मंगलवार, 5 मई 2015

मजबूरी

सन १९८० में लिखी गई यह कहानी एक रजिस्टर में दबी अचानक ही मिल गई .रचना का वर्ष भी उसी में लिखा था .अन्यथा मेरी स्मृति में थी ही नहीं .   लकड़ी बेचकर गुजारा करने वाले सहारियों के संघर्ष को कुछ अंश में मैंने भी देखा है . यह छोटी सी कहानी उसकी एक छोटी सी झलक है   .
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किसी आहट से हडबडाकर हंसुली ने आँखें खोली .देखा कि धूप पियराने लगी है .आसमान की ढलान से उतरते सूरज का चेहरा निस्तेज सा हो रहा था .पंछियों को अपने घोंसलों में लौटने सुधि आरही थी . खेतों में किसान भी हल-फावड़े समेटने लगे थे . खूंटे पर बंधे बछड़े-बछिया माँ की अगवानी में रंभाने लगे थे .सिर पर घास का बोझ लादे लौटती किसानिनें हँसुली की ओर देखती कहे जा रहीं थीं – बेचारी अभी तक यहीं बैठी है .किसी ने नहीं खरीदीं इसकी ‘मौहरी’( लकड़ियों का गट्ठर ) .
अवसाद की मोटी सी धुंध हँसुली के मन पर जम गई . जाने किसका मुंह देखकर चली थी आज .सबेरे की साँझा होने को आई ,अभीतक तक किसी ने उसकी लकड़ियों के सही दाम नहीं लगाए . गाँव के उस छोर पर बनी हीरा की झोपडी से लेकर इस छोर पर बने पण्डित सर्जूलाल के तिमंजिला मकान तक उसने चार चक्कर लगाए पर सबके मुंह पर एक ही बात चिपकी रही – अगर ‘उसने’ ने नौ लगा दिए हैं तो हम सवा नौ देंगे .जादा से जादा साढे नौ ..डाले तो डाल दे ..
चल तू अकेली रह गई है सो दस रुपैया तक दे सकते हैं .नहीं ? तो फिर जा ..कही और ..इससे ज्यादा तो कोई देगा भी नहीं .
देगा भी नहीं .. हँसुली मन ही मन भुनभुनाई – अभी पास के गाँव में उसकी साथिनों ने ऐसी ही मोहरी ,फिर कहो तो इससे भी छोटी पंद्रह ..भली अट्ठारह में बेचीं हैं .
बेचीं होंगी .-कोई लापरवाही से बोला – आज तुम्हारी गरज है ..नहीं तो सीधे मुंह बात भी नहीं करती हो .”
तो...? –हंसुली को ताव आगया .
का मुफ्त में दे जाएं ? भैया यह तो सोचो कि हम कैसे-कैसे यहाँ तक आते हैं . लकडियाँ बीनने में हाथ-पाँव लोहूलुहान हो जाते हैं ..
वो तू जाने . सरजू पण्डित आकर बीच में ही बोल पड़े – दस रुपए में देनी हो तो अभी मेरे घर डालडे  .
हँसुली ने देखा कि पण्डित जी का चेहरा चमक रहा है . रोली का तिलक लगा है संपन्न दीखते है . दाम तो सही दे ही देंगे .
म्हाराज दस तो बहुत कम हैं . दिन भर की मजूरी में दिन भर का पेट तो भरे .आप अठारह नहीं तो पन्दरह तो दे दें ... हँसुली ने दीनता से कहा पर पण्डित जी बिना सुने ही भीतर चले गए .वह मोहरी दीवार से टिकाए खड़ी रही .   
तभी उधर से चमन बौहरे निकले . पंसारी की दूकान चलाने के साथ ब्याज भी कमाते थे .सम्पन्न होने के साथ कंजूस भी थे . आँखों को धूप से बचाने उन्होंने हथेली को माथे पर छतरी की तरह तान रखा था
यों उन्हें लकड़ियों की जरुरत न थी .उनके कर्जदार साग-सब्जी , घास-भूसा ,कंडे-लकड़ी उनके घर ऐसे ही डाल देते थे .ताकि बौहरे जी प्रसन्न रहें और वसूली में ज्यादा कठोरता न दिखाएं साथ ही आगे जरुरत पड़ने पर रुपया देने में आनाकानी न करें .
लेकिन उन्हें पता चला कि एक ‘सहरनी ’( सहारिया आदिवासी) को अभी तक कोई ग्राहक नहीं मिला है और सौदा सस्ते में पट जाएगा तो उन्होंने आखों को और भी छोटी करते हुए लकड़ियों का वजन अनुमाना .फिर हँसुली को देखा –सांवले चेहरे पर उभरी हड्डियों के बीच गड्ढे में धंसी सी आँखों में उम्मीद की हल्की सी किरण , पीठ से मिलजाने को आतुर सा ,पल्लू से दिखता अनेक सिलवटों वाला पेट ,खुरदरे हाथ-पाँव ,रूखे-उलझे बालों से बहती पसीने की लकीरें ..सहानुभूति दिखाने का विचार हवा होगया . उपेक्षा से बोले --
माल तो नौ का भी नहीं है . पर तेरी हालत देख मैं दस रुपए या दो सेर बाजरा दे सकता हूँ . बाद में आठ भी नहीं मिलेंगे .सोचले ..
सारी मुफत में ही क्यों नहीं छुड़ा लेते बौहरे जी ?"--हँसुली आहत होकर बोली--"अपने लिए कैसे हुशियार हो .कोई नोंन की डरी तो उठाले ...
नहीं तो न सही . तुझे जहां परता पड़े वहां दे देना ..
चमन बौहरे ने बड़ी निस्संगता से कहा और बिना मुड़े सीधे चले गए .जाहिर है कि उन्हें सौदा हाथ से जाने की चिंता नहीं थी .
तब से दिन ढलने को आया . हँसुली की मोहरी अभी तक ग्राहक के इन्तजार में थी .
कैसे लोग हैं .---हँसुली निराश होकर सोच रही थी .
घर बैठे चीज माटी मोल चहिये इन्हें .पर कैसे दे दें ? एक-दो मौहरी के लिए भूखे प्यासे जंगल में रातदिन भटकना पड़ता है .कांटे लोहूलुहान कर देते हैं .उस पर नाकेदार सूखी टूटी लकडियाँ बीनने में दस झमेले करता है .डरा-धमकाकर मुंह से कौर डरा लेता है . लोग जेब में रुपया ठूँसकर हरे-भरे पेड़ काट ले जाते है .और चोरों पर तो कोई जोर ही नहीं होता .बस हम गरीबों का ही कोई आसरा नहीं है .अठारह बीस की मोहरी दस में ! इतना घाटा कैसे सहे हँसुली ? दो दिन पेट भरने लायक बाजरा आजाएगा दस रुपैया में .हल्कू ‘ताव’ (बुखार) से तप रहा होगा और उसका कहीं धुत्त पड़ा होगा .ठीक दाम मिलने की आस में पूरा दिन ऐसे ही चला गया .आज भाग ही खोटा है और क्या...
अभी तक नहीं बिची तेरी मोहरी ?
चमन बोहरे लोटा लेकर दिशा-मैदान जा रहे थे .हँसुली को देख रुक गए .
मैंने तो पहले ही कहा था कि मेरे घर डालडे ..अब भी सोचले ..पर हाँ अब दूंगा नौ ही रुपए ..कोई जबरदस्ती नहीं है . तेरी इच्छा हो तो ...

हँसुली ने बौहरे को देखा .अपनी मोहरी को देखा .ढलते सूरज को देखा ,अपनी बस्ती की दो कोस की दूरी देखी और हारकर मौहरी उठाकर मंगलिया के घर की और चलदी .