26 नवम्बर 2011
आज प्रशान्त (बडा बेटा ) का जन्म-दिन है । यहाँ यह कहानी पूरी तरह तो नही पर काफी कुछ उसी पर केन्द्रित है । वैसे पन्द्रह साल पहले लिखीयह कहानी(राज्यशिक्षा केन्द्र भोपाल)पलाश में प्रकाशित होचुकी है । फिर भी आप सबके साथ इसे एक बार और बाँट कर और आपकी टिप्पणियाँ पाकर मुझे अच्छा लगेगा ।
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आदिकवि वाल्मीक ने अपना प्रथम छन्द----"मा निषाद प्रतिष्ठां ..." जितनी करुणा व संवेदना से लिखा होगा उतनी ही कि शायद उससे भी अधिक संवेदना उसकी उस पहली रचना का आधार रही होगी जो इस बात का सशक्त प्रमाण थी कि तीन साल का बच्चा किसी बात को न केवल गहराई से अनुभव करता है बल्कि उसे पूर्णता के साथ व्यक्त भी कर सकता है ।किसी भी रचना की पूर्णता व सार्थकता इसमें होती है कि रचनाकार की संवेदना व अनुभूति को पाठक भी उतनी ही तीव्रता व आत्मीयता से महसूस कर सके । और मैं इसी आधार पर उसकी उस पहली रचना को अद्वितीय कह सकती हूँ क्योंकि उसे पढकर मुझे जिस वेदना व सह-अनुभूति का परिचय हुआ वह इससे पहले कभी किसी रचना को पढ कर नही हुआ । उसकी पहली व मौलिक अभिव्यक्ति मेरे जीवन का सर्वाधिक मार्मिक व अविस्मरणीय प्रसंग है ।
वह यानी गुल्लू हर पहली सन्तान की तरह ही मेरी खुशियों आशाओं व अपेक्षाओं का केन्द्र था । इसलिये उसके जन्म से ही ,जन्म से क्यों जन्म के कई महीनों पहले से ही मैं उसके सुनहरे भविष्य की कल्पनाएं व योजनाएं संजोने लगी थी । कि किसतरह मुझे उसकी शिक्षा के लिये सजग व प्रतिबद्ध रहना होगा । अधिक अपेक्षाएं मनुष्यको कुछ निर्मम भी बना देतीं हैं । यही कारण था कि जैसे ही उसने बोलना सीखा ,मैं उसकी पहली शब्दावलियों-- 'माम्मा, पाप्पा, दाद्दा' --आदि के स्वर-माधुर्य में डूबने की बजाय उसे 'अल्फाबेट' व बारहखडी के अक्षर रटाने की कोशिश करने लगी थी । वह भले ही मेरे बाल पकड कर खींचने व किलकारियाँ भरने में मस्त होता ,मैं उसका ध्यान जबरन ही चित्रों की ओर ले जाकर रटवाती--बेटू देखो चिडियाss हाथीss उल्लूsss ..।
मेरे बार-बार दोहराने पर जब वह एक बार भी बोलता---"आsतीss, अल्लू.ss".तब चाँदनी के हजारों फूल मेरे मन में खिल जाते थे । वास्तव में मैं उसे स्कूल भेजने से पहले अच्छी तरह पढना-लिखना व गिनती-पहाडे तथा छोटे-छोटे सवाल सिखा देना चाहती थी । मेरा विचार है कि प्रारम्भ से ही यदि बच्चे का भाषा व गणित ज्ञान सुदृढ व व्यापक हो तो पढाई उसके लिये कभी बोझिल व उबाऊ नही होसकती । अध्यापन के तीस वर्षों के अनुभव से कह सकती हूँ कि पढाई से अधिकांशतः वे ही बच्चे जी चुराते हैं जिनका भाषा ज्ञान कमजोर होता है । जब शिक्षा का माध्यम ही कमजोर होगा तो सीखना आसान कैसे हो सकता है । यह बात अलग है कि सिखाने की सही उम्र भी होनी चाहिये । खैर..
जब वह चलने व दौडने लगा तो प्रायः मेरी बातों को अनसुनी कर देता था । गिनती या बारहखडी रटने की बजाय वह गिलहरियों के पीछे दौडना व उन्हें बुला-बुला कर दाने डालने में ज्यादा दिलचस्पी लेता था । मैं कई प्रलोभनों से उसे आकर्षित करती थी पर उस समय हैरान हो जाती जब वह मेरे प्रलोभनों को सिरे से नकार देता कि, "मुझे राजा बनना ही नही है । राजा बनने से क्या होगा !" या कि "मुझे सपनों में जाना ही नही है मैं तो मामाजी के साथ नहर के किनारे सारस का जोडा देखने जाऊँगा ।"
यही नही मेरी बात मानने के लिये वह खुद भी शर्तें रखने लगा कि 'गिनती याद तब करूँगा जब मुझे एक कहानी सुनाओगी ।" या "आ ई लिखनेके बाद मुझे हरगोविन्द काका के घर मुर्गियाँ व चूजे दिखाने ले जाओगी न ?"
गीत सुनाने के नाम पर जब मैं अपनी चतुराई का इस्तेमाल करते हुए बारहखडी को ही सस्वर गाती----"कमल का 'क'ss खरगोश का खss...गमला का गss.....।"
"यह भी कोई गाना है !"---वह पाँव पटकने लगता था ।
मैं हैरान होकर उसढाई साल के बच्चे को देखती । हम जब बच्चे थे तब हमें अपनी पसन्द--नापसन्द बताने का मौका कहाँ मिलता था । जो पिताजी ने कह दिया सो कह दिया । हमें तो उसका पालन करना ही थो ।
चलो मेरी मेहनत रंग लाई । वह मात्रा लगे व्यंजनों से शब्द बना कर पढने लगा--"म पर ए की मात्रा तो मेs 'ल' पर आ की मात्रा तो लाs । मेs..लाs.. मेलाss ।"
उन्ही दिनों का एक रोचक प्रसंग है । हम छोटी लाइन वाली गाडी से ग्वालियर आ रहे थे । बीच में एक छोटा सा स्टेशन पडता है जहाँ के पेडे उन दिनों बहुत प्रसिद्ध थे । छोटी लाइन से यात्रा करें और सुमावली के पेडे न खरीदें ऐसा बहुत ही कम होता था । गुल्लू को मीठा खाना बेहद पसन्द रहा है । सो वह हमेशा सुमावली आने की प्रतीक्षा करता था ।और मैं उसे अक्सर यह कह कर टाल देती कि बेटा अभी वह स्टेशन
आया नही है । बाद में वह पूछता रहता मम्मी सुमावली कब आएगा और मैं उसे किसी तरह बहला देती । वास्तव में मैं उसे ज्यादा मीठा खाने से बचाना चाहती थी ।
उस बार भी जैसे ही गाडी रुकी वह चिल्लाया--"मम्मी ! पेडे ।"
बेटा अभी वह स्टेशन नही आया । इसके बाद आएगा । तब खरीदेंगे पेडे । मैंने उसे समझाया ।
ए...गुल्लू ने बडी-बडी आँखें शिकायत से भर कर तरेरीं---मुझे उल्लू बना रहीं हैं । देखो वो लिखा है --"सु..मा..व..ली..।"
सब लोगों ने आश्चर्य से नन्हें गुल्लू को देखा और मैंने गर्व तथा पुलक के साथ---"अच्छा तो जनाब पढना सीख गए ।"
अपने अक्षरज्ञान से वह खासा उत्साहित था । रास्ते में दीवार ,पोस्टर ,बोर्ड आदि पर कुछ भी लिखा होता वह पढने के लिये रुक जाता और जब तक जोड जोड कर उसे पढ नही लेता आगे नही बढता । हमें उसके साथ रुकना पडता था । पर मजे की बात यह है कि मुझे भी उसी से पता चला कि यह स्थान 'जीवाजी-चौक' कहलाता है या उस मार्ग का नाम 'महारानी लक्ष्मीबाई मार्ग' है । हमने कभी यों ध्यान दिया ही नही था । भाषा-आन के दो प्रारम्भिक स्तरों --पढना व लिखना--में से पढना तो उसने सीख लिया था । अब उसे लिखना सीखना था जो उसकी रचनात्मकता का प्रारम्भ था ।
लिखना सीखने में उसे कुछ कठिनाई हुई । पहली बात तो यह कि मैं जब भी उसे कुछ लिखाने बैठती उसकी जेब में कोई न कोई समस्या जैसे तैयार रखी ही रहती थी जिसे वह तुरन्त निकाल देता था । जैसे स्लेट नही मिल रही ,बत्ती नही है । उसी समय पर उसे खास तौर पर प्यास या पेशाब लगती थी । कभी कान में खुजली होती तो कभी पेट में मरोड । यह सब नही होता तो वह लिखना छोड मेरी गोद में लेटे मुन्नू को देख चीख उठता---"मम्मी , देखो भैया मेरी ओर हँस रहा है ।"
अपने भाई के लिये यह मुग्धता मुझे अच्छी लगती अगर किसी दूसरे समय में होती । पढाई के बीच उसकी यह हरकत मुझे जूते में आगए कंकड की तरह अखरती थी ।
'इ' लिखने में उसने काफी समय लिया । जब मैं उसे बताती कि बेटा पहले यूँ नीचे की ओर छोटी सी लाइन बनाओ फिर बत्ती को बाँई तरफ लेजाकर दाँई ओर घुमाओ और फिर बाँई ओर लाकर एक गाँठ लगा कर पूँछ सी निकाल दो यूँ....। पर वह बत्ती को मनमाने तरीके से बाँए--दाँए घुमाता ही जाता साँप की तरह लहराते हुए तो मेरा सब्र का बाँध टूटने सा लगता था । और न चाह कर भी मेरे हाथ उसके बालों या गालों तक पहुँच ही जाते थे । फिर तो उसकी उँगलियाँ जैसे हडताल पर चलीं जातीं ।
इ के बाद उसने सारे अक्षर जल्दी सीख लिये ।सीख ही नही लिये वह अक्षरों से नए सन्धान करके मुझे बताता--" देखो मम्मी र से स ,श, य, थ भी बन जाते हैं । च को उल्टा करो तो ज बन जाता है ।और ड से इ भी बनालो और चाहो तो ह भी ।"
"हाँ..हाँ ठीक है --" मैं मन ही मन खुश होकर भी प्रकट नही करती थी । भय था कि कहीं प्रशंसा से वह आगे चलना ही भूल जाए । उस समय तो याद ही नही रहता था कि हम खुद प्रशंसा के लिये कैसे लालायित रहते थे ।
अब मैं उसे शब्द और वाक्यों तक जल्दी पहुँचाना चाहती थी । पर मैंने पाया कि अब वह घर से बाहर निकल कर खेलने में ज्यादा रुचि लेने लगा है । उसका मन कभी पेड में अटकी पतंग में उलझा रहता तो कभी मदारी या फेरी वाले के पीछे जाने में रमा होता । उसे रोकने के लिये मुझे कई बार पुकारना पडता था । मेरे पिताजी कहते थे कि अगर बच्चा एक आवाज पर नही रुका तो कैसा अनुशासन ! मेरे विचार से आगे बढने और अपना लक्ष्य पाने के लिये अनुशासन सबसे ज्यादा जरूरी है ।
एक दिन की बात है ।
मैंने मुन्नू को नहला-तैयार कर पलंग पर सुला दिया । और गुल्लू से वहीं बैठ कर भाई को देखने व गिनती-पहाडे याद करने की कह कर कपडे धोने चली गई । लगभग पन्द्रह मिनट बाद ही मैं किसी काम से आई तो देखा कि मुन्नू रो रहा था और गुल्लू महाशय का कहीं अता-पता नही था । कापी नीचे बिखरी पडी थी । तलाश करने पर पता चला कि वह पडौस में मुन्ना के घर में है । वहाँ जाकर देखा । गुल्लू कुछ बच्चों के साथ डलिया में रखे कछुआ के बच्चे को देखने में तल्लीन था । मेरा गुस्सा हाइड्रोजन भरा गुब्बारा होगया । मुन्ना जैसे अनपढ लडकों की संगत वैसे ही मुझे जरा भी पसन्द नही थी । पर मुझे इससे ज्यादा उसकी उच्छ्रंखलता व अनुशासनहीनता अखर गई । अभी से यह मनमानी करेगा तो आगे क्या करेगा । मेरी बात पर दस मिनट तक कायम नही रह सका । माँ की बात में कोई वजन ही नही है ! अभी से आ रही यह लापरवाही आगे क्या रूप लेगी ।
बस मैंने वही उसे तीन--चार थप्पड कस कर लगाए और घसीटती हुई उसे घर लाई ।
"आज तेरा खाना-पीना बन्द । और दस तक पहाडे याद भी करने हैं ।" --यह कह कर मैंने उसे कमरे में धकेल दिया । और काम में लग गई । थोडी देर बाद इस बात को भूल भी गई । याद रखने लायक बात भी क्या थी । बच्चा गलती करेगा तो सजा तो देनी ही होगी । डाँटना तो पडेगा ही । वरना वह गलती को दोहराएगा । अपने आसपासके माहौल व पिताजी से मैंने यही सीखा था कि सफल माता-पिता वही हैं जो बच्चे को उँगली के नही आँख के इशारे पर चलाएं । इसके लिये जो भी उपाय थे---डाँट--फटकार, मार-पीट, डराना-धमकाना--सब जायज़ थे ।
एक घंटे बाद मैंने उसे बुलाया और यह कह कर कि आइन्दा ऐसी लापरवाही मत करना ,उसे खेलने की छूट दे दी । यही नही मुस्कराकर उसके गाल भी थपथपाए । ऐसा करके मैंने एक माँ का वात्सल्य भी जता दिया । मैंने तयकिया कि आज उसे अपने साथ ही सुलालूँगी । डाँट के बाद थोडा प्यार भी तो जरूरी है न । ऐसा सोचकर मैं बेशक एक अनुशासनप्रिय माँ होने की गरिमा महसूस कर रही थी । एक सजग और सक्रिय माँ...।
लेकिन जब मैं शाम को कमरे में झाडू लगाने गई तो वहाँ मेरी सारी सजगता, सक्रियता, उदारता ममता वात्सल्य--सबको जैसे लकवा सा मार गया । सफलता का अहसास गर्म तवे पर पडी बूँद की तरह छनक गया । कमरे के फर्श पर एक वाक्य लिखा था । मुझे ऊँचाई से धकेलता हुआ सा वाक्य---"मम्मी मुझे बहुत मारती हैं ।"
फर्श पर लिखी उसकी इस पहली अभिव्यक्ति ने मुझे किसी संगीन अपराधी की तरह कठघरे में खडी कर दिया । यह महज एक वाक्य नही था । एक पूरा दस्तावेज था --उसके प्रति मेरी निर्ममता का ,मेरी संवेदनहीनता का । शिकायत थी एक बेटे की---एक माँ की हृदयहीनता के प्रति और एक विरोध भी था एक मासूम बच्चे का अपने प्रति हुए अन्याय के लिये कि क्या कछुआ देखने जाना या पतंग को पेड से उतारना इतना बडा अपराध है कि उसके लिये ऐसी कठोर सजा दी जाए ।
मुझे लगा कि फर्श ही नही दीवारों, छत, आँगन ,गली,..धरती ..आकाश और मेरी चेतना व अनुभूति के चप्पे-चप्पे में एक ही वाक्य गूँज रहा है ---"मम्मी मुझे मारतीं हैं....मम्मी मुझे मारतीं हैं ।" लिखित शब्द इतने असरकारक होते हैं मुझे पहली बार महसूस हुआ । पहली बार कुछ पढ कर हृदय में वेदना का ऐसा ज्वार उठा कि सारी सीमाएं तोड कर बह निकला । और बहता ही रहा । जाने कितना कुछ बह गया उसमें ।
आज भी गुल्लू की उस पहली रचना की स्मृति मेरे अन्दर एक वेदना व अपराध बोध भर देती है ।