं ।
ऐसी-तैसी दूध पी रहे हैं---बौहरे जी बौखलाए---"मुझे अब ये तेरी चिकनी चुपडी नही, ईमानदारी की बात सुननी है आखिरी बार । तू रुपए देगा कि नही । देगा तो कब देगा । अभी बता । फिर जो होगा देखेंगे ।" 
"बस दो महीना बाद ही । गेहूँ चना की फसल आते ही सच्ची । जहाँ मानुस मरे वहाँ सौगन्ध ले लो ..।"--रामनाथ ने छाती पर हाथ रखकर कहा । पीछे से यह भी जोड दिया---" फिर भी कहो तो काका तुम्हारा ही हिसाब कर दूँ । नही भेजूँगा पछ । लडकी को एक धोती भेजकर हाथ जोड लूँगा ।" 
नौटंकी करने में रामनाथ का जबाब नही । जैसे छह साल वैसे दो महीने और सही , यही सोचकर बौहरे जी ने सन्तोष कर लिया पर अब...चैत की फसल आते ही मेला घूमने भी चला गया ठेंगा दिखाकर ।
"लौटेगा तो सही ..आज वह नही कि मैं नही ..।" बौहरे जी तिलमिलाते हुए आँगन में चक्कर काट रहे थे जैसे चौमासे में मक्खियाँ लगने पर बछडा तिलमिलाता है । राजबाई असहाय सी पति को देख रही थी । उसने जानबूझ कर नही बताया था वरना उसे सुबह ही रामो ने बता दिया था । यह भी कि आधीरात से ही दुलारी की कडाही-करछी खनकने लगी थी । 
और कोई मौका होता तो राजबाई कल्पना करती कि कैसे दुलारी के हाथ-पाँव मेंहदी--महावर से रचे होंगे । कैसे ठसके से धरऊआ साडी पहन कर हँसती-गाती गई होगी । ऐसी कल्पना राजबाई को यों तो हमेसा ही भली लगती है लेकिन इस बार उसके मन में उपले से सुलग रहे थे ।
"आग लगे ऐसे मौज-सौख को "--वह पति को सुनाती हुई बोली---"तुम क्यों अपना खून जलाते हो ? वह तो मौज कर रहा होगा पूरे कुनबा के संग..।"
"रुपए तो तूने ही दिलवाए थे अपने बाप को "---बलीराम अपनी पत्नी पर बरस पडे । (हर खटकने वाली चीज उनके लिये राजबाई का बाप होती है चाहे वह बुखार या सिरदर्द ही क्यों न हो ) तब तो कैसे टसुए बहा कर बोली थी दे दो बेचारा मुसीबत में है ...।"
"चलो खाना खा लो । मैंने भरवां भटा और लौकी का रायता बनाया है तुम्हारी पसन्द का..।"
"तू ही खा ले ।" बौहरे ताव से बोले --"मैं तो कौर--ग्रहण उसके हलक में से रुपए निकलवा कर ही करूँगा । भैरों को बुलवाता हूँ । वही इसे ठिकाने पर लाएगा । भय से तो भूत भागते हैं ।"
इधर बौहरे जी रणनीति बना रहे थे उधर रामनाथ सब कुछ भूलकर बाल-बच्चों के साथ मेला घूम रहा था । हाथ में जैसे कुबेर के खजाने की चाबी थी ।
"चन्दा, दीना ,दुलारी जो जो खरीदना हो खरीद ही लो, खाना हो खा लो फिर मत कहना ..उठी हाट मंगलवार को लगती है हाँ नही तो...।"
यही है इनकी जीवनदृष्टि । सुख-दुख बराबर । न दुखों से भागते हैं न खुशी मनाने का मौका छोडते हैं । दुख इनके लिये एक परिवर्तनकारी घटना है जीवन के अभावों और मुश्किलों को भूलने या पीछे छोडने का अवसर । उसे पूरी तरह जीते हैं । दुख चाहे पकी फसल में आग लगने का हो या बछडा मर जाने का । दुलारी खूब डकरा-डकराकर रो लेती है और दुख से मुक्त होजाती है खुशी के लिये मन से तैयार । खुशी चाहे पेड में पहली बार फल आने की हो या गाय 'ब्याने' की । तुलसी और टेसू-झाँझी के विवाह पर वह ऐसे सजती है जैसे उसके बेटे का ब्याह हो । 
जो लोग दुखों को ईमानदारी से नही भोगते वे सुखों का आनन्द नही उठा सकते---इसे अनपढ रामनाथ ने जाने कब कहाँ से सीख लिया है तभी तो बौहरे जी के तकाजों की चिन्ता किये बगैर ,झकाझक सफेद धोती-कमीज पहने ,कानों में कन्नौजिया अतर का फाहा खोंसे शान से मेला घूम रहा था । दुलारी नारियल-बताशे चढाकर मैया को मना रही थी---"हे बहरारेवाली मैया ! जैसे अब बुलाया आगे भी बुलाना..।"
शाम ढले घर लौटते समय दुलारी का मन तृप्त था । वह चन्दा को साथ लेकर गा रही थी---"इन बागनि के फूल मति तोडै माली पत्ते-पत्ते पै बैठी मेरी शेर वाली...।"         
खुसी के चटक रंगों में खोए रामनाथ ने जो अपने चबूतरा पर बलीराम बौहरे के साथ भैरों को बैठे देखा तो सब कुछ समझ में आगया । पत्नी-बच्चों को भीतर जाने को कहकर खुद स्थिति से निपटने  तैयार होगया । भैरों ने उसकी कमीज का कालर पककर कहा--- "क्यों रे भैन के...बेहया ! दूसरों के रुपयों पर गुलछर्रे उडाते जरा भी शरम नही आती ?"
भैरों बलीराम बौहरे का भान्जा ,इलाके का नामी लठैत है । दस-दस आदमियों से अकेले भिडने की ताकत रखता है । मामा के रुपए तो रुपए , वसूलने के लिये उसकी खुद की भी कुछ उधारी थी । एक बार जरा हाथ पकडलेने पर ही दुलारी ने उसकी माँ-बहन को समेटते हुए हंगामा खडा कर दिया था । उसे छिछोरा की उपाधि मिली सो अलग । आज इस सती-सावित्तिरी के गरूर को जरूर देखेगा भैरों । पर देखे किसे । रामनाथ तो पैरों में पडा था ।
"भैरों भैया ! जुबान खराबकर काहे छोटे बनते हो । तुम जो कहोगे करने तैयार हूँ ..।"
कोई सामने अडा हो तो दो दो हाथ करने में मजा आए । गिडगिडाते रामनाथ को देख आधा जोश तो ठंडा ही होगया । फिर भी कडककर बोला---"मामा के रुपए निकाल अभी । बहुत चक्कर लगवा लिये तूने । आज देखता हूँ...।"
"रुपए कहाँ हैं भैया ? चाहो तो मेरे पिरान ले लो ।"
"तेरे प्राणों का क्या अचार डालूँगा ? हमें रुपए चइये अभी ,इसी बखत..नही तो...तो.".--भैरों ने चारों ओर नजर दौडाते हुए कहा और फिर सामने खडी भूरी भैंस को देख आँखें चमकीं--"अरे हरामखोर ! बीस हजार की भैंस बाँध कर बैठा है और कहता है कि पैसे कहाँ हैं..।"
'चाँदुल' ??---एक साथ सबकी छाती पर जैसे किसी ने हथौडा मार दिया हो । दो महीने पहले ही बच्चों के लिये रामनाथ अपनी ससुराल से दूध देने तक के लिये एक भैंस खोल लाया था । वहाँ पहले ही बहुत सारे चौपाए थे । चारा पूरा नही पड रहा था । 'चाँदुल' बच्चों की जान बसती थी लेकिन भैरों जैसे आदमी से कौन जूझे !
भैंरों ने भैस खोल ली । किसी ने चूँ तक न की । गाँव के ज्यादातर लोगों की हमदर्दी बलीराम बौहरे के साथ थी । रामनाथ को सबक मिलना जरूरी है । ठीक किया भैंरों ने ।
भैरों की पीठ होते ही रामनाथ के घर में कोहराम मच गया । दुलारी गा गाकर चिल्ला-चिल्लाकर रोती रही---"अरे राssम ! भला हो इनका । पापी ,मेरे बच्चों के गले पर लात रखकर लेगए । उनके हलक से कौर निकालकर खागए 'धरमार'...।"उज्जैन
"बावरी हुई है क्या !"--रामनाथ समझा रहा था ---"भैंस ही तो ले गए हैं हमारी किस्मत तो नही लेगए । कम से कम रोटी तो चैन से खा सकेंगे । नही तो रुपया..रुपया..रुपया ...। रुपए न हुए बौहरे के प्राण होगए ।" 
उधर बौहरे जी गाँव के दूसरे छोर पर भी मानो सब कुछ साफ-साफ सुन रहे थे । दुलारी के बोल ओले की तरह तड-तड कनपटी से टकरा रहे थे । बच्चों की निगाह बेरी के काँटे सी कसक रही थी । अचानक उन्हें लगा कि उनकी यह उपलब्धि खोखली है सूखी लौकी की तरह । उनसे भैंस की देखभाल नही हो पाएगी । कहाँ बाँधेंगे । कौन दूध दुहेगा । कौन चारा लाएगा । और कौन दुलारी के ताने--उलाहने सुनेगा । भैंस लाकर उन्हें क्या मिला सिर्फ इस तसल्ली के कि होगई कर्जा-वसूली । वह तसल्ली भी भैरों को थी । रुपए तो आए न आए बराबर ही थे । 
जैसे जैसे रात गहरा रही थी बलीराम बौहरे को दुलारी का विलाप ज्यादा सुनाई दे रहा था । इसलिये उन्होंने भैरों को बुलाया और मन पक्का कर बोले---"भैरों ! भैंस को रामनाथ के द्वार पर बाँधकर आ ..हाँ हाँ अभी  इसी बखत..।"