शनिवार, 21 सितंबर 2013

अर्थहीन

यह आमन्त्रण पर लिखी गई दहेज -कथा है । 'इक्कीसवीं सदी की चुनिन्दा दहेज-कथाएं '.-संग्रह ( स.दिनेश पाठक शशि)में शामिल भी है लेकिन आपको पढवाने की लालसावश यहाँ भी दे रही हूँ । आशा है आप पढेंगे और अपनी  बेबाक टिप्पणी से मुझे लाभान्वित करेंगे ।
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वेदप्रकाश को जो दरवाजे पर देखा ,मंजू की छाती में धड-धड होने लगी । चेहरा धूप में मुरझाए पत्ते की तरह लटक गया । 
"अभी पन्द्रह दिन भी नही हुए कि लिवाने भी आ गए ?"--मंजू ने सोचा 
अम्मा जी ने खुद ही तो कहा था कि अबकी बार मंजू को महीना--डेढ--महीना के लिये भेज दूँगी । बेचारी को साल भर से ज्यादा होगया मायके गए । यों साल-दो साल में महीना-पन्द्रह दिन की छूट कोई बडी छूट नही है पर इतनी भी क्या कम है ? 
सात-आठ साल में वह इतना जान चुकी है कि उस घर में बहुओं का मायके जाना कभी सहजता और सरलता से स्वीकार नही किया जाता । लिवाने वाले को एक-दो बार न लौटाया तो ससुराल क्या । ऐसे समय मंजू को सावन का एक लोक गीत याद आता है जिसमें भाई बहन को लिवाने ससुराल आता है । पहले तो सास-ननद की भौंहें तन जातीं हैं । सीधे मुँह बात नही करतीं लेकिन जब बहू खुशामद करती है कि--"तुम कहौ ए सासु पीहर जाउँ ,बारौ बीरन लैवे आइयौ...।" बडी मुश्किल से सासु बहू की बात मानती है पर कई शर्तों के साथ कि "जितनौ ए बहू कोठीनि नाज, उतनौ पीसि धरि जाइयो ,जितनौ ए बहू कुँअलनि नीर उतनौ भरि धरि जाइयो...." .."हे बहू तू मायके जाना चाहती है तो चली जा लेकिन पहले जितना घर में अनाज है सारा पीस कर रख जा । जितना कुओं में पानी है उतना भर कर रख जा..। 
अब जबकि बीसवीं सदी बीतने जा रही है ,ग्वालियर के उस पुराने मोहल्ला में उतनी कठोरता तो नही रही पर बहू के मायके जाने पर आसानी से सहमति तो अब भी नही मिलती । मिल भी जाए तो 'लिबउआ' खातिरदारी के नाम पर  रोककर आज-कल ,आज-कल करके दो-चार दिन तो ऐसे ही निकाल दिये जाते हैं । 
अम्मा की भी तमाम समस्याएं निकल आतीं थीं । दुखी स्वर में कहतीं अब मेरा मन कैसे लगेगा ? कौन भारी-भारी चादरों को धोएगा ? कौन इतनी सुबह ओम का टिफन लगाएगा ? कौन मेरे पैरों में 'नारान ' की मालिश करेगा ? ..
मंजू को खूब याद है कि उसका छोटा भाई इसीलिये उसे लिवाने जाने के लिये तैयार नही होता था ।
छोटे देवर ओमप्रकाश के ब्याह से पहले मंजू को परिवार की इस नीति  और सासु माँ की बातों पर खीज की बजाय हँसी आती थी । रौब और अधिकार भरी ही सही उसे अपने ऊपर सास की और देवरों की निर्भरता बुरी नही लगती थी  बल्कि उसमें अपने  महत्त्व का अनुभव होता था , लेकिन जबसे घर में ओम की बहू आई है उसे वे सभी बातें अखरने लगी हैं । आखिर वे नियम पूजा पर लागू नही क्यों नही होते ?उसका भाई जब चाहे लेने आजाता है और असहमति जताने की बजाय सब पूजा की विदाई तैयारी करने लगते हैं ।
"क्या महीना और क्या पन्द्रह दिन  ! "---वेदप्रकाश मंजू को समझा रहा था--" रहने को तो छह महीना भी कम पड़ेंगे . पर मेरा कुछ ख्याल है कि नही ?"
मंजू की माँ दामाद की बात पर पुलकित हुई । बेटी की सजल आँखें देख प्यार भरी झिडकी दी -- 
"बावरी हुई है क्या ? लल्ला जी का जी नही लगता होगा तेरे बिना । फिर रहना तो तुझे उसी घर में है । क्या चार दिन और क्या चौदह ..। 'घोडी घुडसाल में ही अच्छी लगती है' । समझी ! और यह तो सोच कि  सासरे में तेरी कदर है ,तभी तो ..".
"हाँ खूब कदर है "..मंजू ने कुढते हुए सोचा .
पहले वह भी इसे 'कदर' ही समझती थी भले ही डाँट-डपट और झिडकियों के रूप में । तो क्या हुआ अम्मा के लिये मेरे अलावा और है ही कौन ? माँ कहती है कि डाँटते भी उसी को हैं जिसे सबसे ज्यादा चाहते हैं । लेकिन ओम की बहू के आते ही मंजू को वह कद्र बेकद्री लगने लगी । क्यों ? जिेसे सबसे ज्यादा चाहते हैं क्या सारे छोटे और नीचे काम भी उसी से करवाए जाते हैं ? बर्तन माँजना हो ,बाथरूम साफ करना हो ,रोटियाँ सेकनी हों या कपडे धोने हों ,इन कामों के लिये तो मंजू है और बाजार में खरीददारी करनी हो , मेहमानों से मिलना हो, कहीं रिश्तेदारी में जाना हो तो पूजा .?
मंजू को काम से ऐतराज नही पर भेदभाव कलेजे को छेद कर रख देता है । आखिर पूजा में ऐसा है क्या ?"    
"पूजा भाभी में 'मैनर' है । अक्कल है । लोगों से मिलने ,बात करने का तमीज-तहजीब है । ज्यादा पढी लिखी है ...।"  रमा दीदी को पडोसन से कहते सुना था मंजू ने । 
रमा छोटी ननद है पर वह भाभी को न केवल समझाने का अधिकार रखती है बल्कि अपने नाम से पहले दीदी भी लगवाती है । घर में कितने ही छोटे हों ननद-देवरों का नाम खाली नही बल्कि दीदी और भैया लगाकर लिया जाता है लेकिन यह नियम पूजा के लिये क्यों नही है ? पूजा सबका नाम लेती है .फिर भी पूजा भाभी में 'मैनर' है । लेकिन मंजू खूब समझती है कि यह सब पूजा के मायके के कारण है । पूजा के तीन तो जवान भाई हैं । घर के मजबूत हैं । धौलपुर में बढिया मकान है । तीन-चार दुकानें हैं । पूजा जब भी मायके से आती है साथ में ढेर सारा सामान--दाल, चावल, पापड--बडियाँ ,अचार मुरब्बा कपडे मिठाई लाती है । 
"कुछ भी कहो रिश्तेदार मिलें तो ओम की ससुराल वालों जैसे ।"-- अम्मा की झुर्रियाँ चमक उठतीं हैं । वे सबको सुना कर कहती है । खास तौर पर मंजू को ।
मंजू मन मसोस कर रह जाती है । वह कहाँ से लाए यह सब । उसकी पारिवारिक दशा क्या अम्माजी से छुपी है । बाबूजी हैं नही । मुसीबतें झेलने के लिये अकेली माँ है । बडा भाई एक विधर्मिणी से विवाह करके कहीं दूर जा बसा है । छोटा भाई बिजली का काम करके थोडा बहुत कमा लेता है कुछ माँ कागज की थैलियाँ बना कर कमा लेती है बाकी बाबूजी की पेंशन से गुजारा होजाता है । 
जब रिश्ता हुआ था तब हालात ऐसे थे कि ससुर जी ने खुद बाबूजी से मंजू का हाथ माँगा था । वेदप्रकाश न तो ज्यादा पढे थे ना ही कोई काम-धन्धा करते थे । घरवालों ने सोचा कि शादी करदें बहू आने पर कुछ तो कमाएगा । सो तब सबका ध्यान केवल शादी पर था । देनलेन तो हाशिये पर चला गया था । पर किसन की शादी में जो सामान व नगद रुपया मिला घरवालों का नजरिया बदल गया । मंजू को भूलकर सब पूजा के गुण गाने लगे । जब भी कोई पूजा के मायके से आता है ,बाजार से गरम कचौरियाँ और जलेबियाँ मँगाई जातीं हैं । सौंफ बादाम की ठण्डाई घोंटी जाती है । शुद्ध घी में पूडियाँ तली जातीं हैं । 
बहू के मायके वालों का सम्मान करोगे तभी वह तुम्हारा सम्मान करेगी ।--एक दूर के चाचाजी अक्सर कहते रहते हैं । सभी लोग इसका बराबर पालन करते हैं । लेकिन मंजू के मामले में ऐसा मानने की विवशता किसी के लिये नही है । मंजू का भाई वैसे तो कभी-कभार ही आता है लेकिन उसका वैसा स्वागत कहाँ होता है जैसा पूजा के भाइयों का होता है । 
"गरीब की लुगाई सारे गाँव की भौजाई ।" 
काम के लिये भी हर कोई मंजू पर ही तान तोडता है । 
'पती 'कमाने वाला होता या मायका 'जबर' होता तो उसकी भी पूजा जैसी ही 'पूछ 'होती..। मंजू की भी इच्छा होती है कि पूजा जैसी इज्जत उसे भी मिले ,लेकिन कैसे ? माँ अकेली और असहाय है । कहाँ से क्या करेगी सब...? और उसे अहसास भी कहाँ कि घर में बेटी की पूछ केवल काम के कारण है मजूरों की तरह जाकर जुट जाना है उसी तरह ।  
मंजू की आँखें बरबस छलकी जा रहीं थीं ।
"ना बेटी ,इतनी दुखी मत हो ।"--माँ का दिल भी भर आया । अपने आँसू पौंछ कर बोली--"समधिन जी ने पन्द्रह दिन को भेज दिया यही क्या कम है । उन्हें भी तो बुरा लगता होगा तेरे बिना । तभी तो इतनी जल्दी भेज दिया दामाद को । छोटे का ब्याह होजाएगा तब मैं भी अपनी बहू को अपने से दूर नही रहने दूँगी ।"  यह कहकर अचानक वह उठी और ऊपर से एक बैग लेकर आई ।
"यह क्या है माँ ?"
"इसमें  दो जोडी पेंट शर्ट हैं । दामाद जी और ओम लल्ला के लिये । दो साडियाँ हैं । एक पूजा के लिये । उसके मायके से भी तो तेरे लिये कुछ न कुछ आता रहता है । और एक साडी और पाजेब बिछुआ समधिन जी के लिये ।  होली के बाद गनगौर-पूजन होगा न । थोडी मिठाई और नमकीन और थोडे 'गुना 'भी है...।"
"माँ यह सब ??"---मंजू ने हैरानी से माँ को देखा ।
"अरे कुछ नही ,इस बार तेरे बाबूजी की पेंसन में कुछ रुपए बढ कर मिले सो कुछ सामान ले आई हूँ । समधिन जी को अच्छा लगेगा वैसे भी मैं उनको कहाँ कुछ भेज पाती हूँ । मजबूरियाँ ही ऐसी आ फसीं हैं ।" 
मंजू का दिल भर आया । आजकल तो उल्टे लडकियाँ ही माँ-बाप के लिये कितना कुछ कर रही हैं । और एक वह है जो असहाय अकेली माँ से खर्च करवा रही है । मन हुआ कि मना करदे । कहदे कि अपना खून सुखाकर किसी के लिये कुछ करने की जरूरत नही है माँ । लेकिन उसे सास की सन्तुष्टि इतनी अनिवार्य और महत्त्वपूर्ण लगी कि माँ की मजबूरियाँ छोटी पड गईँ । सारा मलाल हल्का होगया । सोचा चलो इसबार अम्माजी को यह नही लगेगा कि मंजू ऐसे ही चली आती है मायके से । 
"अरे ! आगई !"---मंजू ने अम्माजी के पाँव छुए पिण्डलियाँ दबा-दबाकर । अम्माजी की आँखों में बादलों के बीच की क्षणिक धूप सी चमकी । मंजू ने कुछ पुलक और कुछ गर्व के साथ बैग अम्माजी के आगे रख दिया ।
"इसमें क्या है ?"
"माँ ने आपके लिये 'गनगौर' भेजी है ।"
"अरे ! इस बार समधिनजी को हमारी याद कैसे आगई ?" अम्मा ने कटाक्ष के साथ मुस्कराकर कहा  
"अम्माजी , माँ तो आपको हमेशा याद करती है । लेकिन..".
"मैं समझती हूँ मंजू ।"--अम्मा बीच में ही बोल पडी---"बेकार ही माँ को परेशान किया । क्या जरूरत थी खर्च करने की ? तुझे मना कर देना चाहिये था ।"
"मैंने मना किया था अम्माजी लेकिन माँ नही मानी । बडे मन से भेजा है उन्होंने ।"
"सब मन से ही भेजते हैं बेटा ।"--अम्मा ने बडप्पन के साथ कहा । 
"गनगौर तो पूजा के मायके से दो दिन पहले ही आगई थी । बेचारी माँ को तूने बेकार ही परेशान किया ...।"
मंजू का सारा उत्साह राख होगया । अम्माजी ने माँ के स्नेहमय बडप्पन को उसी तरह नकार दिया ,जिस तरह कम्प्यूटर गलत पासवर्ड को नकार देता है । कलेजा काटकर किये गए खर्च की ऐसी अवमानना देख उसका मन ग्लानि से भर गया । यहाँ बल्व के उजाले में उसने व्यर्थ ही दीपक जलाया है । वह दीपक माँ के अँधेरे कमरे को उजाले से भर सकता था न  !!