बुधवार, 25 दिसंबर 2024

डायरी का आखिरी पन्ना

इस कहानी को  सुप्रसिद्ध लेखिका  रश्मि  'रविजा' जी के महाराष्ट्र साहित्य अकादमी से पुरस्कृत उपन्यास 'काँच के शामियानेकी कहानी की उत्तरगाथा के रूप में पढ़ा जाना चाहिये ।  

 'रविजा' जी का यह उपन्यास  एक विचारशील विदुषी की  यातनाओं की  बहुत ही मार्मिक गाथा है  जिसे लेखिका ने बड़े ही सुगठित और प्रभावशाली तरीके से बुना है जो पाठकों पर यह गहरा असर छोड़ने में सफल है । बातों बातों में इसकी चर्चा मैंने रश्मिप्रभा दीदी से जो ,एक विचारशील और संवेदनशील लेखिका और हमारी जानी मानी आत्मीया हैं  ,से की तो उन्होंने धीरे से एक  विस्मय से भर देने वाला तथ्य प्रकट किया कि यह उन्हीं के जीवन की सच्ची कहानी है जो उन्होंने 'रविजा' जी को सुनाई थी । 

बाद में रश्मि दीदी से जब उपन्यास के कथानक के बाद की कहानी सुनी तो उनकी उदारता नारी हृदय की गरिमा और संवेदनशीलता मुझे आन्दोलित कर गयी । स्त्री का यह रूप  प्रायः अनदेखा ही रहता है । उसे या तो पीड़ित ,त्रस्त बताकर करुणा बरसाई जाती है या क्रूर और संकीर्ण हृदय बताकर वितृष्णा दिखाई जाती है लेकिन उसके उदार और गरिमामय अन्तर की कहानी प्रायः सामने नहीं आती ।  कहानी उसी का छोटा सा प्रयास है । आप पढ़कर प्रतिक्रिया अवश्य दें ताकि मुझे परिमार्जन का अवसर मिले । कहानी को पूरी तरह समझने के लिये मैंने अपने शब्दों में उपन्यास का कथासार भी शामिल किया है जिसे मैंने स्वयं रश्मिप्रभा दीदी से पूरे विस्तार से सुनकर जाना ।  

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 इला हैरान थी ।
माँ को उसने इस तरह कभी चिन्तन में डूबे , वह भी सुबह सुबह   कभी नहीं देखा था । असल में माँ के पास इस तरह बैठकर सोचने का अवकाश ही कहाँ है । सुबह जब भी उसकी आँखें खुली हैं माँ को कुछ न कुछ करते पाया है । घर के कामों के लिये कभी कोई सहायिका नहीं रखी है । रखने की ज़रूरत नहीं समझी या रखने लायक स्थिति नहीं रही है , दोनों ही बातें हैं पहले, जब पैसा पैसा बचाकर बच्चों के लिये दीपावली पर एक एक जोड़ कपड़े खरीदा जाता था , माँ तब भी आत्मनिर्भर थीं , छोटे मोटे काम बच्चों में बाँट दिया करती थीं । और अब भी जब किंशुक भैया बड़े अधिकारी बन गए हैं और माँ खुद एक स्थापित लेखिका बन गई हैं ,अनेक जगह सम्मानित हो चुकी हैं घर के सारे काम और जिम्मेदारियाँ खुद ही उठाती हैं ,कहती हैं कि जब तक हाथ पाँव चलते हैं अपना काम जहाँ तक हो सके ,खुद ही करना चाहिये । ऐसा हम भी सीखें इसके लिये वे हमें कमला भसीन की एक कविता सुनाती रहती थीं –
तुम गन्दा करते हो ?
हाँ जी हाँ , हाँ जी हाँ
तो सफाई भी करते हो
 ?
ना जी ना , ना जी नाँ
गन्दे की हाँ और सफाई की ना
ऐसे कैसे चले जहाँ
 ?”....
इला जानती है कि माँ के सिद्धान्त समयानुसार बदलने वाले नही हैं
, फिर मुश्किलों में भी मुस्कराती रहने वाली माँ हाथ में कागज का एक टुकड़ा, शायद पोस्टकार्ड है ,लिये आज किस सोच में हैं ?
माँ किसका पत्र है ?”
इला की बात के उत्तर में जया ने उसकी तरफ कार्ड बढ़ा दिया । प्रेषक का नाम पढ़ते ही इला ने एक गहरी नज़र से माँ को देखा और पहले पूरा पत्र होठों में ही गुन गुन करते हुए पढ़ा फिर अन्तिम वाक्य जोर से पढ़ा--- “बहुत परेशान हूँ ।...मेरी हालत ठीक नहीं है ,एक बार आकर देख लो तो तसल्ली से मर सकूँगा ..।
अच्छा ,--इला ने वह कार्ड माँ को पकड़ाते हुए उपहास के साथ कहा ---"अब जब सारी कमाई भाई बन्धुओं को लुटा बैठे हैं , कोई पानी की पूछने वाला नहीं है , तब उन्हें माँ याद आगई ! अरे हाँ ,चिट्ठी गाँव से लिखी गई है यानी गाँव में महाशय अकेले डाल दिये गए हैं । पूरा परिवार पटना में मौज कर रहा है । मम्मी ,पटना के मकान में तो ज्यादातर पैसे डिप्टी कलेक्टर साहब ने ही लगाए थे न ? अब मौज करो गाँव के छोटे से घर में अकेले ।..मम्मी ! क्या यही नहीं होना चाहिये था उनके साथ ?”—इला व्यंग्य मिश्रित हँसी । वह पिता को पिता का सम्बोधन नहीं देती । पर इला ने देखा माँ की आँखों में कोई प्रतिक्रिया नहीं है तो उसने माँ को सान्त्वना दी-
पर हमें क्या लेना देना मम्मी ,? सब जानते हैं कि जो अपने पत्नी- बच्चों का नहीं हुआ औरों का क्या होगा । जो जैसा करेगा, वैसा भरेगा ..आप ज्यादा न सोचें । चलें नाश्ता कर लेते हैं । मुझे आज जल्दी कॉलेज जाना है । जल्दी आ भी जाऊँगी । फिर मार्केट चलेंगे ..—इला ने एक साँस में कहा ।
तू नाश्ता करले इला ।मैं नहाई भी नहीं हूँ अभी ।और हाँ अभी दीदी को मत बताना । ऋचा और किंशुक से मैं खुद बात कर लूँगी ।
इला नाश्ता करके कॉलेज चली गई लेकिन जया का मन नहाने का भी नहीं हुआ ।सारा ध्यान पत्र पर था । पत्र के अन्तिम दो वाक्यों पर--एक बार आकर देखलो । तसल्ली से मर सकूँगा ।”  
किस मुँह से , किस हक़ से लिखी है यह बात उसने ?”
उसने ,यानी राजीव ने । पन्द्रह साल पहले रिटायर होचुके डिप्टी कलेक्टर राजीव वर्मा ने ,जिसके साथ कभी जया का गठबन्धन हुआ , तीन बच्चों का जन्म भी हुआ लेकिन अब उससे हर तरह का सम्बन्ध खत्म कर चुकी है जया । वैधानिक रूप से न सही , तन और मन से वह वर्षों पहले ही अलग होचुकी है ।
 
उस डायरी को वह अब नहीं पढ़ना चाहती जो अँधेरे से अकेली ही लड़ते हुए टूटने के क्षणों में लिखी गई थी उसे विस्मृति के सन्दूक में डाल दिया था । जया को लगा था कि उसने अब किनारा पा लिया है लेकिन अब जैसे कोई खुद पार पाने के लिये उसे गहरे में खींचे ले जा रहा हो । डायरी के पन्ने उसके सामने स्वतः ही खुल गए ।
वास्तव में स्त्री के लिये घर की देहलीज लाँघना सहज और आसान नहीं होता । जया के लिये भी इस तरह अलग होना क्या आसान था
 ? अलग होने का निर्णय उसने लिया नहीं ,लेने विवश होना पड़ा था मरता क्या न करता ’ वाली स्थिति में । उस निर्णयको लेने में भी दस वर्ष लग गए । वह बन्धनों को सहज ही कहाँ तोड़ पाई है । तोड़ पाती तो जया आज सारी दैनिक क्रियाएं छोड़कर अतीत को दोहराने नहीं बैठ जाती । 
वह सचमुच डायरी को तहखानों में डालकर भूल चुकी थी पर यह भी सच है कि दरवाजा कैसे भी बन्द कर लो कोई तेज हवा का झौंका फटाक् से किवाड़ खोल देता है सारे दबे कागज इधर उधर उड़ने-बिखरने लगते हैं ।
अब भी पन्ने उड़ रहे थे । जया असहाय सी उन्हें समेट रही थी । एक एक पृष्ठ पर नज़र
,कौनसे पृष्ठ से जीवन का वह मोड़ आया , जहाँ से सफर काँटों कंकड़ों ,झाड़-झंखाड़ से उलझते जूझते ,लहूलुहान होते पोर पोर प्राणशक्ति क्षीण होती गई । जिसे बनाए रखने के लिये यहाँ वहाँ से उम्मीदें खींचती रही है ।
शुरु के पृष्ठ तो बचपन की अल्हड़ अठखेलियों और मासूम कल्पनाओं के साथ घुले मिले हैं परियों की तरह निर्भय उड़ानें...बड़े से गोल चाँद को छूने की रुपहली कल्पनाएं ..सबसे छोटी और सबकी लाड़ली छुटकी तब जीवन की अपरूपता से बिल्कुल अनजान थी
, झरने सी निर्मल , पल्लव सी कोमल..।
आगे के पृष्ठों में टहनियों पर फूटती नई कोंपलों और कलियों की ताजगी भरी मधुर कहानियाँ है ।आँखों में चाँदनी उतर आने की रुपहली कल्पनाएं
, विचारों में सूरज के समा जाने के सुनहरे प्रासाद । चम्पक शिरीष मोगरा खिलकर साँसों में समा जाने के दिन । हँसी में पहाड़ी नदी का उल्लास और मलयज के सौरभ में रचे बसे मदिर स्वप्न । उसका होना घर आँगन और गली का महक उठना था । कहाँ पतझड़ की वीरानगी और कैसी ग्रीष्म की तपन !
उन दिनों मन था जैसे किसी स्टेशन पर टहलता कोई व्यक्ति । उमंग के साथ किसी अपने के लिये ट्रेन की प्रतीक्षा करता हुआ । लेकिन ट्रेन से उतरा एक अपरिचित, निहायत ही धृष्ट व अशिष्ट युवक , बलात् ही परिचय बढ़ाने को तत्पर । रास्ते में अक्सर उसे प्रतीक्षारत पाती थी ।
आप मुझे अनदेखा क्यों कर रही हैं ,जबकि मुझे पता है आप भी मेरे लिये ही यहाँ से निकलती हैं ।..
यह कैसी ढिठाई
 !..जबरन ही मान न मान मैं तेरा मेहमान ..!
बिल्कुल नहीं । न मैं आपकी प्रतीक्षा कर रही थी न ही मुझे ऐसा करने की आवश्यकता है ।
कई दिनों से पीछा कर रहे उस युवक को जया कोई भाव नहीं देना चाहती थी । वह बिना कहे आगे बढ़ी तो सामने उसने सामने आकर रास्ता रोक लिया ।
रुकिये , मैं आपसे बात करना चाहता हूँ  
क्यों ?”--- जया ने उसे विस्मय के साथ देखा और रुखे स्वर में पूछा ।
आप रास्ते में बखेड़ा खड़ा करके बेइज्ज़त होना चाहते हैं ?”
ऐसा नहीं है मैं आपको बहुत पसन्द करता हूँ । शादी करना चाहता हूँ । ”
किसी नवयौवना की तरह जया को वह प्रेम निवेदन रोमांचक व सुहानी सी अनुभूति हो सकती थी लेकिन नहीं हुई बल्कि वह उसे युवक की निर्लज्जता और दुस्साहस लगा । शिक्षा साहित्य संस्कृति मर्यादा और नैतिक मूल्यों के साथ बड़ी हुई जया अभी तक प्रणय और परिणय जैसे शब्दों से भी दूर थी । उसे अभी पढ़ना था ।  
वैसे भी उन दिनों प्रेम और प्रेमविवाह जैसे शब्द तो परिवार-समाज में एकदम वर्ज्य विषय थे । लड़कियाँ अपने विवाह के बारे में सोचते हुए भी लजाती थीं ।डरती भी थीं । जया डरती नहीं थी लेकिन उसकी नज़र में अभी विवाह के लिये समय न तो समय उपयुक्त था और न ही वह युवक उसे अपने सपनों का राजकुमार प्रतीत हुआ । कुछ दिन पहले ही सिर से पिता की छाँव चली गई ।पिता का जाना जैसे घर की छत का हट जाना । अब धूप वर्षा
,ओले सबका मुकाबला करना था । प्रेम और विवाह जैसी कल्पनाओं के लिये कोई जगह नहीं थी न दिल में न दिमाग में ।  
“ देखिये आपको गलतफहमी होगई है । आपको शोभा भी नहीं देता किसी लड़की को इस तरह सरेआम कह देना । मुझे पढ़ना है ,कोई शादी वादी नहीं करनी ।—जया ने सपाट लहजे में कह दिया ।
हम छोटी नौकरी करते हैं क्या इसलिये ? ”
नहीं , मैं सचमुच अभी विवाह नहीं करना चाहती । आप आइन्दा मुझसे ऐसी बात न करें ।” जया के इस उत्तर की प्रतिक्रिया यह हुई कि अगले सप्ताह अप्रत्याशित रूप से उस लड़के की माँ घर आगई ।
भाई साहब के जाने का सुना बड़ा दुख हुआ—कुछ हमदर्दी और कुछ इधर उधर की औपचारिक बातों के बाद धीरे धीरे अपने आने के उद्देश्य की दिशा बातें शुरु करदीं कि बेटी सयानी है , अब उसके हाथ पीले कर देना चाहिये ।पिता नहीं है तो माँ और भाइयों को ही निभाना है ..।
माँ निरुत्तर सुनती रही तो अन्ततः उन्होंने अपना आने का मकसद बता दिया –"असल बात तो यह है कि आपकी लड़की के लिये मेरा बेटा राजीव हर तरह से सही है । उसके लिये मैं आपकी बेटी जया के रिश्ते की बात करने आई हूँ ।
इस प्रस्ताव पर माँ से अधिक बेटी चौंकी । अच्छा तो युवक का नाम राजीव है । लेकिन इस हद तक पीछे पड़ जाएगा उसने सोचा नहीं था । माँ कहे जा रही थी –"मेरा बेटा सरकारी नौकर है .आगे बड़ी नौकरियों के लिये परीक्षा भी दे रक्खी है । बहुत रिश्ते आ रहे हैं पर राजीव को आपकी बेटी इतनी पसन्द है कि वह और कहीं हाथ नहीं रखने देता । हमें कुछ नहीं चाहिये ।एक साड़ी में विदा कर देना । सच मानो आपकी बेटी को वह बहुत खुश रखेगा।
जितना जया ने जाना, राजीव नामक वह युवक सिविल सर्विस परीक्षा की तैयारी करने के लिये उसी कॉलोनी में उनके घर से पिछली गली में ही कुछ ही दूर वह किराए से रह रहा है ।बिना किसी सन्दर्भ प्रसंग ,बिना किसी भूमिका के अचानक ही एक नया अध्याय खुल गया तो जया स्तब्ध रह गई । माँ भी जया के विवाह के बारे में विचार तो करना था लेकिन इतनी जल्दी वह भी एक ही मोहल्ले में रिश्ते की बात ! मोहल्ला में होते हुए भी न कोई राजीव को जानता था न राजीव की माँ को जया के पिता होते तो सब सम्हाल लेते ।लेकिन परिजनों के साथ काफी सोच विचार के बाद यही तय हुआ कि अच्छे सम्पन्न घराने के एक सुयोग्य , सरकारी नौकरीशुदा युवक का रिश्ता उनके घर चलकर आया है , तो यह सौभाग्य ही है फिर यहाँ वे स्थायी निवासी भी नहीं हैं । नौकरी के साथ किसी कम्प्टीशन की तैयारी भी तो कर रहा है। सबसे बड़ी बात कि बिना किसी माँग के अच्छे लड़के मिलते कहाँ हैं । निष्कर्ष यह रहा कि इस रिश्ते को मान लेने में ही सबका हित है ।
लेकिन मुझे कोई हित नहीं दिख रहा है ।” –जया ने सोचा था । राजीव की कई बातें सन्देह उत्पन्न कर रही थीं जैसे सामने वाले को नासमझ मानकर बात करना ,अपनी बात पर हावी होजाना ,कटुता व अहंकार भरी बातें करना । वह आगे पढ़ भी सकेगी इसमें सन्देह था ।
माँ मेरी शादी अभी ना करो ..सच कहती हूँ मैं अभी पढ़ना चाहती हूँ । कुछ बनना चाहती हूँ इस शादी से शायद खुश नहीं रह सकूँगी।
मेरी लाड़ो…! माँ की आँखें भर आईं । बेटी के लिये माँ की देहरी छोड़कर दूसरे घर जाना , उसे दिल से अपनाना कोई सहज बात नहीं है पर दुनिया की रीति यही है।
लड़कियाँ विवाह से पहले ऐसा ही कहती हैं ।जब रम जाती हैं तो मायके को भी भूल जाती हैं .
आखिर रिश्ता पक्का होगया । जया खुश तो नहीं थी लेकिन विवाह तय हो ही गया तो उसने दूसरी तरह सोचना शुरु किया कि कच्चा आँवला कितना कसैला और खट्टा लगता है पर जरा सी प्रक्रियाओं के बाद स्वाद कैसा बदल जाता है और गुण तो निर्विवाद हैं । ऐसा ही कुछ राजीव के विषय में भी तो हो सकता है । फिर जिसने तिरस्कार के बाद भी रिश्ते के लिये अपनी माँ को भेज दिया तो यह सचमुच उसका प्रेम भी हो सकता है । इस विचार से उसे राहत मिली । एक अनकही अनुभूति मन के आँगन में उतर आई । उजाले का झरना फूट पड़ा ।गुलाब की पाँखुड़ी पर जमी ओस की बूँद सी अनछुई अनुभूति । यही भाव है जो भीषण गर्मी में भी नदी की तरह किनारों को हरा भरा रखता है । चट्टानों में भी राह बना लेता है। जो पथ में बिखरे काँटों की चुभन महसूस नहीं होने देता । तेज धूप में माँ के आँचल की सी छाँव बन जाता है जो घोर व्यथाओं व निराशा के अन्धकार में उम्मीद की ज्योति बन कर टिमटिमाता रहता है ताकि पथ प्रशस्त होता रहे । प्रेम और अच्छा व्यवहार हर विकार का इलाज है ।
जया की साकारात्मक सोच का एक कारण
, रिश्ता करके माँ मामा ,और ममेरे भाई लोगों का निश्चिन्त होजाना भी था । फिर रिश्ता तय करते समय कोई माँग ( डिमाण्ड) भी नहीं थी इसी बीच राजीव ने लोक सेवा आयोग की परीक्षा पास करली थी ।
अचानक हवा का तेज झोंका आया । डायरी का पन्ना पलट गया । विवाह में चार दिन ही शेष थे ।
“ सारी तैयारियाँ होचुकी थीं ।ऐसे में बातें उड़ उड़कर आने लगीं--लड़का डिप्टी कलेक्टर है निरा लटूरा नहीं ।विवाह उसकी शान के अनुरूप होना चाहिये ..
हमें कुछ नहीं चाहिये कहने वाले राजीव के घरवाले सब कुछ माँगने लगे । गाड़ी , गृहस्थी का सारा सामान ,सोना नगद सब कुछ । उतना तो नहीं लेकिन जया की माँ ने जितना हो सका अपनी हैसियत से ऊपर सारा सामान दिया । विवाह सम्पन्न होगया तो माँ ने चैन की साँस ली .
जया स्नेह और दायित्त्वबोध को आँचल में बाँधकर
,पलकों में नए नकोर सपने लिये नव-परिणीता के रूप में राजीव के घर आयी थी लेकिन वह आँचल ससुराल की देहरी पर ही तारों में उलझकर तिरक गया ।
डायरी के अगले पृष्ठ पलटते हुए जया के हाथ काँपे ।
जीवन की वास्तविकता उन्हीं पन्नों में थी ।
विवाह हुआ पर हर कोई असन्तुष्ट । नई बहू की अगवानी बड़े बेमन से हुई । न ननद ने मीठा शरबत पिलाया न आरती उतारी न गीत न बधाई ।न कहीँ हास न उल्लास । केवल व्यंग्य ताने और तीखे परिहास । लम्बा घूँघट किये जया अकेली कोने में बैठी रही । याद कर रही थी कि उसकी मामी ने कैसे सोने के कंगन और जंजीर में से पहली बार मृणाल भैया की बहू का मुँह देखा था .महिलाएं गाती जाती थीं –
"ए सासुलि सोना लेके बहू देखियो , तो बहू सुनवन्ती होइ ,रूपा लेके देखियों तो बहू रूपवन्ती ..गुना लेके देखियो तो बहू गुनवन्ती होइ …।” रात भर नाच गानों का कितना धमाल हुआ । पूरा महीना हँसते गाते उत्सव की तरह बीता था ।
जया ने सोचा कि यहाँ उस तरह का रिवाज होगा नहीं ।अब तो उसे यहाँ के अनुसार ही चलना होगा ।
पड़ोस की महिलाओं ने जया को देखा तो प्रशंसा के पुल बाँधे ।
बहू तो बड़ी सुघड़ सलोनी है राजीव की अम्मा . बड़ी बड़ी आँखें , मोहिनी  मुस्कान । खूब लमछारी छरहरी काया उजाला होगया तुम्हारे घर में ।
खाक उजाला होगया...!” राजीव की माँ ने मुँह बनाकर कहा।
“ कहीं और रिश्ता करते तो घर भर जाता । हमारे लड़के को गाड़ी तो छोड़ो ,ढंग की मोटरसाइकिल तक नहीं दी । दामाद को न सही लड़की को भी तो दो साड़ियों में विदा कर दिया है । लुट गए हम अफसर बेटा की ऐसी कंगली ससुराल ।रंग रूप को क्या चाटेंगे । घरवालों के तेवर देखो जैसे बहुत बड़े लोग हैं ।काहे के बड़े...।
जया का मन बुझ गया ! सास जी के शब्द भाव , कहने का तरीका ,सब कुछ बदल गया । बेटा अफसर बन गया तो बातें भी बदल गईं ।आपने दान-दहेज की तो माँग की ही नहीं थी । फिर भी माँ ने अपनी हैसियत से ऊपर सोना पूरा जेवर , बनारसी साड़ियाँ , घर का सामान अनुसार सब कुछ तो दिया है । बहुत कुछ कहना चाहती थी लेकिन उसे ऐसे संस्कार नहीं मिले हैं । हाँ मन दुखी होगया । ननद ने उसका घूँघट खोलकर देखा तो चिल्लाई –"अरे कोई कुछ मत कहो रज्जी की महारानी साहिबा से ।बुरा लग गया है , देखो कितनी गुस्सा लग रही है ।
ऐं ! गुस्सा ? “—आँखें फैलाते हुए अम्मा ने माथा पीटा – “अरे ,अभी तो घर में कदम रखा है , अभी से ये नखरे और तेवर हैं तो आगे क्या होगा..?”
छोड़ो अम्मा कैसे भी तेवर हों , ठीक करना मुझे आता है ।–-यह राजीव की आवाज थी ।
जया की नसों में खून तेजी से दौड़ने लगा । ट्रेलर ऐसा है तो पूरा नाटक कैसा होगा
 !  
नाटक का पूरा कथानक पढ़ने मिल गया जब प्रथम रात्रि को राजीव से भेंट हुई । –जया डायरी का वह पृष्ठ पढ़ते हुए
  सिहर उठी ।  
बिना कोई रस्म किये उसे एक कमरे में पहुँचा दिया गया । न कोई साज सज्जा न अच्छी रोशनी । कोने में पलंग पड़ा था जिस पर सादा सी दरी चादर । उस पर शाम को हुए वार्त्तालाप ने वितृष्णा का बीजारोपण कर ही दिया था । रात्रि का आधा भाग शंकाओं कुशंकाओं को परास्त करने
, उनकी जगह आशा और स्नेह को अच्छे भाव सहेजते ,पति की प्रतीक्षा करते बीता । लगभग बारह बजे राजीव ने किवाड़ खोले ।जया की धड़कनें तेज होगई । प्रथम रात्रि को अगर किसी लड़की का पति या पुरुष से सचमुच प्रथम परिचय है ,तो प्रेम और समर्पण की अपेक्षा लज्जा और आशंका का ही भाव होता है । वह चुपचाप सिर झुकाए एक तरफ खड़ी थी ।तभी राजीव ने झटके से जया का पल्लू खीचते हुए कुछ ऐसे भाव से कहा जो सामने वाले को तुच्छ और निम्न स्तर पर रखता है --
 “अब लाजवन्ती बनकर ही खड़ी रहेगी ?”
जया के लिये यह बहुत अप्रत्याशित था । पर वह कुछ बोली नहीं । निगाहों के तेज प्रहार से बचने ज़रा सा मुँह फेरा तो राजन ने कठोरता से उसका चेहरा अपनी ओर घुमाया-- “अब भी इतनी अकड़ ? किस बात की अकड़ है ? दौलत की तो होगी नहीं । एकदम कंगले निकले साले ..तो अकड़ रंग रूप की  है?  या फिर अपनी पढ़ाई की ।पर यहाँ कुछ नहीं चलने वाला ।
राजीव के शब्द इतने गरम लग रहे थे कि निगलने की कोशिश में जया के आँसू निकल आए पर उनसे अनजान बना राजीव नई नवेली पत्नी को सुनाता रहा –
--” सच कहूँ तो मैंने उस अकड़ को देखने और शान्त करने के लिये ही ब्याह किया है । देखूँगा कि कितनी चलती है ।
इसके बाद राजीव ने लाइट बन्द करदी फिर जया को हाथ पकड़कर अपनी तरफ झटके से इस तरह खींचा कि वह पलंग पर लगभग गिर ही पड़ी और सम्हल भी न पाई कि राजीव उस पर टूट पड़ा जैसे कोई निहत्थे दुश्मन पर वार करता है , करता जाता है जब तक कि खुद का आवेश शान्त न हो या प्रतिपक्षी को बेदम न करदे । उसके बाद अपनी जीत पर गर्व से भर उठता है ।आघातों से धरती हिल उठी ।एक मजबूत बहुमंजिला इमारत धराशायी होगई । गुबार में आँखें धुँधला गईं । पुरुष की नज़र में स्त्री का दर्प-दलन इसी तरह होता है । यही उसका बल है । इससे परे वह निहायत ही कमजोर कायर प्राणी है ।
कहाँ कोमल कली सी कामनाएँ
,धूप में बरगद की छाँव जैसे प्रेम की उत्कट अभिलाषाएं और कहाँ निस्संग सा ,प्रकृति विरुद्ध बलात् संसर्ग । कहाँ तो प्रियतम से प्रथम मिलन को लेकर रचे गए स्वप्निल गीत ,और कहाँ कटु कठोर स्पर्श ,शब्दबाण ऐसे स्नेहविहीन और क्रूरता भरे प्रथम मिलन की कल्पना कौन स्त्री करना चाहेगी ? कम से कम एक प्रेम और संवेदना से परिपूर्ण युवती तो कभी नहीं ।
उस रात उसके अन्दर एक नदी सूख गई
,विशाल गहरी सदानीरा नदी जो धरती की जीवन रेखा कहलाती है । हरियाली के कालीन बुनती है ।प्रेम के फूल टाँकती है ,तितलियाँ उड़ती हैं , चिड़ियाँ चहकती है । नदी का सूखना धरती का मरुस्थल होजाना है । माटी में दबे बीजों का जल जाना है । प्रेम खत्म होता है तो जिन्दगी बोझ लादकर पहाड़ पर चढ़ने जैसी लगती है । दलदल में चलने जैसी ।
यों तो सौन्दर्य प्रेम का सशक्त आधार है लेकिन प्रेम व्यक्ति को सौन्दर्य-बोध संवेदनशील और सृजनशील बनाता है । जया एक सुन्दर सुकोमल युवती थी लेकिन प्रेम से भी परिपूर्ण थी
, प्रेयसी पत्नी बनकर रहने की चाह थी । लेकिन राजीव के लिये वह सब बेमतलब था । प्रेम सौन्दर्य सब अर्थहीन । पहले उसे अपने आप पर भरोसा था कि प्रेम और सद्व्यवहार से सबका दिल जीत लेगी पर अब लग रहा था कि यह भ्रम है , अपनी खुद की कल्पना । ।वह हतप्रभ हो उठी ।
पति ही नहीं सास ससुर देवर ननद के लिये वह केवल एक मशीन थी । उसके दुख या पीड़ा से किसी का कोई सरोकार न था । यंत्रवत् जीना भी कोई जीना है।
उसने जेठानी को अपनी मानसिक शारिरिक यातना के बारे में बताया जेठानी हँसकर बोली – मैं तो दस साल से सह रही हूँ । परेशान क्यों हो
, मर्दों के प्रेम का यही तरीका है ।
छि.. ! ऐसा वीभत्स तरीका !  उसका मन होता कि सब कुछ छोड़कर कहीं भाग जाए । तोड़ फेंके जंजीरों को जो बरबस ही उसके पैरों में डाल दी गई हैं ।
लेकिन विवाह-सम्बन्ध कोई
 ‘ऑनलाइन’ मँगाया सामान तो है नहीं कि अच्छा न लगे तो वापस करदो । माता पिता और समाज के लिये पति का घर ही स्त्री का घर है । उससे नाता तोड़ने का विचार तेज धूप में मीलों पैदल चलने जैसा था , राह में हरियाली की उम्मीद पाले कि कभी कहीं तो छाँव मिल ही जाएगी । भारतीय संस्कारों से रची बसी स्त्री के लिये पति से सम्बन्ध तोड़ना ,मन की दिशा को मोड़ना इतना सहज और आसान नहीं होता ।
और होता भी कैसे
 ? एक दिन अचानक उसे जीवन में नन्हे कोमल कदमों की कोमल आहट जो सुनाई पड़ गई । लगा जैसे अँधेरे होते जारहे मनोजगत में सूरज की पहली किरण उतर आई हो तब पति का दुर्व्यवहार हाशिये पर चला गया और एक मीठी सी कविता डायरी के पन्नों पर लिखी जाने लगी । उसका रोम रोम जैसे गुनगुनाने लगा । अपनी नज़रों में नई और खूबसूरत होगई । राजीव ने सुना , जया का खिला चेहरा देखा तो खुशी की बजाय निराशा हुई । मालूम था कि माँ बनने के बाद स्त्री बँट जाती है । उसका एक बड़ा , बल्कि अधिकांश भाग बच्चे का होजाता है और पति ‘सेवा’ अल्पांश । अपने रौब और एकाधिकार में किसी का दखल नहीं चाहिये था राजीव को । बच्चे का भी नहीं ..जो आने से पहले ही पिता का अधिकार छीनले...
चलो तैयार हो जाओ ।
कहाँ ?”
हॉस्पिटल .
जया को कुछ सन्देह हुआ । बोली --
हमें कहीं नही जाना ..
मैं पूछ नहीं रहा ,आदेश दे रहा हू 
हाँ सुना पर हमें कोई तकलीफ नहीं , हॉस्पिटल नही जाएंगे ।
देखता हूँ कैसे नहीं जाएगी ।
हरगिज़ नहीं जाऊँगी..अपने बच्चे का कुछ नहीं बिगड़ने दूँगी। ”
बच्चा बच्चा ..क्या अपने मैके से लाई है ? बच्चा मेरा है । मैं चाहूँ जो करूँ ।
बच्चा आपका अकेले का नहीं मेरा भी है ।
इस बात का जबाब एक झन्नाटेदार थप्पड़ की सूरत में जया के गाल पर पड़ा । सामने अँधेरा सा छागया ।सम्हल नहीं पाई । दीवार से टकराती हुई फर्श पर गिर  गई .कुछ पल चेतनाशून्य होगई पर टस से मस नहीं हुई , तो नहीं ही हुई ।
उस अड़ियलपन की सजा उसे हर रात सहनी पड़ती । राजीव जानबूझ कर ऐसे आघात करता कि पूरा गर्भाशय ही हिल जाए और वह अजन्मा घबराकर अपनी जगह छोड़दे ।कभी पेट पर मुट्ठियाँ गढ़ा देता ।कभी धक्का देकर गिराना चाहता । कभी कहता यह मेरा बच्चा नहीं है । जया हर पीड़ा को चुपचाप सहती हुई ईश्वर से अपने बच्चे के लिये प्रार्थना करती –-
” हे गोविन्द , हे योगेश्वर रक्षा करना इस अजन्मे जीवन की ,जो मेरा जीवन है ।
आखिर जया के आत्मबल की जीत हुई । नौ माह की तपस्या के बाद जब एक सलौने शिशु को अपनी गोद में पाया तो लगा कि दुनियाभर की दौलत और खुशियाँ उसके अंचल में आ समाई है । फिर कैसे दुख ! कैसी निर्बलता ! मातृत्त्व स्त्री की सबसे बड़ी शक्ति है । आत्मविश्वास बढ़ा तो ,विचारों में उदारता आई और सहन करने की क्षमता के साथ आशा भी कि बच्चे की किलकारियाँ सुनकर राजीव की कटुता कम होगी । भला अपने बच्चे का मुँख देखकर किस पिता का हृदय नहीं पिघलेगा ।पति का दृदय पिघले , व्यवहार बदले तो वह बाकी अभावों कटुताओं को सह लेगी । उम्मीदें थकती फिसलती रहीं लेकिन चढ़ने के मनसूबे नहीं थके । माँ बनकर जहाँ स्त्री का आत्मविश्वास बढ़ता है तो दूसरी तरफ बच्चे के भविष्य को लेकर कई समझौते करने विवश भी हो जाती है । तन मन पर चोटें सहते सेकते समय बीतता रहा । छाँव मिलने की आशा में चलती रही और राह में एक बेटी और आगई पर राजीव की उग्रता कम नहीं हुई । राजीव को बच्चे नहीं चाहिये थे ,पत्नी का स्नेह भी नहीं , सिर्फ अन्धभक्ति चाहिये थी कि वह दिन कहे तो जया दिन कहे और रात कहे तो रात । वह भी विवश होकर नहीं ,समर्पित होकर । लेकिन एक सुशिक्षित स्त्री , कला और साहित्य जिसके रक्त में घुला हो , स्नेहमयी और उदार हो सकती है , अनुशरण भी कर सकती है ,किन्तु गूँगी बहरी निरीह गुड़िया बनी तो हरगिज़ नहीं रह सकती । सागर में उठती उत्ताल लहरों जैसे सवाल उसे गुड़िया बनने से रोकते हैं । राजीव को वे लहरें विचलित करतीं । वह जब चाहे आपे से बाहर होजाता । और पत्नी का जैसे चाहता दमन करता , हर तरह का निर्मम दैहिक अतिचार अलग ।
उन दिनों वह कितनी असहाय और हताश होगई थी कि उसे घर छोड़ना पड़ा था । ’
जया तेज होती धड़कनों के साथ डायरी के पन्ने पलटती जा रही थी । खर्च के लिये दो दो रुपया माँगने पड़ जाते थे ।कहीँ नौकरी करना संभव नहीं था । एक अधिकारी की पत्नी होने की इमेज , किसी को अपना दर्द नहीं कह सकती थी । जीवन की गाड़ी ऊबड़-खाबड़ रास्ते में हिचकोले खाती गुजर रही थी ।यह प्रकृति का अजीब खेल है कि पुरुष का आनन्द प्रसाधन बनते बनते स्त्री को न चाहते हुए भी मातृत्त्व भार ढोना पड़ जाता है । यह बात अलग है कि माँ उसे भार नहीं मानती । जब तीसरी सन्तान के रूप में इला का जन्म हुआ तो जया को बेटी भार तो नहीं लगी लेकिन उसके लिये चिन्तित अवश्य होगई । स्थितियाँ ‘गरीबी में आटा गीला’ होना या ‘कोढ़ में खाज’ होने जैसी त्रासद थीं । पुरुष तो मुक्त होजाता है ।सन्तान को जन्मना पालना सब माँ के भरोसे छोड़कर । राजीव का भी यही रवैया था ।लेकिन कटुता व क्रूरता से वह  ज्यादा असहनीय होगया था । इला बीमार हुई तो उसने साफ कह दिया---"मरने दो ..लडकी ही तो है ..एक है ,वही काफी है ।
अपनी बेटी के मरने की कामना --जया की वितृष्णा अब आक्रोश व नफरत में बदलने लगी । उसने अपने जेवर बेचकर ,पड़ोस की सहायता से किसी तरह बच्ची का इलाज करवाया । अब उसे पति से अच्छाई की उम्मीद बिल्कुल न थी पर राजीव को तो थी , पति होने का सुख तो उसे चाहिये था ।जया भले ही उसका परिणाम सहती रहे न सहे तो कोप के लिये तैयार रहे । उस पर गज़ब यह कि राजीव नियोजन के लिये बिल्कुल तैयार न था ।
हारकर जया ने उससे अलग रहने का फैसला कर लिया । अब तक ज्यादती को वह इसलिये सह रही थी कि बच्चों का लालन पालन होता रहे । यह भी विचार था कि पति से अलग रहकर स्त्री को न जाने कितने अंगारों से
,काँटों से गुज़रना होता है । फिर उसके पास तीन बच्चों के साथ जीवनयापन का कोई जरिया नहीं था । बच्चों के साथ एक स्त्री का देहलीज लाँघना इतना आसान नहीं होता ।एक उच्च मध्यम परिवार की बहू माँ और भाई शुरु से ही इस पक्ष में नहीं थे कि जया पति का घर छोड़े लेकिन बच्ची के लिये राजीव ने जो क्रूरता दिखाई उसके बाद जया का वहाँ रहना मुश्किल होगया था । उम्मीदों की शाम होचली थी । गमले के पौधे मुरझाकर सूख चले थे । स्वयं के संत्रास और बच्चों को सहमा देने वाले यातना शिविर में और नहीं रख सकती थी । बस बहुत हुआ अब नहीं सहेगी जया न किसी तरह का दमन शोषण और ना ही आगे जनन का भार ।
उसने पूरा आत्मबल समेटा पति की दौलत को ठोकर मारी और अपने तीनों बच्चों के साथ एक आत्मनिर्भर जीवन के अनजाने मार्ग पर चल पड़ी । डायरी पन्ने पलटते जा रहे थे ।
जया उस दिन को याद करके आज भी सिहर उठती है जब उसने राजीव का घर छोड़ा था । तीन बच्चों के साथ खाली हाथ । माँ के दिये कुछ जेवर और कपड़ों के अलावा हाथ में कुछ नहीं था । माँ और भाई इस फैसले से बिल्कुल सहमत नहीं थे । माँ बोली –-
 “जया ऐसा कदम उठाने से पहले बच्चों के बारे में तो सोचती । पति पत्नी में झगड़े कहाँ नहीं होते पर कोई घर नहीं छोड़ता । पिता से दूर रहकर बच्चों को सही माहौल नहीं मिल सकेगा । नौकरी भी नहीं है । कैसे पालेगी तीन तीन बच्चों को ? समाज क्या कहेगा ? पति से अलग रह रही स्त्री पर लोग उँगलियाँ उठाते ही हैं ..। ”
“ 
माँ मैं सब सम्हाल लूँगी । तुम पर बोझ नहीं बनूँगी । मुझ पर क्या गुजरी होगी , तुम्हें क्या और कैसे बताऊँ तुम्हें सिर्फ दुख होगा । अब बस रहने को थोड़ी जगह देदो ..।
फिर माँ को कैसे सहज कर पाई , नौकरी के लिये कहाँ कहाँ ठोकरें खाई , ट्यूशन पढ़ाए , दफ्तरों में काम किया , भर्त्सनाएं सहीं , ताने सुने ,कैसे पुरुषों की बुरी नज़रों का सामना करते हुए नौकरी की ,यह एक लम्बा काँटों कंकड़ों से भरा हुआ अतीत है । पति से अलग रहते हुए स्त्री को अपने अस्तित्त्व की रक्षा के लिये कितना संघर्ष करना पड़ता है । किन किन सवालों का सामना करना पड़ता है , कैसे और किससे कहे ।जीवन जैसे बिना छत का घर होता है .आँधी वर्षा ओले । हर तरह के संकट से जूझना पड़ता है । सन्तुष्टि केवल यह रही कि उसने हार नहीं मानी । बच्चों की अच्छी शिक्षा के लिये जो प्रयास किये उनका परिणाम आशाजनक रहा । किंशुक एन डी ए प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण करने और प्रशिक्षण पूरा करने के बाद थल-सेना में शानदार पद पर नियुक्त होगया । ऋचा की नियुक्ति शासकीय विद्यालय में होगई और इला नर्सिंग कॉलेज ट्रेनिंग पर है । अब उनकी जिन्दगी ने सँकरी पथरीली पगडण्डियों से निकल कर राजमार्ग पा लिया था ।
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वह सब आसान तो न था ।
 ‘इक्का गाड़ी’ खींचते हुए उसे दम भर साँस लेने का अवकाश नहीं मिला । काँटे कंकड़ चुनते हुए कितने वर्ष गुज़र गए । कितना पानी नदियों में बह गया । और अब जब वह इतनी दूर आकर उसने चैन की साँस ली है , वह पुकार रहा है । क्यों ? किसलिये ? हमेशा मौत का फ़रमान देने वाला खुद जिन्दगी की भीख माँग रहा है ।उसी से पनाह माँग रहा है ,जिसको उसने हमेशा तबाही दी है , कैसी विडम्बना है ?”
 “
नहीं , अब मुड़कर नहीं देखना है । हरगिज़ नहीं।"—राजीव का घर छोड़ते हुए यही सोचा था । अतीत को दोहराते हुए अब भी जया दृढ़ता के साथ यही सोच रही थी । जीवन का जटिल अध्याय समाप्त हो चुका है । अब वह क्यों न अपनी विजय का उत्सव मनाए , ठहाके लगाए कि देखो मि. राजीव वर्मा अन्ततः तुम्हारे कर्म परिणाम के साथ तुम्हारे सामने हैं । अब कोई साथ नहीं है । वे भी नहीं जो तुम्हारे पैसे पर पले ,बढ़े और फूले-फले । भाइयों और परिजनों ने फण्ड का सारा पैसा हड़प लिया ।और तुम्हें अकेला छोड़ दिया । कहावत सही है कि 'पापी का माल अकारथ जाय।' अन्त में याद वही आई जिसे तुमने अपमानित किया..अमानुषिक बर्ताव किया । बच्चों तक को सुख-सुविधा से वंचित रखा ।मि. राजीव वर्मा अब तुम्हारे लिये मेरे पास न कोई जगह है न ही ज़रूरत । जिस पद प्रतिष्ठा और सम्पत्ति के अहंकार में , पौरुष के मद में तुमने पत्नी के साथ जानवरों जैसा बर्ताव किया , अब उसके पास तुम्हारे लिये कुछ नहीं है ...” जया ने दृढ़ता के साथ डायरी बन्द करदी । और गहरी साँस लेकर खुद को मुक्त किया ।
 लेकिन कहाँ ! 

आँखें बन्द कर देने से विचारों का प्रवाह कहाँ रुकता है ? नींद कहाँ आती है ? हैरान थी जया ।यह कौनसी भावना है कि वह अन्तर में अपनी विजय का अनुभव नहीं कर पा रही है । पत्र में लिखा ‘असहाय’ शब्द उस अनुभूति में बाधक बन रहा है । क्यों पत्र का अन्तिम वाक्य –परेशान हूँ ..एक बार आकर देखलो तो तसल्ली से मर सकूँगा ।”, चेतना में सर्द सी लहर बनकर उमड़-घुमड़ रहा है ।    
इस पुकार के पीछे क्या केवल उसकी असहायता है या प्रयश्चित करने का भाव भी शामिल है । आखिर अब सोचने के लिये क्या शेष है
 ? क्यों है ? कौन है ,उसके भीतर जो उसे ही लड़कर परास्त करना चाहता है ?  वह परास्त नहीं होना चाहती ..नहीं हो सकती । लेकिन अशान्ति अनुभव किसलिये हो रहा है क्यों अनुभव हो रहा है कि अब तक सब कुछ पीछे छोड़ आने की आश्वस्ति एक भ्रम ही था ? घाव भर जाने का भ्रम । उससे छुटकारा पा लेने का भ्रम । भ्रम बना रहता आसानी से जीने के लिये पर उसकी दो पंक्तियों ने पच्चीस छब्बीस वर्ष का पूरा अतीत फिर सामने ला दिया । उससे वितृष्णा व घृणा होनी चाहिये न ? क्यों नहीं होती ? सहानुभूति नहीं है लेकिन घृणा और प्रतिकार भी नही है । क्यों
वह अपना विश्लेषण करती है । जिन्दगी जिस रूप में भी थी ,क्या सचमुच उसे  हृदय से स्वीकार कर पाई थी ? उसने शारीरिक व मानसिक हिंसा सहकर भी निस्सन्देह राजीव की इच्छाएं पूरी कीं हैं । हर संभव उसके अनुकूल चलने की कोशिश की है पर क्या ऐसा करते हुए हदय में विवशता भरे कर्त्तव्यपालन का आत्मबोध नहीं था ? क्या वह सचमुच हदय से समर्पित एक पत्नी का भाव था या बन्धनों में जकड़ी निरुपाय स्त्री का भाव था ? किसी को सहर्ष कोई वस्तु दे देने में और म्लान विवश मन से देने में अन्तर नहीं है ?  निर्जीव गुड़िया जैसी मूक खामोशी ने ही कहीँ उसके आक्रोश को राह नहीं दी थी ? अपमानजनक बातों का मारपीट का प्रतिकार क्यों नहीं किया ? केवल चुप रहकर सब सह लेना क्या उसके अहंकार को बढ़ाना नहीं था ? क्या सचमुच वह केवल एक अहंकारी और क्रूर व्यक्ति था ? क्या उसने खुद से आगे बढ़कर उसे टटोलना चाहा ? हृदय से समर्पण करना चाहा ?

समर्पण क्या करती ? कैसे करती और किसके सामने करती ? कभी कुछ पल तो उसे संवेदना और स्नेह के मिले होते। स्नेह पाकर तो वह सहर्ष सर्वस्व समर्पित कर सकती है ।

तो विवाह पूर्व राजीव का प्रेम निवेदन और जब वह बच्चों को लेकर उसका घर छोड़कर चली आई तो राजीव का उसे लौट चलने के लिये चक्कर लगाना , माफी माँगना , रो रोकर मिन्नतें करना ,क्या वह स्नेह नहीं था महज एक नाटक था ? 

बिल्कुल वह नाटक ही था क्योंकि जब भी वह उसके आग्रह और माँ के दबाबवश उसने साथ चली गई तो उसने वहीं सब दोहराया . क्रूरता व अत्याचार का विरोध कब तक नहीं करती आखिर स्त्री क्या केवल एक निर्जीव यंत्र होती है ?

 “बेशक नहीं होती , लेकिन फिर इतने वर्ष रहकर चुपचाप वह सब क्यों सहती रही ? कुछ तो विचार होगा ही न ?
कौन कर रहा था उसके अन्दर ऐसा मन्थन ?  प्रश्नों पर जया हैरान थी । आत्मावलोकन कर रही थी उसने विवाह क्यों नहीं किया ? कर लेता तो अच्छा रहता । पर उसने शेष जीवन अकेले ही बिता दिया । भाई बन्धुओं ने उसका सब कुछ छीन लिया । आज उसकी हालत दयनीय है । याचना कर रहा है। एक मानव पुकार रहा है ,उसका इस अवस्था में उसे पुकारना ही क्या उसके सारे सवालों का उत्तर है ? ...क्या करे जया ?  
एक तरफ जब उसके ध्यान में अहंकारी ,यातना देने वाला और बच्चों का बचपन छीनकर निराशा और भय भर देना वाला राजीव था जिससे उसे आज भी गहरी वितृष्णा है । उस
से जया को यातनाओं के अलावा कोई सुख नहीं मिला । उसके लिये हृदय में पत्नी जैसा भाव वर्षों पहले दफ़न हो चुका है, वह उसे बेशक कभी क्षमा नहीं कर सकेगी, न ही उसे उसका वह स्थान दे सकेगी ।

लेकिन दूसरी तरफ उसका ध्यान  असहाय अवस्था में याचना कर रहे एक व्यक्ति पर , एक मनुष्य पर टिक जाता था । उससे अब कैसा प्रतिकार ,कैसी जीत ! कैसा मलाल ! और कैसा प्रतिशोध ! यातनाओं के बीच ही सही जिन बच्चों के कारण उसका जीवन खुशियों से समृद्ध है उनके जन्म का कारण है वह, प्रयासों और न्यायिक दबाब से ही सही ,बच्चों के लिये आवश्यक धन राशि भी उसी से मिली ,अब भी मिल रही है । तब क्या इस भार से मुक्त हो सकेगी ? जीवन की अन्तिम घड़ियाँ गिन रहे एक व्यक्ति को दुर्दशा में पड़ा जानकर क्या वह अनदेखा कर सकेगी ? उसकी अन्तिम घड़ियों को कुछ आसान बना देना तो मानवता का तकाजा भी है न !

जया अपनी नज़रें समेटकर पलकें बन्द कर लेना चाहती है पर कैसे बन्द करे । लगा कि उसकी पलकें छोटी होगई हैं , इतनी छोटी कि आँखों की पुतलियों का आवरण बनने में असमर्थ हैं ।जैसे कि आँखों में ,हृदय में पूरा आसमान आकर समा गया है । आसमान जिसमें बादल का एक टुकड़ा भी नहीं है । जीवन ईश्वर द्वारा रचा गया एक प्रहसन है, जिसमे सबकी अपनी भूमिका होती हैं ।उसके कई रूप और रंग होते हैं । प्रेम , आसक्ति , मोह ,आशा , लालसा ,हताशा ,घृणा , द्वेष ,प्रतिशोध असन्तोष, और सारे रंगों को मृत्यु की काली चादर  एक साथ ढँक लेती है । मृत्यु के साथ सारे सवालों मलालों का पटाक्षेप होजाता है । एक जीवन ,जो खत्म हो जाएगा पर एक पूर्ण अन्त के बिना कहानी कभी खत्म नहीं होगी...शायद अभी कुछ शेष रह गया है ,सोचने व करने को । डायरी का आखिरी पन्ना अभी शेष है लिखने के लिये । रातभर अन्तर-द्वन्द्व चलता रहा।
माँ को उलझन में पड़ी देख इला सोचने लगी कि यह माँ का कौनसा मन है कि जीवनभर जिसके कारण पग ठोकरें खाईं
, अपमान व उपेक्षाएं सही । ‘पति को छोड़कर बैठी है’  जैसे उलाहने सुने । वह सब सहने के बाद माँ ने खुद ही कई बार कहा है कि वे अब उसका मुँह तक ना देखेंगी , फिर भी ?...
वह सुन रही थी
,रात में माँ भैया से कह रही थी –--" बेटा, जो व्यक्ति जीवन की अन्तिम घड़ियाँ गिन रहा है उससे क्या शिकवा ! कैसी शिकायत ! करनी का सबसे बड़ा फल इससे अधिक क्या होगा कि आज वह इस दशा में है । सारे सहारे टूट चुके हैं..।
सुबह सुबह जब इला ने माँ को सूटकेस में कपड़े जमाते देखा तो सारे सवालों का जबाब मिल गया था ।