सोमवार, 5 सितंबर 2011

चुनौती

शिक्षक-दिवस पर हर निष्ठावान् शिक्षक को समर्पित सन् 2004 में लिखी गई यह कहानी मेरे ताऊजी स्व.श्री भूपसिंह श्रीवास्तव के शिक्षकीय जीवन की सच्ची घटना पर आधारित है । वे बच्चों को समझने व समझ के साथ पढाने में अपने छोटे भाई एवं मेरे पिताजी स्व.श्री बाबूलाल श्रीवास्तव से भी दो कदम आगे थे । ऐसे शिक्षक विरले ही हुआ करते हैं । वैसे यह कहानी पलाश ( रा.शि.के.भोपाल) में प्रकाशित हो चुकी है । लेकिन आप सबके पढे बिना शायद मेरा (एक अनौखे शिक्षक से परिचय कराने का ) उद्देश्य अधूरा ही है ।
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बिलौआ के प्राथमिक विद्यालय का यह प्रसंग लगभग पैंतालीस वर्ष पुरानी है । नए मास्टर साहब को वहाँ आए तीन साल ही हुए थे । पर इतने दिनों में बिलौआ ही नही आसपास के पूरे इलाके में उजाले की तरह फैल गए थे । इसके कुछ खास कारण थे । 
एक तो यही कि जहाँ पहले स्कूल में मुश्किल से बीस--पच्चीस बच्चे दिखाई देते थे , अब बच्चे स्कूल में समाते नहीं थे । जबकि उन दिनों आज की तरह स्कूल में बच्चों के लिये भोजन, किताबें, साइकिल या अनेक छात्रवृत्तियों जैसे प्रलोभन नही थे । स्कूल भेजना और  पढ़ना अभिभावकों और उनके बच्चों की गरज़ हुआ करती थी । फिर भी नए मास्टर साहब के आने पर यह हुआ कि बच्चे स्कूल के लिये दौड़े चले आते थे । लोग हँसकर कहते थे--
"भैया यह कैसी बात हुई कि पहले हमारे बच्चे स्कूल जाने के नाम से रोते थे और अब जाने के लिये रोते हैं ! और तो और छुटके--मुटके सब मचलते हैं कि हमें भी स्कूल में भर्ती करादो ।"
"पर कैसे कराएं ? मास्टर साब तो कहते हैं कि उमर कम है ।" 
भूपसिंह जी ऐसे पहले शिक्षक थे जिन्हें लोग 'मास्टर साहब' कहते थे । मास्टर के साथ साहब लगाने का सम्मान पहले किसी को नही दिया था गाँव वालों ने ।
तीन साल में मास्टर साहब ने सचमुच स्कूल की काया ही पलट दी थी । स्कूल के जिस प्रांगण में धूल उड़ती रहती थी ,वहाँ हरी भरी क्यारियाँ  मुस्करा उठी रंग-बिरंगे देशी विदेशी फूलों से प्रांगण जगमगा उठा । वे अच्छे चित्रकार भी थे सो उन्ही के बनाए चित्रों से दीवारें जैसे बोल उठीं । बच्चों को अक्षर ज्ञान वे बोर्ड पर खुद चित्र बनाकर कराते थे इसमें बच्चों को सीखने में आसानी  होती थी . रुचि और कौतूहल तो था ही . मिट्टी से कौड़ियाँ और  फलों सब्जियों की आकृतियाँ बनवाकर वैसे ही रंग भरवाते थे .अध्यापन में रुचि पैदा करने में वे बहुत कुशल थे . बच्चों को लगता ही नहीं था कि वे कुछ कठिन सीख रहे हैं .  यही नहीं , प्रांगण के कोने में एक कुँआ जो सालों से अधूरा पड़ा पुरने लगा था ,उसे मास्टर साहब ने खुद ही  ,खुदाई करके गहरा करना शुरु किया तो गाँव वाले भी उनके साथ आगए . जब कुँआ में मीठे पानी के स्रोत फूट पड़े तो बच्चों के लिये पानी की समस्या खत्म होगई . इससे मास्टर साहब का सम्मान और बढञ गया ।
 उनकी पढ़ाई केवल किताबों तक ही सीमित नही थी . पढाई के साथ--साथ अनेक लुभावने कार्यक्रम नाटक ,गीत ,भाषण , चित्रकला व मूर्तिकला का अभ्यास और ऐसी बहुत सी गतिविधियाँ थी जिन्हें देखने गाँव के लोग भी आजाते थे और गतिविधियों को कौतूहल से देखते रहते थे  ।
वे अच्छे अध्यापक होने के साथ सरल संवेदनशील कलाकार व सहृदय इन्सान भी थे । बातों-बातों में मिट्टी से कोई जीवन्त मूर्ति बना देना , रंगों से बोलते हुए से चित्र  खींच देना या किसी भी विषय पर कविता लिख देना उनके लिये मामूली बात थी । इलाके भर में कोई झाँकी ,पर्व उत्सव उनके बिना नही होता था । 
यही नही वे जादू के खेल भी बड़ी सफाई से दिखाते थे । पानी छिड़क कर आग लगा देना, डमरू की ताल पर टब में तैरती चिड़िया को नचाना , कागज खाकर मुँह से माला निकालना जैसे खेल वे खूब दिखा सकते थे । 
भारत--चीन युद्ध के समय अधिकारियों के आग्रह पर उन्होंने ऐसे ही जादू के खेल दिखा कर रक्षा-कोष के लिये कुछ धनराशि भी भेजी थी जिसे वे आग्रह करने पर ही बड़े संकोच के साथ बताते थे ।
स्कूल के बाद मास्टर साहब कुछ देर के लिये सरपंच जी की चौपाल पर जरूर बैठते थे और मनोरंजक किस्सों के साथ अनपढ़ लोगों को भी कुछ पढ़ना-लिखना सिखाते थे ।
उस शाम को भी मास्टर साहब अपने पूर्व विद्यालयों के कुछ प्रसंग सुना रहे थे और लोग बड़े आदर से सुन रहे थे । तभी देवकच्छ का कासीराम वहाँ से गुजरा पर मास्टरसाहब की बातें सुनने के लिये रुक गया  लगा । जब बातों का सिलसिला खत्म होने लगा तो वह फटे दूध जैसी मुखाकृति बना कर बोला--"मास्टर साब की तारीफ तो म्हन्ने भी भौत सुनी है पर हम तौ सच्ची तब मानें जब वे हमाए मौड़ाय (लड़के को) पढ़ाइकें दिखावें ।"
"बहुत बड़ी बात कहदी तैने कासीराम ।"---सरपंच बोले ---"तैने स्याद(शायद) हमाए मास्टर साब कौ हुनर नईं देख्यौ है . अब तेरे मौड़ा कों  घर पढ़ाइवे तो जाएंगे नही मास्टर साब ?  तू उसे 'इसकूल' में तो ले आ । तब तेरौ मौड़ा नईं पढ़ै फिर मजे में कहियो जे बात ।"
मास्टर साहब ने संक्षिप्त सी मीठी मुस्कराहट के साथ कासीराम को देखा ---"काशीराम जी कितना बड़ा है तुम्हारा बेटा ?"
"होगा माड़साब ,आठक साल का ।"
"कभी कही स्कूल में भेजा है उसे ?"
"एक बार नही चार चार बार नाम लिखा चुका हूँ साब । पर एक या दो दिन से जादा कहीं नही टिक पाया ।"
"कोई बात नही । तुम कल अपने बेटे को हमारे पास ले आना ।---मास्टर जी ने आत्मीयता से कहा पर कासीराम ने अपना माथा पीटा---"लेउ !मैं ही उसे ला सकता तो फिर कौनसी 'दिक्कित' थी । स्कूल के नाम से चार-चार हाथ उछलता है । उसका मन तो भैंस चराने में लगता है बस । पर मेरी 'अवलाखा' (अभिलाषा) है कि वो चार 'आखर' सीख जाए । मास्टर साब  'जिनगीभर' तुम्हारा पानी भरूँगा ,बस जसमन्त को अपने 'कबजे' (अधिकार)में ले लो ।"--कासीराम कहते-कहते भावुक होगया । मास्टर जी ने उसका कन्धा थपथपाते हुए कहा----
"काशीराम भाई चिन्ता मत करो तुम्हारा बेटा स्कूल भी आएगा और पढ़ेगा भी ।"
मास्टरजी ने बड़े विश्वास के साथ कह तो दिया लेकिन जसमन्त से हुई पहली भेंट में ही मास्टर जी को अहसास होगया कि बात उतनी आसान नही है जितनी वे समझ रहे थे । 
कासीराम से बात होने के अगले ही दिन वे सुबह-सुबह देवकच्छ जा पहुँचे । आखिर यह एक पिता की भावनाओं व एक शिक्षक के संकल्प का सवाल था । 
देवकच्छ व बिलौआ में लगभग दो कि.मी. का फासला है । कासीराम उन्हें गाँव के बाहर ही मिल गया । उसके साथ जो लड़का खड़ा था उसे देखकर  मास्टर जी को यकीन होगया कि यही है जसमन्त । जो पिता की पकड़ से छूट कर भागने की फिराक़ में लगता था । 
एक नजर में ही जसमन्त एक बेहद लापरवाह लड़का दिखता था । मैल व खुश्की से फटे खुरदरे से गाल, कार्तिक माह में पकी सूखी घास जैसे रूखे बाल, सूखे पोखर की दरारों जैसी फटी एड़ियाँ और गुड़हल के फूल की याद दिलाने वाले लाल होठों के बीच पीले दाँत और मनमौजीपन से भरी बेधड़क सी नजरें । उसके नथुने ठसाठसभरे हुए लगते थे क्योंकि साँस लेने के लिये वह बार बार मुँह खोल रहा था । जाहिर है कि कासीराम उसे बिस्तर से उठा लाया था और शायद खेतों की ओर ले जा रहा था ।
"जसमन्त बेटा ! ये अपने मास्टर साब हैं ... बहुत अच्छे हैं । बड़े प्यार से पढ़ाते हैं । तुझे भी पढ़ाएंगे । इनके पाँव छू ।"--कहते हुए कासीराम ने मास्टर जी के पाँव छुए । 
पाँव छूने की तो बात ही कहाँ थी , जसमन्त ने तो उपेक्षा भरी नजरों से मास्टर जी को देखा और फिर उँगली से संकेत करता हुआ उपहास के साथ बोला---"ऐं कक्का ! मुझे 'जे (ये) पढ़ाएगी ? जे'..!!" और हाथ छुड़ा कर भाग गया । 
कासीराम लज्जित सा खड़ा रह गया । मास्टर जी ने उसका कन्धा थपथपाकर सान्त्वना दी और अपने स्कूल पर आगए । रास्ते भर जसमन्त का वाक्य उनके दिमाग में गूँजता रहा । गुम्बद में घंटे की आवाज की तरह ---"मुझे जे पढ़ाएगी जे..!" 
उनके लिये जसमन्त ने 'पढ़ाएंगे' की जगह 'पढ़ाएगा' ही नही 'पढ़ाएगी' का प्रयोग करके अपनी प्रौढ़ता व महत्ता तथा मास्टर जी की नगण्यता व निरीहता की घोषणा बड़े विश्वास से करदी थी । जाहिर है कि स्नेह ,आत्मीयता व बहलाव जैसे जिन शब्दों पर उन्हें बड़ा भरोसा था, जसमन्त के लिये तुच्छ व प्रभावहीन सिद्ध हो जाने वाले थे । 
जो खुद को पहले से ही परिपूर्ण माने ,कुछ जानने व सीखने की जरूरत न समझे उसे सिखाना पढ़ाना निश्चित ही कठिन होता है पर इसीलिये हताश होकर पीछे हट जाना भी तो मास्टरजी को स्वीकार नही था । बल्कि अब तो उन्होंने इस विषय में ज्यादा सोचना शुरु कर दिया था। ऐसी बातों के विषय में जो जसमन्त को लुभा सकें । 
इसके लिये उन्होंने स्कूल के बच्चों की भी सहायता ली । वे सब जसमन्त को सुना-सुना कर कहते थे--" सुनो भैया , हमारे स्कूल में तो रोज मजेदार कहानियाँ सुनाई जातीं हैं । चना--रेवड़ी और गोली बिस्कुट बाँटे जाते हैं ।"
"अ..र्..रे हाँ , वहाँ घूमती हुई धरती भी तो है । हमें तो यह भी पता चल गया है कि दिन रात क्यों होते है है ना रज्जन !
"और नहीं तो क्या ..स्कूल में  बहुत सारे चित्र और खिलौने हैं । गुरुजी हमें बाइस्कोप में ताजमहल ,इण्डियागेट और कुतुबमीनार भी दिखाते हैं ,जो भी देखना चाहेगा , उसे गुरूजी दिखा देंगे ..।"
"गुरूजी दिखा देंगे ."--जसमन्त ने मुँह विचकाकर कहा - तो क्या करें ! बैंड बजवाएं कि ढोल पीटें..।"
इन तरीकों का जसमन्त पर जब कोई प्रभाव न हुआ तो मास्टर जी ने देवकच्छ वाले रास्ते से अपने गाँव जाना शुरु कर दिया । शायद ज्यादा सम्पर्क में आने पर उससे निकटता बने । कई बार दूर से जो दिखता है वास्तव में होता नही है । और जो होता है प्रायः दूर से दिखता नही ।
लेकिन दूसरे ही दिन जब वे देवकच्छ के खलिहानों से गुजर रहे थे , एक सनसनाता कंकड़ उनके माथे को छूता हुआ निकल गया । बस बच ही गए । हल्की सी खरोंच आई और खून चिलमिला आया । गाँव वालों के लिये और खासतौर पर कासीराम के लिये यह बड़े अफसोस की बात थी । 
उसने विश्वास के साथ कहा ---मास्टर साहब जसमन्त के सिवा यह काम कोई कर नहीं सकता । मैंने आज उसकी चमड़ी न उधेड़ी तो मेरा नाम कासीराम नही ।" 
लेकिन मास्टर जी ने यह कह कर सबको शान्त कर दिया कि उनके व जसमन्त के बीच किसी को आने की ज़रूरत नहीं . अगर कोई आय़ा तो ठीक नही होगा , ।
इसके बाद भी छुटपुट घटनाएं होतीं रही जैसे कि कभी उनकी साइकिल पर गोबर लगा होता । कभी टायर में कील ठुकी होती । और तो कभी उनके रास्ते में काँटों व पत्थरों का अम्बार (ढेर)लगा होता । मास्टर जी देखते और सिर्फ मुस्करा कर रह जाते । पर लगातार मिल रही असफलता उन्हें व्यग्र भी बनाए थी । रात में उसके वाक्य--'जे पढ़ाएगी मुझे 'जे ' !--की अनुगूँज उनकी नींद को उड़ा देती थी । वह जैसे पूरे वजूद व पूरी अनगढ़ता के साथ मास्टर जी की क्षमता व कुशलता को ललकार रहा था कि जाओ मास्टर तुम जैसे बहुत देखे हैं ।
"अभी पूरी तरह तो शायद तूने एक भी नही देखा जसमन्त बेटा ।"--मास्टरजी ने अपने निश्चय को और भी मजबूत किया ।
मास्टर जी छुट्टी के बाद रोज शाम को गाँव के मैदान में बच्चों को कई तरह के खेल ,कबड्डी, वालीबाल, फुटबाल, रूमाल-झपट आदि खिलाते थे । उन खेलों में स्कूल ही नही गाँव के दूसरे बच्चे भी बड़े उल्लास के साथ शामिल होते थे ।
उन दिनों शिक्षक का इतना महत्त्व व अधिकार था या कि मास्टरजी ने अपने कार्य-व्यवहार से हासिल कर लिया था कि बच्चों के हित में वह मनचाही व्यवस्थाएं बना सकें। 
एक दिन अचानक उन्हें विचार सूझा कि खेलों की एक प्रतिस्पर्धा का आयोजन किया जाए जिसमें आसपास के गाँवों के बच्चे भी भाग ले सकें ।
जो बच्चा शरारती होता है ,वह किसी न किसी रूप में  प्रतिभाशाली अवश्य होता है । मास्टरजी इस बात को कई जगह परख भी चुके थे । जसमन्त की गतिविधियों से खेलों के आयोजन में उसके आने की उन्हें पूरी संभावना दिखी ।  
स्कूल व गाँव के बच्चों के लिये यह आयोजन किसी मेले से कम रोचक नहीं था । कई नौजवानों ने भी खेलों में भाग लिया .
पाँच दिन चली इस प्रतियोगिता के दूसरे ही दिन मास्टरजी ने जसमन्त को दूर एक पेड़ के पीछे छिपा देखा । यह मास्टरजी की योजना की सफलता की शुरुआत थी । 
इसके अगले दिन वह मैदान की बाउण्ड्री के पास आगया । पर मास्टरजी को देख कर छिप गया । मास्टरजी ने मुस्कराते हुए उसे जानबूझकर अनदेखा कर दिया । फिर बाउन्ड्री के अन्दर भी आगया .
इसके बाद ,जैसा कि मास्टरजी का अनुमान था, उसने एक लड़के से पुछवाया कि, "क्या मास्टरजी उसे खेलने देंगे ?"
"यहाँ तो कोई भी खेल सकता है ।-"-मास्टरजी ने निरपेक्ष भाव से कहलवाया ।
यह सुनकर जसमन्त तुरन्त आकर अपने गाँव की टीम के साथ खेलों में शामिल होगया । मास्टर जी ने कोई प्रतिक्रिया नही दिखाई ।
फिर तो जसमन्त ने वास्तव में दिखा दिया कि पढ़ाई से वह भले ही जी चुराता रहा हो  पर खेल में उसका कोई मुकाबला नही । मास्टर जी ने सबके साथ उसे भी बतौर इनाम एक गेंद और कुछ खट्टी--मीठी गोलियाँ दी । और  शाबासी भी ।
 इनाम लेते हुए वह झिझकता हुआ सा बोला --
"मैं स्कूल तो आ जाऊँ पर मेरे पास स्लेट और किताब नही हैं ।"
"स्लेट और किताबें तो हमारे पास बहुत सारी रखीं हैं । और रंगीन चाक भी हैं"--मास्टरजी ने अपनी मुस्कराहट को छुपाकर कहा ।
"तो कल से आजाऊँ ?"
"हाँ ..तुम चाहो तो जरूर आ जाओ ।"
और----जसमन्त फिर भी कुछ कहने के लिये झिझकता हुआ खड़ा रहा ।
"अब क्या बात है ।" मास्टरजी ने आत्मीयता से पूछा ।
" मुझसे गल्ती होगई तो तुम गुस्सा नही हो ?-"-वह नाखून से मिट्टी कुरेद रहा था । मास्टर जी चकित होने का दिखावा करते बोले--
"अरे !  मैं तो सब भूल भी गया । तुम तो ऐसा करो कि सब भूलकर स्कूल आ जाओ ।"
यह सुन कर जसमन्त जिस तेजी से दौड़ कर घर गया उतनी तेजी से तो ओलम्पिक-धावक ही दौड़ते होंगे । 
और एक चुनौती को स्वीकार कर उसे पूरी करने का अहसास मास्टरजी को पुलकित कर रहा था ।

12 टिप्‍पणियां:

  1. shikshak divas ki shubhakamnayen...aise hi vakaye shikshakon ki jindagi me meel ke patthar hote hai.

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  2. बहुत ही प्रेरक कहानी. ऐसे आदर्श शिक्षक को नमन.

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  3. ख़ुशी से आँखें छलछला आईं यह कहानी पढके .टीचर होना एक विलक्षण घटना है ,आध्यात्मिक अनुभव है .दृढ इच्छा शक्ति का मतलब होता है "शिक्षक ".हमें भी बतौर शिक्षक एक ऐसा ही अनुभव है .अब इस प्रेरक रचना को पढके लगता है लिखना ही पड़ेगा .
    बृहस्पतिवार, ८ सितम्बर २०११
    गेस्ट ग़ज़ल : सच कुचलने को चले थे ,आन क्या बाकी रही.
    ग़ज़ल
    सच कुचलने को चले थे ,आन क्या बाकी रही ,

    साज़ सत्ता की फकत ,एक लम्हे में जाती रही ।

    इस कदर बदतर हुए हालात ,मेरे देश में ,

    लोग अनशन पे ,सियासत ठाठ से सोती रही ।

    एक तरफ मीठी जुबां तो ,दूसरी जानिब यहाँ ,

    सोये सत्याग्रहियों पर,लाठी चली चलती रही ।

    हक़ की बातें बोलना ,अब धरना देना है गुनाह

    ये मुनादी कल सियासी ,कोऊचे में होती रही ।

    हम कहें जो ,है वही सच बाकी बे -बुनियाद है ,

    हुक्मरां के खेमे में , ऐसी खबर आती रही ।

    ख़ास तबकों के लिए हैं खूब सुविधाएं यहाँ ,

    कर्ज़ में डूबी गरीबी अश्क ही पीती रही ,

    चल ,चलें ,'हसरत 'कहीं ऐसे किसी दरबार में ,

    शान ईमां की ,जहां हर हाल में ऊंची रही .

    गज़लकार :सुशील 'हसरत 'नरेलवी ,चण्डीगढ़

    'शबद 'स्तंभ के तेहत अमर उजाला ,९ सितम्बर अंक में प्रकाशित ।

    विशेष :जंग छिड़ चुकी है .एक तरफ देश द्रोही हैं ,दूसरी तरफ देश भक्त .लोग अब चुप नहीं बैठेंगें
    दुष्यंत जी की पंक्तियाँ इस वक्त कितनी मौजू हैं -

    परिंदे अब भी पर तौले हुए हैं ,हवा में सनसनी घोले हुए हैं ।
    http://veerubhai1947.blogspot.com/

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  4. प्रेरक रचना .बारहा पढने को आमंत्रित करती .

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  5. ओह!आपके धाराप्रवाह रोचक और प्रेरक वर्णन से मन
    अभिभूत हो गया है.आपके सुन्दर लेखन को नमन.
    एक एक शब्द आपकी प्रस्तुति में प्राण फूँक रहा है.

    मेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है.

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  6. आपको सपरिवार
    नवरात्रि पर्व की बधाई और शुभकामनाएं-मंगलकामनाएं !

    -राजेन्द्र स्वर्णकार

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  7. चना अच्छी लगी । मेरे पोस्ट पर आपका स्वागत है ।

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  8. रोचक प्रसंग और आपका कथ्य शिल्प भी प्रभावित करता है.

    बधाई.

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  9. Bahut badhiya, ekk shikshak ke lalchane wale saare gun.. Bus main to durbhagy kahunga ki aise log aage nikal Kar nahee aa paye.

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  10. ये सही है कि एसे शिक्षक कहाँ हैं आज कल

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