शुक्रवार, 10 जुलाई 2020

सामने वाला दरवाजा

बैंगलोर आए मुझे पन्द्रह-बीस दिन हो चले हैं . इतने दिनों में हम लालबाग ,कब्बन पार्क ,स्कॉन टेम्पल ,सैंकी टैंक , फोरम ,आदि कई जगह घूम आए हैं .लेकिन मेरा ध्यान आज भी सामने वाले दरवाजे पर टिका है ,जो हमेशा बन्द ही रहता है .

सुशील और सुहानी कोडीहल्ली के एक अपार्टमेंट में थ्री बी एच के फ्लैट में रहते हैं . वे दोनों ही इंजीनियर हैं .सुशील विप्रो में और सुहानी इन्फोसिस में. वास्तव में बैंगलोर और इंजीनियर दोनों आपस में इतने सम्बद्ध होगए हैं कि ट्रेन में एक सहयात्री ने यह जानकर कि मैं बेटे के पास जा रही हूँ ,तपाक से कह दिया-- बेटा किसी कम्पनी में इंजीनियर ही होगा .
यों तो किसी बड़े शहर में ही मैं पहली बार रह रही हूँ लेकिन यहाँ कई बातें हैं जो दूसरे शहरों में नहीं हैं जैसे कि मई--जून के महीने में ,जबकि उत्तर भारत तप रहा होता है यहाँ मौसम बड़ा सुहावना रहता है .शाम को अक्सर बारिश हो जाती है और कभी-कभी इतनी ठण्डक होजाती है कि स्वेटर पहनना पड़ता है . यहाँ सुबह-सुबह हर घर के दरवाजे पर सुन्दर रंगोली बनी देखी जा सकती है और हर महिला के ,चाहे वह अमीर गरीब कुलीन निम्न ,किसी भी वर्ग की हो ,बालों में गजरा लगा देखा जा सकता है जो बड़ा अच्छा लगता है . सोचिये कि सुबह काम वाली के साथ ही मोगरा की प्यारी खुशबू भी आपके कमरे में प्रवेश करे तो कैसा लगेगा ! 
यहाँ लोग पेड़ों का बहुत ध्यान रखते हैं . हर घर में नारियल का पेड़ तो जरूर देखा ही जा सकता है पर आम कटहल चीकू और अनार के पेड़ भी यहाँ-वहाँ दिख ही जाते हैं वैसे ही जैसे दस साल पहले लगभग हर तीसरी दुकान में एस.टी.डी और पी सी ओ के केबिन हुआ करते थे . अगर जेब में पैसा है तो यहाँ सुविधाओं की कमी नही है .सामान लेने के लिये हमारे कस्बा की तरह दुकानदार से मगजपच्ची नही करनी पड़ती कि 'भैया जल्दी करो ..यह ठीक नही है दूसरा दिखाओ ..कि अरे तुमने पचास रुपए ज्यादा जोड़ दिये हैं ...वगैरा वगैरा .' यहाँ शापिंग माल में जाओ पसन्द का सामान टोकरी में डालते जाओ और कम्प्यूटर पर बिल अदा करदो यही नही ऑर्डर देकर घर पर ही हर तरह का सामान मँगाया जा सकता है .बाजार जाने की भी जरूरत नही . सुहानी तो दही या प्याज-टमाटर तक ऑर्डर से घर मँगा लेती है .यह अच्छा है .जीवाजीगंज में हम लोग सब्जी और राशन के थैले लादे लादे हाँफते-डगमगाते कैसे घर पहुँचते हैं हमी जानते हैं . यहाँ सोफा पर बैठे बैठे ही हर चीज आपके सामने हाजिर . एकदम कहानियों के जिन्न की तरह ही. .
लेकिन दूसरे शहरों की तरह यहाँ बहुत सी अखरने वाली चीजें भी हैं जैसे अब चारों ओर पेड़ों से ज्यादा बड़े-बड़े उगते अपार्टमेंट हरियाली को उसी तरह नकारते जा रहे हैं जिस तरह घरों में अक्सर बड़े-बुजुर्गों को नकार दिया जाता है .यहाँ आप अकेले हैं , सैकड़ों की भीड़ में न आप किसी को जानते हैं न कोई आपको . बड़े-बड़े अपार्टमेंट्स में कई मंजिल ऊँचाई पर हजार-पन्द्रह सौ वर्गफीट के फ्लैट्स , दूर से किसी विशाल वृक्ष के तने में पक्षियों के कोटर जैसे प्रतीत होते हैं. उनमें एक छत के नीचे ही आपकी पूरी दुनिया है .दैनिक क्रियाओं के लिये बाहर निकलने की जरूरत ही नही होती .बाहर भी बिना किसी से बात किये आप अपने सारे काम कर सकते हैं .पूरा जीवन गुजार सकते हैं . एकाकी ,नीरस और बेरंग से जीवन में टेलीविजन ही रंग भरने का एकमात्र साधन है .
सुशील बताता है कि-- तेजी से हो रहे विकास और आधुनिकीकरण के कारण आई टी सिटी बन गए इस शहर की अपनी मौलिकता खत्म हो रही है .बागों झीलों और सुहावने मौसम ,और स्वच्छ आबोहवा के लिये मशहूर इस शहर में अब हरियाली सिमटती जा रही है . आगे बढ़ता शहर धीरे-धीरे कंकरीट के जंगल में बदलता जा रहा है . सड़कों से ऊपर कारें दिखाई देतीं हैं. दुनिया भर से कम्पनियाँ और ऐम्पलायीज यहाँ इस तरह दौड़े चले आ रहे हैं जैसे ज्वैलरी और साड़ियों की सेल की ओर महिलाएं भागतीं हैं .
! मैं नही भागती हाँ !.और शायद मम्मी भी नही .”-–सुहानी हँसते हुए सुशील को बीच में ही टोक देती है .
तब तुम विशुद्ध महिला नही हो .
सुशील भी हँसता है .दोनों की हँसी मन से हर तरह का बोझ हटा देती है .लेकिन जब वे ऑफिस चले जाते हैं तो समय जैसे ठहर जाता है . शनिवार और रविवार को उन्हें अवकाश मिलता है .ये दो ही दिन हैं जबकि हम लोग साथ बैठकर बोलते-बतियाते हैं .कहीँ घूमने चले जाते हैं या बाहर खाना खाने की योजना बनाते हैं .
इन दो दिनों के अलावा सप्ताह के पाँच दिनों का समय उन दोनों के लिये जहाँ सुपरफास्ट ट्रेन जैसा है तो मेरे लिये सुस्त बैलों वाली गाड़ी जैसा . कोडीहल्ली नाम के इस एरिया के एक अपार्टमेंट में रहते हुए मैंने महसूस किया कि सिवा इस भाव के कि हम अपने ही देश के एक शहर में हैं ,यहाँ रहना विदेश जैसा ही है .रश्मि दीदी ने जो अब आस्ट्रेलिया में स्थाई रूप से बस गई हैं ,बताया था कि वहाँ किसी को किसी से कोई मतलब नही हैं .साथ साथ चल रहे हैं पर सिवा इस ज्ञान के कि वे सब मनुष्य जाति के ही हैं ,एक दूसरे के बारे में कुछ नही जानते . मतलब जानना ही नही चाहते . 
मुझ जैसी मोहल्लाई संस्कृति की अभ्यस्त महिला के लिये यह हैरानी की बात है कि आप एक ही जगह पर रहने या रोज मिलने वाले लोगों का नाम तक नही जानते . अपने दो-ढाई मीटर की दूरी पर रह रहे पड़ौसी से अनजान हैं .एक हमारा मोहल्ला है जहाँ घर की बातें गली में गूँजा करती हैं .किसके घर कौन मेहमान आया है ,किसकी बेटी ससुराल जा रही है ,किसके घर में कलह के कारण चूल्हे अलग होगए हैं .ये बातें कम से कम पड़ौसी से छुपी नही रहती .हमारे पड़ौसी सक्सेना जी ऑफिस जाते हैं तो पूरे मोहल्ले को खबर होजाती है .पहले तो बाहर गली में आकर स्कूटर स्टार्ट कर बैठते हुए वे अपनी पत्नी को जोर से सुनाते हैं----उमा जा रहा हूँ .”  फिर रास्ते में मिलने वाले हर व्यक्ति से उनका संवाद बुलन्द होता है—भैया जी नमस्कार ...चाचाजी कैसे हैं ?..जीजीबाई सब ठीकठाक है ?”...इन संवादों से सड़क तक पूरी गली जाग जाती है .
सुबह पानी आता है तो कोई न कोई चिल्लाकर सबको बता ही देता है कि नल आ गए . गली में झाड़ू लगाने चाहे कोशला आए या उसकी सास या फिर उसका पति आए, चिट्ठी डालने डाकिया आए या फिर सब्जी वाला गोविन्द ,..बिना राम राम, श्याम श्याम के नही निकलते . कहीं कथा होती है तो चरणामृत और पंजीरी पास-पडौस में बाँटी जाती है .किसी के यहाँ गमी होजाती है तो मोहल्ले भर की औरतें वहाँ रात रात भर बैठकर जागतीं हैं . बिना बुलाए ही भजन-कीर्त्तन में शामिल हो जातीं हैं .
मम्मी यह फ्लैट शंकर रेड्डी का है .तेलगू है.— मेरे आते ही सुहानी ने मुझे कई जरूरी ,गैर-जरूरी जानकारियाँ दे डालीं थीं—ग्राउण्ड फ्लोर पर सुगन्धा है . बहुत अच्छी है वह तमिल है . हाउस-वाइफ है पर बहुत इन्टेलिजेंट है .उसकी अँग्रेजी भी बहुत अच्छी है इसलिये चीजों को समझने में उससे बहुत हैल्प होजाती है .बगल में कोई बंगाली रहते हैं .
मम्मी आप दिन में दरवाजा बन्द ही रखना ,वरना रोज दोपहर मछली की बू आपको परेशान करेगी .और हाँ  सामने वाला फ्लैट एक न्यू कपल का है जोसेफ और प्रिया .क्रिश्चियन हैं .जोसेफ टीसीएस में इंजीनियर है और प्रिया हाउस वाइफ है . मलयाली हैं पर हिन्दी भी जानते हैं .बोलते भी है . आपको अच्छा लगेगा .प्रिया शायद प्रेगनेंट भी है .
मैंने साश्चर्य सुहानी को देखा .सुबह से शाम तक ऑफिस में रहने वाली लड़की स्वभाव और जिज्ञासावश कितनी जानकारियाँ इकट्ठी कर लेती है .
अरे मम्मी !,मुझे तो सुगन्धा ने बताया  .”—सुहानी मेरा भाव समझकर हँस पड़ी. यहाँ भी अभिव्यक्ति और उसकी समझ ही संवाद को सुलभ बना रही थी . 
और ..तभी से मेरा ध्यान जबतब सामने वाले फ्लैट पर अटका रहता है .
वास्तव में यहाँ जो बात मुझे सबसे ज्यादा अखरती है वह भाषा की अनभिज्ञता ही है .
दरअसल यह एरिया पूरी तरह अहिन्दी भाषी है .यह बिल्डिंग ,जो दूसरे अपार्टमेंटों की तुलना में छोटी है .इसमें तीस फ्लैट हैं और जहाँ तक सुशील व सुहानी को मालूम है लगभग सभी परिवार या तो कन्नड़ और तेलगू भाषा भाषी हैं या तमिल और मलयालम . ये चारों भाषाएं द्रविड़ परिवार की हैं .चारों की लिपियाँ अलग होने पर भी आपस में काफी कुछ समझ लेते हैं .मैं शाम को छत पर चली जाती हूँ वहाँ कुछ महिलाएं आपस में बातें करतीं हैं पर मेरे पल्ले नही पड़ती है .संभव है कि मेरी खिल्ली उड़ाती हों लेकिन उनकी मुस्कराहट जो कभी कभी मेरी ओर आजाती है .इससे मुझे यह तो पता चल जाता है कि वे मेरे लिये अच्छा भाव ही रखतीं होंगी .मैं उनके साथ खूब सारी बातें करना चाहती हूँ .बातें उनकी परम्पराओं की ,रीतिरिवाजों की ...भावों और विचारों की .. 
हालाँकि ऐली शायद मेरा भाव समझकर ही कहती है –आइ अण्डरस्टेंड हिन्दी लिटिल लिटिल .”..और सुगन्धा जो तमिल भाषी है और सुहानी की सहेली भी ,कभी कभी पूछ लेती है—हाउ आर यू आंटी ?” उसके दाँत बहुत उजले हैं और हँसी बहुत प्यारी कोमल ..लेकिन ओ के ,फाइन थैंक्यू तक सीमित संवाद मुझे भूखे मेहमान को एक गिलास पानी देकर टरकाने जैसा लगता है .सचमुच भाव-संचार के लिये भाषा कितनी आवश्यक है .
शान्ताम्मा हमारे यहाँ काम करती है . वह गहरे काले रंग की सीधी-सादी अधेड़ महिला है .बड़ी बड़ी आँखें विनम्रता से भरी हैं . बाल काले और घुँघराले हैं . यहाँ की दूसरी महिलाओं की तरह वह भी गहरे रंग ( हरा, नीला जामुनी ,कत्थई )की किनारीदार साड़ी पहनती है . नाक में दाँयी तरफ चाँदी का बड़ा सा फूल पहने है . गजरा नही लगाती इसलिये अनुमान लगाया कि शायद उसका पति नही है . सुहानी ने ही बताया कि गजरा यहाँ उसी तरह सुहाग का प्रतीक है जिस तरह अपने यहाँ सिन्दूर और कंकुम .शान्ताम्मा अनपढ़ है .पढ़े-लिखे लोग टूटी-फूटी ही सही अंग्रेजी से काम चला लेते हैं पर शान्ताम्मा को यह बताने के लिये कि मेरे आने से जो अतिरिक्त काम बढ़ा है उसके पैसे अलग देंगे ,सुहानी ने सुगन्धा का सहारा लिया .
मुझे घुटन होती है . अगर मैं तमिल समझ सकती या शान्ताम्मा हिन्दी समझ पाती तो मैं जान सकती कि ,’वह कहाँ से आती है ? उसके घर में कौन कौन है ? वह कभी कभी बहुत उदास क्यों होती है ? .कि एक दिन वह काम करते करते रो क्यों रही थी ? अगर मैं कन्नड़ समझती तो पता लग जाता कि अभी-अभी दो आदमी एक लड़के को क्यों पीट रहे थे ? या कि रोज फेरी वाला क्या बेचते हुए निकलता है ?’
यहाँ मुझे निरक्षरता और भाषा की अनभिज्ञता की पीड़ा का अहसास तीव्रता से हुआ है .साथ ही अपनी भाषा के महत्त्व का भी .. क्यों अपनी भाषा मातृभाषा कहलाती है .क्योंकि वह माँ की गोद जैसी निश्चिन्तता और तृप्ति देती है .माँ की तरह हमारी बात समझती है ,औरों को समझाती है . भाषायी संवेदना मुझे सोचने मजबूर करती है कि राष्ट्रीय एकता के लिया भाषा की एकता सबसे ज्यादा जरूरी है.
सुशील व सुहानी सुबह साढ़े आठ तक चले जाते हैं . सुबह तो ऐसी भागमभाग मचती है कि पूछो मत . मैच की चुन्नी या जरूरी कागज न मिलने पर सुहानी हड़कम्प मचा देती है .चाय भी अक्सर भागते भागते पीती है .वह ऑफिस की वैन से जाती है और सुशील अपनी गाड़ी से . सुशील जाते जाते जरूर कहता है – मम्मी दरवाजा बन्द ही रखना . आपको बाहर निकलने की जरूरत नही है कोई खास बात हो तो मुझे फोन करना .
उनके जाते ही खामोशी छा जाती है .मेरे सामने पूरा दिन होता है .काम तो सारा शान्ताम्मा ही निपटा जाती है .मैं किचिन में डिब्बे-डिब्बी साफकर जमा देती हूँ .सुहानी के बेतरतीबी से अलमारी में ठूँसे गए कपड़ों को तहाकर रख देती हूँ .नहाने के बाद थोड़ी देर ईश्वर का ध्यान करती हूँ पर मेरा मन ही जानता है कि वह सिर्फ एक नियम पालन होता है . अभी मुझमें वह क्षमता नही कि चारों ओर से ध्यान खींचकर सम्पूर्ण भाव ईश्वर में लगा दूँ .
बन्द कमरे में मेरा मन नही लगता . टीवी पर ज्यादातर ऐसे कार्यक्रम आते हैं जिन्हें देखकर लगता है कि इससे तो न देखते वही अच्छा था . पैसे की चमक दमक वाले सीरियल आम जिन्दगी से दूर ले जाने वाले हैं . गाड़ी ,बँगला ,मँहगे कपड़े भारी भरकम गहने आदि से कुछ नीचे ही नही दिखता .बिना षड़यन्त्र के कहानी आगे नही चलती . यही हाल फिल्मी चैनलों का है .एक ही तरह की सस्ती फिल्में रिपीट होती रहती हैं . और समाचार चैनलों की तो बात करना ही बेकार है ..टीवी के सहारे दिन नही काटा जा सकता .
मैं एक नजर सामने के दरवाजे पर डालती हुई अक्सर गैलरी से होती हुई सामने झरोखा तक चली जाती हूँ जहाँ से नीचे गली का दृश्य दिखाई देता है . सामने एक शानदार कोठी है जिसमें केवल कार और कुत्ता दिखाई देता या फिर कुत्ता को घुमाने वाला एक ल़ड़का . बगल में एक प्रोवीजनल स्टोर है जिसका मालिक रजनीकान्त है .असली रजनीकान्त के विपरीत दुबला और सुस्त . दुकान पर जो बोर्ड लगा है उसपर रोमन में लिखे प्रोवीजनल स्टोर के अलावा जो लिखा है वह मेरे लिये काला अक्षर भैंस बराबर हैं .निरक्षरता के अँधेरे की भयावहता को मैंने सबसे पहले यहीं महसूस किया . कन्नड़ सिखाने वाली किताब से मैंने हालु ,मोसरू, सोप्पु जैसे कुछ शब्द याद किये तब मुझे एक कविता याद आई—
शब्द खिड़कियाँ हैं ,रोशनदान हैं आती है जिनसे धूप और हवा मेरे अँधेरे कमरे में ..
हाँ 'सिर्फ तुम' का एक गीत --'एक मुलाकात जरूरी है सनम', जरूर जब तब सुनाई देजाता है तो लगता है जैसे कोई अपना ही पुकार रहा हो .
गली में कुछ आगे मटन शॉप है जिसमें दिन भर खट्खट् कच् कच् होती रहती है .न चाहते हुए भी भेड़-बकरों के चमड़ी और सिरविहीन धड़ लटके दिख ही जाते हैं .मांस का यूँ खुलेआम बिकना मुझे ठीक नही लगता पर मेरे लगने से क्या होता है . दूसरी तरफ एक पाँच सितारा होटल दिनोंदिन आसमान को दबाते हुए उठ रहा है . मुझे आसमान का यूँ दबते जाना बहुत अखरता है.
सामने से लौटकर कमरे में आने से पहले मैं एक नजर फिर सामने वाले दरवाजे पर डालती हूँ .यह प्रिया कभी बाहर नही निकलती ?क्या इसे धूप और हवा की जरूरत नही है ? क्या इसे खुला आसमान देखने की इच्छा नही होती ? एक ही कमरे में दिनभर बन्द रहकर क्या ऊब नही होती होगी ? क्या बाहर निकलने से डरती है ? पागल है .यहाँ डर की क्या बात है . मैं तो हूँ .मेरे लिये वह भी सुहानी जैसी ही तो है .
मैं इन्तजार करती हूँ कि दरवाजा खुले तो मैं कुछ बात करूँ .जरूरत हो तो कुछ सहायता भी करूँ .गर्भवती की कितनी ही समस्याएं व जरूरतें होतीं हैं .मैं खुद ही यह सब सोचती रहती हूँ .एक दूसरे की भाषा समझने वालों में वह भी इतने निकट रह रहे लोगों में कम से कम संवाद तो होना चाहिये न . 
एक दिन जोसेफ के दरवाजे पर कई जोड़ी जूते-चप्पल रखे दिखे .बाजू वाली खिड़की भी खुली है .हँसने की मिलीजुली आवाजें आ रही थीं .कुछ अजीब तरह की गन्ध भी .
इनका कोई त्यौहार होगा शायद .”---सुहानी ने शाम को बताया .मुझे अजीब लगा .
ये लोग त्यौहार भी बन्द कमरे में ही मना लेते हैं !”
मम्मी आप बेकार ही इतना सोचतीं हैं . इन लोगों का कल्चर अलग है . वैसे भी यहाँ अपने कस्बा जैसी बात नही है कि लोग चाय-चीनी तक माँगने के बहाने रसोई तक चले आते हैं .यहाँ बस दूर से हाई-हैलो काफी होती है .
मैं देखती हूँ कि सुहानी यहाँ की अभ्यस्त होगई है .उसका काम भी ऐसा ही है .सुबह से शाम तक ऑफिस में बिजी रहने वाले को वैसे भी किसी से मेलजोल की न फुरसत होती है न जरूरत . पर उसकी बात मेरे सिर से किसी चलताऊ गाने की तरह गुजर गई .
मुझे सुबह छह बजे जागने की आदत है लेकिन कामकाजी लोगों की सुबह अक्सर आठ से नौ बजे तक ही होती है . दूधवाला सात बजे दूध की थैलियाँ दरवाजे के बाहर टँगी पालीथिन में रख जाता है . मैं तो अपनी थैलियाँ उठा लेती हूँ पर कई बार बन्दरों को पैकेट उठाकर भागते देखा गया है एक बार तो पैकेट को वहीं फाड़कर दूध पी भी गए हैं . उस दिन भी अपने पैकेट उठाते हुए मैंने टैरेस पर एक बन्दर को बैठे देखा . जोसेफ के पैकेट उसके दरवाजे पर रखे थे .
जोसेफ को जगाकर दूध के पैकेट अन्दर ले लेने को कहना चाहिये---–मैंने सोचा .इसी बहाने मुझे उन लोगों से बात करने का अवसर भी मिल जाएगा . पहल कोई भी करे पहल तो होनी ही चाहिये .
मैंने किवाड़ों पर हल्की सी दस्तक दी .कुछ देर बाद ही दरवाजा खुला . एक युवक ने सिर निकालकर मेरी ओर विस्मय से देखा . सुशील की ही उम्र का साँवला सलोना बड़ी और मोहक आँखों वाला यह युवक जरूर जोसेफ ही होगा .
"दूध का पैकेट अन्दर ले लो , बाहर बन्दर घूम रहा है .कल बाजू वालों के पैकेट उठाकर भाग गया था ."
ओह..सॉरी आंटी !...नींद नही खुली .. थैंक्यू .--कहते हुए वह हल्का सा मुस्कराया .एक अभ्यस्त सी मुस्कराहट पर मुझे बड़ा अच्छा सा महसूस हुआ .
मैं कहना चाहती थी कि कभी बाहर भी निकला करो बेटा .हाँ यह ठीक रहेगा . वह मेरे बेटे की उम्र का ही होगा . उसने मुझे कितने अपनेपन के साथ आंटी कहा .पड़ौसी से व्यवहार अच्छा हो तो जीवन ज्यादा सहज और सरल हो जाता है .लेकिन तबतक वह जा चुका था और दरवाजा बन्द होगया था .शायद वे लोग अभी नीद में ही होंगे .कोई बात नही जोसेफ की मुस्कराहट ने यह तो बता ही दिया कि न तो मैं उनके लिये अपरिचित हूँ न ही वे मेरे लिये .
और..आज सुबह मैं सुखद आश्चर्य से भर उठी .जोसेफ का दरवाजा खुला है .सामने जो गुलाबी गाउन पहने लम्बी छरहरी युवती गुलदस्ता ठीक कर रही है वह प्रिया ही होगी .उसके बाल काले घने और घुँघराले हैं .जब वह बाहर आई तो चिरपरिचित मुस्कान के साथ बोली—हैलो आंटी कैसे हो ?”
अरे वाह ! यह तो मुझे जानती है . ’—मन पुलकित होगया . अपनी भाषा में किसी का संवाद सुनकर .
अच्छी हूँ .आज अच्छा लग रहा है तुम्हें देखकर .
सुहानी ने आपके बारे में बताया था .
मैं भी कबसे सोच रही थी कि तुम्हें देखूँ ..बात करूँ .—मेरा उत्साह मेरी आवाज से छलका जा रहा था .वह पहली बार मिल रही थी . वैसे तो आजकल तो बच्चों से भी आप कहा जाता है पर सुहानी की उम्र की उस लड़की से आप कहा ही नही गया .मेरी बात सुनकर वह सिर्फ मुस्कराई . मैं बोलती रही –
सुहानी ने जब बताया कि हमारे सामने वाले पड़ौसी हिन्दी जानते हैं तो मुझे बड़ी खुशी हुई .नही तो लग रहा था कि जाने कौनसे देश में ..”
सुहानी चला गया ?”–प्रिया ने बीच में ही पूछा . शायद उसे सुहानी के बारे में कुछ और पूछना या कहना हो ,मैंने सोचा लेकिन उसने फिर कुछ कहा नही . मैंने ही पूछा –आप लोग कहाँ से हैं ?”
केरला से.”
अच्छा केरल से !”–मैंने उल्लास के साथ दोहराया ,मानो केरल मेरा गाँव हो .
यहाँ कौन कौन हैं ?”
मैं और मेरा हसबैंड .
तुम बाहर नही आती हो ..मैं तो कई दिनों से...
मेरा तबियत ठीक नही रहता .”  उसने संक्षिप्त उत्तर दिया . वह मेरी बातों को ऐसे सुन रही थी जैसे कोई बड़ा कवि किसी नौसिखिया की छोटी मोटी तुकबन्दियों को सुनता है .उसने मेरे या हमारे बारे में कुछ नही पूछा .जैसे कि वह सब जानती हो .या शायद जानना ही न चाहती हो .
'लेकिन यह तो नही जानती कि अगर वह ऐसे ही चौबीसों घंटे अन्दर रहेगी , बाहर निकलकर खुली हवा और धूप नही लेगी तो तबियत तो खराब रहेगी ही .'--.पर मैं यह सब उसे बताती तब तक तो वह 'अच्छा आंटी' कहकर अन्दर चली गई और मेरे देखते देखते दरवाजा भी बन्द कर लिया और मेरा यह वाक्य कि ,“कोई परेशानी या जरूरत हो तो बिना संकोच बता देना ...
बाहर ही पड़ा ही रह गया .

रविवार, 10 मई 2020

अपसगुन


"अरे बादामी !  ओ बामौरवाली ...कहाँ गई सब  ? जरा सौजनेवारी को तो बुलाओ .. हें..! अभी आई  नहीं ? हे मेरे भगवान ! पाँव में चक्कर है उसके । एक पल यहाँ दिखती है तो दूसरे पल पच्चीपाडे में ..।"
भागवती बुआ का गला बैठ गया है चिल्लाते-चिल्लाते । नौतारिनों से घर भरा है पर किसी का सहारा नही । कोई सिंगारपट्टी में लगी है तो कोई मेंहदी महावर में । लड़कियों ने अब नई चाल सीखी है . वे माँग पट्टी के लिये भी बूटी पाल्लर जाएंगी ..
क्यों न जाएं , लडके का ब्याह है । घर के कामों में लग जाएंगी तो बारात के लिये साज-सिंगार कैसे होगा
"मुरैना वाली जीजी ने इस बार बडा अच्छा किया जो रोटी और बर्तन वाली लगा ली ।"---एक महिला पैरों में महावर लगाते हुए कह रही कह रही थी ---
"पैसा तो लगता है पर सारी 'टेंसल' खतम् । नही तो सारी बहू-बेटियाँ रसोई में लगी रोटियाँ सेकतीं पसीने में नहाती रहतीं...काहे का साज सिंगार ..। "
बडा परिवार ..। शादी-ब्याह का घर लगुन के बाद बहू आने या बेटी जाने तक रोज पचास आदमी की रोटी बनती है । बिन्नी के ब्याह में क्या हाल हुए । चार जनियों के हाथ तो सूख भी नही पाते थे । कभी चार खाने वाले आ रहे हैं कभी छह...। अम्मा और ताई ऐन चिल्लातीं रहतीं कि एक संग खाओ पिओ और छुट्टी करो । यह कोई होटल या ढाबा नही है पर घर की औरतें रसोई तपाने बैठीं हैं तो कोई ठण्डी क्यों खाए । बेचारी रोटनहारी नचने-गाने की तो बात सोच भी नही पातीं थीं । ब्याही-थ्याई बेटियाँ तो फिर भी मेहमान होतीं हैं । वे तो गाने-बजाने और सजने-सँवरने का काम ही ठीक से करलें तो बहुत है  । चूल्हे में झोंकने और बासन माँजने बहुओं की कमी नही होती । चाचा-ताऊ, मामा-मौसा, की बहुएं और साली-सलहजें ...पूरी फौज होती है पर पहले तो बेचारी रोटी का इन्तजाम करने में ही लगी रहतीं थीं । दोपहर की जेवनार खत्म नही होती कि संझा की रोटी चढने का समै होजाता । सगाई--ब्याह का सारा उछाह पसीना बन कर बह जाता था बेचारियों का । सच्ची में बहुत अच्छा किया जीजी .खाना बनाने वाली का इन्तजाम होगया ..
"पंचायत मत बिठाओ भागवानो ! लगुन का समै हो रहा है । लड़की वाले लगुन लेकर दरवज्जे पर आ खड़े होंगे तब तैयारी करोगी का ?” –भागवती बुआ ने हाँक लगाई .
मानसिंह चौहान के घर में टीका-लगुन के उत्सव की धूम-धाम है । चार दिन बाद वे सबसे छोटे बेटा अमन की बहू को ब्याहने जा रहे हैं । ढोलक मंजीरों पर सुरीले कण्ठों से ‘बन्ना’‘भतइया’ गाए जा रहे हैं । अमन की बुआ भागवती कमर में साड़ी खोंसे चाबियों का गुच्छा लटकाए इस कमरे से उस कमरे में जाती हुई पूरा गला खोलकर निर्देश दिये जा रही हैं----अरी विद्या ,लड्डुओं के पैकिट बन गए कि नही ? बिन्नी तू अभी चूड़ी-बेंदी की मैचिंग में लगी है ! टीका के महूरत का टैम होने जा रहा है । रिश्तेदार दरवाजे पर बैठे हैं । तू पहले जल्दी से थाली तैयार कर । क्या-क्या रखना है ? ...अरी बाबरी तीन ब्याह करवा चुकी है फिर भी बुआ से पूछे बिना कुछ ना करेगी । रखना क्या है हल्दी सुपारी की गाँठ ,कलावा, घी का दिया ,रोली,चामर दूब, फूल जल का लोटा ,और...और ...चल तू इतना तो लगा फिर जो जो याद आएगा मैं बताती जाऊँगी । अरे भैया लोगो हियां भीत जैसे खडे न रहो .उधर कुर्सियाँ का दिखावे के लें पडी हैं ?...अरे राम ,…क्या क्या देखूँ ! मैं इधर लगन टीका की तैयारी करवा रही हूँ  उधर हलवाई सूती कपडा माँग रहा है . बडी बहू तू देख ,कोई साफ धोती हो ..और जरा इस अमन की महतारी को देखो तो ....न टैम देखे न कुटैम’ .. औरतों को देखने सम्हालने की बजाय यहाँ कोने में बैठी है मातमी सूरत बनाए. अब यह समय टसुए बहाने का है ? जो लिखा था किस्मत में ,होगया...किस्मत पर किसी का जोर है भला !
हाँ जी किस्मत का ही तो खेल है सब ।
आँगन मर्द-औरतों से खचाखच भरा है पर अमन की माँ अमलादेवी का मन वेदना से बिलख रहा है . खुशी की यह घड़ी उसे पराई लग रही है . आज विशाल होता तो नाच रही होती अमला पर ऐसी मनहूस घड़ी आई कि विशाल उनका मँझला बेटा भरे-पूरे परिवार को बिलखने के लिए छोड़ गया . चार-पाँच महीने ही तो हुए हैं जब एक दोस्त से मिलने बाइक से हेतमपुर गया था . कर्मों का खेल ,रास्ते में जब एक पत्थरों से भरा ट्रैक्टर पलटा तब वह उसी जगह से गुजर रहा था । तीन-चार पत्थर उछलकर सिर से टकराए तो वहीं ढेर होगया . बोल भी ना निकला मुँह से । खून में लथपथ घर लाया गया तब तक पखेरू उड़ चुका था . अमला की आँखों के सामने देखते देखते एक पूरी दुनिया उजड गई । जवान बहू की माँग सूनी होगई. चूड़ी-बीछिया उतर गए । हिरदै बस फट ही नही पाया । माँगे मौत भला मिलती है ? अभागी माँ , छाती पर सिला रक्खे मन मारकर सब देख रही थी ।
न देखती तो और क्या करती . अमन पूरे बत्तीस का हुआ जारहा था । कैसे-कैसे यह रिश्ता पार लग रहा था अमला ही जानती है .लड़कों के ब्याह में अब बड़े झंझट हैं . दस तरह के सवाल ,दस तरह के अटकाव .कितना पढ़ा हैं ? नौकरी है कि नही ?..है तो कहाँ करता है ?..कितना महीना मिलता है ?..नसा-पत्ता तो नही करता ?”..... पहले कहाँ इतनी पूछताछ होती थी लड़कों की ......
 लड़की वालों के अब तो भाव ही नहीं मिलते .”
भागो बुआ इस मुद्दे पर अपना आक्रोश दबा नही पाती---लडका सुन्दर हो ,कमाऊ हो घर का मकान भी हो तब तो लड़की वाले दरबज्जे पर पाँव रक्खेंगे नही तो नही..। और देन-दाइजे के नाम पर कानून की धौंस अलग । लडके वालों की तो मुसीबत है सच्ची . कलेजा काटकर ल़ड़के को पालो पोसो ,पढाओ लिखाओ और सौंपदो ..पर न करो तो भी तो काम नही चलता ...वह तो अमन के फूफा ने जोड़-तोड़ बिठा कर सगाई करवाई है .नहीं तो ...
लड़के का ब्याह .खूब हुब्ब-उछाह का दिन . आज लगन आ रही है जीजा रामकिसन अमन को टीका के लिये तैयार कर रहा है .सास से उसकी नज़र उतारने की कह रहा है पर अमन की माँ का कलेजा आँखों के रास्ते बाहर निकलने को हो रहा है . लाख कोशिश कर रही है भूलने की पर आँसू हैं कि जार जार बह रहे हैं . इधर उधर कोने में जाकर पल्लू से आँसू पौंछती है , नाक सिनकती है .आँखें गुलमोहर का फूल हो रही हैं .यह देख भागो बुआ से न रहा गया .चिल्लाकर बोली--
“होश में आ अमला ! ...बेटा पटा पर बैठा है और तू आँसू बहाकर असगुन कर रही है !
कम्मो  , यानी कमलेस बडे बेटा चमन की बहू को जो अब तक ठहरी हुई सूखी सी निगाहों से कभी सास को देख रही थी और कभी छोटे देवर अमन को , असगुन शब्द छाती पर हथौड़े जैसा  लगा .
असगुन ..!..असगुन !! असगुन !!!
चार-पाँच साल पहले की यही बात कमलेश के मन में एक बार फिर बबूल के काँटे सी कसक उठी .
घर में बेटे का ब्याह है री कमलेस ,यों टसुए बहाकर असगुन करने की जरूरत नहीं है . न हो सके तो कहीँ और जा के रो ले.....
कहानी वही ,संवाद और वातावरण भी वही . केवल पात्र बदल  गए हैं . अमला की जगह तब कमलेस थी . जब कमलेश ने एक बच्चे को जन्म दिया था और उसी समय चमन से छोटे विशाल के ब्याह की तैयारियाँ चल रही थीं . 
चमन ,विशाल और अमन मानसिंह चौहान के तीन बेटे हैं . एक बेटी बिन्नी जो सबसे छोटी है पर उसकी शादी सबसे पहले करदी गई थी .
बड़े चमन की शादी कुछ देर से हुई .वह बड़ा होकर भी दोनों भाइयों से छोटा दिखता है. ‘सतमासा जनमा था ,बदन इकहरा और कद से छोटा रह गया है . उसपर बोलने में भी थोड़ा हकलाता है .ज्यादा पढ़ लिख भी नहीं पाया था .
मानसिंह जानते थे कि अनपढ़ और बेरोजगार चमन को कोई अपनी लड़की इच्छा से तो नहीं देना चाहेगा पर हमारे पिछली सदी के परम्परागत समाज में शादी को नौकरी या रोजगार से ज्यादा जरूरी माना गया . कुछ हो कि न हो पर सही उम्र पर ब्याह जरूर होजाना चाहिये . इसलिये उन्होंने खुद अमरसिंह से उनकी बेटी कमलेश को माँग लिया . अमरसिंह और मानसिंह चौहान की दोस्ती दाँत-काटी रोटी जैसी थी . चमन को जानते हुए भी अमरसिंह मित्र को 'ना' न कह सके . चमन का ब्याह होगया पर अमलादेवी के मन जैसा नहीं हुआ . कमलेश ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं थी . रंग रूप भी कुछ खास नहीं . बेटा कितना ही नालायक हो , असुन्दर हो पर बहू सुन्दर गोरी ,स्लिम ,सुशील और गृहकार्य में दक्ष ही चाहिये . जाहिर है कि कमलेश को सास के मन में वह स्थान नही मिला जो एक बहू का होना चाहिये .
इसलिये जब मँझले बेटा विशाल के रिश्ते की बात चली तो अमला ने खुद लड़की पसन्द करने का फैसला किया . विशाल सुन्दर लम्बा और भरा-पूरा नौजवान था . उसी के अनुरूप लड़की पसन्द करने में काफी समय लगा .कहीं लड़की ठीकठाक थी तो माँ बाप के पास देने के लिये कुछ नही था . कोई दहेज के नाम पर धन की वर्षा करने तैयार था तो लड़की में वांछनीय गुण नही मिलते . आखिर चार साल बाद एक रिश्ता पसन्द आया .जिसमें वह सब कुछ मिलने वाला था जो अमला चाहती थी .चमन का ब्याह कोई ब्याह था भला ! 
तभी दूसरी बड़ी और मनचाही खबर हुई कि कमलेश को दिन चढ़ गए हैं . पाँच साल में जो नही हुआ , अब होने जा रहा था . अमलादेवी चहककर बोली—-आने वाली बहू के पाँव शुभ हैं .
अब घर में लगभग एक ही समय दो नए मेहमान आने वाले थे . चमन का बच्चा और विशाल की बहू . सबको उस घड़ी का इन्तज़ार था .पर अमला को चिन्ता यह थी कि कहीँ कमलेस की जचगी और विशाल की लगुन बारात एक साथ न हो पड़ें . क्या क्या सम्हालेगी वह .

 पर अच्छा हुआ कि कमलेस को ब्याह के दस-बारह दिन पहले ही  प्रसव पीड़ा शुरु होगई . रात का समय था .कमलेस ने सास को पुकारा पर अमला गहरी नीद में थी .कह दिया कि रात में कहाँ जाएंगे . वैसे भी पहलौटी है . अभी टैम लगेगा ..दर्द आने दे .. अस्पताल पहले ही पहुँच जाओ तो दाइयाँ परेसान करतीं हैं ."
सास बात मानकर कमलेश रातभर दर्द से बेहाल होती रही . 
सुबह हुई . कमलेश को ले जाकर हॉस्पिटल में एडमिट कराया . डाक्टर ने जच्चा की हालत देखी, तुरन्त ऑपरेशन करना पड़ा .लड़का हुआ पर उसकी हालत काफी नाजुक थी . डाक्टर ने अमला और दूसरे परिजनों को खूब डाँटा----आप लोग लाने में इतनी देर क्यों कर देते हैं ? बच्चे की साँस बहुत कमजोर चल रही है . अब हम करें तो क्या करें ?”
यह सुनकर सबको जैसे साँप सूँघ गया .भगवान ने लड़का दिया पर जरा सी लापरवाही से अब उसकी नन्ही जान खतरे में है . नर्स बच्चे को दोनों हाथों में लिये दौड़ती-हाँफती आई सी यू तक ले गई सब कम्मो की गलती है . जब दर्द उठ रहे थे, क्या मुँह में दही जमा था ? बरबाद होगए हम तो ...
अमला ने जमकर अपनी भड़ास निकाली .पर कमलेश बेहोश थी .कौन सुनता . होश में आते ही पूछने लगी—
अम्मा क्या हुआ है .. बच्चा कहाँ हैं ?”
चमन ने कहा, जैसा उसे कहने को कहा गया था --“ बेटा हुआ है . उसे कुछ तकलीफ थी सो विशेष देखभाल में रखा गया है .
शुरु में तो लगभग हर बच्चे को रखा जाता है . नर्स ने भी यही बताया . डाक्टर की हिदायत थी कि प्रसूता को अभी कुछ नही बताना है . टाँके कच्चे हैं , आँतें कमजोर हैं ..कमलेश बच्चे का इन्तजार करती रही . नर्स और डाक्टर उसे बचाने की कोशिश करते रहे पर कामयाबी नही मिली . तीन दिन बाद बच्चा वापस वहीं चला गया जहाँ से आया था .
अमला ने घर आकर खूब रोना धोना किया . मोहल्ले की औरतों को कहती रही--–कम्मो की नादानी खा गई हमें . ..करम फूट गए ..हाय मेरा छौना चला गया..
उधर छुट्टी होने तक कमलेश को यही बताया गया कि बच्चे का इलाज चल रहा है . वह बेहाल थी छातियों से दूध बह बहकर बिस्तर भिगो रहा था ,ब्लाउज कड़क होगया था .वह सबसे रिरियाती मिन्नतें करतीं --
मेहरबानी करके उसे मुझे एक बार तो दिखादो मेरे लाल को ..
अब घर जाकर खूब देख लेना .... चमन और क्या कहता .
चार दिन बाद विशाल की लगुन आने वाली थी . घर में तमाम काम थे . अमला पोते का मातम अकेली ही मनाकर मुक्त हो चुकी थी अब बेटे की सगाई और लगुन की तैयारियों में जुट गई .
कमलेश को छुट्टी कराकर चमन घर लाया तो आते ही अपने बच्चे को देखना चाहा .
अभी नहा तो ले बहू ..अस्पताल से आई है . अमला ने निस्संगता के साथ कहा .
नहाने के बाद पलंग पर आते ही वही सवाल , कुछ आतुरता और विकलता के साथ –--“अब तो ले आओ अम्मा ..क्या उसे अब भी मुझसे दूर ही रखोगी ..?”
अब उसे कहा से लाऊँ री अभागिन ? मेरे हाथ कुछ नही रहा . भगवान ने छीन लिया हमसे....—अमला ने रोते हुए कहा .  
कमलेश कुछ पल जड़ होगई . उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि अचानक मिली पर रोए या जान दे दे ..
इसके बाद वह फूट फूटकर रोने लगीं . अमला ने समझाया –
कमलेस  ,आँतें कटी पड़ी हैं ..ऐसे मत रो ..रोने से होगा भी क्या ? हमारी किस्मत में नहीं था उसका सुख . तू अब खुद को सम्हाल बेटी . तुझे कुछ हुआ तो कौन सम्हालेगा घर गिरस्ती ..चुप हो जा .चल कुछ खा ले ..
सास ने समझाया , मोहल्ले की औरतों ने दिलासा दी पर बच्चे की मौत माँ के लिये कोई ऐसा घाव तो नही होती कि मरहम पट्टी की और ठीक होगया . हफ्तों ,महीनों और सालों तक रिसने वाला घाव था . फिर अभी तो हरा था . ताजा कटी उँगली से बह रहे खून की तरह ..रह रह कर रिस रहा था . वह अँधेरे में अकेली भटकती लहूलुहान हो रही थी .सब विवाह की तैयारियों में लगे हुए थे . कोई उसके दुख का भागीदार नही था .वह भीतर के कमरे में अकेली बिस्तर पर पड़ी थी .खुद को लाख समझाती पर वह , जिसे देख भी नही पाई थी ,नस नस में दर्द बन कर उभर रहा था . जब तब कलेजे में हूक उठती और आँखों से एक नदी भरभराकर फूट निकलती .
अमला को यह बहुत नागवार गुजरा . कहना नहीं मानती चमन की बहू . घर में शादी का माहौल है .इतने सालों बाद शुभ घड़ी आई है .और यह है कि आँसू बहाए जा रही है ! अन्दर कराल काली जाग उठी ---
क्यों री कम्मो ! एक को तो खा गई बैरिन...अब क्या चाहती है ? घर में सुभ-कारज होने जारहा है और तू टसुए बहाए जा रही हैं ! जैसे वह हमारा तो कुछ था ही नही . कि हमें तो उसका कोई गम नही ..यही दिखा रही है न ? खूब दिखा पर इस तरह आँसू बहाकर मेरे बेटे के लिये असगुन करने की जरूरत नहीं ....समझी !
सन्न रह गई कमलेश . क्या वह असगुन करने के लिये आँसू बहा रही है . अम्मा लाड़ले बेटे के ब्याह की खुशी में इतनी अन्धी बहरी हो गई कि एक माँ के आँसू उसके लिये असगुन होगए . क्या पोते की मौत ही खुद एक बड़ा असगुन नही है ...वह भी जानती है कि शुभ अवसरों पर आँसू नही बहाए जाते पर ये आँसू कलेजे को काटकर निकल रहे हैं . कैसे रोके , कैसे थामे टुकड़े टुकड़े बिखरे कलेजे को ..
ऐसे में खुद को काबू में रखना तेज धारा को मिट्टी डालकर रोकना था ,पर चार औरतों ने उसे कन्धे से लगाया ,पीठ सहलाई . उसके दर्द को समझते हुए हालात की ऊँच नीच समझाई . कमलेश ने किसी तरह खुद को संयत किया . आँसू पौंछ लिये पर असगुन शब्द उसके हृदय में गढ़कर रह गया और रह रहकर कसकता रहा

और ...किस्मत का खेल देखो .. आज फिर वही कहानी एक बार फिर मंच पर थी .कमलेश हैरान है चकित है भाग्य के इस विचित्र खेल पर .
पाँच महीने पहले विशाल की दर्दनाक मौत होगई . सारी खुशियाँ चकनाचूर होगईं . पूरी दुनिया जैसे थम गई . ....
लेकिन किसी के जाने से दुनिया कहाँ थमती है .जाने वाले के लिये जिन्दगी बैठी मातम तो नही मनाती रहती न . विशाल चला गया .पर अमन तो सामने था . विवाह का महूर्त पहले से तय था . मानसिंह ने विवाह को कुछ समय के लिये टालना भी चाहा पर उसके बाद डेढ़ साल तक कोई शुभ महूर्त नही था . अमन का घर तो बसाना ही था . 
अब घर में विवाह का माहौल है .सजे सँवरे अमन को चौक पूरे पटा पर बिठाने लाया जा रहा है .पर अमला के आँसू रोके नहीं रुक रहे . आँसू पौंछते पौंछते आँखों में खून सा उतर आया है .पलकें कच्चे घड़े सी तिरक उठीं हैं .
तभी भागो बुआ चिल्ला उठी हैं --होश में आ अमला तू कोई बच्ची नहीं है बेटा पटा पर बैठा है ..सगुन असगुन का ख्याल तो कर .. 
निरपेक्ष सी खड़ी कमलेश जो सूनी सी आँखों से सब कुछ देखती हुई अभी तक यही सोच रही थी कि भगवान ने ही जानबूझकर अम्मा को यह दिन दिखाया है कि अब समझो अम्मा जी ,बच्चे की मौत का गम क्या होता है .उसकी आँखें एकदम नीरस थीं और मन में विद्रूप सी हँसी .पर बुआ के मुँह से 'असगुन' शब्द सुनकर तड़फ उठी . कहीं लगा रह गया काँटा कसक उठा  . उसे लगा जैसे अमला की जगह वह खुद बैठी है . असगुन की बात कहकर उसी को टोका जा रहा है .वह एकाएक विकल होकर आगे आई और पीछे से सास को बाँहों में भरकर बिलख उठी और कहने लगी —-“ बुआ जी ,अम्मा जी , यह न कहो . माँ के आँसू असगुन नहीं होते ....कभी नही होते .
अमला ने थकी हारी आँसू भरी नजरों से कमलेश को देखा और उसके कन्धे से लगकर फूट फूटकर रोने लगी.... खूब रह रह कर ..हुलक हुलककर...आँखों से अविरल जलधार बह रही है . ढोलक बजाने वालियों के हाथ रुक गए हैं, , गीत थम गए हैं , बस आँखों से अविरल जलधार बही जा रही हैं....