बुधवार, 14 दिसंबर 2011

पार्ट-फाइनल

यह कहानी आर्य-स्मृति साहित्य-समारोह( किताबघर दिल्ली )2011 के लिये चयनित कहानियों के संकलन--रामलुभाया हाजिर है-- में संग्रहीत है । इस बार आर्य-सम्मान हेतु भ्रष्टाचार केन्द्रित कहानियाँ व आलेख संकलित किये गए लेकिन पुरस्कार योग्य कोई रचना न होने के कारण( जैसा कि आयोजक महोदय ने बताया) केवल प्रोत्साहन स्वरूप ही कहानी-संग्रह व आलेख-संग्रह छाप कर स्मृति--समारोह सम्पन्न किया जारहा है । मैं लगभग दस वर्ष पहले लिखी इस कहानी को तो पुरस्कार योग्य मानती भी नही हूँ । लेकिन कोई भी रचना पुरस्कार योग्य नही मिली, यह स्थिति सोचनीय है । खैर संग्रह आने से पहले आप उस कहानी को यहाँ पढ सकते हैं । सुधी पाठकों द्वारा पढना व समालोचना करना किसी भी रचना का सबसे बडा पुरस्कार है । पढने के बाद पहले की तरह अपने अमूल्य विचारों से मुझे अवश्य प्रोत्साहित करें ।
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"बिना शपथ--पत्र के पैसा तो नही मिलेगा । किसोरीलाल यह तो आपको बनवाना ही पडेगा ।"
शा.उ.मा.वि.रानीगंज के प्राचार्य--कक्ष में यह वाक्य गूँजा तो किसोरीलाल को लगा जैसे बाल्टी घाट तक आते आते हाथ से छूट गई है और फिर से कुए में जा गिरी है । बचपन में जब वे लोग गाँव में रहते थे अक्सर ऐसा होता था । माँ पूजा के लिये कुए के ताजे पानी का इन्तजार करती थी और किसोरीलाल बाल्टी निकालने के लिये बदहवास से गाँव में बिलैया (लोहे का काँटा) तलाशता फिरता था । कुए में बाल्टी का गिर जाना एक बडे हादसे जैसा होता था क्योंकि पहले तो घरवालों की डाँट-फटकार ही काफी त्रासद हुआ करती थी फिर काँटे में बाल्टी या कलशा को काँटे में फँसाना और निकालना भी बडे कौशल और धीरज का काम हुआ करता था । जब तक बर्तन हाथ में नही आजाता था साँस ऊपर खीचे जा रहे बर्तन में ही अटकी रहती थी । अक्सर ऐसा होता था कि ऐन हाथ में आते--आते बर्तन काँटे की पकड से छूट कर फिर से कुए में जा गिरता था ।
प्रिंसिपल साहब की बात सुन कर आज भी किसोरीलाल को ऐसा ही लगा जबकि निशान्त के जाने की सारी तैयारियाँ हो चुकी थी । भविष्य-निधि से अपना ही पैसा निकालने के लिये आवेदन-प्रस्तुत करने से लेकर उसकी स्वीकृति तक उसे कितनी भाग--दौड करनी पडी है । पग-पग पर उसे अहसास होता रहा है कि वह फर्जी काम कर रहा है । अब यह एक और फर्जी काम । शपथ-पत्र कब बनवाए । समय कहाँ है इतना । न शपथ-पत्र होगा न फण्ड की राशि मिलेगी और न ही समय पर निशान्त कालेज जा सकेगा । पैसा हाथ में आते--आते रह गया ।
उसकी समझ में नही आरहा था कि अब शपथ-पत्र की जरूरत क्या है । आखिर प्राचार्य और एकाउण्टेंट कमल कौशिक की सलाह पर ही तो उसने पार्ट-फाइनल के लिये पुत्र के विवाह को आधार बनाया था । यह जानते हुए भी कि यह फर्जी है वह पतंग की तरह उनकी उंगलियों के संकेत पर पर ही तो उडता रहा है । फिर शपथ-पत्र का यह नया अडंगा किसलिये ?

पिछले माह जब बडे बेटे निशान्त का आई.आई.टी की परीक्षा का शानदार परिणाम आया था । मित्रों व रिश्तेदारों के बधाई सन्देश मिल रहे थे तब , खुशी से ज्यादा चिन्ता खाए जा रही थी किसोरीलाल को कि पैसे का बन्दोबस्त कैसे होगा ! सारी जमापूँजी तो पहले ही खर्च होगई थी । कुछ पिताजी के मृत्यु-भोज पर और कुछ बडी बेटी श्वेता की शादी पर । हाँ भविष्य--निधि में जरूर डेढ--दो लाख पडा हुआ था । लेकिन...। और उसे निकालना क्या इतना आसान है !
"यार किसोरी ,फण्ड का पैसा बाद में किस काम आएगा ! तू तो जानता ही है कि 'पूत--सपूत तो का धन संचय...।' जितना भी बचा है निकाल ले और खुशी-खुशी बेटे का एडमीशन करवा । अभी तो एक डेढ महीने का समय है तेरे पास ।"  एक--दो शुभ-चिन्तकों ने रिजल्ट आते ही सलाह दी थी ।
किसोरीलाल को लगा कि ये शुभ-चिन्तक शायद घबरा रहे हैं कि कहीं वह उनसे उधार न माँग बैठे । 
उसकी पत्नी बोली----"ठीक ही तो है जब तक हम अपना काम खुद चला सकते हैं किसी और से पैसा लेना ठीक नही । सब आसान होजाएगा कोशिश करके तो देखिये । आज ही फार्म भरो और भविष्य--निधि से जरूरत की रकम निकाल लो । अभावों भरे कठिन समय में भी हमने निश्चिन्त होकर अपने काम चला लिये तो अब तो हमारा बेटा काबिल बनने जा रहा है ।"
किसोरीलाल को याद है कि बेटी के विवाह के बाद उनके पास गुजारे के लिये भी और कर्ज चुकाने के लिये भी केवल वेतन ही था । उसी से तीन बच्चों की पढाई का खर्च भी चलाना था । फिर भी उन्होंने कभी मन मैला नही होने दिया । 'सांई इतना दीजिये,जामै कुटम समाय ,मैं भी भूखा ना रहूँ साधु न भूखा जाय । --के सिद्धान्त को जीवन में उतार लेने वाला किसोरीलाल उन अध्यापकों में से रहा है जिसने ईमान को अपना धर्म और अध्यापन को उपासना की माना है । उसका दृढ विश्वास रहा है कि परिश्रम और ईमानदारी का प्रतिफल जरूर अच्छा मिलता है । जब उनके बच्चे अच्छे अंक लेकर पास होते हैं या किसी श्रेष्ठ कार्य के लिये पुरस्कृत होते हैं किसोरीलाल उसी बात को विश्वास के साथ दोहराता है कि आपकी ईमानदारी को कोई देखे न देखे ईश्वर जरूर देखता है ।
किसोरीलाल ने उसी दिन ऑफिस में आवेदन-पत्र प्रस्तुत कर दिया था । लेकिन वह शुरुआत ही आपत्ति से हुई । कमल ने बिना देखे ही आवेदन वापस कर दिया । कहा ---" साहब को नही दिखाया ,पहले साहब को दिखा लो । उनकी टीप के बाद ही मैं स्वीकार करूँगा ।"
एकाउन्टेंट कमल कौसिक ने ऑफिस में अपना लेबल बना कर रखा है । कोई जानकारी माँगने या देने आए उससे पाँच-दस मिनट इन्तजार करवा कर ही फाइलों से नजर हटा कर देखता है फिर कहता है --हाँ बताइये क्या काम है । सवाल का जबाब तुरन्त दे देना बाबू--धर्म के खिलाफ है । संस्था सदस्यों के बीच वह कमलवत् ही रहता है । इससे उसे बडा लाभ मिला है । हर कोई उसके पास सोच-समझकर जाता है । 
पहले वाला बाबू तो घर की मुर्गी होगया था । मौसम पर अधिक मात्रा में आगई सब्जी की तरह सस्ता ..। जब देखो उसके आजू-बाजू जानकारी लेने व देने वालों की भीड उसी तरह लगी रहती थी जिस तरह ज्वेलरी या साडियों की सेल में महिलाओं की भीड देखी जाती है । कोई वेतन-वृद्धि लगाने की बात करता तो कोई क्रमोन्नति आदेश दिखाता । कोई सेलरी--स्लिप माँगता तो कोई मेडीकल बिल पास करवाने की सिफारिश ले आता । अब कमल कौसिक से कोई कुछ पूछ तो ले इतनी आसानी से । "अभी काम कर रहा हूँ, बाद में आना" --यह तो जैसे उसका तकिया कलाम है ।

साहब ने किसोरीलाल का आवेदन सरसरी नजर से देखा और लगभग झिडकते हुए कहा---"अरे ,क्या तुम्हें इतना भी नही पता कि कोई प्रपत्र सीधे मेरे पास नही लाया जाता ? जाओ पहले कमल को दिखा दो फिर ले आना ।" और इसके बाद तो पार्ट--फाइनल के लिये जिस तरह कडी धूप में बॅाल की तरह इधर से उधर लुढकता रहा उसे बराबर लगता रहा कि आवेदन-पत्र देकर उसने जैसे कोई अनधिकार चेष्टा करदी है । कोई टुटपुँजिया सा अपराध ।
  अधिकारियों को आवेदन करना ही--चाहे आवेदन एक दिन के आकस्मिक अवकाश के लिये ही क्यों न हो, जाने क्यों अनधिकार चेष्टा लगता है । और एक बार तो जरूर मना ही करते हैं ।
किसोरीलाल के कागजात कमलबाबू के हाथ में लौट कर आए तो उसने बखिया से उधेडे । बिना घुमाए--फिराए ,या बिना कोई मीन-मेख निकाले ही और एक बार कहने पर ही काम ओ.के. करदे तो फिर वह बाबू कैसा ! आवेदन-पत्र के साथ फार्म उलट-पलट कर देखे और व्यंग्यात्मक लहजे में पूछा --
"सर जी ! आपने आवेदन तो कर दिया पर फण्ड निकाल किस आधार पर रहे हैं ?
"आधार साफ तो लिखा है ,पुत्र की उच्च शिक्षा हेतु ।"---किसोरीलाल ने कुछ हैरान होकर कहा क्योंकि यह प्रश्न प्रश्न न होकर अप्रत्यक्ष रूप से आपत्ति ही था ।
"साफ तो आप कह रहे हैं किसोरीलाल जी ! पर हमारी समझ में भी तो साफ ही आना चाहिये न ।"
"पर इसमें साफ क्या नही है कमलबाबू ? आप भी जानते हैं कि मेरा बेटा बी.टैक. के लिये रुडकी जा रहा है । क्या बच्चों की शिक्षा के लिये जी.पी.एफ. से रकम नही निकाल सकते ?"
"सर जी ! यह आप पूछ रहे हैं या बता रहे हैं ? कमल कुछ नाराज होकर बोला--- "उच्चशिक्षा के लिये जी.पी.एफ. से रकम निकालने का कोई प्रावधान नही है । आप कोई अकेले या खास तो हैं नही जिनका बेटा बी.टैक. करने जारहा है । आजकल गली--गली में इंजीनियर चप्पल चटकाते घूम रहे हैं ।"
किसोरीलाल की समझ में नही आरहा था कि संस्था के कर्मचारियों का विधाता बना बैठा यह एकाउन्टेंट नियम समझा रहा है या अपनी ईर्ष्या निकाल रहा है ।शासकीय विद्यालय हों या दफ्तर माना कि हर संस्था के अपने नियम व दस्तूर होते हैं । और कर्मचारी से अपेक्षा रहती है कि वह बुद्धू बन कर उन्हें बस निभाता चले । पर नियमों का भी कोई ईमान--धरम तो हो ।
" प्रावधान नही है !"---किसोरीलाल को हैरानी हुई । उच्च-शिक्षा के लिये जी.पी.एफ. से आंशिक अन्तिम निकालने का प्रावधान तो है । इस विषयक उसने नियम पढे भी हैं और कई साथियों ने भी उच्चशिक्षा के लिये जी.पी.एफ.से धन निकाला है । सिटी हास्पिटल के सुनील मित्तल ने अपनी बेटी के मेडीकल कालेज में एडमीशन के लिये उच्चशिक्षा के लिये ही फण्ड निकाला था । इसी तरह गोरखी स्कूल के सुशील ने दो महीने पहले ही पी.एच.डी के लिये फण्ड से ही पैसा निकाला था । लेकिन यह सब बताना तो हिमाकत होगी । ऑफिस के बाबू से अधिक जानकार कोई नही होता । और होना भी नही चाहिये । यह उसकी गरिमा का हनन होगा ।
किशोरीलाल उन लोगों में से नहीं है जो सच को भी विश्वास के साथ नही बोल सकते और जरूरी होने पर भी लीक तोडने में घबराते हैं । उन्हें बने-बनाए रास्ते पर ही चुपचाप चलते रहना ही ठीक लगता है । 
कमल जी सभी तरह के लोगों को आसानी से पहचान लेते हैं । उनकी छठी इन्द्रिय ने किसोरीलाल के भाव को तुरन्त ताड लिया । बोले----"हम अपनी तरफ से कुछ कहाँ कहते हैं सर जी जो नियम हैं उन्हें ही बता रहे हैं । या फिर आपको उन पर भरोसा है जिन्होंने शिक्षा के लिये फण्ड निकाला है तो उनसे निकलवा लीजिये । और फिर आप इतना कुछ जानते हैं तो फिर मुझसे क्या पूछने आए हैं ।" किसोरीलाल के पास जैसे कुछ कहने को बचा ही नही ।
 पिछले साल जब किसोरीलाल नया--नया आया था एरियर--भुगतान को लेकर जो जो कह गया था शायद उसी को लेकर कमल कौसिक उससे इतना तल्ख रहता था ।
बात यह थी कि पिछली जुलाई में डी.ए. का एरियर निकलना था । उसकी वैसे तो सभी को जरूरत थी पर किसोरीलाल को खास तौर पर थी । उसे निशान्त के लिये एक छोटी सी गाडी लेनी थी । बेचारा आठ कि.मी. रोज साइकिल से ही कोचिंग जाता था । थका होने से ज्यादा पढ भी नही पाता था । सोचा कि गाडी से जाएगा तो समय और शक्ति दोनों की ही बचत होजाएगी । लेकिन कमलबाबू थे कि एरियर को निकालने के लिये टालमटोल करते हुए उसी तरह देर लगा रहे थे जिस तरह पिछली सदी के पाँचवे दशक में लडकियाँ ससुराल जाने के लिये ना नुकर करती हुई तैयार होने में देर लगातीं थीं । किसोरी की दादी कहा करतीं थीं कि कई बार तो लडकी इतना रोना मचाती थी ,इतनी देर लगा लेती थी कि पाहुना बैरंग वापस होजाता था ।
क्या एरियर की रकम को भी ऐसे ही वापस भेजने का विचार है जो...?---किसोरीलाल ने पहले तो परिहास के रूप में ही लेते हुए कहा लेकिन जब उसे पता चला कि एरियर भुगतान के लिये सबसे पाँच--पाँच सौ रुपए की वसूली की जा रही है । जो दे देगा उसका बिल बन जाएगा --- यह बात विज्ञान सहायक गुप्ता ने चुपचाप बताई । तब रुपए देने के लिये सबसे पहले किसोरीलाल ने ही इन्कार किया था । कहा कि, "यह तो सरासर ज्यादती है । अपना रुपया भी अब इस तरह ले देकर निकालना होगा !! यहाँ तो पचास रुपए भी अतिरिक्त खर्च के लिये नही है पाँच सौ कहाँ से लाएं । ऐसा करें कि पहले एरियर का भुगतान करदें फिर थोडा--बहुत ले लें ।"
हर संस्था में ऐसे एक-दो ही लोग तो होते हैं जो किसी साँचे में ढलने से पहले शरीर को अकडाते जरूर हैं । चाहे हड्डियों में जान न हो । ऐसे लोग किसी भी संस्था के लिये ठीक नही होते । उन्हें अपनी लिस्ट में रखना आसान भी है और जरूरी भी । 
लेकिन गलत क्या कह दिया था किसोरीलाल ने ? 
इसे वह आज तक नही समझ पाया कि कब और कैसे एक सही और अच्छी बात के भी गलत मायने हो जाते हैं ।  विद्यालय में ऐसी और भी बहुत सी बातें हैं जो किसोरीलाल की समझ में जरा भी नही आतीं । जैसे कि आठवीं तक बिना पढे ही पास हुए छात्रों को ,जो बारहखडी व मात्राओं से भी सही तरीके से परिचित नहीं हैं, कैसे सही तरीके से पाठ्यक्रम के अनुसार पढाने के सख्त निर्देश दे दिये जाते है । सिर्फ पढाने के ही नही रिजल्ट भी कम से कम नब्बे प्रतिशत होने के भी । कि क्यों ग्यारहवीं कक्षा उससे पढावा कर जबकि वह हिन्दी--साहित्य की हर बात-रस छन्द, अलंकार भाषा आदि को गहराई से पढाता है ,वे ही छात्र बारहवीं कक्षा में उससे ही न पढवा कर आर.बी. आर्य को पढाने दिये जाते है । जबकि छात्रों की विशेष माँग रहती है कि उन्हें किसोरी सर ही हिन्दी पढाएं । 
सब जानते हैं कि किसी भी कक्षा में पूर्व कक्षा का ज्ञान एक धरातल का काम करता है । किसोरीलाल को तो हमेशा नवमी या ग्यारहवीं का सेक्शन डी, ही जो सबसे कमजोर होता है ,पढाने दिया जाता है । ऐसा क्यों है वह नही समझ पाता । वैसे उसे प्रभारों में कोई रुचि नही । उसे तो पढाने से ही मतलब रहता है फिर भी यह बात उसे चकित करती है कि तेज व व्यवस्थित कार्यशैली ,साफ--सुथरा सुन्दर लेख होने के बावजूद उसे न कोई कैशबुक भरने दी जाती है नही कभी एक्टिविटी व परीक्षा जैसे प्रभार मिले । और यह भी कि कुछ लोग कैसे चाहे जब छुट्टी पर चले जाते हैं । जबकि किसोरीलाल को जरूरी काम के लिये भी छुट्टी माँगने से पहले दस बार सोचना पडता है । और एक बार में तो साहब कभी हाँ नही कहते । पहले दस व्याख्यान सुनाते हैं तब कहीं मंजूर करते हैं । इस दृष्टि से किसोरीलाल मूर्खों की श्रेणी में आता है । अव्यावहारिक ,निरा नासमझ ।
इस तरह की 'अव्यावहारिकता' व 'नासमझी' उसमें वंशानुगत है । उसके पिता मास्टर सन्तोषीलाल भी ऐसे ही थे । उन्हें प्रार्थना के बाद तुरन्त रजिस्टर लेकर कक्षा में पहुँचने की और बच्चों को पढाने की लत थी । चाहे उपस्थिति पंजी में हस्ताक्षर हों न हों ( वह तो बाद में भी होते रहेंगे) एक बार को हेडमास्टर जी से भी दुआ-सलाम न हो पर कक्षा में छात्रों को कक्षाध्यापक का इन्तजार न करना पडे । 
वे डायरी भरने में भी सबसे पीछे रह जाते थे इसलिये प्रायः अधिकारियों की नसीहतों के शिकार भी होते थे । इस पर भी वे खुद को ही सही मानते हुए कहते थे कि काम को लिख कर बताना जरूरी नही ।कक्षा में जाकर देखो अपने आप पता चल जाएगा । लोग मन ही मन उन पर हँसते थे । चले हैं अधिकारियों को सिखाने । अधिकारी को सन्तुष्ट नही कर पाए तो क्या समझ और कैसी बुद्धि ..।
सन्तोषीलाल की 'नासमझी' का बडा नमूना यह था कि बच्चों को सिखाने--पढाने की धुन में उन्हें पता ही नही रहता था कि कब कौनसी किश्त वेतन में जुड गई है । एक बार उनका वेतन पता नही किस नियम के तहत काट लिया गया । पता चलने पर उनके साथियों ने कहा कि बाबू से बात करलो । तो नाराज होकर बोले--क्या यार, गलती उसी की है उसी को ठीक करनी होगी ।
पर ठीक करने को तुम्हें कहना होगा मास्टरजी । कुछ देकर पिण्ड छुडालो वही ठीक होगा । वेतन कटना कोई अच्छी बात नही है ।"
"यह भी खूब रही ! गलती उसने की है ,उसे सुधारने के लिये पैसा मैं दूँ ? जब हम अपना काम सही कर रहे हैं तो बाबुओं को भी सही ही करना चाहिये । नही ?" और इस तरह सन्तोषीलाल के सिद्धान्तों के कारण वह वेतन पूरे साल अटका रहा । अपना जरूरी काम करवाने के समय सिद्धान्तों को राह में अडा देना कौनसी समझदारी है भला । इसीतरह वे भण्डारा ,गणेश व दुर्गा--उत्सव आदि के लिये चन्दा माँगने वालों को रुपए देने के नाम वे हमेशा विरोध करते थे । कहते थे----इससे तो अच्छा है कि तुम बेचारे सुखुआ के बच्चों को कपडे सिलवा दो । भरी सर्दी में नंगे पाँव और उघारे बदन फिरते हैं । या उस बूढी अम्मा के लिये साडी और कुछ खाने-पीने का इन्तजाम करदो जो चार पैसे की आशा लगाए रोज सुबह से शाम तक सडक के किनारे बैठी रहती है और आने-जाने वालों को दुआएं देती रहती है । वे यह नही सोचते थे कि इन गतिविधियों का भी एक सामाजिक महत्त्व है । लोग उन्हें नास्तिक, असामाजिक ,एकाकी.. क्या-क्या कहते थे ।
"ये सिद्धान्त--विद्धान्त कुछ नही है ।"---सन्तोषीलाल की पत्नी कहतीं---"यह तो निरी नासमझी है । व्यर्थ ही हवा के विपरीत साइकिल खींचने की सनक...और क्या ।"
यह ठीक है कि किसोरीलाल में हवा के विपरीत साइकिल खींचने की सनक तो नही थी । पिता की तरह--कै हंसा मोती चुगे कै लंघन मर जाय--वाला प्रण-- उसने छोड दिया है ,पर किसी गडहे--पोखर में से पानी पीने की बजाय तो उसे भी प्यासा रहना ही पसन्द है । 
तो मरो प्यासे । एक शब्द 'लेकिन' उसके साथ आज भी चिपका है, बालों में च्यूइंगम की तरह , बाल काटे बिना नही छूटेगा श्रीमान् जी ।
हालांकि एकाउन्टेंट कमल कौशिक की टालमटोल व रुखाई किसोरीलाल को उसी तरह अखर रही थी जिस तरह ऑफिस को लेट हुए आदमी को ट्रैफिक-जाम अखरता है । फिर भी अपनी गरज थी । बच्चे को किसी भी तरह कालेज तो भेजना ही था । वह विनम्रता के साथ बोला ---"तो कमलबाबू आप ही बता दें कि फण्ड किस आधार पर निकाला जासकता है ।"
"देखिये किसोरीलाल जी ! मैं आपको वही समझा रहा था । पार्ट फाइनल केवल तीन आधारों पर ही निकाला जा सकता है --गंभीर बीमारी हो ,पुत्र या पुत्री का विवाह हो या फिर प्लाट या मकान खरीदना हो । आप कौनसे आधार पर निकालना चाहेंगे ?"
"लेकिन क्या यह गलत नही होगा बाबूजी ?"----किसोरीलाल का वही 'लेकिन' आकर बीच में अड गया----"सच तो यही है कि मुझे पुत्र की उच्च शिक्षा के लिये ही रुपया निकालना है । न मुझे कोई बीमारी है न ही किसी बच्चे की शादी है । और प्लाट या मकान खरीदने की अपनी कुब्बत नही है ।"
"तब आप पार्ट-फाइनल नही निकाल सकते । हाँ एडवांस निकाल लो । हर महीने जमा करते रहना ।"--कमल ने दो टूक उत्तर दिया ।
"लेकिन उससे फीस नही भरी जासकती कमलबाबू । मुझे तकरीबन साठ-सत्तर हजार चाहिये ।"
"तब आपको उनमें से ही कोई आधार चुनना होगा । इनके आधार पर ही आप फण्ड निकाल सकते हैं । वरना नही....आप देखलो...।"
बडे अजीब नियम--कायदे है इनके ! बच्चों को पढाओ मत पहले शादी करदो क्योंकि पढाई को सरकार जरूरी ही नही मानती । या फिर कुछ न हो तो बीमार हो जाओ । न होना हो तब भी । किसोरीलाल के दिमाग में कोई डाली जैसे चरमराकर टूटी । 
उसे याद है जब नौकरी लगी ही लगी थी साथ में एक नव-नियुक्त महिला केतकी भी थी । जब उसे प्रसूति-अवकाश की जरूरत पडी तो हेडमास्टर तोमर ने उसे डेढ माह का ही अवकाश दिया । वह लाख कहती रही कि सर तीन माह के अवकाश का प्रावधान है पर उन्होंने कहाँ सुनी यह बात । उसका पति अनपढ था और उसके पास भाग-दौड करने का समय नही था । बेचारी केतकी पन्द्रह दिन के बच्चे को घर छोड कर स्कूल आने लगी । एक माह पहले जो अवकाश ले लिया था उसने । ये सारे नियम--कायदे जरूर इनके अपने थोपे हुए हैं ।
"जानकारी के अभाव में ही यह सब देखना पडता है । यदि हर कर्मचारी को नियमों की जानकारी हो तो ऐसी परेशानियाँ न उठानी पडें ।" किसोरीलाल ने कहा तो उसके सेवा-निवृत्त साले रमनसिंह ने जो ऑफिस--ऑफिस का पानी पिये हुए था, समझाया---" अरे भाई जानकारी हो तो भी क्या कर लोगे । अधिकारी का एक अपना संविधान भी होता है । कर्मचारी उससे अलग नही जासकता । जो जाता है वह उलझा ही रहता है । अब तुम नियमों की खाक छानते फिरोगे और उधर निशान्त के एडमीशन का समय पास निकल जाएगा । क्या होगा ऐसे नियमों के राग आलाप कर । भले आदमी तुम जितना नियम-कानून की सुरंग में घुसते जाओगे उतने ही अँधेरे में भटकते जाओगे । चलो मानता हूँ कि तुम्हारे तर्क सही हैं । उच्चशिक्षा के लिये फण्ड से पैसा निकालने का नियम जरूर है ,पर तुम तब तक नियमावली लाओगे एक तो इसके लिये तुम्हारे पास समय नही है दूसरे तुम इस बात पर उसे सहमत कर भी लोगे तो वह कोई दूसरा ऑब्जेक्शन लगा देगा । कर्मचारी को परेशान करने के बाबू को एक सौ एक हथकण्डे आते हैं । तुम उससे नही जीत सकते जब तक कि हर तरह की हानि का साहस रखते हुए लडाई को पार तक न ले जाओ । तो यों समझो कि तुम्हारे स्कूल का बाबू ही तुम्हारा नियन्ता है । क्योंकि उसे प्राचार्य से विशेषाधिकार मिले होते हैं । क्यों--यह बताने की जरूरत नही । उसकी कृपा के बिना तुम्हारी कोई गति नही है । इसलिये यह लेकिन-वेकिन जैसे शब्दों का छोंक लगाने से सारा टेस्ट बिगड जाता है । जैसा कमल कहता है वैसा ही करदो । तुम्हें आम खाने कि पेड गिनने । उच्चशिक्षा के लिये नही है तो न सही । तुम तो शादी के नाम पर ही आवेदन करदो मेरे भाई ।"
"किसकी शादी ?"
"अपनी और किसकी ..।"----रमनबाबू ने जोरदार ठहाका लगाते हुए कहा---"अरे भाई बेटे की शादी के लिये फण्ड निकाल लो ।"
"लेकिन, रमन भाई जब शादी है ही नही तो...।" किसोरी हिचकिचाया ।
"फिर वही लेकिन ..! अरे श्रीमानजी ,काम निकालने के लिये आजकल झूठ भी बोलना पडता है । पैसा तो अपना ही है । कोई चोरी तो कर नही रहे । बस पीली चिट्ठी किसी पंडित से बनवा लो । पच्चीस-पचास भेंट कर देना और क्या..।"
"केवल पीली चिट्ठी ?"--किसोरी को उलझन तो हो रही थी पर रुपयों की उसे सख्त जरूरत थी । जरूरत इन्सान से कुछ भी करा सकती है ।
आजकल पढाई भी कितनी मँहगी होगई है --इस बात का किसोरी को अब ज्यादा अहसास हो रहा था । गरीब की तो बात छोडिये ,मध्यम वर्ग वाला आदमी भी उच्चशिक्षा के नाम पर टें बोल जाता है । पढाई या तो अमीरों के हिस्से की है या फिर अब अनुसूचित जातियों की । कैसा अन्धेर है , सहायता के लिये आर्थिक मापदण्ड न रख कर जाति के आधार पर रखना । इन्हें तो पढाई में भी तमाम सुविधाएं मिलीं हुईं हैं और फिर नौकरी में भी छूट है । मरना तो सामान्य निर्धन और मध्यमवर्ग का है ।
पीली चिट्ठी लिखवाते समय लडकी का नाम सोचने में ही जैसे उसे धूप में मीलों पैदल चलने जैसा अहसास हुआ । सब कुछ तो फर्जी था । लडकी ,लडकी के माता--पिता, शहर ,तारीख सब कुछ ..गलत मन गढन्त । पंडित जी जो ऐसे मामलों के अभ्यस्त थे ,मुस्कराते हुए नाम सुझा रहे थे --तो किसोरीलाल लडकी का नाम क्या सोचा । नही सोच पाए । चलिये मैं ही लिख लेता हूँ -अर्पणा ठीक है ?और माता पिता..? पिता राजेन्द्रप्रसाद और माता कुन्ती देवी । नाम ठीक लगे ?? किसोरीलाल की जुबान को ताला लग गया था । निशान्त की जिन्दगी के सबसे महत्त्वपूर्ण लोग पूरी तरह काल्पनिक थे । एक असन्तोष व अपराध बोध अंकुरित हो रहा था जिसे केवल यह तसल्ली रोके थी कि वह किसी और का पैसा तो नही लूट रहा । जब इतने आवश्यक व महत्त्वपूर्ण कार्य के लिये सरकार पैसा निकालने का प्रावधान नही रखती तो वह फिर करे क्या । बच्चों को तो पढाना ही होगा न ।
फार्म भेजने के पन्द्रह दिन बाद किसोरी ने फण्ड की स्वीकृति के बारे में कमल कौशिक से पूछा । तो कमल ने उत्तर एक प्रश्न के रूप में दिया--
"आप डी. . ऑफिस में किसी से मिले ?"
"नही । मिलना पडेगा ?"
"कौनसी दुनिया के हो किसोरीलाल जी ! हर कोई मेरी तरह तो नही है न कि सिर्फ कहने भर से काम होगया । दफ्तर में चक्कर लगाए बिना ,बाबुओं से मिले बिना एक तिनका इधर से उधर नही होगा । आप छह महीने क्या साल भर बैठे रहो .."
"अपना ही पैसा पाने के लिये यह एक और कवायद ? निवेदन और खुशामद..? और इसके बाद भी कुछ पता नही कि कब काम बने ।
किसोरी लाल को दफ्तर में चप्पलें घसीटना बडा नागवार गुजरता है । एक तो कभी कोई सीट पर नही मिलता । दस जगह पूछते फिरो--"क्यों भाई पाठक जी कहाँ हैं ?"
"अपनी सीट पर ही होंगे ।"
"नही हैं ।"
"तो फिर यहीं कहीं होंगे । वेट करलो आ ही रहे होंगे ।" जबाब देनेवाला जाने कहाँ गुम हो जाता है । पाठक जी कहो तो चार दिन तक भी न मिलें । और मिल भी जाएं तो सीधे मुँह बात नही करें । या बहुत विजी हों । दोस्तों से गपियाने में या फोन पर किसी से बतियाने में । आखिर एक भुक्तभोगी ने आसान रास्ता बताया---"भैया जी कुछ जेब में रखदो चुपचाप । वरना महीनाभर यों ही सीढियाँ चढते--उतरते रहना ।" किसोरीलाल अपनी जेबें टटोलने लगा ।
कुछ मिलने के आसार दिखे तो पाठकजी के तेवर वैसलीन लगे हाथों जैसे मुलायम होगए ।
"सर इसमें शादी का कार्ड तो है नही । भूल आए । कोई बात नही कल ले आइये ।"
"कार्ड.?..किसोरीलाल को पसीना आगया ।
"हाँ जी । शादी की तारीख पास ही है तो कार्ड तो छप ही गए होंगे ।"-- अनुभवों के भट्टे में पका हुआ बाबू किसोरी का चेहरा देख कर समझ गया कि शादी महज कागजों में ही है ।
"क्या माजरा है माडसाब । शादी-वादी कहीं है भी या नही ?"
"हैsss क्यों नही !..है ना !"---किसोरीलाल ने थूक निगलने की कोशिश की । पर गला सूख रहा था । थूक भी गले को गीला करने में ही सूख गया ।
"है तो लगाया क्यों नही है ?" बाबू कुछ कडक हुआ ।----"अगर यह सब झूठ हुआ तो फँसजाओगे । सस्पेंड हो जाओगे ।" किसोरीलाल के चेहरे पर हवाइयाँ उडने लगीं । पसीने से कुर्ता भीग गया ।
"सच--सच बताओ । शादी है या नही ?"---किसोरी की हालत देख बाबू कुछ नरम हुआ ।
".....नही.." किसोरी का हाजमा काफी कमजोर है । झूठ को नही पचा सका । सच्चाई के साथ झूठ बोलना भी एक कला है । बडे अभ्यास का काम है । जिन्हें अभ्यास नही वे तुरन्त पकडे जाते हैं । किसोरीलाल भी पकडा गया । पाठक ने फार्मों का पुलन्दा उसके सामने पटक दिया ।
"यह मंजूर नही हो सकता ।"
निराशा की आँच से किसोरीलाल के अन्दर जमा हुआ सब कुछ पिघल गया और बाहर फैलने लगा जैसे फटे पैकेट से पिघला हुआ घी बहता है----"पाठक जी मुझे पैसों की सख्त जरूरत है । बेटा कालेज जाने के लिये बैठा है । उच्चशिक्षा के लिये फण्ड निकालने से प्राचार्य जी ने मना कर दिया बोले शादी या मकान के लिये ही फण्ड निकाला जा सकता है । तब बताइये मैं क्या करता ?"--पाठक ने तभी किसोरी के हाथ में हुआ गुडमुड सा पाँच सौ का नोट देख लिया सो लहजा बदल कर बोला----"सही सलाह तो दी है आपके साहब ने । अब तुम रानीगंज के हो । प्रिसिपल अग्रवाल जी हमारे ही आदमी हैं । सो चिन्ता न करो । एक कार्ड छपवा लाओ । कोई भी प्रिंटिंग प्रेस वाला पाँच --पचास रुपए लेकर छाप देगा । यह कह कर उसने किसोरी की तरफ हाथ बढा दिया ।
"ऐसे ही दो नोट और लाने होंगे किसोरीलाल जी ! फिर आपके काम में कोई रुकावट नही आएगी । पन्द्रह सौ...यानी लगभग चार महीने की सब्जी या दो महीने के राशन की पूरी व्यवस्था..। यह तो कीचड से पानी खींचने जैसा होगा..। तब स्वाभिमान को एक तरफ रख ,घर के उखडते फर्श व चुचाती छत का वास्ता देकर , चटक रहे जूतों व घिस गए चश्मे को दिखा कर ,पैट्रोल का खर्च न उठा पाने के कारण पुरानी विरासत की तरह सहेज रखी गाडी और विपति-कसौटी पर खरी उतरी मीत जैसी खडखडिया साइकिल के नाम पर मिन्नतें करके किसोरीलाल ने पाँच सौ रुपयों में पाठक को भी मना लिया । इस तरह दफ्तर से स्वीकृत होकर कागज निकल गए तो कमल ने बिल भी तैयार कर ट्रेजरी पहुँचा दिए
यहाँ तो कमलबाबू की तारीफ करनी होगी । अपनी तरफ से कोई देर नही की । अब तो काम हुआ समझो --किसोरीलाल को तसल्ली हुई । घर पर खुशी-खुशी बैग-बिस्तर और सूटकेस जमाए जाने लगे । लेकिन अगले ही दिन बिल ट्रेजरी से वापस आगए । कमल ने उसे बुलाकर यह समाचार एक मीडिया--कर्मी जैसी निरपेक्षता से दिया । किसोरीलाल को लगा कि किसी यात्री को लम्बे इन्तजार के बाद गाडी के रद्द होने की सूचना मिली हो । एकदम अप्रत्याशित ।
"बिल वापस कैसे आगये कमलबाबू । मुझे तो बडी उम्मीद थी । अब क्या होगा...?"
"मैं क्या बताऊँ । मैंने तो आपका बिल रोका नही है ।"
"तो ऑब्जेक्शन किस बात का लगा है । आपने तो ठीक से बना कर ही भेजे होंगे ।"
"मैं दस बार ठीक बना कर भेजूँगा और वह दस बार आपत्ति लगा कर लौटा देगा । उसके पास हजार बहाने हैं । कही सील सही नही तो कही सिग्नेचर सही नही । बाँकेलाल में एक जगह चन्द्र-बिन्दु है पर दूसरी जगह नही है क्यों ,स्पष्ट करें ...। ये सब कोरे बहाने हैं पैसे के लिये । बेहतर है कि आप ट्रेजरी जाकर खुद गुप्ता से जाकर मिल लो । "
अब गुप्ता से भी मिलो..। और पता नही किस-किस घाट को पूजना होगा । किसोरी को लगा जैसे अपना पैसा निकालना न हुआ पंडित देवीप्रसाद से कर्जा लेना होगया । उसे याद आता है कि गाँव में पं देवीप्रसाद से कर्ज लेने में लोगों को कितने चक्कर काटने पडते थे । कभी वे खेतों में पानी देने भेज देते कभी भुस ढोने में लगा देते । कभी कहते --आ जरा यह खाट बुनवा दे । तो कभी रस्सी बँटने को ढेर सारी मूँज दे देते । तब कही रुपया देते वह भी पाँच जगह अँगूठा लगवा कर । और जब तक कर्ज-वसूली नही होजाती थी कभी भी अधिकार से किसी काम के लिये बुलवा लेते थे । अब भी वही हाल है --सारी रात पीसा और पारी में सकेला ।
"गुप्ता जी आपने दो बार बिल लौटा दिया ?"
"गलती होगी तो लौटाना पडेगा ही ।"--मोटे थुलथुल शरीर वाले गुप्ता जी ने नाक पर रखे चश्मा से ऊपर झाँक कर गहरी निगाहों से किसोरी को देखा--- "पैसा काहे के लिये निकाला था ?"
"..शादी के लिये ।"
"किसकी शादी ? बेटे की ? कब की थी ?"
"बाबूजी उसमें सब लिखा है ।"
"लिखा है तभी तो कह रहा हूँ किसोरीलाल कि बेटे की शादी करली । हमें न्योता भी नही दिया !"
"हाँ गुप्ता जी , गलती हुई । भूल गया ।"
"तो फिर पैसे की बात भी भूल जाओ । अब काहे के लिये चाहिये ? शादी तो हो चुकी ।"
"जरूरत है गुप्ता जी ! शादी क्या बिना खर्चे के होजाती है ?"
"बेटे की शादी में दहेज भी तो मिलता है । नही मिला ?" गुप्ता ऐसे कुरेद-कुरेद कर सवाल कर रहा था जैसे बगुला खेत में मिट्टी कुरेद कर कीडे तलाशता है । बेवश से किसोरीलाल के मुँह से बमुश्किल निकला--"नही ।"
"नही तो क्या । हम भी जानते हैं कि शादी-वादी सब फर्जी नाटक हैं । विभाग को धोखा देते हो ।" गुप्ताजी ने पिच्च से एक कोने में पुडिया थूकदी और किसोरी लाल को लताडते हुए से टायलेट की तरफ चले गए ।
"यहाँ भी...उफ्..." किसोरी कुछ कहने वाला था तभी एक चालू सा लगने वाला लडका होंठ तिरछ कर मुस्कराया और उँगलियों से इशारा किया कि --इसके (पैसे) के बिना काम न चलेगा । किसोरी की समझ में आगया कि वह पूरी तरह फँस चुका है । अब निकलने का रास्ता तो खोजना ही होगा । सो गुप्ता के पीछे--पीछे टायलेट तक पहँच गया ।
"आपकी सेवा हो जाएगी बाबूजी"---किसोरी ने कोने में जाकर दो सौ रुपए गुप्ताजी के हाथ पर रखते हुए कहा।
"अरे यह क्या ।---गुप्ता ने चार कदम पीछे हटते हुए कहा -- क्या भिखारी समझा है हमें ? ले जाओ तुम्हारे बाल-बच्चों के लिये दो--चार दिन की सब्जी हो जाएगी । नब्बे हजार स्वीकृत हुए हैं मास्टर जी ! पाँच सौ से एक रुपया कम नही ।"
किसोरीलाल का दिमाग जैसे प्रेशर भरा कुकर होगया । अगर गैस बन्द नही की गई तो लगा कि फटने जैसी स्थिति आ जाएगी । वह रुपए देने में संकोच कर रहा था पर गुप्ता सरेआम चिल्ला कर कह रहा था कि कम रिश्वत देकर वह बडा गुनाह कर रहा है । अजीव बेशर्मी है । मन में तो आया कि गुप्ता से सीधे शब्दों में पूछे कि ,"क्या लूट मची है ?" "भिखारी न समझें तो क्या समझें ? मंगतपने पर उतरते हुए शर्म नही आती ? हमारा पैसा क्या हराम का है जो उसे निकालने के लिये भी यहाँ--वहाँ पैसे खिलाएं ? और यह तो कहो कि रुपया खाने की भी ऐसी क्या जरूरत पड गई है ! क्या घर में अनाज की कमी होगई है ! इतनी ही भूख फट पडी है तो पोखरे में जाकर कीचड क्यों नही खा लेते भर-भर कर ।
ऐसे समय किसोरीलाल का मन निपट निरक्षरों की भाषा पर उतर आने को होता है ।
वैसे भी सुबह से दिमाग भन्नाया हुआ था । बिजली का बिल इस बार दो हजार रुपए का आया था जबकि पडौसी शर्मा जी का सिर्फ तीन सौ रुपए । जबकि शर्मा जी के यहाँ सब्जी दूध चाय सब हीटर पर बनती है । तीन तीन कूलर चलते हैं और पानी की मोटर भी । किसोरीलाल जानते हैं कि बिजली सीमित ही खर्च करनी चाहिये । उनके यहाँ हीटर वगैरह भी नही है घर के हर सदस्य को यह ध्यान रहता है कि पंखा , बल्ब भी जरूरत न होने पर बन्द कर देने चाहिये । फिर बिल में इतना अन्तर ?
"आप रीडिंग वाले को कुछ देते नही हैं न !" दुकान वाले अग्रवाल ने बताया । "शर्माजी हर माह उसके हाथ में पचास रुपए थमा देते हैं । मोहल्ले में सभी ऐसा करते हैं भला आप क्यों इतना अर्थभार व्यर्थ ढोते हैं ।"--- पर किसोरीलाल आदत से मजबूर है । अपनी लीक छोड कर नई लीक पर चलना क्या आसान होता है ? खासतौर पर किसोरीलाल जैसे लोगों के लिये ।
लेकिन इतने दिनों में धीरे--धीरे उसकी समझ में आने लगा था कि 'लेकिन''क्यों' जैसे शब्द सडक पर बने गतिरोधक जैसे होते हैं जो सफर को लम्बा ,कठिन व बोझल बना देते हैं व्यर्थ में ही । राह आसान नही रह जाती । उसके सामने किसी तरह निशान्त की फीस भरने की भी चिन्ता थी । सो उसने गुप्ता को भी किसी तरह मनाया और फिर पाँच सौ से तीन सौ तक उतारा । तब जाकर बिल मंजूर होकर किसी पंछी की तरह कोषालय की कैद से छूट कर उडा और स्कूल के ऑफिस में आकर फडफडाने लगा ।
"सर ! आपको तो पता होगा कि आपका चेक आगया ."----यह बात जिस समय चिरोंजी (चपरासी ) ने किसोरीलाल को बताई तो किसोरीलाल को ऐसा लगा जैसे लम्बे इन्तजार के बाद किसी महत्त्वपूर्ण परीक्षा का वांछित परिणाम आगया है । चहकते हुए पूछा--
"अरे ! आगया ? कब आगया ?"
"वह तो कल ही आगया ।"
"अच्छा ?"---उसे कुछ आश्चर्य भी हुआ । कल आगया तो अब तक बताया क्यों नही ? चलो भूल गए होगे । बाबू को बीस काम रहते हैं । अभी तो आज और कल का दिन है उसके पास । वह उल्लसित होकर कमलबाबू के पासगया ।
"किसोरीलाल जी चेक आ तो गया है पर अभी साहब ने बैंक में डालने से मना किया है ।"---कमल ने फाइलों में नजरें जमाए ही कहा ।
"क्यों भाई ? अब क्या होगया ?"---किसोरी लाल को लगा कि वह चलते--चलते फिर सडक पर खुदे पडे गहरे गड्ढे में गिर पडा है साइकिल समेत । उसे निकालने में अब शायद कमलबाबू मदद कर सकें ।
"यह उन्ही से जाकर पूछो ।"--कमल ने संवाद संक्षेप में ही खत्म करने के लहजे में कहा । तब वह जैसे गड्ढे में से अपने-आप निकल कर बेजान सा प्राचार्य--कक्ष में गया । उन्होंने भी उसे देखते ही एकदम निरपेक्ष भाव से कह दिया----"किसोरीलाल,एक शपथ-पत्र बनवा लाओ ।"
"शपथ--पत्र ?"...। किसोरीलाल ऐसे चौंका मानो उसने यह शब्द पहली बार सुना हो । और इस अनजाने शब्द को समझने में ही उसकी सारी चेतना अटक कर रह गई हो ।
"हाँss , शपथ-पत्र ।" यानी 'ऐफिडेविट' ---प्रिंसिपल ने समझाया---शादी की तारीख पहले की है पैसा बाद में मिल रहा है तो फिर काम कैसे चलाया गया । उसके लिये पैसा कहाँ से लिया । उसी का शपथ-पत्र ..
"मुझे क्षमा करें सर ,लेकिन अब शपथ--पत्र की क्या जरूरत है जबकि मैंने तो वैसा कही किया था जैसा आपने कहा था उसी तरह सारे कागजात पूरे करके दिये थे ।"
"हाँ..दिये थे लेकिन कागजात के अनुसार तुम्हारे बेटे की शादी होनी थी 20 जून को और अब तारीख होगई हैं 10 जुलाई । अब तुम शपथ-पत्र नही पेश करते तो जाहिर है कि तुम्हें पैसों की अब जरूरत नही । लिहाजा सारा फण्ड वापस क्यों न कर दिया जाय !"
"सर ! लेकिन..। आप तो जानते हैं कि..." किसोरी के दिमाग में जैसे किसी ने मिक्सर चला दिया । सारे तर्क ,सवाल ,जबाब गड्ड-मड्ड होगए । कौनसी बात अलग करके पूछे । चालाकी और झूठ से भरे मामलों में किसोरी की बुद्धि की सारी खिडकियाँ 'आटोमैटिकली' बन्द हो जातीं हैं ।
जाने क्यों किसोरीलाल उन्मुक्त होकर किसी खुशी का अनुभव नही करपाता । राह में जाने कहाँ से बडे शिलाखण्ड आकर अड जाते हैं । शुरु से ही उसके साथ ऐसा होता रहा है । निशान्त की सफलता को भी वह अभी तक निर्बाध महसूस नही कर पाया है । फीस भरने के लिये रुपयों का इन्तजाम करने की समस्या, भविष्य-निधि से पैसा निकालने के आधार की समस्या ,उसे स्वाकृत कराने की समस्या और अब यह शपथ-पत्र की नई समस्या । आखिर शपथ-पत्र किस बात का । क्या सचमुच शपथ-पत्र इतना आवश्यक है ? साहब गंभीरता से बोले---
"भाई ,ऋण लिया है तो उसे चुकाने के लिये भी तो धन चाहिये । कि नही ? इसे यों समझो कि पुत्र के विवाह तक धन प्राप्ति न होने के कारण अमुक व्यक्ति से तुमने ने ऋण लिया । अब उसे चुकाने के लिये धन की आवश्यकता है अतः धन का शीघ्र भुगतान किया जाय । यही शपथ-पत्र चाहिये । बिना उसके मैं भुगतान नही कर सकता । "
किसोरीलाल को लगा कि बाल्टी घाट तक आते-आते फिर से छूट गई है । यह हताशा की पराकाष्ठा थी । निशान्त को दो दिन बाद ही रुडकी जाना है । फीस के लिये कहाँ से पचास हजार लाकर दे । यह एक और फर्जी काम । अब शादी के लिये नही किसी का ऋण चुकाने के लिये शपथ--पत्र बनवा लो । आखिर और कितने पापडबेलने होंगे अपने ही पैसे के लिये ? और अब तो इतना समय भी नही है । आखिर ...." किसोरीलील के मन में एक बार फिर दूध का सा उफान आया ।
लेकिन पच्चीस साल की नौकरी में अब किसोरीलाल इतना तो समझ गया है कि जो उफान आग को ही बुझा दे वह नुक्सान दायक है । अगर किसी अहित से बचना है ,अपना काम बनाना है और शान्ति से नौकरी करनी है तो अधिकारी की हाँ में हाँ कहनी ही पडेगी । चाहे अधिकारी रात के घुप्प अँधेरे में भी दिन कहे तो भी दिन ही कहो । पहले ऐसे दो-चार अवसर आ चुके हैं जब थोडा सा भी विरोध जताने पर (चाहे वह उचित व आवश्यक ही क्यों न हो) हफ्तों तक उसे प्रिंसिपल का कोप सहना पडा है । उसके हर काम में मीन-मेख निकाली जाती थी । थोडा लेट होजाने या डायरी न भर पाने के लिये उसे सबके सामने बेइज्जत किया जाता था । छुट्टी लेने के नाम उसे बीस हजार हर माह फोकट में लेने का ताना दिया जाता था और गजब यह कि हाँ जी..हाँ जी कहने वालों की पलटन में उसका कुछ भी पलट कर कहना वैसा ही आलोच्य हो जाता था जैसा कस्बाई मध्यम परिवार में नई बहू का सूट पहन कर बाहर निकलना । सो उसने खुद को थोडा बदल लिया है । इसके अलावा उसके पास और कोई चारा जो नही था । फिर अब तो उस धन राशि का सवाल था जो पके आम की तरह टहनी में लटकी थी । बस जरा हिलाने की देर थी और जिसके ऊपर ही निशान्त के नए जीवन का आरम्भ टिका था । परिस्थितियाँ आदमी को साँचे में ढाल ही देतीं हैं । इसलिये उसने उफान पर तुरन्त पानी के छींटे मार दिये ।
"अब तो शपथ--पत्र बनवाने के लिये इतना समय भी नही है सर । कल शनिवार है और परसों तो हमारा रिजर्वेशन है । अब तो आप ही मेरी नाव को घाट पर ला सकते हैं । आपका बडा एहसान होगा । सदा आपका आभारी रहूँगा .."
इसके बाद प्राचार्य कक्ष में पन्द्रह मिनट तक एक गोपनीय परिचर्चा हुई । एक कर्मचारी की कर्त्तव्य-संहिता को ही लेकर साहब ने किसोरीलाल को अनेक उपदेश और फिर कुछ निर्देश दिये गए । किसोरीलाल ने साहब के वे निर्देश सिर माथे लिये । साहब ने चिरोंजी को बुला कर चेक तुरन्त बैंक में डालने को कह दिया । अब किसोरीलाल को व्यर्थ धक्के खाकर शपथ--पत्र बनवाने की कतई जरूरत नही थी । नौकरी के सबसे आवश्यक व महत्त्वपूर्ण शपथ--पत्र पर उसने हस्ताक्षर जो कर दिये थे । और किसोरीलाल जैसे लोगों के लिये यह् एक 'फाइनल-पार्ट' हुआ करता है ।
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13 टिप्‍पणियां:

  1. Pathetic reality of our society is revealed beautifully in this story. Corruption is very deep rooted.

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  2. आपके पोस्ट पर आना सार्थक हुआ । बहुत ही अच्छी प्रस्तुति । मेर नए पोस्ट "उपेंद्र नाथ अश्क" पर आपकी सादर उपस्थिति प्रार्थनीय है । धन्यवाद ।

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  3. प्रस्तुति अच्छी लगी । मेरे नए पोस्ट पर आप आमंत्रित हैं । धन्यवाद ।

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  4. सामाजिक संदर्भों का सुन्‍दर चित्रण।

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  5. फीस के लिये कहाँ से पचास हजार लाकर दे । यह एक और फर्जी काम । अब शादी के लिये नही किसी का ऋण चुकाने के लिये शपथ--पत्र बनवा लो । आखिर और कितने पापडबेलने होंगे अपने ही पैसे के लिये ..
    आदरणीया गिरिजा जी ..बहुत सुन्दर चित्रण समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार और आज के हालत की ...काश कुछ सुधरे लोग ये सब पढ़ भी जागें होश में आ के कदम बढायें
    बधाई
    भ्रमर५

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  6. प्रस्तुति अच्छी लगी ।.मेरे पोस्ट पर आपका इंतजार है । धन्यवाद ।

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  7. यह कहानी हर उस व्यक्ति की अभिव्यक्ति है,जो स्वयं से छल नहीं कर सकता और जमाना उसे ऐसा करने को बाध्य कर देता है।शायद इस स्तर पर हो कोई ही ऐसा व्यक्ति हो जिसने यह नहीं भोगा हो।यह एक कार्यालयीन भ्रष्टाचार रूपी वृक्ष है ,जिसे हम सभी पोषित कर रहे हैं।
    आपने गहराई से अभिव्यक्ति दी है।अभिव्यक्ति को नमस्कार

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