बुधवार, 5 जून 2013

साहब के यहाँ तो.....


'इमरती अभी तक नही आई !'--
रसीदन कनेर की छाँव से समय का अन्दाज लगाते हुए बडबडाई । 
अब तो दो--ढाई का टैम होने को होगा । 'रेसिट' होने ही वाली है और 'रेसिट' के बाद उसके आने का मतलब भी क्या है । खास और जरूरी काम तो लंच होने तक निपटा ही लिये जाते हैं । सभी जरूरी डाक लंच से पहले ही सब जगह लगादी जातीं हैं । क्या तो बाबूजी और क्या मैडम और सर लोग लंच से पहले जितनी चिन्ता और लगन से काम करते हैं, बाद में कहाँ करते हैं । बाबूजी मेज पर कागज फैलाए दस बार चिरोंजी गोपी को बुलाते हैं । 'किलास-टीचरों' का अलग बुलावा---'अरे गोपी यह लैटर लेकर तारागंज जा और चिरोंजी तू गुब्बारा फाटक चला जा...। इन लडकों के माता-पिता को बुलाकर ला । नाम लिखाने के बाद साले चैक लेने के लिये ही स्कूल आते हैं । जैसे सरकार पर कर्जा है इनका ।'..
सुबह-सुबह स्कूल में चपरासियों की कितनी जरूरत होती है ,इसे रसीदनबाई खूब जानती है । साफ-सफाई और पानी भरने जैसे काम जो चपरासी लोगों को ही करने होते हैं, वे तो स्कूल शुरु होने से पहले ही होने होते है । 
'प्रेंसीपलसाब' के आने पर उनके टेबल की घंटी भी जब देखो 'टन्न टन्न' बजती ही रहती है । तब चपरासियों की कितनी टेर मचती है और यह इमरती है कि...!" 
। 
पैंतीस साल की चपरासिन रसीदनबाई भाग्य के साथ-साथ गठिया की भी सताई हुई है । बैठ जाती है तो उठ नही पाती । काले-काले और सूखे टटेरे जैसे हाथों को घुटनों पर टेकती हुई ,मुट्ठी भर की काया को भी कठिनाई से सम्हालते हुए चलने में उसे खासी मुश्किल आती है फिर भी वह ग्यारह बजे से पाँच मिनट पहले ही स्कूल आ जाती है और लोहे के भारी दरवाजे को पूरी ताकत से ठेल कर सबसे पहले देखती है कि गोपी ने अभी तक सफाई शुरु नही की । सफाई के बाद ही तो वह 'पिराथना' की घंटी बजाएगी । एकाध दिन वह लेट होजाती है तो गोपी रसीदन को खूब 'अफसरी' दिखाता है---"अब आ रही है ? यह टैम है आने का ?" 
गलती पर डाँट खाना रसीदन को बुरा नही लगता । आखिर नौकरी तो नौकरी है । जिसका खाते हैं उसकी तो बजानी ही चाहिये न ? आते ही वह सबसे पहले घडी देखती है और समय से दस मिनट पहले आकर चैन की गहरी साँस लेती है । 
तो भैया कायदे से देखा जाए तो लंच के बाद तो स्कूल में आना आना नही होता है कि नही ।--रसीदन गोपी और चिरोंजी से अपनी बात का समर्थन माँगती हुई कहती है ---फिर हम चपरासियों को इतनी छूट देता भी कौन है ? लेकिन यह इमरती तो ....। 
"तू बराबरी करेगी इमरती से ?"--- गोपी उसे झिडकता है --"जान कर भी इतनी अनजानी मत बनाकर । समझी !! और तू कभी पूछ भी मत बैठियो । नही तो ...।"
इमरती भी रसीदनबाई की तरह ही इस शासकीय हाई-स्कूल लालगंज में दैनिक वेतन भोगी भृत्या है । फर्क इतना है कि पैंतीस की उम्र में ही बुढा सी गई रसीदन जहाँ स्कूल की धूल फाँकती हुई, दिनभर कोई न कोई काम करती हुई भी सबकी उपेक्षा का शिकार रहती है वहीं इमरती पूर्व शिक्षामंत्री यादव के वातानुकूलित बँगले पर काम करती है और स्कूल में सिर्फ सूरत दिखाने के लिये आती है फिर भी लोग उसे विशेष जगह देते हैं ।
इमरती की पहुँच सीधे मंत्री जी तक है उसकी सिफारिश या शिकायत किसी के भी ग्रह-नक्षत्र बदल सकती है ,यही सोचता है हर कोई । रसीदनबाई इतना आगे जाकर नही सोच पाती । 
गोपी की बात पर रसीदन कुछ सहमकर तम्बाकू से रचे बडे-बडे दाँतों को होंठों में छुपा लेती है पर अन्दर ईर्ष्या भरा शोर होता रहता है । 
" मंत्री जी ने नौकरी लगाई है पर नाम तो हमारे रजिस्टर में लिखा है उसका । तनखा तो यही से निकलती है न । बल्कि डबल काम करके हमसे ज्यादा ही कमाती होगी फिर भी काम और टैम की छूट उसे क्यों दे रक्खी है प्रेंसीपलसाब ने । हमें तो आधा घंटे की भी मोहलत नही है ।' 
फिर जब तनखा यहाँ से निकलती है तो उसे ज्यादा काम यहीं करना चाहिये ना । पर यहाँ धूल-धक्कड में काम इमरती नही करेगी गोपी भैया ! मंत्री जी के यहाँ काहे की धूल ,काहे का पसीना । मार्बल के 'फरस' पर झट् से पौंछा फेर देती होगी । गैस पर पट् से सबजी-रोटी, 'दाच्चाबल' ,'पुरी-पराँमटे' पका देती होगी । तर माल खाने को मिलते ही होंगे । मौज-मजे की बढिया नौकरी है । ऊपर से 'जबर' का आसरा । सब 'किसमित' का खेल है ..।"  
जब तक यादव मंत्रीपद पर जमे रहे ,इमरती केवल उन्ही का काम करती थी और प्रिंसिपल पाण्डे बराबर उसकी तनखा निकालते रहे । एक बार मन में विरोध का कीडा कुलबुलाया भी कि 'काम चले मंत्री जी का और वेतन निकाले प्रिंसिपल केशव प्रसाद पाण्डे ?' यह तो सरासर गलत है । लेकिन उनकी छठी इन्द्रिय ने उन्हें समझा दिया कि जल में रह कर मगर से बैर करना निरा पागलपन है । सो जैसा कि मंत्री जी का निर्देश था ,इमरती दो-चार महीनों में रजिस्टर में हस्ताक्षर करने स्कूल-टाइम के बाद स्कूल आ जाती थी । या फिर कभी-कभी गोपनीय रूप से रजिस्टर मंत्री जी के बँगले पर पहुँचा दिया जाता था । इस तरह वह बँगले से ही स्कूल के रजिस्टर में बराबर उपस्थित रही । इसकी जानकारी भी बाबू और प्राचार्य के अलावा स्टाफ में कुछ लोगों को थी और कुछ को नही । जिनको जानकारी थी वे भी इस मुद्दे पर कानाफूँसी करके ही सन्तुष्ट हो लेते थे ।
रसीदन बाई दूसरे टाइप के लोगों में थी जिन्हें अर्जुन की तरह हस्ताक्षर करते समय मछली की आँख जैसा केवल अपना ही कालम दिखाई देता है । आजू-बाजू में कौन किस दिन नही आया ,किसकी 'सी एल' लगी और किसकी 'फ्रेंच-लीव' हुई उन्हें कोई खबर नही होती । 
लेकिन एक दिन इमरती स्कूल में साकार उपस्थित होगई । हुआ यों कि उधर तो यादव जी के हाथ से मंत्री-पद छूट गया और इधर पाण्डे जी के आदर्शों ने जोर मारा । उन्हेंने इमरती से साफ कह दिया कि अब ऐसा नही चलेगा । पूरे स्टाफ की तरह समय पर रोज स्कूल आना पडेगा । अब नए मंत्री जी हैं आखिर मुझे भी तो जबाब देना होगा । यादव जी को भी पाण्डे जी की बात माननी पडी । आपसी व्यवहार में इतनी समझ तो रखनी पडती है न । लेकिन पता नही रातों-रात किसने ,किससे ,क्या कहा कि पाण्डे जी के पास संचालक जी का फोन आगया । उनके कडे सिद्धान्त फिर उसी तरह नरम हो गए जिस तरह दबाने कर गदराया लेकिन ठोस आम पिलपिला कर नरम हो जाता है । तय हुआ कि इमरती को स्कूल में आना तो रोज पडेगा लेकिन अपनी सुविधानुसार से दो-तीन बजे तक आकर साइन कर जाए । इस तरह यादव जी की सेवा होती रहेगी और स्कूल की ड्यूटी भी । 
इमरती का इस तरह अवतरण क्या हुआ स्टाफ में रोज की नई कथाएं शुरु होगईं ।  
"आज तो दो-पन्द्रह पर आई है इमरती । लेकिन तीन बजे से ज्यादा थोडी रुकेगी ।...भई पावर है हाथ में । देखो तो कैसी साफ-सुथरी ,चमक-दमक और ठसके से आती है ।....आज फिर नई साडी पहनी है इमरती ने ।....बालों में कहाँ से नित नई किलपें लगाती है ?...इसकी हँसी स्कूल की घंटी की तरह कैसी बुलन्द और सुरीली है ! कोई टेंसन जो नही है । बातों में देखो, कितने लटके-झटके हैं ! ऐसे लटके-झटके दिखा कर ही तो ...। हाँ जी ,इमरती को मंत्री जी का 'सपोट' है तभी हवा में उडती रहती है । सैंया भए कोतवाल अब डर काहे का..।"
"स्कूल क्या आती है ,इसी बहाने थोडी सैर होजाती है ।"---चिरोंजी भी बहती गंगा में हाथ धोना नही भूलता---वैसे यादव साहब अपनी मिसेज के साथ-साथ 'इन्नोवा' में इमरती को भी ले जाते हैं कभी-कभी । भाई नौकरी हो तो ऐसी ..।
"तू भी साथ लग जाया कर मरे..।" रसीदन चिरोंजी को झिडकती है । 
तरह की कथाओं से उसका मन वैसे ही सिकुड जाता है जैसे धूप में पड-पडा बैंगन सिकुड जाता है । गज़ब की मट्ठर औरत है यह इमरती । देर से आकर भी गलती 'फील' नही करती । उल्टे अपने काम और थकान का रोना रोती है । जैसे कि स्कूल में आकर गोपी चिरोंजी या रसीदन पर ही नही सारे स्टाफ पर एहसान करती है । यह मंत्री जी की शह का नतीजा है । हो चुके कामों में भी दस 'नुकस'  निकाल देती है कामों --- 
"अरे रसीदन ! बहन ! झाडू क्या तूने लगाया है ? जरा देख तो पाँव किसकिसा रहे हैं रेत और धूल के मारे । फिर कोनों ने तो कभी झाडू के दर्शन ही नही किये होंगे शायद ।... चिरोंजी भैया ! तुम क्या बैठे-बैठे क्या बढ रहे हो ? लम्बा बाँस या झाडू लाकर ये छत के जाले तो निकालो । गोपी ! देख तो जरा गिलासों को । कितने मटमैलेपन हो रहे हैं ! सहाब के यहाँ तो ऐसे गिलासों को 'डस्टबिन' में डाल देते हैं । काँच के गिलासों में आर पार साफ न दिखे तो कैसी सफाई । रसीदनबाई ! सहाब के कमरे में बिना पूछे भला जाते हैं जो तू जब चाहे मुँह उठाए चल देती है । कदर-कायदा सीखना है तो सहाब जैसे लोगों से सीखो ।...चिरोंजी भैया रे ! जरा इस मेजपोश को दो दिन का आराम भी दे दो । दूसरा बिछादो । इसे मुझे दे देना और नही तो क्या । धोकर ले आऊँगी । गन्दगी मुझे जरा नही सुहाती । सफाई देखनी है तो सहाब के यहाँ देखो । फर्श में अपना चेहरा देखलो ...।"
"चेहरा तो तू खुद ही देखले अपना इमरती रानी " ---- रसीदन नाक सिकोडती हैं ।
यह तो वही बात हुई ना कि 'खाय खसम का ,गीत गाए भैया के' । 
अकड कितनी भरी है । एक औरत होकर भी अपने बराबर की औरत को जरा भाव नही देती । एक दिन उसने तो इमरती को उसके भले के लिये ही समझाया था कि---"बहन ,अपने हाथ बचाकर रखना । नौकरी है तो सब कुछ है । यह रोज-रोज लेट आना भी तुझे दिक्कित में डाल सकता है ।" तो ..! इमरती ने उसका मुँह सा तोडते हुए तडाक् से जबाब दिया था---
"अपनी नौकरी की चिन्ता तुझसे तो ज्यादा ही होगी रसीदन बाई । रहा मेरे लेट आने का सवाल तो इसे 'पिरेंसीफल' जी भी जानते हैं कि मैं यादव साहब के यहाँ काम करती हूँ । और यहाँ मेरे बिना कौनसा काम रुकता है बोल ? काम है ही कितना ,पर वहाँ न जाऊँ तो उनकी गिरस्ती की गाडी जैसे खडी रह जाती है 'टेसन' पर । समझी ।"
"मंत्री जी का हाथ सिर पर क्या रखा है उड रही है आसमान में ।--रसीदन खुद को तसल्ली देती है  ---पर अब तो यादव मंत्री नही है ।"
"साहब मंत्री नही है तो क्या हुआ चलती तो उन्ही की है । उनका एक फोन ही काम कर जाता है आज भी ।" इमरती गर्व से कहती है । 
" भैया रे ,अब भी मिलने वालों की भीड लगी रहती है बँगले पर । उनकी शान-शौकत, खाना-पीना ,गाडी चौकीदार, नौकर तीनचार कुत्ते ...सब कुछ वैसा ही है । जाने कितनी एजेन्सियाँ हैं साहब की । रौब ऐसा कि इधर हुकम हुआ और उधर काम । साहब अगर आम को नीबू कहदें तो किसी की मजाल नही कि उसे आम कह जाय । घर में सफाई ऐसी कि मक्खी भी जाने में शरमाए । "
इमरती की बातों को सब ऐसे सुनते हैं जैसे बच्चे सिंहासन -बत्तीसी की कहानियों को सुनते हैं । स्टाफ में रौनक बढ जाती है । रसीदनबाई उदास होजाती है । 
"यह तो सरासर अंधेर है री माई ..।"
अपने हिस्से के काम निपटाकर रसीदन कनेर की विरल सी छाया में दो पल बैठ कर सुस्ता लेती है । इन कुछ पलों में वह दिमाग को खँगालती रहती है । घर से लेकर स्कूल तक सब उसी की खिंचाई करते हैं । घर में अब्बा ने उसे सुबह चाय बनाने और भतीजे-भतीजियों को स्कूल के लिये तैयार करने और उन्हें टिफिन बना कर देने का काम सौंपा है पर भाभियाँ उसे कपडे प्रेस करने ,बर्तन माँजने और सबका नाश्ता बनाने का काम भी दे देतीं हैं । 
स्कूल में भी उसका काम घडी देख कर प्रेयर और हर 'पीरेड' की घंटी समय पर बजाना और मैडम और सर लोगों को पानी पिलाना है । पाण्डे जी ने खुद उसकी हालत देख कर ये ही काम दिये हैं लेकिन उसे प्रायः गोपी और चिरोंजी के पेडों में पानी देने जैसे काम भी करने पड जाते हैं । चिरोंजी स्कूल की डाक लगाता है और इसी बहाने चाहे जब घर भी हो आता है । गोपी सर लोगों के पास बैठा गप्पें हाँकता रहता है और उनकी जरूरतों जैसे पुडिया सिगरेट लाना ,मैडमों को समोसा-कचौरी या सब्जी लाकर देना आदि करके दो-चार रुपए भी कमा लेता है । साथ ही मीठी बातों से रसीदन को भी 'पोट' लेता है--"अरे मेरी बडी बहन ! जरा गुलमोहर के पौधे को पानी पिलादे । बेचारा सुबह से प्यासा खडा है । तेरा बडा 'पुन्न' होगा । ओ जीजीबाई, जरा उस नीयतखोर बकरिया को तो खदेड कर आ । रोज ही आजाती है बेसरम ।" 
"निकम्मे ,आलसी !"---रसीदन का गुस्सा बनाबटी होता है । उसकी  आदत नही है काम से मना करने की ,पर कोई इसे माने तो ! तारीफ के दो बोल तो बोल दे ! पर नही, उल्टे अगर कोई काम छूट जाए तो गोपी उसे रौब जरूर दिखाता है । ऐसा ही रौबीला है तो अपनी अम्मा इमरती को रौब दिखाकर बताए । गुसाईं जी कह तो गए हैं कि "टेढि जानि संका सब काहू..।" अकेली रसीदन मिल गई है फालतू ही हुकम चलाने..। रसीदन जब हलकान होजाती है तब ऐसा ही कुछ सोचती है ।
'पिच्च'...रसीदन ने पीक थूक कर चुन्नी से होंठ पौंछे । तम्बाकू के साथ जैसे उसने मन की कडवाहट को भी थूक दिया पर गड्ढे में से झाँकती सी आँखें जैसे निकल कर बरबस गेट तक पहुँच ही जातीं थीं । कनेर की छाया लम्बी होती जा रही थी । 
"अभी तक तो कोई अता-पता नही है महारानी का । लंच तक भी आ जाएं तो भी मेहरबानी ही समझो । पट्ठी शान से दो--ढाई बजे तक आती है और दन्न से दसखत ठोकती है रजिस्टर में । हमें तो एक दिन को भी कभी छूट नही मिलती ..।"
"तो कुढ-कुढ कर तू क्यों सूखी जा रही है ?"--गोपाल रसीदन का चेहरा पढ लेता है ।
" सझती क्यों नही कि असली नौकरी तो उसकी अब भी यादव साहब के यहाँ ही है । यहाँ तो रजिस्टर में बस चिडिया बैठाने आती है ।"
रसीदन के कलेजे में एक असंभव सी इच्छा जागी---कितना अच्छा होता कि उसे भी ऐसे ही किसी सहाब के यहाँ काम करने का मौका मिल जाता । सारे 'दलिद्दर' दूर होजाते ..।
"इमरती आगई ।"--स्कूल के कर्मचारी ही नही जैसे दीवारें और पेड-पौधे भी बोल पडे । 
सबने घडी पर नजर डाली । दो बज कर पचास मिनट हो चुके थे । पाँचवा पीरेड भी खत्म होने को  था । यह भी कोई टाइम है आने का ।
"इमरती आजकल तो कुछ ज्यादा ही छूट चल रही है क्या बात है ?" सब देख रहे हैं प्रिंसिपल साहब ने इमरती को डाँटा है । वह सिर झुकाए खडी है । कुछ बुझी-बुझी सी लग रही है नही तो हँस कर ऐसा जबाब देती है कि सामने वाले का गुस्सा उडन-छू होजाता है । 
रसीदन को कुछ ठण्डक का सा अहसास हुआ । आखिर असली नौकरी तो यहीं है । तनखा भी तो यहीं से निकलती है । साहब का डाँटना बाजिब है ।
"क्या बात है इमरती । आज बडी चुप-चुप है ।"--गोपी ने पूछा ।
रसीदन के भीतर आवाज उभरी कि डाँट से बचने के नखरे हैं और क्या..। पर बोल पडा चिरोंजी ---
" इमरती तबियत खराब है क्या ? कुछ परेसान है ।"
"इस चिरोंजी को कुछ ज्यादा ही चिन्ता होती है । 'लुगमेहरा.'...।"--रसीदन और भी कुढ उठी । 
"लेकिन इमरती की आँखों के कोर कुछ गीले तो हैं । सचमुच परेशान तो है । हमेशा खनखनाती सी हँसी बिखराने वाली इमरती । गर्व से तन कर बात करने वाली इमरती । आज क्यों पेड से खींच कर हटाई गई बेल की तरह लग रही है । खुशी का कारण कोई पूछे न पूछे दुख का जरूर पूछता है । रसीदन का बडप्पन जागा ।
"क्या बात है इमरती बहन ।"
"क्या है कुछ भी तो नही ।"--इमरती हँसी । एक फीकी सी हँसी । 
"अरे ,परेशान है तभी तो पूछ रहे हैं री । हमें न बताएगी तो किसे बताएगी !" 
"क्या बताऊँ बहन । तबियत ठीक नही है । हाथ--पैरों से जान सी निकल गई है । उधर छोटा लडका कल सीढियों से गिर पडा सो उसके पैर में गहरी चोट आगई । रात भर दर्द से तडफता रहा । उस मारे सो भी नही पाई । "
रसीदन के मन में कौनसा भाव जागा यह तो पता नही पर उसने इमरती का हाथ थाम कर सान्त्वना दी और कुछ अचरज से बोली-- 
"अरे ..तुझे तो बुखार भी है री ।" 
हाँ ..होगा ।
"होगा क्या । छुट्टी ले लेनी थी ना ।"--रसीदन के भीतर बडी बहन जैसा ममत्त्व उमडा ।
"कैसे ले ले लूँ बहन ? नौकरी भी तो है । कल भी पाण्डे जी ने खूब सुनाईं थीं ।"
'ऐसी बडी नौकरी वाली है । जो काम नही करते वे ही काम का सबसे ज्यादा दिखावा करते हैं ।' रसीदन ने क्षणभर सोचा लेकिन कहा नही ।
बस एक स्नेहमय झिडकी निकली--
"ऐसी कौनसी इमरजेंसी है री ? नौकरी शरीर से बडी तो नही है न । और तेरा बेटा भी तो तकलीफ में है । उसका ख्याल तो कर ।"
"कैसे करूँ ख्याल ? तू ही बता ।---इमरती कुछ असहाय सी होगई--- यहाँ से तो छुट्टी ले भी लूँगी ,लेकिन सहाब के यहाँ तो सात बजे से डेढ-दो बजे तक की 'डूटी' बजानी ही बजानी है ।"
"तकलीफ हो तो भी ?"
"तुझे कभी इस तरह किसी सहाब के यहाँ काम नही करना पडा ना इसलिये । तकलीफ क्या करेगी ,तुम्हें काम तो करना ही है मरो चाहे गिरो ।" 
"ऐसे कैसे ?" अन्तिम शब्दों ने रसीदन के अन्तर-द्वारे खोले---"मर गिर कर कोई नौकरी होती है क्या ? उनके यहाँ ऐसी कौनसी मजबूरी है तेरी ?"  
"मजबूरी"---इमरती उपहास से हँसी । 
"मजबूरी की क्या बात है रसीदनबाई । उन्होंने नौकरी लगवाई है उसका 'औसान' तो चुकाना ही पडेगा कि नही ?"
" ऐहसान कैसा । कोई बिठाल कर खिला रहा है क्या । और अब तो तू परमानेंट होने वाली है और फिर यादव साब अब तो मंत्री भी नही है ।" रसीदन ने उसका मन टटोला । 
"अरे बहन ! अभी परमानेंट हुई तो नही हूँ । फिर बडे लोगों के हाथ बडे लम्बे होते हैं । नौकरी लगवा सकते हैं तो क्या छुटवा नही सकते । एक दिन लेट हो जाती हूँ तो चौकीदार बुलाने आजाता है तुरन्त । ना कहने का तो सवाल ही नही होता । मेरे भरोसे कितने काम पडे रहते हैं उनके ..।"
सन्तुष्टि बडप्पन लाती है । इमरती की बातों ने रसीदन को कुछ ऊँचाई दी लेकिन आखिरी वाक्य ने उसे फिर धम्म से नीचे जमीन पर बिठा दिया । मन में जमीन को कुरेद कर ही कुछ मनमाफिक पाने की चाह जागी । बात बदली--
" चल छोड । मैं तेरी मजबूरी समझती हूँ । जहाँ बात फँसी हो निभानी ही पडती है । पर तनखा तो वहाँ तुझे ठीक-ठाक मिल जाती होगी कि नही । पैसा ठीक मिले तो काम में मन भी लगता है । अपन लोग मेहनत से कब डरते हैं बहन ।"
"तनखा ?"..इमरती हँसी जैसे रसीदन ने बडी नासमझी की बात कहदी हो । 
"एक पैसा तो अलग से मिलता नही और तू तनखा की बात कर रही है । इसी एक तनखा पर दो जगह पिस रही हूँ । माना कि यहाँ कुछ खास काम नही है पर तीन-चार मील आना तो पडता है । दस--पन्द्रह रुपए रोज अलग से तो किराया लगता है । पहले तो वहाँ सौ--दो सौ रुपए दे भी देते थे पर अब तो तीज-त्यौहारों पर भी कुछ नही मिलता । छूछी साग-पूडी पकडा देते हैं वह भी रात की बची हुई । लेकिन काम तो करना पडता है ना । कभी--कभी तो.....।" इमरती आगे कहते--कहते रुक गई । सबसे हर बात तो नही न कही जाती । 
"य़ह तू क्या कह रही है इमरती ?" रसीदन ने जैसे आगे की बात का भी अनुमान लगा लिया । इससे वह सचमुच चकित थी । हमदर्दी से भरी भी ।
"दूसरे की खिचडी में घी ज्यादा लगता ही है । कौन जानता है कि नौकरी को बचाने के लिये मुझे कितना कहाँ पिसना पडता है ।" 
कुछ देर तक उस लम्बे बरामदे में मौन पसरा रहा । फिर अचानक इमरती की हँसी खनकी । हमेशा की तरह पूरे प्रांगण में गूँजती हुई । गोपी को समझाते हुए बोली ---"अरे बाबरे ! अभी तक कुछ नही सीखा तूने । 'पिरेंसीफल' साब के लिये ट्रे में गिलास रख कर लेजाते हैं पानी । सहाब के यहाँ तो....।"
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