गुरुवार, 22 मई 2014

प्रलोभन

बिरमा ने टोकरी में बाँस की एक और तीली फँसाकर सामने नीम के पेड़ की ओर देखा । चबूतरा पर रूपल अभी भी पँचगुट्टे खेलने में मगन थी । बिरमा तीन बार पुकार चुका था पर वह टस से मस नही हुई थी ।
लड़की दिनोंदिन कामचोर होती जा रही है ।“--बिरमा मन ही मन भुनभुनाया—“गाँव वालों की शिकायत पर शिकायतें आ रही हैं---‘ओ बिरमा तीन दिन होगए । कोई सफाई के लिये नही गया ।गली-दरवाजों पर कचरे और गन्दगी के अम्बार लगे हैं । मुफत की खाने की आदत होगई है ना । अगर ऐसा ही रवैया रहा तो हम लालाराम को काम पर लगा लेंगे । हमें तो सफाई चइये । तू करे कि कोई और । फिर तू बैठ कर फिराता रहना भौंरा...
लालाराम !”---बिरमा का मन उस अकिंचन किराएदार जैसा होगया जिसे किराया न दे पाने के कारण मकान खाली करने की सख्त चेतावनी दे दी गई हो ।
चचेरा भाई लालाराम तो बैठा ही इस ताक में है कि वह विरमा के इन पन्द्रह-बीस घरों को भी हथिया ले । इन्ही घरों से तो बिरमा की रोजी--रोटी चल रही है । और कोई काम-धन्धा है भी नही । शहर में तो तमाम काम मिल जाते हैं । कोई इतनी छुआछूत भी नही मानता । उसके कई रिश्तेदार शहर में हैं । उसकी लड़की की नन्द का देवर स्कूल में लगा है । लैटरिंग बगैरा भी साफ करता है और फाइलें भी इधर से उधर पहुँचाता रहता है । मजाल है कि कोई मना करदे उसके हाथों से फाइलें लेने से । बस टेम्पो में सबके साथ बैठ कर जाते हैं वे लोग । बंसी ने तो कई बार कहा कि गाँव में क्यों पड़े हो फूफा । बहुत होगया गुलामों की तरह कीड़े-मकोड़ों की जिन्दगी ..
पर बिरमा का मन कभी तैयार नही हुआ यह गाँव छोडने के लिये । जनम से वह इसी घर में है । आँगन मुँड़ेली छप्पर,पाटौर,गली चबूतरा नीम का पेड सब अभिन्न रूप से उसके साथी हैं। फिर अँधेरे की आदी होगई आँखों को रोशनी का कोई खास मतलब नही होता। रोशनी रास भी नही आती । वैसे भी इन बीस घरों की बदौलत उसकी जिन्दगी आराम से कट रही है फिर वह क्यों कहीं जाए । लेकिन उसके सामने अब अक्सर यह सवाल आ खडा होता है कि काम पर जाए कौन? तीन दिन से वह इसी असमंजस में पड़ा था । 
घरवाली बसन्ती चार दिन से बुखार में भुँज रही है । नीम-गिलोय का काढ़ा दोनों टैम पिलाने पर भी कोई फायदा नही है । चक्कर और आने लगे हैं ।
वसन्ती के होते विरमा को कोई चिन्ता नही होती । मुट्ठी भर की काया है लेकिन नंगे पाँव ही दुनियाभर का काम निपटा आती है । गाँव में उसी की पूछ है । जिसे देखो वही टोकता है---
"बसन्ती भौजी क्यों नही आई । ए रूपा ,तेरी महतारी क्या कहीं गई है ? उसके बिना सफाई सफाई लगती ही नही है ।"
अम्मा बेचारी बूढ़ी होकर भी बैठी नही है । आसपास के जापे-जनेले वही निपटाती है । लोग कहते हैं कि बिरमा की अम्मा का हाथ जैसा सधा हुआ है आजकल के डाक्टर भी फैल हैं उसके आगे । दाईगिरी डिगरी नही 'तजरबा' माँगती है । चालीस साल से सम्हाल रही है अम्मा इस काम को । आज भी वह घर नही लौटी है ।
"कोई केस लम्बा खिच गया शायद"---बिरमा सोच रहा था । लौट भी आती तो उसे गलियों की झाड़ा-बुहारी के लिये तो नही भेज सकता बिरमा । एक तो बूढ़ी, ऊपर से गरीबी से टूटा शरीर । एक बार झुकजाए तो सीधी न होपाए । गाँव वाले तो साइकिल पर बिठा लेजाते हैं और छोड़ भी जाते हैं । खिदमत भी करते हैं । उसे काम के लिये भेजना तो बूढ़े बीमार बैल को हल में जोतना होगा । बिरमा इतना धरमार तो नही है ।
अब कोई सोचे कि बिरमा चला जाए काम पर तो पहली बात तो यह कि बसन्ती के होते उसे काम करने की आदत ही नही है । चबूतरा पर नीम की छाँह में वह ठौर पर ठाकुर बना बैठा बाँस के सूप डलिया बनाता रहता है । शादी-ब्याह के मौके पर बिक्री भी खूब होजाती है । फिर जहाँ खेती-किसानी है अनाज भरी कोठियाँ हैं वहाँ सूप--डलिया तो उतने ही जरूरी हैं जितना साइकिल वाले को हवा भरने का पम्प । पर दूसरी बात ज्यादा सही है कि बिरमा दमा का मरीज है । धूल तो उसके लिये कोबरा का डंक समझो । गली-दरवाजों पर झाड़ू लगाने की बिरमा तो सोच भी नही सकता ।
बचा 'पिरकास' । बिरमा ने उसे घरवालों में गिनना छोड़ दिया है ।
पन्द्रह-सोलह साल का उठती उमर का छोकरा है चाहे तो 'मिन्टों' में सारा काम करके आजाए पर राम भजो । काम के नाम तो उसकी अम्मा मरती है । पेंट-बूट चढाए खुद को 'सनीमा' का हीरो समझता है । शीशे में दस बार चेहरा देख जुलफें सँवारता रहता है । एक कंघा तो हरदम जेब में रहता है । 'काम का न काज का ,दुसमन अनाज का ।' खूब मार-पीट लिया पर अब तो पिटपिट कर गेंडे की खाल होगया है हरामी । जब देखो सीटी बजाना और 'सनीमा' के गीत गाना ...। अपने कपडे धोना तक तो शान के खिलाफ समझता है । गाँव में काम क्या करेगा । उस पर तो जुबान डालना भी कुँए में कंकड़ फेंकना है । ऐसी औलाद किस काम की ?
तो बची है केवल रूपा । बिरमा की नजरें अब इकलौती बेटी रूपल पर ही टिकीं हैं ।
"अरी रुपिया बेटी ,सुन तो जरा बापू की बात..."
ग्यारह साल की रूपा बिरमा की दूसरी बेटी और सबसे छोटी सन्तान है । भोली और चंचल । बड़ी कमली तो पाँच-छह साल पहले ही ब्याहकर ससुराल में रच बस गई । वह तो कभी-कभार तीज-त्यौहारों पर ही आ पाती है । हाथ-पाँव मेंहदी-महावर से रचे होते हैं । और वैसे भी वह अब तो मेहमान है मेहमान से भला कोई काम कराता है । हाँ कभी-गाँव की हमउम्र लड़कियों से बोलने बतियाने या अपनी नई साड़ी और बुन्दे दिखाने के लोभ में कमली रोटी लेने जरूर चली जाती है ।
साँवली-सलौनी रूपल अपने प्रति अभी से काफी जागरूक लगती है । सुबह-सुबह भी उसके बाल सँवरे देखे जासकते हैं और हाथ पाँव साफ ,तेल से चमचमाते हुए । उसे अपने खूबसूरत होने का पूरा यकीन है जो उसकी आम की फाँकों जैसी आँखों में साफ झलकता दिखाई देता है । वह बहुत ही जरूरी होने पर कंजूसी से मुस्कराती है जरा सा । 
दूसरे बच्चों की तरह उसे भी खेलना पसन्द है । गाँव में सफाई के लिये जाना उसे जरा भी पसन्द नही । खासतौर पर इसलिये कि लोग उससे अच्छा बर्ताब नही करते । जब कभी उसे जाना ही पड़ जाता है तो कोई न कोई उसे हिकारत से देखता हुआ टोक ही देता है---"अरे रुपिया , तू आई है । तू क्या सफाई करेगी ! झाड़ू तो ऐसे फेरती है कि कहीं धरती को लग न जाय । कहीं कूड़ा छोड देती है तो कहीं गन्दगी । तेरी अम्मा क्यों नही आती आजकल ? और 'रिसीराज' पंडिज्जी तो एक झिडकी जरूर देते हैं---"काय मौड़ी ,मेरे पूजा पाठ के टैम ही आती है ? आधा घंटा पहले या बाद में नही आसकती ..?"
रुपिया क्या घड़ी बाँधे फिरती है जो टैम की जानकारी रखे ।
उसे गाँव वालों के सामने माँ और दादी का गिड़गिड़ाना जरा भी पसन्द नही । किसी ने अगर थाली भर खाना या पुरानी साड़ी थमादी तो रूपा को अच्छा नही लगता कि वे आशीषों की झड़ी लगा देतीं हैं--"ऐहवाती रहो ,सुखी रहो भगवान तुमाए नाती बेटों को खुश रखे । लम्बी उमर दे..."
अजीब बात है । लोग हमें अगर कपडा खाना या पैसा खैरात में तो नही देते । हम काम भी तो करते हैं । फिर कहो कि काम जितना पैसा भी वे कहाँ देते हैं ! दो दिन काम न हो तो कैसी हाय दैया मचा देते हैं लोग । रूपल का वश चले तो हर घर से महीना के सौ रुपए ले कम से कम ..
रूपल बहुत कुछ जानने समझने लगी है ।
"रुपिया ...ओ रूपल बेटी ..जरा इधर आ । मेरी बात तो सुन लाड़ो ।"—बिरमा ने आवाज को भरसक मीठी बनाकर कहा ।
"वही से कहदो ,क्या कहना है ।" रूपल लापरवाही में गुट्टे उछालती रही ।
"अरी मेरी सयानी बेटी । एक चक्कर गाँव में लगा के तो आजा ।"
"हाँ ..इसीलिये मुझपर इतना लाड़ आ रहा है "--रूपल ने हाथ रोक कर कहा---"अपने लाड़ले से क्यों नही कहते । मैं कहीं नहीं जाने वाली..हाँ... " यह कह कर रूपा फिर गुट्टे उछाल कर लपकने लगी ।
बिरमा एकबारगी सुलग सा उठा । मन हुआ कि झोंटा पकड़कर खींच लाए । लड़की इस हाथ से निकली जारही है । काम के नाम झट से मुकर जाती है । लड़की की जात । यह हेकड़ी कहीं शोभा देती है । पराए घर जाएगी तो नाम डुबाएगी और क्या..
लेकिन बिरमा को जल्दी ही याद आया कि जोर-जबरदस्ती करने पर तो वह और बिफर जाती है फिर करवा तो ले कोई काम । ना यह सख्ती का नही नरमाई और चतुराई का समै है । थोडी 'पौल्सी' से काम लेना पडेगा । वह खूब जान चुका है कि किसन की अम्मा के गुण क्यों गाती रहती है रूपल ।
"तू तो खामखां बिगड़ रही है री रुपिया..। मैं तो तेरे मतलब की बात कह रहा था ..। किसन की अम्मा की बात ."
"किसन की अम्मा.."---रूपल की आँखें चमकीं जैसे किसी ने बुझते दिये में तेल भर दिया हो । और हाथ वहीं रुक गए । गाँवभर में एक किसन की अम्मा ही तो है जो उसे नाम लेकर बुलाती हैं । नही तो लोग "उसे..ए मौड़ी..काए बिरमा की सन्तान.. ओ जमादार की लड़की कहकर ही पुकारते हैं । लेकिन किसन की अम्मा उसका नाम लेकर अक्सर उसे छेड़ती रहती है---"अरी रूपल ,आज तो तू बड़ी सुन्दर लग रही है । ये बालों की खजूरी चोटियाँ किसने बनाईँ ? तूने खुद ने अरे भई वाह । रूपल तो बड़ी चतुर है । .अरे रूपा तेरे लिये मिठाई रखी है ।"
"मिठाई ..कौन लाया ?"--आत्मीयता पाकर रूपा के मन में बरसात के अंकुरों जैसी जिज्ञासाएं फूटने लगतीं हैं ।...क्या बड़े भैया आए हैं ? अम्मा भैया कहीं नौकरी करते हैं ? सुनीता बुआ भी नौकरी करतीं हैं ? कौनसे 'किलास' तक पढ़ीं हैं ? और किसन चाचा भी पढ़ रहे हैं ? फिर वे भी नौकरी करेंगे ।
तू पढ़ेगी । पढ़ाई के प्रति रूपा के मन में वही आकर्षण है जो दूसरे बच्चों में चाकलेट या आइसक्रीम का होता है । पर उसे कौन पढ़ाएगा । घर में किसी को इस बात का ध्यान नही है ।
"अरे तू चिन्ता न कर रूपा । तेरे पढ़ने की व्यवस्था तो मैं कर दूँगी । उसमें क्या है । किताबें पेन पेन्सिल स्लेट और बत्ती बस ...। किसी दिन चलकर स्कूल में नाम भी लिखवा दूँगी ।"
किसन की अम्मा की बातें सुनकर उसकी कल्पनाओं को पंख लग जाते हैं । आकाश में उडती चिड़िया की तरह वह बहुत दूर की चीजें देख लेती है । उसकी नजर काफी साफ और तेज होगई है । उसे यह सोच कर बड़ा अच्छा लगता है कि वह दीवारों पर लिखी सारी बातों को पढ़ सकेगी । खूब सारी कहानियाँ पढ़ेगी फिर जीजी की बेटी को सुनाएगी । दुकान वाले बाबा उससे मोलभाव में हेराफेरी नही कर सकेंगे । और हाँ तब तो वह प्रकाश भैया की पर्चियों को पढ़ सकेगी जिन्हें वह लिख कर और गोल करके फेंकता रहता है । पता नही वह क्यों लिखता है और फिर क्यों फेंक देता है ? जरा पूछने पर कैसे झिड़क देता है --"चल हट ,ये तेरे मतलब की नही हैं ।"
पढ़ लिख कर काबिल बन जाएगी तब उन शैतान बच्चों को भी सबक सिखाएगी जो उसे चिढ़ाते रहते हैं । किसन की अम्मा का तो कोई भी काम रूपा बिना घिनाए या हिचकिचाए कर सकती है । 
"बापू ,किसन चाचा की अम्मा कुछ कह रही थी ? क्या कह रही थीं ?" सारे पँचगुट्टों को एक तरफ सरका कर रूपल पिता के पास आगई ।
"तेरे लिये कुछ लाने की बात कर रहीं थीं ।"
"जरूर मेरे लिये स्लेट और किताबें होंगी .."

रूपा उल्लास से भर उठी और जल्दी से डलिया उठा कर बस्ती की ओर चलदी । 
बिरमा ओझल होने तक सजल आँखों से बेटी को देखता रहा ।
('पलाश' (राज्य शिक्षा केन्द्र भोपाल) में प्रकाशित)