आखिर इस
बार तय हो ही गया कि नीम के पेड को अब जड़ से ही कटवा दिया जाए । उस नीम के पेड को, जो आँगन में बीस साल से हमारे आँगन के
बीचों-बीच हमारा का पहरेदार और अभिन्न साथी बन कर खडा था । हर मौसम में हमारी
दिनचर्या का साक्षी ।
वैसे तो
हर साल नवम्बर आते-आते माँ नीम की टहनियों की छँटाई करवा देतीं थी । ऐसा करने से
पत्ते झडने का झंझट नही रहता था . और क्योंकि नई टहनियों में फूल नही आते इसलिये
निबौलियों के झडने का झंझट भी नही होता था .
हालांकि
हमें पेड़ की छँटाई भी अच्छी नहीं लगती थी . कुछ महीनों के लिये पेड़ नंगा हुआ सा
उदास खड़ा लगता था लेकिन देर से ही सही, छंटाई के बाद पेड़ फिर से हरा और ज्यादा
घना तो होजाता था । लेकिन जड़ से ही कट जाएगा तो फिर आँगन में कहाँ से होगी घनी
छाँव ? कहाँ
चिडियाँ चहचहाएंगी और कहाँ गिलहरियाँ धमाचौकडी मचाएंगी । सब कुछ उजड़ जाएगा ।
नीम के
पेड से हम तीनों भाइयों का विशेष लगाव रहा है । इसलिये भी कि उसे दादी ने अपने
हाथों से रोपा था । दादी अब हमारे बीच नही हैं । पर इससे बड़े कारण हैं वे सुख जो
हमें नीम के उस हरे-भरे सघन पेड़ से मिलते हैं । सबसे बडा तो यही कि धूप में छतरी
का काम देने वाले हमारे इस पेड पर रोज सुबह बेशुमार चिडियाँ आकर किल्लोल करती हैं
। पूरा पेड झुनझुने की तरह बज उठता है । हर मौसम में न जाने कितनी अनजान चिडियाँ
हमारे पेड पर मेहमान बन कर आतीं हैं । असंख्य गिलहरियाँ इसकी डालियों पर धमाचौकडी
मचाए रहतीं है । गिलहरियों से हम तीनों भाइयों की गहरी दोस्ती रही है । वे हमारी
एक आवाज पर उतर कर आँगन में आजातीं है । हमारी हथेलियों पर बैठ कर मजे में मूँगफली
या चना कुतरतीं हैं । कडी धूप में हमारा पेड पूरे आँगन में छतरी लगाए खडा है ।
उसके चारों ओर घूमते हुए छिम्मी--दाँव खेलना काफी जटिल व मजेदार होता है । हर साल
सावन में हम झूला डाल कर पूरे महीने झूलने का आनन्द लेते हैं । पेड की शाखाओं से झूलने
में जो आनन्द है वह पार्क के झूलों में कहाँ ? वहाँ पीगें बढा-बढा कर ऊँची टहनियों से
पत्ते तोड कर लाने की प्रतिस्पर्धा भला कहाँ ? और हाँ.. वर्षा बन्द होने के बाद भी जब
हवा के हल्के से झोंके से ही आँगन में फिर से बारिश होने लगती है तब यह हमें पेड
का कोई जादू सा लगता है ।
सबसे
ज्यादा मजेदार है यह कि नीम की बदौलत हमें अक्सर खूबसूरत पतंगें फ्री में मिल
जातीं हैं । नीम की टहनियाँ जैसे हमारे लिये ही जाने कहाँ-कहाँ से पतंगों को पास
बुला कर उलझा लेतीं हैं कि ,“कहाँ जारही हो उडती उडती पतंगरानी ! यहाँ थोडी
देर आराम करलो न ?”... और
पतंगें मानो इस प्रस्ताव को स्वीकार कर टहनियों में ही अटक जातीं हैं । बाजार से पतंग
खरीदने में कोई पाबन्दी नहीं है पर टहनियों से उतारी गई पतंग का एक अलग ही आनन्द
है .
पहले जब
पेड़ की छँटाई भी नहीं करवाई जाती थी ,भर भर झूमर फूल आते थे और उसके बाद निंबौली
। फूलों के दिनों में जब हम आँगन में सोते थे , हमारा बिस्तर नीम के छोटे-छोटे
फूलों से भर जाता था । हल्की सी सुगन्ध वाले नन्हें फूल पलकों पर ,कानों बालों और
कपडों में भर जाते थे । निंबौलियाँ भी हमारे लिये कई तरह के खेल जुटा लातीं थीं ।
हमारी तराजू के लिये निंबौलियाँ आम या खिरनी का काम करतीं थीं । कभी पेड के नीचे
अचानक हमारे सिर पर निबौली गिरती तब हमें कक्षा के शरारती साथियों का ध्यान आता जो
ध्यान बँटाने के लिये अक्सर चॅाक का टुकडा फेंक कर मारा करते हैं । और निबौलियों
के लिये तोतों की झीनाझपटी भी कितनी मजेदार होती थी ।
अब उधर
भैया अपनी नौकरी पर चले गए और इधर माँ ने नीम के पेड को कटवाने का फैसला ले लिया ।
मैं यही सोच रहा था कि काश इस समय बडे भैया होते तो जरूर कुछ करते ।
उनके
होते नीम के पेड के कटवाने का नाम तो बहुत दूर है, मँहगाई की तरह फैलती उसकी टहनियों को
छँटवाने का काम भी माँ बडी मुश्किल से करवा पातीं थीं । कितना ही समझाने पर भी कि
छँटाई से तो नीम की टहनियाँ और पत्ते ज्यादा घने आएंगे , भैया ठूँठ हुई शाखाओं को
देख हर बार माँ से कहते -"माँ तुमने यह बिल्कुल अच्छा नही किया । देखो बेचारी
गिलहरियाँ व चिडियाँ कैसी बेघर हुई उदास बैठी हैं । और फिर गर्मियों तक तो पेड घना
हो भी नही पाता जब ठंडी छाँव की बेहद जरूरत होती है । जब घना होता है तब तक बारिश
आजाती है । माँ अब यह मत कहना कि नीम की छाँव की क्या जरूरत । कूलर जो है । पेड की
छाँव की बात निराली होती है । है न मुन्नू । पत्ते छँटवा कर भी मम्मी ने कुछ ठीक
नही किया ।"
"एकदम
दादाजी बन कर बात करने लगा है ." माँ भैया की बात पर हँस कर रह जातीं ।
मुझे
याद है कि भैया ही थे जो माँ के सख्त मना करने के बावजूद गिलहरियों को खिलाने के
लिये रसोईघर में से बेखौफ होकर मुट्ठी भर मूँगफलियों के दाने निकाल लाते थे और जब
तक खत्म नही कर लेते गिलहरियों को बुलाते ही रहते थे । हमारी नजर में यह एक बडा
क्रान्तिकारी कदम था । पर भैया कहते थे कि यह जरूरी है । आखिर खाने की चीजों पर
जितना हक हमारा है उतना ही इनका भी है । एक दिन माँ ने जब पोहा बनाने के समय
मूँगफली-दाने के डिब्बे को खाली पाया तो खूब नाराज हुईं । भैया को खूब डाँटा पर
भैया चुपचाप सुनते रहे । इससे ज्यादा कि माँ ने पोहा बनाना ही रद्द कर दिया ,वे और कुछ नही कर
पाईं थीं ।
इसी तरह
एक बार माँ ने आँगन में लगी गुलाब की एक झाड़ी उखडवा दी । वह काफी पुरानी तो हो ही
गई थी ,और उसकी
टहनियों से असुविधा भी होने लगी थी । जब भी उधर से निकलते थे काँटे हाथ-पाँव में
लाल लकीर खींच देते थे । पर उस दिन जब भैया ने झाडी को बाहर पड़ी पाया तो बड़े नाराज
हुए । साफ कह दिया-- जब तक उस पौधे को दुबारा नही लगाया जाएगा ,मैं खाना भी नही
खाऊँगा । माँ ने उसे उखडवाने की सोची भी कैसे । अभी उसमें एक साथ पचास बड़े और एकदम
सुर्ख फूल आते थे । मुझे तो वही पौधा चाहिये ...बस.
माँ
क्या करतीं । वह उखडी हुई झाडी फिर से क्यारी में रोपनी पड़ी । जब तक उसके पत्ते
फिर से नही खिल गए ,कोंपलें
नही फूटीं उनका मुँह फूला रहा .
भैया के
सामने पेड़ कटने की बात भी हो पाती ?
"माँ ,
जब केवल छँटाई से
काम चलता रहता है तो फिर पेड को जड़ से कटवाने की जरूरत ही क्या है ?"
मैंने
भी माँ को समझाने की कोशिश की तो उन्होंने ने साफ कह दिया कि छंटवाने से बात नही
बनती । हर साल वही पहाड़ा रटना पडता है । काटने वाले आदमियों के पीछे फिरो । पत्तों
व लकड़ियों का निस्तार करो । चार माह बाद फिर से वही परेशानी कई गुना ज्यादा घनी
होकर फैल जाती थी । और हाँ...छँटवाने के नाम पर भी तो कम हाय--तोबा नही मचती . सो
एक बार जड़ से कटवाओ और सदा के लिये परेशानियों से मुक्ति पाओ । भला आँगन में कहीं
नीम के पेड़ लगाए जाते हैं ?
"लेकिन
माँ हमारा आँगन एकदम सूना हो जाएगा । नही ?"
"तुझे
आँगन की पडी है मुन्नू ?" माँ रुखाई के साथ बोली---"तुझे मेरी परेशानी
नही दिखती ? कैसे
दिनभर झाडू ही लगाती रहती हूँ ? कमर झुक गई सफाई करते-करते । इसके कारण कितना
कचरा फैला रहता है हर वक्त कि घर घर नही जंगल लगता है । कितनी ही सफाई करो पर जब
देखो जहाँ कूडा-कचरा । पतझड़ में पत्ते झरें और पतझड ही क्यों अब तो बारहों महीने
पत्ते झरते रहते हैँ .फिर फूल झरें और फिर निबौलियाँ ..। पहले कच्ची निबौलियाँ और
फिर पकी निबौलियों की बरसात होती है । हर वक्त आँगन में मक्खियाँ भिनभिनाती रहती
हैं । यही नहीं कौए जब चाहे हड्डी या मांस गिरा जाते हैं । छिः...मुँह में ग्रास
नही दिया जाता । उधर पडौसी अलग खिच-खिच करते रहते हैं कि उनकी छत और आँगन पत्तों
से भरे रहते हैं .पूरा मनहूस पेड़ है यह । माँजी को क्या सूझी जो बीच आँगन में पेड़
लगा गईं वह भी नीम का । लगाना ही था तो चाँदनी ,रातरानी ,हरसिंगार या फिर अनार और अमरूद जैसे पेड
लगातीं । लगा दिया यह दरख्त । घर में किसी को बुलाने में भी संकोच होता है । मैं क्या जीवनभर बस झाडू ही लगाती रहूँगी
।"
"माँ
सफाई के लिये आती तो हैं जस्सी आंटी ।"
"हाँ
जस्सी के सुबह--शाम के झाडू लगाने भर से सफाई होजाती है क्या ? पत्ते तो दिनभर झडते
हैं । इस पेड के कारण घर में घर जैसा अहसास होता ही नही ।"---माँ ले देकर उसी
बात पर आजातीं । अब घर के अहसास में नीम के पेड का क्या दखल है यह तो मैं समझ नही
सका पर इतना जान गया कि अब इस निर्णय में बदलाव की कोई गुंजाइश नही है ।
यह भी
पहली बार महसूस हुआ कि माँ के भी ऐसे विचार हो सकते हैं जो हम बच्चों को पसन्द न
आएं । और यह भी कतई जरूरी नहीं कि माँ हमारी पसन्द का खयाल भी रखे । जैसे कि वो
अपनी गुना वाली सहेली को चाहे जब बुला लेतीं हैं और हमें घेर कर बिठा लेतीं है
कहतीं हैं —“मुन्नू
आंटी को वो वाली पोइम सुनाओ..। ..वो वाला गाना सुनाओ...”
वह सब
हमें कहाँ अच्छा लगता है । पर माँ कहती है कि अच्छे बच्चे बडों का कहना मानते हैं
."
माँ की
परेशानियों को हम समझते थे पर माँ जाने क्यों पेड से होने वाली परेशानियों को तो
देखतीं थीं पर उसके लाभों को नजरअन्दाज़ कर देतीं थीं । हमने किताब में पढा था कि ,पेड हमें वह सब देता
है जिसे इन्सान कभी नही दे सकता । शुद्ध हवा मिलती है । खासतौर पर नीम से । नीम
जैसा ऐण्टीबायोटिक कोई दूसरा नही । उससे वातावरण अच्छा रहता है । गर्मियों में
गर्मी से और सर्दियों में सर्दी से बचाता है । आदि..।
“इनके
साथ एक लाभ और है कि अलग से एक्सरसाइज नहीं करनी पड़ती .घर की सफाई करते करते वह
अपने आप हो जाती है .”—पिताजी
भी हमारे सुर में सुर मिलाकर कहते थे . तो माँ नाराज होकर कहतीं --
“ थोड़ी
एक्सरसाइज आप भी कर लिया करें . बातें करना तो बहुत आसन है .”
पहले
हमें पिताजी का भरोसा था . हम समझते थे कि माँ पिताजी से अपना यह फैसला नहीं मनवा
सकतीं
लेकिन
इस बार माँ ने अपनी बात को एक नई दिशा दे दी जैसे कोई खतरे की संभावना के कारण
रास्ता बदल लेता है । बोलीं---
"चलिये
मेरी परेशानियाँ तुम लोगों को नही दिखतीं लेकिन यह भी तो सोचो कि इसकी जडों से
आँगन के फर्श में दरारें आने लगीं हैं । कल जडें नींव तक पहुँचेंगी । मकान को हिला
कर रख देंगी । और यह भी नही भूलना चाहिये कि पेड बिजली को आकर्षित करते हैं ।
बरसात में उसका भी खतरा होता है । क्या नहीं ??
माँ की
इस बात का किसी पर प्रभाव हुआ या न हुआ पर जाने कैसे पिताजी पर होगया । वैसे तो
माँ की बात का असर हमने उन पर कभी होते नहीं देखा था जबकि हम ऐसा चाहते थे लेकिन
अब वह असर हुआ जो हमारी समझ में नहीं होना चाहिये था । उन्होंने माँ की इच्छा को
तपाक से समर्थन दे दिया---"ठीक है . जो तुम जो ठीक समझो करो ।"
बस माँ
खुश । शायद पिताजी को भी नही सूझा कि पेड़ की जड़ें इतनी जल्दी मकान की नींव को
नुक्सान नही पहुँचाने वाली । पर हम तो उन्हें नही न समझा सकते थे । बच्चे जो थे ।
हालाँकि इतने भी छोटे नही कि अपनी बात न कह सकें पर इतने बडे भी नही कि माँ और
पिताजी की बातों का विरोध कर सकें ।
कुल
मिला कर यह तय होगया कि हमारा प्यारा नीम का पेड अब एक-दो दिन का ही मेहमान है ।
एक दिन
जब पिताजी मामाजी से मिलने चले गए सुबह--सुबह दो-तीन आदमी रस्सी कुल्हाडी लेकर आगए
। हमें वे बिलकुल कहानी वाले काले राक्षस की तरह लगे ।
वास्तव
में पहले तो हमें पूरी उम्मीद थी कि ऐन मौके पर पिताजी का मन बदल जाएगा और वे पेड
का काटना रद्द करवा देंगे । पर पिताजी के जाने के बाद हमारी रही-सही उम्मीद खत्म
होगई । पेड को काट गिराने की सारी तैयारियाँ हो चुकीं थीं । माँ ने शायद सारी
बातें सोच कर ही इतवार का दिन तय किया था । काम का शुरु होना ही थोडा आशंकित करने
वाला था । होजाने के बाद तो फिर विरोध का भी कोई अर्थ नही होता ।
हमने
देखा कि सुबह की हवा में नीम की टहनियाँ झूम रही हैं, हरे पत्तों पर किरणें नाच रहीं हैं ,खतरे से बेखबर
गिलहरियाँ धमाचौकडी मचा रहीं हैं, गौरैया व तोते कल्लोल कर रहे हैं । यह हरी-भरी
दुनिया कुछ ही पलों में उजड जाएगी ,और हम सिर्फ सोच-सोच कर दुखी होते रहेंगे ।
"बताओ
बहन जी कहाँ से शुरुआत करें । " उन तीनों आदमियों में से एक ने पूछा ।
"रुको
भैया ! थोडी देर में अभी बताती हूँ..।"
माँ ऐन
मौके पर अपने आप से ही उलझती हुई सी बोली । मुझे उस समय जाने क्यों लगा कि उस समय
माँ को नीम के कंच हरे सुन्दर ,झूमते हुए पत्तों का खयाल आ रहा है जो अगले पल कट
कर धूल में मिल जाने वाले थे । शायद उन्हें शाखों पर सरपट दौडती गिलहरियों का और
चुहलबाजी करते तोतों का खयाल आरहा था । और निश्चित ही उन्हें ऊँची टहनी पर बने कौए
के घोंसले का भी खयाल आरहा था । तभी तो उन्होंने उन आदमियों को कुछ देर बैठ कर
इन्तजार करने को कहा होगा । वरना वो तो जल्दी से जल्दी पेड का नामोनिशां मिटा देने
की बात करतीं रहतीं थीं । इसी मुद्दे पर आकर ही तो मुझे महसूस हुआ था कि माँ से भी
हमारा मतभेद हो सकता है । पर उस वक्त माँ जो देरी लगा रही थी मुझे लगा कि जरूर
उनका विचार बदल रहा है । माँ के लिये ऐसा सोचना मुझे बडा अच्छा लगा ।
"बहन जी
हमारे पास वक्त नही है जल्दी बताओ..।"--दूसरा आदमी बोला । मैं हैरान था । माँ
उसकी बात का उत्तर देने की बजाय मुझे जैसे छोटे लडके को बडी महत्त्वपूर्ण बात बता
रही थीं ।
" अरे
मन्नू तुझे पता है यह नीम का पेड ठीक आशु ( बडे भैया ) की उम्र का है । जब आशु का
जन्म हुआ था तभी तुम्हारी दादी ने इसे लगाया था ।"
"तो मैं
क्या करूँ ?" --मैं
जानबूझ कर कुछ रुखाई से बोला । कहना तो चाहता था कि यह सब मुझे सुनाना तो बेकार है
जबकि आपने पेड काटने वाले लोगों को बुला ही लिया है , पर मेरे भावों को महसूस किये बिना वे अपने
आप से ही कहतीं रहीं---
"एक पेड
को लगाने व पालने में सचमुच कितना समय लगता है ,जबकि उसे कुछ ही पलों में काट गिराया
जासकता है । है न मुन्नू ।"
“मुझे
क्या पता ?” –मुझे
माँ की यह दार्शनिकता बहुत अखर रही थी . पेड़ को कटवा भी रहीं हैं और ऐसा दिखावा भी
कर रहीं हैं मानो पेड़ को कटवाना बहुत बड़ी मजबूरी हो .
"अरे बहन
! जी हमें क्या आज्ञा है । नही कटवाना है तो हम जाते हैं । पूरा दिन बेकार तो नही
जाएगा ।" तीसरा आदमी कुछ खीज कर बोला ।
" ठीक है
अगर आप लोगों को इतनी जल्दी है तो फिर आज रहने दो । मैं आप लोगों को जल्दी ही किसी
दिन बुला लूँगी ।" --माँ ने जल्दी ही उनसे छुटकारा पाने के लहजे में कहा तो
मैं मारे खुशी के उछल पडा । क्योंकि मुझे यकीन होगया कि माँ का यह 'किसी दिन ' अब कम से कम इस साल
तो नही आएगा . और कि शायद कभी आए ही नहीं....
बहुत अच्छी कहानी है। जीवंत चित्रण और प्रवाह, कहीनी एक सांस में पढी जाने को विवश करता है। घर आंगन में बुजुर्गों के हाथ से लगे पेड उनके होने का एहसास कराते हैं। परिवार जनों को ये अपने परिवार के सदस्य से लगते हैं, उन पर बसने वाले जीवों समेत। कहानी में गिरिजा ने अपने कौशल से यह बहुत सहज स्वाभाविकता से बुना है कि कहानी अपने आसपास की सी लगती है।
जवाब देंहटाएंबहुत बधाई
बहुत बहुत धन्यवाद मीनाक्षी जी . आपकी बात बहुत मायने रखती है मेरे लिये .
जवाब देंहटाएंवाह ! कहानी का अंत मन को छू गया..माँ का दिल इतना कठोर हो भी कैसे सकता है..पर्यावरण दिवस को सार्थक करती सुंदर कहानी के लिए बधाई !
जवाब देंहटाएंआपका आभार अनीता जी .
हटाएंBaht sunder Kahani. Hamare bachpan ke neem ka ped yad aa gaya. Hum paki niborion ko aam Bata Kar Bechte the khel me. Koi man kaise katwayegi pedal wah to Bachchan heehai na?
जवाब देंहटाएंआपने सच कहा आशा जी . आभार आपका
जवाब देंहटाएंपेडों की देखभाल भी बच्चों जैसी ही करनी पड़ती है। यदि हमारे लगाए हुए पेडों को थोड़ा भी नुकसान पहुंचा तो बहुत दु:ख होता है। पेडों का महत्व बतलाती बहुत सशक्त कहानी।
जवाब देंहटाएंपेडों की देखभाल भी बच्चों जैसी ही करनी पड़ती है। यदि हमारे लगाए हुए पेडों को थोड़ा भी नुकसान पहुंचा तो बहुत दु:ख होता है। पेडों का महत्व बतलाती बहुत सशक्त कहानी।
जवाब देंहटाएंBahut sundar
जवाब देंहटाएंWaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaah
जवाब देंहटाएंशुक्रिया ..
हटाएंशुक्रिया
हटाएंaapke dwara post ki gai khaniyaa bahot hi achhi v parerna daayak h
जवाब देंहटाएंbest of luck