मंगलवार, 9 अगस्त 2022

बेवश

 

विनीता को रेवती भाभी के आने से बड़ी राहत मिल गई .

किसी के सम्बल की उसे बड़ी ज़रूरत थी उस समय .अचानक संकट ही ऐसा आ पड़ा था . सुबह सुबह पानी भरा जा रहा था . भरपूर पानी पाकर विनीता जैसे बौखला जाती है . जब तक पानी आता रहता है ,मोटर चलाती रहती है .पहले तो एक दिन पहले भरे सारे भरे बर्तनों को खाली करके फिर भरती है . घर में जो भी बर्तन पानी भरने लायक होता है , गिलास कटोरी सब भर लेती है . जैसे अब पानी आएगा ही नहीं . पति जय हँसता है—"चम्मच रह गए हैं उन्हें भी तो भरलो ...

रहने दो तुम्हें बैठे बैठे बातें आती हैं . जब पानी नहीं आता तब मेरा यही भरा पानी काम देता है .” 

उस समय पूरे घर में बारिश होगई लगती है . छत आँगन सीढ़ियाँ पोर्च ..सब धुल जाते हैं सबको नहाने का सख्त ऑर्डर होता है और कपड़े धो डालने का भी . उस समय पानी में लथपथ विनीता दुनिया की सबसे व्यस्त गृहणी होती है .

उस दिन भी जब आँगन गीला पड़ा था ,विनीता का पाँव फिसल गया . अचानक नहीं सम्हल पाई और धच्च से फर्श पर गिरी .सीधे हाथ के बल . कलाई बीच से एक सौ बीस डिग्री के कोण पर मुड़ गई . पैर में भी चोट आई .चोट के साथ तेज दर्द भी था एक्सरे कराया तो पता चला कि कोहनी और कलाई के बीच हड्डी के दो टुकड़े होगए हैं .पैर में चोट तो नहीं पर मोच के मारे जमीन पर नही रखा जा रहा था . डाक्टर ने हाथ पर प्लास्टर  चढ़ा दिया .यानी कम से कम डेढ़ माह तक कामकाज का लॉकडाउन .अब अकेला उल्टा यानी बाँया हाथ इक्का गाड़ी के कमजोर बीमार बैल सा रह गया . दौनिक कार्यों के भारी बोझ को  खींचना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन .विनीता को चिन्ता अपनी चोट से अधिक घर के काम काज की थी . और पति व बच्चों को चिन्ता काम काज निर्देशानुसार न होने पर विनीता के तनाव और अशान्ति की थी . विनीता के लिये घर की सफाई से ज्यादा ज़रूरी दुनिया का कोई काम नहीं है . खाना बने न बने पर घर चमाचम रहना चाहिये .छत ,आँगन, कवर ,चादर सब चकाचक . सुबह से लेकर शाम तक दौड़ती सफाई अभियान की गाड़ी अब बीच रस्ते में खड़ी रह जाने वाली थी .विनीता के लिये यह दुनिया की सबसे बड़ी चिन्ता थी . पत्नी की चिन्ता कम करने के लिये जय ने कहा---भई मिल जुलकर सब होजाएगा . बच्चे सफाई में हाथ बँटा देंगे और खाना मैं बना लिया करूँगा.” 

अब जय और बच्चे कितनी ही कोशिश करें तब भी विनीता की तरह सफाई तो नहीं कर सकते . कम से कम विनीता की नज़र में तो बिल्कुल नहीं .आँखें तरेरते हुए बोली---

 हओ ,तुमसे तो होगया काम . चाय तक तो ठीक से बना नहीं पाते ..फिर छुट्टी भी मिलती है तुम्हें अपनी नौकरी से ? .और तुम्हारे काम से तो काम न करना अच्छा ..काम कम कचरा ज्यादा करते हो .बाद में उसे समेटना और भी बड़ा काम ..” अरे ,कुछ दिन की बात है ,काम चला लेंगे . तुम भी सह लेना और क्या ....-जय ने मुस्कराकर कहा पर विनीता ने पति की कोशिश को सिरे से खारिज़ कर दिया . काम चलाऊ प्रवृत्ति विन्नी को पसन्द नहीं . 

ऐसे काम नहीं चल सकता , किसी को तो बुलाना पड़ेगा .

विनीता ने जो कह दिया एकदम 'फुल एण्ड फाइनल' . उसके बाद किसी को कुछ सोचने कहने की ज़रूरत नहीं होती . पर बुलाया किसे जाय , इस सवाल पर नाम तो सगी ,चचेरी, फुफेरी, मौसेरी चाचियों ,भाभियों और बहिनों के नाम सामने आए पर जबाब में एक ही नाम था –-गाँव-वाली भाभी .

गाँव वाली भाभी यानी रेवा ...रेवती भाभी . विनीता के बड़े भाई रमन की पत्नी .

विनीता के तीन भाई हैं -रमन , महेन्द्र और लखन . विनीता दो भाइयों और एक बहिन से छोटी और एक भाई से बड़ी है . बड़े रमन भैया और रेवा भाभी के लिये  लिये विनीता बेटी जैसी है . रेवती ब ब्याहकर आयी थीं ,लगभग पन्द्रहवे में बीत सोलहवें में लगी थी . हायरसेकेण्डरी की परीक्षा पास की ही थी . यह उम्र किसी भी साँचे में ढल जाने के लिये सहज होती है . जैसी भी राह मिली चलती गई है बिना किसी मलाल के . सबके साथ ,सबके मनोनुकूल . काम कोई भी हो कभी मनाही नहीं इसलिये जिसे कोई न करना चाहे वह रेवती भाभी के जिम्मे . उन्हें देख केदारनाथ अग्रवाल की पंक्तियाँ याद आती हैं --

सबसे आगे हम हैं पाँव दुखाने में,

सबसे पीछे हम हैं पाँव पुजाने में .

रमन के बाबूजी को पेटदर्द हुआ . डाक्टर ने पता नहीं क्या दवाई दे दी बाबूजी को ऐसे दस्त लगे कि पखाने तक जाते जाते खुद को रोक नहीं पाते थे और बीच में ही असहाय होजाते तब अम्मा तो नाक पर रूमाल रख लेती थी तब रेवती भाभी ही फटाफट आँगन धो डालती थीं . इसी तरह अम्मा को बच्चादानी में कैंसर हुआ था .अन्तिम समय में खून और मांस के लोथड़े गिरते थे ..तीनों बहुओं में अकेली रेवती भाभी ही थी जो बिना नाक सिकोड़े या सास को कुछ बोले उनके कपड़े धोती रहती थी .

कद और साधारण रंगरूप की सीध-सादी सरल रेवती बनाव-श्रंगार से शुरु से ही कोसों दूर रही है .चेहरे ने क्रीम पाउडर जाने किस ज़माने में देखे होंगे . खुद से ज्यादा दूसरों का ध्यान रखती है . मँहगा सस्ता जैसा भी मिल गया पहन लिया और रूखा सूखा जैसा भी मिल गया खा लिया . किसी काम के लिये मनाही नहीं . गाय, भैंस का दूध दुह सकती है , गोबर से उपले थाप सकती हैं ..इस हुनर के कारण वे कई साल से रामपुर की बजाय पुश्तैनी गाँव बड़ागाँव में रह रही हैं .इसलिये सब उन्हें गाँव-वाली भाभी कहते हैं . पहले यह नाम और काम दोनों ही श्रेय और सम्मान के प्रतीक थे पर जबसे छोटे देवर लखन का ब्याह हुआ है सजा जैसे लगने लगे हैं .  

महेन्द्र भैया वाली बिट्टो भाभी को तो बुलाने की सोच भी नहीं सकते .”-–विनीता कह रही थी ---एक तो घर हो या नौकरी पर हमेशा महेन्द्र भैया से चिपकी रहती है ,जैसे उसे कोई पकड़कर ले जाएगा ..शादी-ब्याह के मौकों पर मेहमान की तरह आती हैं .इधर की सींक भी उधर नहीं रखतीं .बस मेहमानी करवालो उनसे . लखन की बहू सबसे छोटी भले है पर उसके दस नखरे हैं . नाक पर मक्खी नहीं बैठने देती . काम करती भी हैं तो ऐसे जो लोगों को दिखें ..झाड़ू लग जाएगा ,बर्तन धुल जाएंगे तब सब्जी काटने छौंकने रानी आजाएगी . रोटी बनाने के बाद चौका परात बेलन सब ऐसे ही छोड़ जाती है मानो रोटी सेककर उसने बड़ा एहसान किया हो . पीछे का पसारा समेटना क्या छोटा काम है पर वह गिनती में कहाँ आता है . पूड़ियों का आटा गुँथ जाए , कोई लोई बनाकर पूड़ियाँ बेल दे तो सेकने कढ़ाई पर खुद आ बैठती है रानी . नाम तो कढ़ाई पर बैठने वाले का ही होता है . रानी किसी के काम नहीं आने वाली .एक हमारी रेवती भाभी हैं ,उन्हें चाहे ओढ़लो चाहे बिछालो ...

विनी के लिये रेवती भाभी ही सबसे निरापद है .किसी बात पर सवाल या असहमति नहीं जतातीं ..किसी की न तीन में न तेरह में . शान्त मन्थर गति से तैरती नाव जैसी . .

सुनो जी ,रेवा भाभी को कल ही ले आओ . यहाँ उन्हें भी आराम रहेगा .बेचारी वहाँ दिनभर खटती रहती हैं काम में .”

आराम रहेगा .”–--जय पत्नी की उदारता पर मुस्कराया . फिर सोचा –--'ठीक भी है . बड़ागाँव की तुलना में तो यहाँ आराम रहेगा ही . जब रामपुर में पोस्टिंग थी बड़ागाँव जय के एरिया में था . वह खुद कुछ दिन बड़ेगाँव रहकर आया है .दो कोठरियों के कच्चे मकान में रेवती भाभी और गाय भैंसें .भाभी जब देखो घर-आँगन लीपने पोतने , गाय भैंसों का गोबर समेटने-थापने में लगी रहती थीं . रमन भाईसाहब ज्यादातर रामपुर रहते हैं .रामपुर अच्छा बड़ा कस्बा है .पक्का दोमंजिला मकान है .उसमें लखन की बहू रानी और एक बेटा रहता है . भैंस गाय को चारा लाने और दूध निकालने काम लखनभाई का है पर दूध को उबालना , कुछ दूध जमाना मथना घी बनाना आदि काम भी भाभी के जिम्मे होते हैं ..धूप और धूल में रहते रंग दब गया है ,समय से पहले ही चेहरा झुर्रियों से घर गया है . हाथ-पाँव खुरदरे होगए हैं .खुद को सँवारने निखारने का न समय है न साधन अब शायद वे ज़रूरत भी नहीं समझतीं .

जैसा कि अभी कहा ,गाँव में रहना पहले सजा नहीं था , पर रमन के भेदभाव ने उसे सजा बना दिया है .जबकि कर्त्ता-धर्त्ता रमन ही है , रामपुर में टी वी कूलर फ्रिज जैसी सभी सुविधाएं हैं पर बड़ागाँव में अब भी बाबा आदम के जमाने का पुराना खडखड़िया पंखा है जो हवा कम शोर अधिक करता है . सबसे बड़ी कमी है शौचालय की , जो सरकारी योजना के मेले में भी अब तक नहीं बनवाया गया है . 

अच्छा है भाभी को यहाँ कुछ तो चैन आराम रहेगा . जय ने सोचा . 

"अच्छा है बिन्नी 'भैंजी' को सहारा हो जाएगा और वह भी कुछ दिन तो चैन से रह पाएगी --जय के आने की खबर पाकर रेवती भाभी ने भी सोचा." इस तरह दूसरे ही दिन रेवती भाभी मुरैना में ननद की बनाई आलू टिक्की का स्वाद ले रही थी . 

वैसे तो घर में कुछ देर के लिये आए हर व्यक्ति को भी विनीता कोई न कोई काम सौंप ही देती है , चाहे वह नसैनी या आमकटना जैसी माँगकर लेगई चीज लौटाने दो मिनट के लिये ही उपस्थित हुआ हो --–भैया जरा कूलर को इस कोने में सरका दो . अम्मा,  जरा सी मिर्च रखी हैं ,अचार डालदो ...शोभा दीदी आ ही गई हो तो ज़रा मेरे बाल देखना ..बड़ी खुजली हो रही है ...

फिर रेवती भाभी तो घर में ही हैं . जब से आई है विनीता के लिये मानो मँहगी साड़ियों की बहुत सस्ती सेल लग गई है .. घर में खूब चहल पहल रहती है .उनके आने से पहले ही उसने कितने ही कामों की सूची बना ली थी . आते ही भाभी को एक एक करके सौंपती गई . गाँव से आए एक क्विंटल गेहूँ धो- सुखाकर छान बीन कर ड्रमों में भर दिये गए .. साल भर के मिर्च-मसाले तैयार कर लिये गए मूँग , चावल और साबूदाने के पापड़ बन गए , चिप्स , बड़ियाँ बन गईँ. पुराने स्वेटर उधेड़कर आसन बनाने के लिये गोले बनवा लिये .इसके अलावा तार और कपड़े से एक दो पंखा भी बनवा हैं . बिजली के चले जाने पर वे पंखा बड़ा काम आते हैं . कितनी ही पुरानी साड़ियाँ पड़ी हैं ,कितनी बाँटे ..अच्छा है , नीचे बिछाने के लिये दरी भी बनवा लेगी .

तुम कुछ ज्यादा ही फायदा नहीं उठाती हो भाभी का ? ” –-जय पत्नी की सूझ और चतुराई पर मुस्कराता है .

इसमें फायदा उठाने की क्या बात है ? उनका घर है . करेंगी नहीं क्या !”

ननद का इस तरह अधिकार से कहना रेवती को भला लगता है . वह कामों से नहीं थकती .ननद ने तुरन्त दो तीन अच्छी साड़ी निकाल दीं .लाड़ में झिड़क कर बोली--क्या भाभी ,कबसे चला रही हो इन साड़ियों को क्या उनकी दम लेकर ही छोड़ोगी .छोड़ो और लो ये पहनो ..

साथ में बोरोप्लस कंघा तेल टूथपेस्ट ब्रस साबुन सारी चीजें भाभी के लिये अलग . ननदोई जी और भाजे भांजी रोहित पारुल भी मामी का खूब ध्यान रखते हैं . चीजों के साथ मान और ध्यान भी और क्या चाहिये रेवती को ..फिर वातावरण खूब हँसी मजाक का बना रहता है . विनीता गज़ब की हँसोड़ है . दूसरों पर ही नहीं खुद पर भी हँसती रहती है . रेवती भाभी आगयी हैं तो उसे हँसी के खूब बहाने मिल गए हैं . रेवती भाभी काम तो खूब रच रचकर करती है पर चलती हैं चींटी की चाल . नहाने में इतनी देर लगाती हैं कि उतनी देर में कोई पैदल ही धौलपुर पहुँच जाए .  खासतौर पर सुबह सुबह जब सबको निबटना होता है . खूब ठहाके लगते हैं . 

भाभी सोगयीं क्या ?"–--आँगन में विनीता अक्सर ठहाकों के साथ लोटपोट होती रहती है . रोहित या पारुल फारिग होने के लिये मामी के निकलने का इन्तज़ार करते आँगन में चक्कर लगाते हैं . विनीता पेट पकड़े हँसती हुई जय से कहती है--

इंजीनियर साहब लैटरिन में एक टीवी भी लगवा दो...हा हा हा ...भाभी नहाने में देर लगाती हैं वह तो चलो ठीक है कि बाथरूम में आराम से बैठकर सब जगह मलमलकर सफाई करती होंगी ...पर यहाँ ...अपनी ही बास सूँघते घंटाभर से ...हा हा हा ..बाहर आना भूल ही जाती है . रोहित बैठकर माला जपते रहो...

घंटाभर !...झूठ न बोलो बहन जी,रेवती भाभी टॉयलेट से बाहर आकर हँसते हुए कहती हैं "जीजाजी तो दिलदार हैं . टी वी कूलर सब लगवा देंगे बिन्नू.. अपने कंजूस भैया को भी तो समझाओ कि कुछ नहीं तो गाँव में एक 'लैटरिन' ही बनवा दें ..

वह तो कह दूँगी , पर यह बताओ कि लैट्रिन में बैठकर तुम कौनसा भजन कर रही थीं ?..हा हाहा..."

बात हँसी के फव्वारे में कहीं दूर बह जाती है . 

रेवती ननद के घर में यों तो निश्चिन्त है ,सब उसका ध्यान रखते हैं .विनीता का अपने घर में ही नहीं भाइयों के बीच भी खूब रौब है .छोटे बड़े विवादों में भी उसका दखल रहता है .सब उसकी बात सुनते और मानते भी हैं .ऐसे में रेवती चाहती है कि विनीता घर में हो रहे भेदभाव के लिये अपने भैया से बात करे लेकिन उसके उद्गार जब भी होठों पर आते हैं ,विनीता अक्सर हँसी मजाक में उड़ा देती है और कभी तारीफों की धारा में बहा देती है . एक हमारी रेवा भाभी ही हैं जिनसे जितना चाहो हँस बोल लो ..कभी बुरा नहीं मानती ..और काम के लिये मना करना तो जानती ही नहीं .और न कभी .... 

तारीफें रेवती को बर्फ से प्यास बुझाने जैसी लगती है .

तारीफ से भला क्या मिलता है .सिवा एक भ्रम के ..भ्रम खुद के कुछ अच्छे और परिपूर्ण होने का .—यह सोचकर रेवती का मन कभी कभी मलाल से भर जाता है . विगत पर नज़र डाले तो बहिन भाइयों में भी सबसे ज्यादा तारीफें उसे मिलती थी क्योंकि वही घर में सबसे ज्यादा काम करती थी . स्कूल में शिक्षिकाएं उसे खूब उत्साहित करती थीं क्योंकि वह अपने पड़ोस की चाची से उनकी साड़ियों में फॉल पीको सस्ते दामों में करवा लाती थी , ऊन के लच्छों से गोले बना देती थी . हर महीने रजिस्टर पर कक्षा की छत्राओं के नाम लिख देती थी . सहपाठिनें भी उसे संग लगा लेती थीं क्योंकि वह उनके चित्र बनाने में और गणित के सवाल हल करने में सहायता कर देती थी ..तारीफ मेहनताना हुआ . पुरस्कार या उपहार नहीं . उसे तारीफ नहीं आत्मीयता चाहिये , स्नेह का सम्बल चाहिये .लेकिन यह सब उसके लिये सपना सा रहा है .खासतौर पर पति रमन की ओर से वह उपेक्षित है आज भी . रमन के लिये वह केवल काम करने वाली और ज़रूरत होने पर उनकी ज़रूरत पूरी करने वाली मात्र एक औरत रही है . एक यंत्रवत् स्त्री .... ...परिवार में वह स्थापित है क्योंकि धरती की तरह सारा भार उसी ने उठा रखा है .लेकिन परिवार और गृहस्थी की जिम्मेदारियों के बीच स्त्री को पति का स्नेह और सम्बल भी चाहिये वरना वह टूट जाती है . टूटती नहीं है तो निरीह होजाती है . रेवती टूटी नहीं पर इच्छाएं मर ही गई हैं लगभग ..विनीता के प्रति लगाव है इसलिये उसके भैया विनीता घर भेजने को मना नहीं करते वरना वह अपनी मर्जी से कहीँ आ जा भी नहीं सकती ..आना जाने का विरोध प्रेम वश नहीं ,घर के काम-काज के कारण किया जाता है .

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मार्च की सुबह तो सुहानी होती है लेकिन चढ़ती धूप में अब वैसा सुहानापन नहीं रह गया जैसा दिसम्बर जनवरी में होता है हवा बढ़ती खुश्की से नाराज हुई नीम बरगद के पीले पत्तों की झोली भर घर आँगन में बिखराकर अपनी तल्खी निकाल रही थी .एक बार सफाई करो तो हवा शरारती बालक की तरह फिर उतने ही पत्ते बिखरा देती थी . रेवती भाभी पत्तों को समेट रही थी .जाने क्यों मन में भी एक पतझड़ सा छाया हुआ है . रामपुर से दो बार फोन आ चुका है . पर घर जाने के लिये मन में जरा भी ललक नहीं है . वहाँ वह केवल एक सामान की तरह है जो ज़रूरी तो है पर उसकी देखभाल की जरूरत किसी को नहीं . अब तो जिन्दगी के चार दिन जहाँ हँस-बोलकर गुज़र जाएं वही घर है उसके लिये .

"तुम सबको छोड़ो , मेरे पास आजाओ मम्मी . "–मोनू ने कहा था .

मोनू यानी इकलौता बेटा मनीष . पिता के अन्याय से नाराज  . घर से जैसे नाता ही तोड़ लिया है उसने . ग्वालियर कोई छोटा मोटा धन्धा करता है . अब शादी भी करली है और एक बच्चा भी है .  

विनीता सुनेगी तो कहेगी ---कोई काम अटका होगा . सुना है नीरू ब्यूटीपार्लर जाने लगी है ...बच्चा घर अकेला रहता होगा ...ज़रूरत पड़ी तो मम्मी याद आगयी . वैसे कभी नहीं सोचा कि माँ को पलटकर देख भी ले कि मरती है या जीती है .बहू को एक बार लेकर आया था .उसके बाद घर की तरफ पलटकर भी नहीं देखा . जापे पर तुम खुद ही पहुँच गईं थीं क्या हुआ था .. तुम कोई फालतू तो नहीं हो . फिर अभी तो मुझे ही ज़रूरत है .

बिन्नी का यह कहना तो ठीक है कि मनीष ने पर कौनसे घर से , जहाँ पिता ने अपने बच्चों की बजाय सारा प्यार और अधिकार छोटे भाई और उसके बच्चे को दे रखा हो . न कभी उनकी पढ़ाई लिखाई के बारे में सोचा न खाने पहनने के बारे में ..वह तो उसके मामा ने किसी तरह पढ़ाई पूरी करवाई . नौकरी लगवाई . यहाँ तक कि शादी में भी शामिल नहीं हुए मनीष के पापा . कहने लगे खुद पसन्द करी है लड़की तो खुद ही करले ब्याह .. सेहरा सजे बेटे को देखने माँ का मन हुड़कता रहा पर उसे नहीं दिया गया .रमन ने साफ कह दिया –- “यहाँ घर को कौन सम्हालेगा.. तुझे जाना ही है तो चली जा पर फिर लौटकर इधर मत आना .. मनीष बुलाता रहा कि बाप न सही कम से कम माँ तो साथ आए . 

बहू बेटे को अपनी मजबूरी बताते हुए उसका गला भर आया था .

तुम सब छोड़ दो मम्मी . मैं तुम्हें उस दलदल से निकालकर अपने पास रखूँगा . बहुत करली तुमने सबकी सेवा चाकरी .मेरे लिये रिश्तों के नाम पर तुम्हारे सिवा कोई नहीं है माँ . न पिता न चाचा –चाची न बुआ न मामा कोई नहीं ...केवल जन्म का कारण बन जाने से ही पिता के फर्ज़ पूरे नहीं होते .. उबल ही पड़ा था मोनू

माँ को दुखी देखकर बेटा ,बेटा नहीं , एक संरक्षक बन जाता है . 

पर दूसरे घर से आई लड़की यह सब कहाँ समझ पाती है .वर्षों के अनुभव से वह जान चुकी है कि अगर पति का सम्बल नहीं है तो स्त्री को हर जगह समझौते करके ही रहना पड़ता है . बहुओं के साथ कुछ ज्यादा ही . नीरू का इतना दोष भी नहीं है . ससुराल की देहरी पर स्वागत पाई और ससुराल में हर सुविधा पाई बहुएं तो ससुराल को खातिर में लाती नहीं , फिर उसने तो न ससुराल की देहरी देखी न सबके साथ बहू-भात खाया . और ना ही सास का दुलार पाया . क्या समझाए बहू को , कैसे और क्यों . बेटे के घर में रहकर बेटे को अब वह किसी दोराहे पर नहीं लाना चाहती .

मालूम नहीं ,वे कैसे लोग होते हैं जिन्हें बिना कुछ किये सब कुछ मिल जाता है . कितने ही सवाल रेवती खुद से ही करती है .  रानी में ऐसा कौनसा अनदेख हुनर है कि सबको अपने अनुसार चला रही है और ठाठ से रामपुर के दो मंजिला मकान में रह रही है और उसमें क्या कमी है कि अपनी सुख-सुविधा को देखे बिना परिवार को सहेजते सँवारते उम्र गुज़र चली पर एक ऐसी छाँव नहीं जहाँ वह चैन की साँस ले सके .

हालाँकि रेवती की परेशानी यह नहीं है कि दस-बारह साल छोटी बहिन जैसी देवरानी रानी को सारी सुविधाएं व अधिकार मिले हुए हैं , बल्कि परेशानी यह है कि बड़ेगाँव का कच्चा दो कुठरियों वाला घर , जिसे घर की बजाय भैंसों का तबेला कहना उपयुक्त है ,रेवती के लिये स्थायी होगया है . उसके लिये आज तक वहीं पुराना पंखा है जो हवा कम देता है शोर ज्यादा करता है . जबकि रामपुर में कूलर लग गया . रानी रामपुर के मकान की स्वामिनी है . रामपुर में अब रेवती अनचाहे मेहमान की तरह आती है . अपने ही घर में रहना असहज और अनाधिकार बनता जा रहा है . उसने प्लासी की लड़ाई के बारे में पढ़ा था कि बिना खून बहाए ही मुट्ठी भर अंग्रेजों ने बंगाल की बड़ी सेना पर विजय पा ली थी क्योंकि उसके पीछे किसी की गद्दारी थी .रेवती के साथ गद्दारी किसने की है ? खुद उसकी भावनाओं ने ही न ?

रेवती को थोड़ा बहुत भरोसा और सहारा अपनी इस ननद का ही है इसलिये जब भी विनीता बुलाती है उसे राहत ही मिलती है . अपने घर जैसी राहत ..

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भाभी रमन भैया का फोन फिर आया था .

रेवती ने प्रश्नवाचक नजरों से ननद को देखा .

कह रहे थे कि बिन्नी तेरी भाभी तो वहाँ जाकर भूल ही गई . उसे न घर की चिन्ता है न मेरी .....

यह कहकर विनीता खिलखिलाकर हँस पड़ी .

जाने क्यों वह हँसी काँटे सी चुभी रेवती को .

.बात बनाते हैं जैसे वे मेरे लिये बैठे रहते हैं ....तुम कह देना कि भाभी को अभी नहीं भेज रही ….

हाय भाभी ,मुझसे झूठ बोलने को कह रही हो ! अगर झूठ का पता चला कि मार ही डालेंगे भैया ..इतने दिन छोड़ दिया यह क्या कम है...

"बिन्नी तुम्हें पता है न कि कितना भेदभाव रख रहे हैं तुम्हारे भाई .उन्ही की शह पर ही तो बिना बँटवारे के ही रामपुर में रानी को एकछत्र राज मिल गया है . मैंने कुछ नहीं कहा तो मेरे लिये एक खाट की जगह भी नहीं छोड़ी है वहाँ .  अपने भैया को यह तो समझाओ कि इतना भेदभाव किसलिये है मेरे साथ . गर्मियाँ शुरु हो रही हैं रामपुर में दो दो कूलर हैं ..छोटा सा कूलर गाँव में भी लगवा दें ..घर में अब लैटरिन कितनी ज़रूरी है . गाँव में सबके घर सरकारी सहायता से शौचालय बन गए हैं .हमारे घर के सिवा...मुझे अकेली ही सुबह अँधेरे में ही दूर खेतों में जाना पड़ता है . अलस सुबह उठने में हाथ पाँव अकड़ जाते हैं . खासतौर पर सर्दी और बरसात में . बरसात में पानी और कीचड़ .घुटनों घुटनों घास में बैठना मुश्किल होजाता है . मच्छरों के मारे अलग नाक में दम ..होता है ..जाँघ पिंडलियों में अनगिन निशान छोड़ देते हैं उतनी देर में ..पर शरम भी आती है ...बात इतनी ही नहीं हैं ..."

"पर भाभी यह सब तो तुम्हें खुद कहना चाहिये ."

" मेरी मान लेते तो तुमसे क्यों कहती ? तुम सब लोग मेरे सामने बड़े हुए हो ..सब देखा है कि मैंने अपने हक में कभी कुछ नहीं कहा . जो मिल गया उसी में खुश रही ..पर अब बात सिर से ऊपर जा रही है . महेन्द्र को कोई मतलब नहीं है .लखन कहेगा ही क्यों और उन्हें मेरी परेशानियाँ दिखाई नहीं देतीं ....बिन्नी तुम्हारी बात मायने रखती है .सही और न्याय की बात कम से कम तुम्हें तो कहनी चाहिये ...कहोगी तो ज़रूर उनके कान में जूँ रेंगेगी ."

“चलो मैं भी कह दूँगी , तुम चिन्ता मत करो .—विनीता ने तपाक् से कहकर संवाद का पटाक्षेप कर दिया मानो इससे ज्यादा और कुछ सुनना बिल्कुल बेमतलब था . रेवती को ,जिस कगार पर खड़ी थी ,खिसकता सा प्रतीत हुआ . रात में विनीता जय को सुना रही थी –--"सुनो, सुबह उन्हें बस में बिठा देना . वहाँ भैया बस-स्टैंड पर आ जाएंगे …क्यों ..क्या  भैया बुला रहे हैं ...अब यह उनका आपसी मामला है मैं क्यों बुरी बनूँ ...हाँ अब मेरा हाथ ठीक है तो उनकी अब ऐसी ज़रूरत भी नहीं है ..और क्या जाना ही पड़ेगा . इधर उधर कितना समय बिताएंगी आखिर रहना तो उन्हें वहीं है ..."

शुक्रवार, 10 जुलाई 2020

सामने वाला दरवाजा

बैंगलोर आए मुझे पन्द्रह-बीस दिन हो चले हैं . इतने दिनों में हम लालबाग ,कब्बन पार्क ,स्कॉन टेम्पल ,सैंकी टैंक , फोरम ,आदि कई जगह घूम आए हैं .लेकिन मेरा ध्यान आज भी सामने वाले दरवाजे पर टिका है ,जो हमेशा बन्द ही रहता है .

सुशील और सुहानी कोडीहल्ली के एक अपार्टमेंट में थ्री बी एच के फ्लैट में रहते हैं . वे दोनों ही इंजीनियर हैं .सुशील विप्रो में और सुहानी इन्फोसिस में. वास्तव में बैंगलोर और इंजीनियर दोनों आपस में इतने सम्बद्ध होगए हैं कि ट्रेन में एक सहयात्री ने यह जानकर कि मैं बेटे के पास जा रही हूँ ,तपाक से कह दिया-- बेटा किसी कम्पनी में इंजीनियर ही होगा .
यों तो किसी बड़े शहर में ही मैं पहली बार रह रही हूँ लेकिन यहाँ कई बातें हैं जो दूसरे शहरों में नहीं हैं जैसे कि मई--जून के महीने में ,जबकि उत्तर भारत तप रहा होता है यहाँ मौसम बड़ा सुहावना रहता है .शाम को अक्सर बारिश हो जाती है और कभी-कभी इतनी ठण्डक होजाती है कि स्वेटर पहनना पड़ता है . यहाँ सुबह-सुबह हर घर के दरवाजे पर सुन्दर रंगोली बनी देखी जा सकती है और हर महिला के ,चाहे वह अमीर गरीब कुलीन निम्न ,किसी भी वर्ग की हो ,बालों में गजरा लगा देखा जा सकता है जो बड़ा अच्छा लगता है . सोचिये कि सुबह काम वाली के साथ ही मोगरा की प्यारी खुशबू भी आपके कमरे में प्रवेश करे तो कैसा लगेगा ! 
यहाँ लोग पेड़ों का बहुत ध्यान रखते हैं . हर घर में नारियल का पेड़ तो जरूर देखा ही जा सकता है पर आम कटहल चीकू और अनार के पेड़ भी यहाँ-वहाँ दिख ही जाते हैं वैसे ही जैसे दस साल पहले लगभग हर तीसरी दुकान में एस.टी.डी और पी सी ओ के केबिन हुआ करते थे . अगर जेब में पैसा है तो यहाँ सुविधाओं की कमी नही है .सामान लेने के लिये हमारे कस्बा की तरह दुकानदार से मगजपच्ची नही करनी पड़ती कि 'भैया जल्दी करो ..यह ठीक नही है दूसरा दिखाओ ..कि अरे तुमने पचास रुपए ज्यादा जोड़ दिये हैं ...वगैरा वगैरा .' यहाँ शापिंग माल में जाओ पसन्द का सामान टोकरी में डालते जाओ और कम्प्यूटर पर बिल अदा करदो यही नही ऑर्डर देकर घर पर ही हर तरह का सामान मँगाया जा सकता है .बाजार जाने की भी जरूरत नही . सुहानी तो दही या प्याज-टमाटर तक ऑर्डर से घर मँगा लेती है .यह अच्छा है .जीवाजीगंज में हम लोग सब्जी और राशन के थैले लादे लादे हाँफते-डगमगाते कैसे घर पहुँचते हैं हमी जानते हैं . यहाँ सोफा पर बैठे बैठे ही हर चीज आपके सामने हाजिर . एकदम कहानियों के जिन्न की तरह ही. .
लेकिन दूसरे शहरों की तरह यहाँ बहुत सी अखरने वाली चीजें भी हैं जैसे अब चारों ओर पेड़ों से ज्यादा बड़े-बड़े उगते अपार्टमेंट हरियाली को उसी तरह नकारते जा रहे हैं जिस तरह घरों में अक्सर बड़े-बुजुर्गों को नकार दिया जाता है .यहाँ आप अकेले हैं , सैकड़ों की भीड़ में न आप किसी को जानते हैं न कोई आपको . बड़े-बड़े अपार्टमेंट्स में कई मंजिल ऊँचाई पर हजार-पन्द्रह सौ वर्गफीट के फ्लैट्स , दूर से किसी विशाल वृक्ष के तने में पक्षियों के कोटर जैसे प्रतीत होते हैं. उनमें एक छत के नीचे ही आपकी पूरी दुनिया है .दैनिक क्रियाओं के लिये बाहर निकलने की जरूरत ही नही होती .बाहर भी बिना किसी से बात किये आप अपने सारे काम कर सकते हैं .पूरा जीवन गुजार सकते हैं . एकाकी ,नीरस और बेरंग से जीवन में टेलीविजन ही रंग भरने का एकमात्र साधन है .
सुशील बताता है कि-- तेजी से हो रहे विकास और आधुनिकीकरण के कारण आई टी सिटी बन गए इस शहर की अपनी मौलिकता खत्म हो रही है .बागों झीलों और सुहावने मौसम ,और स्वच्छ आबोहवा के लिये मशहूर इस शहर में अब हरियाली सिमटती जा रही है . आगे बढ़ता शहर धीरे-धीरे कंकरीट के जंगल में बदलता जा रहा है . सड़कों से ऊपर कारें दिखाई देतीं हैं. दुनिया भर से कम्पनियाँ और ऐम्पलायीज यहाँ इस तरह दौड़े चले आ रहे हैं जैसे ज्वैलरी और साड़ियों की सेल की ओर महिलाएं भागतीं हैं .
! मैं नही भागती हाँ !.और शायद मम्मी भी नही .”-–सुहानी हँसते हुए सुशील को बीच में ही टोक देती है .
तब तुम विशुद्ध महिला नही हो .
सुशील भी हँसता है .दोनों की हँसी मन से हर तरह का बोझ हटा देती है .लेकिन जब वे ऑफिस चले जाते हैं तो समय जैसे ठहर जाता है . शनिवार और रविवार को उन्हें अवकाश मिलता है .ये दो ही दिन हैं जबकि हम लोग साथ बैठकर बोलते-बतियाते हैं .कहीँ घूमने चले जाते हैं या बाहर खाना खाने की योजना बनाते हैं .
इन दो दिनों के अलावा सप्ताह के पाँच दिनों का समय उन दोनों के लिये जहाँ सुपरफास्ट ट्रेन जैसा है तो मेरे लिये सुस्त बैलों वाली गाड़ी जैसा . कोडीहल्ली नाम के इस एरिया के एक अपार्टमेंट में रहते हुए मैंने महसूस किया कि सिवा इस भाव के कि हम अपने ही देश के एक शहर में हैं ,यहाँ रहना विदेश जैसा ही है .रश्मि दीदी ने जो अब आस्ट्रेलिया में स्थाई रूप से बस गई हैं ,बताया था कि वहाँ किसी को किसी से कोई मतलब नही हैं .साथ साथ चल रहे हैं पर सिवा इस ज्ञान के कि वे सब मनुष्य जाति के ही हैं ,एक दूसरे के बारे में कुछ नही जानते . मतलब जानना ही नही चाहते . 
मुझ जैसी मोहल्लाई संस्कृति की अभ्यस्त महिला के लिये यह हैरानी की बात है कि आप एक ही जगह पर रहने या रोज मिलने वाले लोगों का नाम तक नही जानते . अपने दो-ढाई मीटर की दूरी पर रह रहे पड़ौसी से अनजान हैं .एक हमारा मोहल्ला है जहाँ घर की बातें गली में गूँजा करती हैं .किसके घर कौन मेहमान आया है ,किसकी बेटी ससुराल जा रही है ,किसके घर में कलह के कारण चूल्हे अलग होगए हैं .ये बातें कम से कम पड़ौसी से छुपी नही रहती .हमारे पड़ौसी सक्सेना जी ऑफिस जाते हैं तो पूरे मोहल्ले को खबर होजाती है .पहले तो बाहर गली में आकर स्कूटर स्टार्ट कर बैठते हुए वे अपनी पत्नी को जोर से सुनाते हैं----उमा जा रहा हूँ .”  फिर रास्ते में मिलने वाले हर व्यक्ति से उनका संवाद बुलन्द होता है—भैया जी नमस्कार ...चाचाजी कैसे हैं ?..जीजीबाई सब ठीकठाक है ?”...इन संवादों से सड़क तक पूरी गली जाग जाती है .
सुबह पानी आता है तो कोई न कोई चिल्लाकर सबको बता ही देता है कि नल आ गए . गली में झाड़ू लगाने चाहे कोशला आए या उसकी सास या फिर उसका पति आए, चिट्ठी डालने डाकिया आए या फिर सब्जी वाला गोविन्द ,..बिना राम राम, श्याम श्याम के नही निकलते . कहीं कथा होती है तो चरणामृत और पंजीरी पास-पडौस में बाँटी जाती है .किसी के यहाँ गमी होजाती है तो मोहल्ले भर की औरतें वहाँ रात रात भर बैठकर जागतीं हैं . बिना बुलाए ही भजन-कीर्त्तन में शामिल हो जातीं हैं .
मम्मी यह फ्लैट शंकर रेड्डी का है .तेलगू है.— मेरे आते ही सुहानी ने मुझे कई जरूरी ,गैर-जरूरी जानकारियाँ दे डालीं थीं—ग्राउण्ड फ्लोर पर सुगन्धा है . बहुत अच्छी है वह तमिल है . हाउस-वाइफ है पर बहुत इन्टेलिजेंट है .उसकी अँग्रेजी भी बहुत अच्छी है इसलिये चीजों को समझने में उससे बहुत हैल्प होजाती है .बगल में कोई बंगाली रहते हैं .
मम्मी आप दिन में दरवाजा बन्द ही रखना ,वरना रोज दोपहर मछली की बू आपको परेशान करेगी .और हाँ  सामने वाला फ्लैट एक न्यू कपल का है जोसेफ और प्रिया .क्रिश्चियन हैं .जोसेफ टीसीएस में इंजीनियर है और प्रिया हाउस वाइफ है . मलयाली हैं पर हिन्दी भी जानते हैं .बोलते भी है . आपको अच्छा लगेगा .प्रिया शायद प्रेगनेंट भी है .
मैंने साश्चर्य सुहानी को देखा .सुबह से शाम तक ऑफिस में रहने वाली लड़की स्वभाव और जिज्ञासावश कितनी जानकारियाँ इकट्ठी कर लेती है .
अरे मम्मी !,मुझे तो सुगन्धा ने बताया  .”—सुहानी मेरा भाव समझकर हँस पड़ी. यहाँ भी अभिव्यक्ति और उसकी समझ ही संवाद को सुलभ बना रही थी . 
और ..तभी से मेरा ध्यान जबतब सामने वाले फ्लैट पर अटका रहता है .
वास्तव में यहाँ जो बात मुझे सबसे ज्यादा अखरती है वह भाषा की अनभिज्ञता ही है .
दरअसल यह एरिया पूरी तरह अहिन्दी भाषी है .यह बिल्डिंग ,जो दूसरे अपार्टमेंटों की तुलना में छोटी है .इसमें तीस फ्लैट हैं और जहाँ तक सुशील व सुहानी को मालूम है लगभग सभी परिवार या तो कन्नड़ और तेलगू भाषा भाषी हैं या तमिल और मलयालम . ये चारों भाषाएं द्रविड़ परिवार की हैं .चारों की लिपियाँ अलग होने पर भी आपस में काफी कुछ समझ लेते हैं .मैं शाम को छत पर चली जाती हूँ वहाँ कुछ महिलाएं आपस में बातें करतीं हैं पर मेरे पल्ले नही पड़ती है .संभव है कि मेरी खिल्ली उड़ाती हों लेकिन उनकी मुस्कराहट जो कभी कभी मेरी ओर आजाती है .इससे मुझे यह तो पता चल जाता है कि वे मेरे लिये अच्छा भाव ही रखतीं होंगी .मैं उनके साथ खूब सारी बातें करना चाहती हूँ .बातें उनकी परम्पराओं की ,रीतिरिवाजों की ...भावों और विचारों की .. 
हालाँकि ऐली शायद मेरा भाव समझकर ही कहती है –आइ अण्डरस्टेंड हिन्दी लिटिल लिटिल .”..और सुगन्धा जो तमिल भाषी है और सुहानी की सहेली भी ,कभी कभी पूछ लेती है—हाउ आर यू आंटी ?” उसके दाँत बहुत उजले हैं और हँसी बहुत प्यारी कोमल ..लेकिन ओ के ,फाइन थैंक्यू तक सीमित संवाद मुझे भूखे मेहमान को एक गिलास पानी देकर टरकाने जैसा लगता है .सचमुच भाव-संचार के लिये भाषा कितनी आवश्यक है .
शान्ताम्मा हमारे यहाँ काम करती है . वह गहरे काले रंग की सीधी-सादी अधेड़ महिला है .बड़ी बड़ी आँखें विनम्रता से भरी हैं . बाल काले और घुँघराले हैं . यहाँ की दूसरी महिलाओं की तरह वह भी गहरे रंग ( हरा, नीला जामुनी ,कत्थई )की किनारीदार साड़ी पहनती है . नाक में दाँयी तरफ चाँदी का बड़ा सा फूल पहने है . गजरा नही लगाती इसलिये अनुमान लगाया कि शायद उसका पति नही है . सुहानी ने ही बताया कि गजरा यहाँ उसी तरह सुहाग का प्रतीक है जिस तरह अपने यहाँ सिन्दूर और कंकुम .शान्ताम्मा अनपढ़ है .पढ़े-लिखे लोग टूटी-फूटी ही सही अंग्रेजी से काम चला लेते हैं पर शान्ताम्मा को यह बताने के लिये कि मेरे आने से जो अतिरिक्त काम बढ़ा है उसके पैसे अलग देंगे ,सुहानी ने सुगन्धा का सहारा लिया .
मुझे घुटन होती है . अगर मैं तमिल समझ सकती या शान्ताम्मा हिन्दी समझ पाती तो मैं जान सकती कि ,’वह कहाँ से आती है ? उसके घर में कौन कौन है ? वह कभी कभी बहुत उदास क्यों होती है ? .कि एक दिन वह काम करते करते रो क्यों रही थी ? अगर मैं कन्नड़ समझती तो पता लग जाता कि अभी-अभी दो आदमी एक लड़के को क्यों पीट रहे थे ? या कि रोज फेरी वाला क्या बेचते हुए निकलता है ?’
यहाँ मुझे निरक्षरता और भाषा की अनभिज्ञता की पीड़ा का अहसास तीव्रता से हुआ है .साथ ही अपनी भाषा के महत्त्व का भी .. क्यों अपनी भाषा मातृभाषा कहलाती है .क्योंकि वह माँ की गोद जैसी निश्चिन्तता और तृप्ति देती है .माँ की तरह हमारी बात समझती है ,औरों को समझाती है . भाषायी संवेदना मुझे सोचने मजबूर करती है कि राष्ट्रीय एकता के लिया भाषा की एकता सबसे ज्यादा जरूरी है.
सुशील व सुहानी सुबह साढ़े आठ तक चले जाते हैं . सुबह तो ऐसी भागमभाग मचती है कि पूछो मत . मैच की चुन्नी या जरूरी कागज न मिलने पर सुहानी हड़कम्प मचा देती है .चाय भी अक्सर भागते भागते पीती है .वह ऑफिस की वैन से जाती है और सुशील अपनी गाड़ी से . सुशील जाते जाते जरूर कहता है – मम्मी दरवाजा बन्द ही रखना . आपको बाहर निकलने की जरूरत नही है कोई खास बात हो तो मुझे फोन करना .
उनके जाते ही खामोशी छा जाती है .मेरे सामने पूरा दिन होता है .काम तो सारा शान्ताम्मा ही निपटा जाती है .मैं किचिन में डिब्बे-डिब्बी साफकर जमा देती हूँ .सुहानी के बेतरतीबी से अलमारी में ठूँसे गए कपड़ों को तहाकर रख देती हूँ .नहाने के बाद थोड़ी देर ईश्वर का ध्यान करती हूँ पर मेरा मन ही जानता है कि वह सिर्फ एक नियम पालन होता है . अभी मुझमें वह क्षमता नही कि चारों ओर से ध्यान खींचकर सम्पूर्ण भाव ईश्वर में लगा दूँ .
बन्द कमरे में मेरा मन नही लगता . टीवी पर ज्यादातर ऐसे कार्यक्रम आते हैं जिन्हें देखकर लगता है कि इससे तो न देखते वही अच्छा था . पैसे की चमक दमक वाले सीरियल आम जिन्दगी से दूर ले जाने वाले हैं . गाड़ी ,बँगला ,मँहगे कपड़े भारी भरकम गहने आदि से कुछ नीचे ही नही दिखता .बिना षड़यन्त्र के कहानी आगे नही चलती . यही हाल फिल्मी चैनलों का है .एक ही तरह की सस्ती फिल्में रिपीट होती रहती हैं . और समाचार चैनलों की तो बात करना ही बेकार है ..टीवी के सहारे दिन नही काटा जा सकता .
मैं एक नजर सामने के दरवाजे पर डालती हुई अक्सर गैलरी से होती हुई सामने झरोखा तक चली जाती हूँ जहाँ से नीचे गली का दृश्य दिखाई देता है . सामने एक शानदार कोठी है जिसमें केवल कार और कुत्ता दिखाई देता या फिर कुत्ता को घुमाने वाला एक ल़ड़का . बगल में एक प्रोवीजनल स्टोर है जिसका मालिक रजनीकान्त है .असली रजनीकान्त के विपरीत दुबला और सुस्त . दुकान पर जो बोर्ड लगा है उसपर रोमन में लिखे प्रोवीजनल स्टोर के अलावा जो लिखा है वह मेरे लिये काला अक्षर भैंस बराबर हैं .निरक्षरता के अँधेरे की भयावहता को मैंने सबसे पहले यहीं महसूस किया . कन्नड़ सिखाने वाली किताब से मैंने हालु ,मोसरू, सोप्पु जैसे कुछ शब्द याद किये तब मुझे एक कविता याद आई—
शब्द खिड़कियाँ हैं ,रोशनदान हैं आती है जिनसे धूप और हवा मेरे अँधेरे कमरे में ..
हाँ 'सिर्फ तुम' का एक गीत --'एक मुलाकात जरूरी है सनम', जरूर जब तब सुनाई देजाता है तो लगता है जैसे कोई अपना ही पुकार रहा हो .
गली में कुछ आगे मटन शॉप है जिसमें दिन भर खट्खट् कच् कच् होती रहती है .न चाहते हुए भी भेड़-बकरों के चमड़ी और सिरविहीन धड़ लटके दिख ही जाते हैं .मांस का यूँ खुलेआम बिकना मुझे ठीक नही लगता पर मेरे लगने से क्या होता है . दूसरी तरफ एक पाँच सितारा होटल दिनोंदिन आसमान को दबाते हुए उठ रहा है . मुझे आसमान का यूँ दबते जाना बहुत अखरता है.
सामने से लौटकर कमरे में आने से पहले मैं एक नजर फिर सामने वाले दरवाजे पर डालती हूँ .यह प्रिया कभी बाहर नही निकलती ?क्या इसे धूप और हवा की जरूरत नही है ? क्या इसे खुला आसमान देखने की इच्छा नही होती ? एक ही कमरे में दिनभर बन्द रहकर क्या ऊब नही होती होगी ? क्या बाहर निकलने से डरती है ? पागल है .यहाँ डर की क्या बात है . मैं तो हूँ .मेरे लिये वह भी सुहानी जैसी ही तो है .
मैं इन्तजार करती हूँ कि दरवाजा खुले तो मैं कुछ बात करूँ .जरूरत हो तो कुछ सहायता भी करूँ .गर्भवती की कितनी ही समस्याएं व जरूरतें होतीं हैं .मैं खुद ही यह सब सोचती रहती हूँ .एक दूसरे की भाषा समझने वालों में वह भी इतने निकट रह रहे लोगों में कम से कम संवाद तो होना चाहिये न . 
एक दिन जोसेफ के दरवाजे पर कई जोड़ी जूते-चप्पल रखे दिखे .बाजू वाली खिड़की भी खुली है .हँसने की मिलीजुली आवाजें आ रही थीं .कुछ अजीब तरह की गन्ध भी .
इनका कोई त्यौहार होगा शायद .”---सुहानी ने शाम को बताया .मुझे अजीब लगा .
ये लोग त्यौहार भी बन्द कमरे में ही मना लेते हैं !”
मम्मी आप बेकार ही इतना सोचतीं हैं . इन लोगों का कल्चर अलग है . वैसे भी यहाँ अपने कस्बा जैसी बात नही है कि लोग चाय-चीनी तक माँगने के बहाने रसोई तक चले आते हैं .यहाँ बस दूर से हाई-हैलो काफी होती है .
मैं देखती हूँ कि सुहानी यहाँ की अभ्यस्त होगई है .उसका काम भी ऐसा ही है .सुबह से शाम तक ऑफिस में बिजी रहने वाले को वैसे भी किसी से मेलजोल की न फुरसत होती है न जरूरत . पर उसकी बात मेरे सिर से किसी चलताऊ गाने की तरह गुजर गई .
मुझे सुबह छह बजे जागने की आदत है लेकिन कामकाजी लोगों की सुबह अक्सर आठ से नौ बजे तक ही होती है . दूधवाला सात बजे दूध की थैलियाँ दरवाजे के बाहर टँगी पालीथिन में रख जाता है . मैं तो अपनी थैलियाँ उठा लेती हूँ पर कई बार बन्दरों को पैकेट उठाकर भागते देखा गया है एक बार तो पैकेट को वहीं फाड़कर दूध पी भी गए हैं . उस दिन भी अपने पैकेट उठाते हुए मैंने टैरेस पर एक बन्दर को बैठे देखा . जोसेफ के पैकेट उसके दरवाजे पर रखे थे .
जोसेफ को जगाकर दूध के पैकेट अन्दर ले लेने को कहना चाहिये---–मैंने सोचा .इसी बहाने मुझे उन लोगों से बात करने का अवसर भी मिल जाएगा . पहल कोई भी करे पहल तो होनी ही चाहिये .
मैंने किवाड़ों पर हल्की सी दस्तक दी .कुछ देर बाद ही दरवाजा खुला . एक युवक ने सिर निकालकर मेरी ओर विस्मय से देखा . सुशील की ही उम्र का साँवला सलोना बड़ी और मोहक आँखों वाला यह युवक जरूर जोसेफ ही होगा .
"दूध का पैकेट अन्दर ले लो , बाहर बन्दर घूम रहा है .कल बाजू वालों के पैकेट उठाकर भाग गया था ."
ओह..सॉरी आंटी !...नींद नही खुली .. थैंक्यू .--कहते हुए वह हल्का सा मुस्कराया .एक अभ्यस्त सी मुस्कराहट पर मुझे बड़ा अच्छा सा महसूस हुआ .
मैं कहना चाहती थी कि कभी बाहर भी निकला करो बेटा .हाँ यह ठीक रहेगा . वह मेरे बेटे की उम्र का ही होगा . उसने मुझे कितने अपनेपन के साथ आंटी कहा .पड़ौसी से व्यवहार अच्छा हो तो जीवन ज्यादा सहज और सरल हो जाता है .लेकिन तबतक वह जा चुका था और दरवाजा बन्द होगया था .शायद वे लोग अभी नीद में ही होंगे .कोई बात नही जोसेफ की मुस्कराहट ने यह तो बता ही दिया कि न तो मैं उनके लिये अपरिचित हूँ न ही वे मेरे लिये .
और..आज सुबह मैं सुखद आश्चर्य से भर उठी .जोसेफ का दरवाजा खुला है .सामने जो गुलाबी गाउन पहने लम्बी छरहरी युवती गुलदस्ता ठीक कर रही है वह प्रिया ही होगी .उसके बाल काले घने और घुँघराले हैं .जब वह बाहर आई तो चिरपरिचित मुस्कान के साथ बोली—हैलो आंटी कैसे हो ?”
अरे वाह ! यह तो मुझे जानती है . ’—मन पुलकित होगया . अपनी भाषा में किसी का संवाद सुनकर .
अच्छी हूँ .आज अच्छा लग रहा है तुम्हें देखकर .
सुहानी ने आपके बारे में बताया था .
मैं भी कबसे सोच रही थी कि तुम्हें देखूँ ..बात करूँ .—मेरा उत्साह मेरी आवाज से छलका जा रहा था .वह पहली बार मिल रही थी . वैसे तो आजकल तो बच्चों से भी आप कहा जाता है पर सुहानी की उम्र की उस लड़की से आप कहा ही नही गया .मेरी बात सुनकर वह सिर्फ मुस्कराई . मैं बोलती रही –
सुहानी ने जब बताया कि हमारे सामने वाले पड़ौसी हिन्दी जानते हैं तो मुझे बड़ी खुशी हुई .नही तो लग रहा था कि जाने कौनसे देश में ..”
सुहानी चला गया ?”–प्रिया ने बीच में ही पूछा . शायद उसे सुहानी के बारे में कुछ और पूछना या कहना हो ,मैंने सोचा लेकिन उसने फिर कुछ कहा नही . मैंने ही पूछा –आप लोग कहाँ से हैं ?”
केरला से.”
अच्छा केरल से !”–मैंने उल्लास के साथ दोहराया ,मानो केरल मेरा गाँव हो .
यहाँ कौन कौन हैं ?”
मैं और मेरा हसबैंड .
तुम बाहर नही आती हो ..मैं तो कई दिनों से...
मेरा तबियत ठीक नही रहता .”  उसने संक्षिप्त उत्तर दिया . वह मेरी बातों को ऐसे सुन रही थी जैसे कोई बड़ा कवि किसी नौसिखिया की छोटी मोटी तुकबन्दियों को सुनता है .उसने मेरे या हमारे बारे में कुछ नही पूछा .जैसे कि वह सब जानती हो .या शायद जानना ही न चाहती हो .
'लेकिन यह तो नही जानती कि अगर वह ऐसे ही चौबीसों घंटे अन्दर रहेगी , बाहर निकलकर खुली हवा और धूप नही लेगी तो तबियत तो खराब रहेगी ही .'--.पर मैं यह सब उसे बताती तब तक तो वह 'अच्छा आंटी' कहकर अन्दर चली गई और मेरे देखते देखते दरवाजा भी बन्द कर लिया और मेरा यह वाक्य कि ,“कोई परेशानी या जरूरत हो तो बिना संकोच बता देना ...
बाहर ही पड़ा ही रह गया .