बुधवार, 17 जून 2015

मौत के बाद

मौत के बाद 
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...और...आखिर मैंने अपने आप को खत्म कर ही लिया ।
इसे तो हर कोई जानता है कि खुद को खत्म कर लेना कोई खेल नही है ।जरूर कोई न कोई ऐसी समस्या होती है जिसका उपाय केवल अपने आपको मिटा देना ही होता है । मैंने भी मिटा दिया । और क्यों न मिटाती ? मेरा जीवन भी कोई जीवन था ! स्नेह-विहीन...निराश..संत्रस्त..
जिस जीवन में कोई आशा न हो ,उल्लास न होचाहत न हो सम्बल न हो ,उस उपेक्षा भरे जीवन को जबरन अनचाहे ही खींचते जाने का अर्थ ही क्या था !
कितनी बार सोचा ..सोच-सोच कर खुद को सम्हाला भी कि जीवन में अब कुछ बदलाव आएगा ...अब आएगा, पर नही ..कुछ नही बदला । सब कुछ वैसा ही रहा । दो बच्चों की माँ बनने के बाद भी सब कुछ वैसा ही ..अब मैं विवाह से अब तक की सारी बातों को आराम से याद करके यकीन कर सकती हूँ कि मैंने जो भी किया है सही किया है . 
मैं आपको बताती हूँ कि मेरा विवाह ही किस तरह बेमतलब था ।
पिताजी ने तो मुझे ससुराल भेज कर जैसे अपने सिर से बोझ उतार दिया था । इसे बोझ उतारना नही कहेंगे तो क्या कहेंगे कि उन्होंने वर का केवल रंग-रूप और नौकरी देखी और आनन--फानन में मुझे पराई कर दिया । यह नही कि जिस व्यक्ति को आप अपनी बेटी सौंपने जारहे हैं उससे पहले समझ तो लें । उसके विचार व दृष्टिकोण तो जानलें । बडे लोग बच्चों की समझ पर भरोसा नही करते । पर बड़ों की समझ भी कहाँ हर बार सफल होती है ? 
इस बात का मुझे तभी अहसास होगया जब मैं पहली बार ससुराल आई थी । सासजी ने देखते ही कह दिया कि बहू मेरे बेटे के पाँव का धोवन भी नही है । शादी में मिले बर्तनों और कपड़ों को लेकर भी मुझे अक्सर ताने सुनने पडते थे । सिर्फ यही बात होती तो भी सब चलता रहता लेकिन मुझे नीचा दिखाने के लिये सासजी जब तब शशिबाला नाम की युवती की प्रशंसा करती रहतीं थीं जो रवि के दफ्तर में काम करती थी । कहतीं थीं कि ,शशि तो शशि ही है जिस घर में जाएगी उजाला कर देगी .हमारे तो....
उनकी बात में जो व्यंजना छुपी रहती थी बखूबी मेरी समझ में आती थी .कभी-कभी वह रवि के साथ घर भी आजाया करती थी । उस सुदर्शना के आगे  मेरी स्थिति दयनीय सी होजाती थी । मैं सोचती थी कि हे भगवान मुझे सुन्दरता क्यों नही दी ? एक गुण को वापस ले लेते । गुणों को कोई पूछता भी नही है ।
घर में मेरी हैसियत काम करने वाली नौकरानी से ज्यादा नही थी । सुबह पाँच बजे से रात के दस बजे तक काम..सिर्फ काम । खाना बनाना, कपडे धोना प्रैस करना घर की सफाई करना ..रवि को तो जूते भी पलंग पर चाहिये थे ऊपर से बीसों निर्देश---
“.मेरा अमुक काम शाम तक पूरा होना चाहिये । बच्चे को दवा दिला लाना । अम्मा की दवा समय पर देती रहना... मुझे शिकायत सुनने नही मिले समझी...!”
समझ गई । लो पडा है मेरा बेजान शरीर । करालो उससे काम जितना चाहो..। सच याद करने को कितनी बातें हैं । हाँ अब मैं अपनी पीडाओं को आजादी के साथ याद कर सकती हूँ । और निस्संकोच आपको भी बता सकती हूँ । मरे हुए व्यक्ति का कोई क्या कर लेगा ?
कितने दंश थे जो मुझे जब-तब लगते रहते थे ।
पति के लिये मैं सिर्फ एक शरीर थी । भाव-हीन शरीर । अपने उद्देश्य की पूर्ति के बाद वे बड़ी हिकारत के साथ मुझे दूर धकेल देते थे मरे हुए कीड़े की तरह । सोचिये कि मेरी यह पीडा तब कितनी बढ जाती होगी जब वे मुझे अपनी कमजोरी का कारण बता कर मेरे अन्दर अपराध-बोध भी जगा देते थे । हमारे रिश्ते में पति-पत्नी जैसा कुछ था ही नही । केवल देह-सम्बन्धों को तो पति-पत्नी का दर्जा नही दिया जासकता न । उसमें परस्पर रिश्ते का सम्मान ,विश्वास व प्रेम भी तो होना चाहिये ।
"प्रेम ?"-.रवि उपहास के साथ कहते थे--"प्रेम नही करता तो दो बच्चे कहाँ से आजाते ?"
"लो ! सुनो इनकी बात । हद होगई । इनके लिये देह सम्बन्ध और उसके परिणाम-स्वरूप बच्चे पैदा होना ही प्रेम है । बच्चा तो बलात्कार से भी पैदा होता है तब क्या उसे भी प्रेम का प्रतीक मानोगे श्रीमान ?
मन होता कि यह सब कहलूँ लेकिन इतना बोलने का अधिकार ही कहाँ था मुझे ? सात साल मैंने मशीन बन कर ही गुजारे थे। मशीन जिससे सिर्फ चुपचाप चलते रहने की अपेक्षा रहती है । बिना किसी माँग या शिकायत के । पहले मुझे ,जब मैं गर्भवती हुई थी ,लगा था कि बच्चा हमारे बीच एक मजबूत डोर बाँध देगा पर उन्हें बेटे के जन्म की आशा थी ।
लेकिन जन्म हुआ बेटी का ।
रीतू के होने से वे मेरे प्रति और भी उपेक्षा दिखाने लगे । हालाँकि मेरा विश्वास है कि बेटा होता तब भी उन्हें बेटा होने की ही खुशी होती मेरे लिये संवेदना व स्नेह नही जागता । क्यों, तीन साल बाद बुन्दू के पैदा होने पर वो कौनसे बदल गए ! बल्कि मुझ पर कितने ही नियन्त्रण और बढ गए । यह मत खाना ,वह मत पीना । यहाँ मत जाना वहाँ मत जाना ..। अगर बुन्दू रोता तो सासू माँ चिल्ला उठतीं कि कुछ खा-पीगई होगी सो बच्चे को दर्द हो रहा है शायद ।
बच्चों के होने का लाभ यही था कि उनके रूप में मुझे सिर्फ उनसे जुडी होने के दो सबूत भर मिल गए थे । जा़यज़ सबूत । बस ।
लेकिन क्या मेरा अपना कोई अस्तित्त्व नही था ? क्या उनके बच्चों की माँ बन जाना ही काफी था ? यह विचार मेरे मन में शशिबाला के कारण अधिक प्रबल होने लगा था । रवि और सासजी की आँखों में वह स्नेह व उल्लास मेरे लिये क्यों नही था जो शशिबाला या दूसरी बहू-बेटियों को देख कर होता था ? शशिबाला जिस तरह खुल कर सामने आने लगी थी ,जरूर उसका पति से पहले से ही गहरा सम्बन्ध होगा ।
केवल दो बच्चे ही थे मेरी खुशियों का आधार थे और जीवन का भी । लेकिन सच तो यह था कि बच्चों के बहाने मुझे प्रताडित करने का उन्हें और मौका मिल गया । मुझे अक्सर सुनना पडता कि--क्यों बच्ची को डाँटती है ? बहुत हाथ चलने लगे हैं । लडके को क्या खिला दिया जो दस्त होगए ? सुअरिया भी अपने बच्चों का ध्यान रखती है पर इसे तो बच्चे पालने का भी सऊर नही है ।
यही नही एक दो बार मेरे ऊपर रवि ने हाथ भी उठा दिया था। 
यह सब बर्दाश्त से बाहर होने लगा था । 
मैं अकेली पड गई थी मुझे लगता था कि पति से अलग होकर पत्नी की कोई गति नही है । पर मैं जीती भी तो किसके लिये जीती । बेजान धड की तरह जीकर करती भी क्या । नए लेखक लेखिकाओं की कितनी ही कहानियों में स्त्री के विद्रोह को बड़ा ऊँचा स्वर दिया गया है .बन्धनों को तोड़ फेंकने की अनुशंसा की गई है. ठीक है मैं परिवार व समाज के बन्धन नही तोड़ सकती पर अपने आपको मिटा तो सकती थी न .सो मिटा दिया। बच्चों को वे मुझसे बेहतर पाल लेंगे मैं जानती ही थी । न पालें मेरी बला से . मौत के बाद कौन किसका बेटा और कौन किसकी माँ . लेकिन मेरी मौत उन्हें सबक भी देगी यकीनन ,कठोर सबक ।
लो अब मैं मुक्त हूँ । मेरा निर्जीव शरीर पडा है उसका उन्हें जो करना है करें । रवि को दर-दर भटकना होगा अब । मेरी मौत का केस तो बनेगा ही । और अब तो कोई उससे शादी भी न करेगा । समाज उसका बहिष्कार कर ही देगा । जियो रवि जी अब बिना पत्नी के ही ।
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वो देखलो ,मेरा शरीर पडा है । अच्छा सास जी कैसी रो रहीं हैं । अजी झूठे आँसू हैं । रवि भी तो कैसे मुँह लटकाए खडे हैं । उसकी सूरत देख कर कोई नही कह रहा कि वही बीना की मौत का जिम्मेदार है । लेकिन कमाल है ,सब मुझे ही दोष दे रहे हैं ।
"रवि की माँ सच्ची बहुत बुरा हुआ । देखो न मरने वाली तो गई पीछे कितने दुख छोड गई है । धीरज रखो । मरने वाले के साथ तो नहीं न जाया जाता ।"
"और क्या कब तक मातम मनाओगी बहन ? उसने तो यह भी नही सोचा कि बच्चों का माँ के बिना क्या हाल होगा ? औरतें समझतीं हैं कि ...बुरा मत मानना रवि का ब्याह तो हुआ न हुआ बराबर होगया । अभी उसकी उमर है ही कितनी !
"तो क्या हुआ बामनियों ने बेटियाँ जननी बन्द करदी हैं क्या ? तू कह तो सही लाइन लगा दूँ लडकियों की । बच्चों को कुछ दिन नानी के पास भेज देना और नही भी भेजेगी तो क्या , रवि को तो दो बच्चों के साथ भी कोई भी अपनी लडकी दे देगा ।"
'अच्छा ये पंडितानी अम्मा कैसी बातें बना रहीं हैं । मुझसे कैसी सहानुभूति दिखातीं थी ? मेरे मुँह फेरते ही बोली बदल गई । ..हाय मेरे बच्चे कैसे मम्मी--मम्मी कह कर रो रहे हैं । हे भगवान ..। मैंने क्या किया ? ..लेकिन नही मैं कमजोर नही पडूँगी लेकिन रवि को तो सजा मिलेगी ही ..मिलनी भी चाहिये । हर व्यक्ति की समझ में आना चाहिये कि पत्नी को इस तरह प्रताडित करना कोई हँसी-खेल नही है ।
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"अरे इतनी जल्दी सब सामान्य भी होगया ? रवि की शादी भी हो गई है ? गजब ! किसी ने विरोध नही किया । क्यों ? क्या इन्सान के जाने का कोई भी मलाल नही ? रवि बहुत खुश है । कमरे में से हँसी की आवाज आ रही है.  
रवि के साथ किसी स्त्री की खनकती हुई हँसी गूँज रही है । जरूर शशि की होगी ।
रवि बाहर आगया है । बडे प्यार से कह रहा है ---"शशि, मेरा टिफिन तैयार है ?"
सच कहा गया है स्त्री ही स्त्री की सबसे बड़ी दुश्मन है । जिस व्यक्ति के दुर्व्यवहार से एक अच्छी-भली पत्नी ने मौत को गले लगाया है उसी को अपनाकर क्या शशि ने अन्याय नही किया ? ऐसे आदमी को तो उपेक्षा मिलनी थी पर शशिरानी कैसे हँस हँसकर बात कर रही है ? और रवि को क्या , उन्हें स्त्री की भावनाओं की कद्र कहाँ । वे तो मेरी मौत का जैसे इन्तजार ही कर रहे थे ।
मुझे उनकी राह को यूँ ही आसान नही करना था । मेरे होते हुए क्या सरेआम ऐसा कर सकते थे ? पत्नी के रहते पुरुष दूसरी स्त्री के साथ रह भले ही ले पर उसे सम्मान हरगिज नही मिल सकता पर अब तो लोगों की सहानुभूति भी है रवि के साथ । दूसरी पत्नी के साथ वह काफी खुश हैं । उसका नाम लेते हुए लहजे में कितनी कोमलता है । रवि ने मुझे तो ऐसे कभी नही पुकारा ।
.... हाय रीति झाडू लगा रही है ! मेरी छोटी सी बच्ची । झाडू को उठा तक नही पारही । और कपडे भी कैसे मैले-कुचैले हो रहे हैं । मेरा बेटा बुन्दू बाहर खडा भूखा रो रहा है ।
शशि उसे झिडक रही है ---“अभी तो ब्रेड दी थी । इतनी जल्दी भूख आ भी गई ? कितना खाते हो बेटा ।
"क्या बात है ?"--रवि पूछ रहा है ।
"बुन्दू बहुत परेशान करता है । दिन में जितनी बार खाता है उतनी ही बार लैट्रिन जाता है । मैं कहती हूँ लिमिट में खाओ वह भी टाइम से .."
"बुन्दू सुन मम्मी क्या कह रही हैं ।"
"ये मेरी मम्मी नही है "--बुन्दू कह रहा है ।
तडाक्...बुन्दू के गाल पर रवि ने थप्पड मार दिया । बुन्दू रो पडा है । ओह क्रूर पिता । पर मैं भी तो अपने बच्चों को छोड कर चली गई हूँ । मैं भी तो क्रूर माँ हूँ । मर कर मैं किसको सजा देना चाहती थी पर सजा भुगत कौन रहा है ।
रीति चीख--चीख कर रो रही है ---"मम्मी तुम कहाँ चली गईं हमें छोड कर ! क्यों चली गईं मम्मी..!" मैं तडफ उठी हूँ । पछता रही हूँ कि क्यों मुझे अपने बच्चों का खयाल नही आया । बच्चों के लिये तो जीना चाहिये था । मैं अपने आपको रोक नही पाती । बेतरह सुबकते हुए बच्चों को दिलासा दे रही हूँ---
"बेटा मैं कहीं नही गई । मैं हमेशा तुम्हारे पास हूँ । तुम्हें छोड कर कहाँ जाऊँगी मेरे बच्चो !".....
मम्मी sssमम्मी ss...। क्या होगया है तुम्हें ? तुम रो क्यों रही हो ?" ---कोई मुझे झिंझोड क्यों रहा है ?
"मम्मी उठो । देखो कितना उजाला हो गया है बाहर । मम्मी sss !"
"अरे !" ...मैं आँखें मलते हुए उठी और पुलकित होकर रीति और बुन्दू को देखा । उन्हें छुआ । 
"अरे मैं तो जिन्दा हूँ । तो यह सपना था !"
ओह मम्मी सपना देख रही थी ..
पर सपना क्या था मम्मी 
कुछ नही बेटा , बस एक भटकाव था ..मैंने दोनों बच्चों को लिपटाते हुए कहा ... 
" आजकल कुछ ज्यादा ही दिमाग चल रह है तुम्हारी माँ का .
यह बुन्दू के पिता रवि थे। आवाज में भले ही वैसा ही उपहास था लेकिन अब मुझे उसका दुख नहीं है .क्योंकि मुझे अपने होने का अर्थ समझ में आगया है . यही सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है . और यह भी कि हर व्यक्ति अपनी तरह सोचता है जरूरी नही कि वह आपसे खुश रहे ही .फिर खुशी व सन्तुष्टि ही जीवन का आधार कैसे हो सकती है .राह में व्यवधान हों भी पर इसका हल आत्महत्या तो नही है .मौत को अपनाने का मतलब ,आप अपनी जगह किसी और के लिये छोड़ रहे हैं .
मैं चकित थी मृत्यु के साक्षात्कार का अहसास भर ही किस तरह जीवन की हर कडवाहट को , हर अभाव को मामूली और हर दुख को निर्मूल बना देता है और जीवन कितना अनमोल। जीवन के छूटने की कल्पना व अहसास कितना भयावह होता है... फिर जीवन से क्यों निराश हुआ जाय ।
क्यों उनके लिये रास्ता छोडा जाय ,जो तुम्हें हटा कर अपना रास्ता बनाने में कोई संकोच नही करेंगे । जो आपके जाने की उम्मीद व अरमान पाले बैठे हैं । 
बेशक यह सपना ही था । पर अवश्यम्भावी । एकदम यथार्थ लगने वाला । पूरा यथार्थ न भी हो पर यह स्वप्न कई सम्भावनाओं का अनुमान देगया । मुझे जैसे एक नींद से जगा गया । साथ ही मेरी समझ में आगया कि अपने आपको मार लेना किसी समस्या का समाधान नही है ।



मंगलवार, 5 मई 2015

मजबूरी

सन १९८० में लिखी गई यह कहानी एक रजिस्टर में दबी अचानक ही मिल गई .रचना का वर्ष भी उसी में लिखा था .अन्यथा मेरी स्मृति में थी ही नहीं .   लकड़ी बेचकर गुजारा करने वाले सहारियों के संघर्ष को कुछ अंश में मैंने भी देखा है . यह छोटी सी कहानी उसकी एक छोटी सी झलक है   .
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किसी आहट से हडबडाकर हंसुली ने आँखें खोली .देखा कि धूप पियराने लगी है .आसमान की ढलान से उतरते सूरज का चेहरा निस्तेज सा हो रहा था .पंछियों को अपने घोंसलों में लौटने सुधि आरही थी . खेतों में किसान भी हल-फावड़े समेटने लगे थे . खूंटे पर बंधे बछड़े-बछिया माँ की अगवानी में रंभाने लगे थे .सिर पर घास का बोझ लादे लौटती किसानिनें हँसुली की ओर देखती कहे जा रहीं थीं – बेचारी अभी तक यहीं बैठी है .किसी ने नहीं खरीदीं इसकी ‘मौहरी’( लकड़ियों का गट्ठर ) .
अवसाद की मोटी सी धुंध हँसुली के मन पर जम गई . जाने किसका मुंह देखकर चली थी आज .सबेरे की साँझा होने को आई ,अभीतक तक किसी ने उसकी लकड़ियों के सही दाम नहीं लगाए . गाँव के उस छोर पर बनी हीरा की झोपडी से लेकर इस छोर पर बने पण्डित सर्जूलाल के तिमंजिला मकान तक उसने चार चक्कर लगाए पर सबके मुंह पर एक ही बात चिपकी रही – अगर ‘उसने’ ने नौ लगा दिए हैं तो हम सवा नौ देंगे .जादा से जादा साढे नौ ..डाले तो डाल दे ..
चल तू अकेली रह गई है सो दस रुपैया तक दे सकते हैं .नहीं ? तो फिर जा ..कही और ..इससे ज्यादा तो कोई देगा भी नहीं .
देगा भी नहीं .. हँसुली मन ही मन भुनभुनाई – अभी पास के गाँव में उसकी साथिनों ने ऐसी ही मोहरी ,फिर कहो तो इससे भी छोटी पंद्रह ..भली अट्ठारह में बेचीं हैं .
बेचीं होंगी .-कोई लापरवाही से बोला – आज तुम्हारी गरज है ..नहीं तो सीधे मुंह बात भी नहीं करती हो .”
तो...? –हंसुली को ताव आगया .
का मुफ्त में दे जाएं ? भैया यह तो सोचो कि हम कैसे-कैसे यहाँ तक आते हैं . लकडियाँ बीनने में हाथ-पाँव लोहूलुहान हो जाते हैं ..
वो तू जाने . सरजू पण्डित आकर बीच में ही बोल पड़े – दस रुपए में देनी हो तो अभी मेरे घर डालडे  .
हँसुली ने देखा कि पण्डित जी का चेहरा चमक रहा है . रोली का तिलक लगा है संपन्न दीखते है . दाम तो सही दे ही देंगे .
म्हाराज दस तो बहुत कम हैं . दिन भर की मजूरी में दिन भर का पेट तो भरे .आप अठारह नहीं तो पन्दरह तो दे दें ... हँसुली ने दीनता से कहा पर पण्डित जी बिना सुने ही भीतर चले गए .वह मोहरी दीवार से टिकाए खड़ी रही .   
तभी उधर से चमन बौहरे निकले . पंसारी की दूकान चलाने के साथ ब्याज भी कमाते थे .सम्पन्न होने के साथ कंजूस भी थे . आँखों को धूप से बचाने उन्होंने हथेली को माथे पर छतरी की तरह तान रखा था
यों उन्हें लकड़ियों की जरुरत न थी .उनके कर्जदार साग-सब्जी , घास-भूसा ,कंडे-लकड़ी उनके घर ऐसे ही डाल देते थे .ताकि बौहरे जी प्रसन्न रहें और वसूली में ज्यादा कठोरता न दिखाएं साथ ही आगे जरुरत पड़ने पर रुपया देने में आनाकानी न करें .
लेकिन उन्हें पता चला कि एक ‘सहरनी ’( सहारिया आदिवासी) को अभी तक कोई ग्राहक नहीं मिला है और सौदा सस्ते में पट जाएगा तो उन्होंने आखों को और भी छोटी करते हुए लकड़ियों का वजन अनुमाना .फिर हँसुली को देखा –सांवले चेहरे पर उभरी हड्डियों के बीच गड्ढे में धंसी सी आँखों में उम्मीद की हल्की सी किरण , पीठ से मिलजाने को आतुर सा ,पल्लू से दिखता अनेक सिलवटों वाला पेट ,खुरदरे हाथ-पाँव ,रूखे-उलझे बालों से बहती पसीने की लकीरें ..सहानुभूति दिखाने का विचार हवा होगया . उपेक्षा से बोले --
माल तो नौ का भी नहीं है . पर तेरी हालत देख मैं दस रुपए या दो सेर बाजरा दे सकता हूँ . बाद में आठ भी नहीं मिलेंगे .सोचले ..
सारी मुफत में ही क्यों नहीं छुड़ा लेते बौहरे जी ?"--हँसुली आहत होकर बोली--"अपने लिए कैसे हुशियार हो .कोई नोंन की डरी तो उठाले ...
नहीं तो न सही . तुझे जहां परता पड़े वहां दे देना ..
चमन बौहरे ने बड़ी निस्संगता से कहा और बिना मुड़े सीधे चले गए .जाहिर है कि उन्हें सौदा हाथ से जाने की चिंता नहीं थी .
तब से दिन ढलने को आया . हँसुली की मोहरी अभी तक ग्राहक के इन्तजार में थी .
कैसे लोग हैं .---हँसुली निराश होकर सोच रही थी .
घर बैठे चीज माटी मोल चहिये इन्हें .पर कैसे दे दें ? एक-दो मौहरी के लिए भूखे प्यासे जंगल में रातदिन भटकना पड़ता है .कांटे लोहूलुहान कर देते हैं .उस पर नाकेदार सूखी टूटी लकडियाँ बीनने में दस झमेले करता है .डरा-धमकाकर मुंह से कौर डरा लेता है . लोग जेब में रुपया ठूँसकर हरे-भरे पेड़ काट ले जाते है .और चोरों पर तो कोई जोर ही नहीं होता .बस हम गरीबों का ही कोई आसरा नहीं है .अठारह बीस की मोहरी दस में ! इतना घाटा कैसे सहे हँसुली ? दो दिन पेट भरने लायक बाजरा आजाएगा दस रुपैया में .हल्कू ‘ताव’ (बुखार) से तप रहा होगा और उसका कहीं धुत्त पड़ा होगा .ठीक दाम मिलने की आस में पूरा दिन ऐसे ही चला गया .आज भाग ही खोटा है और क्या...
अभी तक नहीं बिची तेरी मोहरी ?
चमन बोहरे लोटा लेकर दिशा-मैदान जा रहे थे .हँसुली को देख रुक गए .
मैंने तो पहले ही कहा था कि मेरे घर डालडे ..अब भी सोचले ..पर हाँ अब दूंगा नौ ही रुपए ..कोई जबरदस्ती नहीं है . तेरी इच्छा हो तो ...

हँसुली ने बौहरे को देखा .अपनी मोहरी को देखा .ढलते सूरज को देखा ,अपनी बस्ती की दो कोस की दूरी देखी और हारकर मौहरी उठाकर मंगलिया के घर की और चलदी . 

शुक्रवार, 20 मार्च 2015

उमस भरी सुबह और एक फोनकॉल


त्रिनन्...त्रिनन्....

गुलमोहर काली के एक एम आई जी फ्लैट में तीसरी बार फोन की घंटी बजी तो कुछ पलों के लिए वहां जमी एकरसता भंग हो गई , जिस तरह के पत्थर की चट्टान पर कुछ समय के लिए पानी पर जमी काई फट जाती है , घर में मौजूद लोगों का ध्यान उस काले उपकरणों पर केंद्रित हो गया।

फोन का सामान और घुटनों को तोड़ना है। लेकिन कभी-कभी लोग आपको अपने में ही इतना ट्रस्ट और उलझे हुए होते हैं कि फोन पर आना किसी ढीठ पड़ौसी की अलौकिक घुसपैठिया सा भी महसूस होता है। 51 नंबर के उस एम आई जी फ्लैट में सुबह   कुछ ऐसा ही हुआ।

इस घर में कुल चार जीव हैं। पेंटालिस पार के गृहस्वामी सुधाकर राय , पत्नी अमला और दो बेटे। बड़ा बच्चा और छोटा विकास यानि बचपन। लेकिन फिर भी वे अभी भी गाड़ी की एक ही बोगी में सवार मुसाफिर की तरह हैं , अक्सर अपने आप में डलिया में पड़े पोथियों की तरह रहते हैं।

सुधाकर बाबू एक स्थानीय समाचार पत्र ' सांध्य-संदेश ' के सम्पादक हैं। व्यक्तित्व में एक फक्कपन है। बाल खिचड़ी हैं। रंग गहरा, शक्ल-सूरत बाहरी तौर पर किसी भी कोण से सुंदर नहीं हैं , लेकिन बड़ी आंखों की धारियां बनी नजर में एक खास आकर्षण है। उनकी आवाज़ और संगीत का तरीका लोगों को खास प्रभावित करता है उन महिला लेखकों की संख्या अच्छी है। सम्पादन के साथ-साथ अच्छा भी शेयर किया जाता है, इसीलिये अखबार तो फिर भी चल जाता है सम्पादक जी का नाम बहुत चलता है। यह उनके आने वाले पत्र और फोन पर बताया जा सकता है। हालाँकि घर में उनके वैज्ञानिक 'घर की 'चिकित्सक' जितनी भी नहीं है। बच्चों के लिए , विशेष रूप से छोटे बेटों के लिए वे सिर्फ स्कूल की फ़ेस फ़ाइनल या किसी पेपर पर हस्ताक्षर करने वाले व्यक्ति भर हैं और पत्नी के लिए अकीकन साकिआम को पूरा करने वाला उपकरण। इसमें सुधाकर बाबू बहुत सारे तत्व हैं, इसलिए सुधाकरबाबू का मन होता है कि ' कमरे ' की एकरसता से मुक्ति के लिए कोई बड़ी सी 'खिड़की' हो ताजी बयार मिले और वे गहरी सांस लेकर खुद को तरोताजा महसूस कर सकें। घर की मजबूत दीवारों को खिड़की बनाना इतना आसान नहीं है।

मंझोले कद और गेहुँआ रंग की सामान्य चेहरे वाली अमलादेवी एक बेबाक और कुछ रोयी सी महिला है। पढ़ाई का उपयोग तर्क और बहस के लिए बहुत कुछ होता है। संवेदना के स्तर पर आधारित है. दुनियादारी के मामलों में उनकी छठी इंद्रिय पति सुधाकर से बहुत आगे की किताब है। आपके ऊपर आये वैज्ञानिक और जिम्मेदारी को वह बड़े कौशल से एक तरफा सरका इंटरनेट है। इसी कौशल के कारण, शहर से दूर गाँव में बस्ती की कोठरी और भिक्षु ' सुधाकर भैया' के घर आए दिन ' अम्मा का घर ' समझकर और धमकाते थे , धीरे-धीरे-धीरे-धीरे आना भूल गए हैं। उनके पति कई तरह से नागावार हैं, जिनमें आज तक वह बदला नहीं है, हालांकि कोशिश अभी भी जारी है। 

दोनों की शादी तो एक बार फिर से अकेले ही हो गई लेकिन असल में उनका एक प्रेमविवाह था। यह बात अलग है कि अब जैसे कि शादी हो जाने पर उनके बीच प्रेम की बातें तर्क और बहस ने ले ली हैं। हर शोधकर्ता की पत्नी की तरह अमला को भी सन्देह रहता है कि पति महाशय सिर्फ तन से उसके साथ हैं, मन से वे इधर उधर भटकते रहते हैं, इसलिए उसका ध्यान ' जो मिला है' जो नहीं मिला या छूट गया ', उसी पर रहता है इस तरह घर में जब लकड़ी का कूड़ा-कचरा निकलता है।

नवजात शिशु हुई उम्र का सांवला-सलोना लड़का है। उसकी एक उपलब्धि तो यही है कि वह इंटर का एग्जाम बिना किसी स्कूल के सेकेंड डिविजन से पास कर सकती है। उन्होंने बोर्ड में दो विषयों की स्थापना की थी। इस बात को लेकर सुधाकर बाबू कहते हैं कि, "भविष्य में क्या करने वाला है पता नहीं   । पढ़ने में मन ही नहीं लगता.. ?"

अमलादेवी को पति की ऐसी बातें अनाधिकृत चेष्टा दिखती हैं। उसने एक अचूक अस्त्र का प्रयोग किया है-

"तो खुद किसने तीर मारा ? बाबूजी ने एड़ी से चोटी तक जोर लगाया तब कहीं रो धोकर बी.ई. की डिग्री ले पाए ?"

“समुद्र तट पर बोलना ज़रूरी है ?”

“मैंने तो बिल्कुल सच कहा है।”

“सच की खोज का दूसरा तरीका भी हो सकता है।”

"मुझे तो यही तरीका आता है। साफा कहता है और खुशियाँ छुपाता है। लपेटकर कहता है मैं नहीं सीखता।"

" साफा देखने वालों में साफा सुनने वालों की भी लोकमान्यताएं शामिल हैं। "

वह तो सबसे ज्यादा उजागर है।

“अच्छा ठीक है. अपना काम करो...”

"काम ही कर रही थी। पार्टनर की तरह नहीं कि फालतू पेपर-पत्तर फैलाए सबेरे से बैठा रहता हो।"

“तुम अपना देखो क्या क्या करने को है ।”

"क्यों , सारी जिम्मेदारियां मेरी ही हैं ? घरवाली भी संभालूं और बच्चों को भी मैं ही पढ़ूं और तुम फोन पर बतियाते रहो अपने दोस्त--मित्रानियों से..।"

“तुम लोग आराम से आओ, बहस करो। तब तक मैं वापस आ गया हूँ।

माता-पिता की इस तरह की फालतू बहसों का लाभ अक्सर बाहर निकल जाता है। अब उसे जाने के लिए प्लांट की भी जरूरत महसूस नहीं होती। जब भी वह दोस्तों के साथ फिल्म देखने या क्रिकेट खेलने जाती है। पिता के कई बार ये फिल्में भी इस गेम-वेल को छोड़कर किसी कॉम्पटीशन की तैयारी कर लेती थीं , वह रोज सुबह-सवेरे लड़ाई करके घर से निकल जाते थे।

दस साल का विकास बहुत ही चुस्त और तुनकमिजाज लड़का है। आपकी उम्र से कहीं ज्यादा आगे निकल गए ये महाशय चौधरी परिवार में अकेले हैं जो कान्वेंट में अंग्रेजी माध्यम से पढ़ रहे हैं इसलिए अपने भाई से ही खुद को अपनी मां और पिता से भी ज्यादा समझ रहे हैं। और उनकी हर बात में मीनमेख अवशेष रहते हैं।

"पापा क्या बोला आपने 'डीफ' ? या फिर बहरा ?.. इसे डीफ नहीं 'डेफ' कहते हैं...हद है.. पापा शैतान नहीं 'शैट' बोलते हैं। यहां 'आर' साइलेंट है।"

इस बात से भी बार-बार नाराजगी होती है कि पापा अपने पुराने स्कूल में नहीं जाना चाहते। कही भी जायेंगे , आदिवासियों में पुराने जूते , कंधे में लम्बा झोला लटकाये जायेंगे। दो-दो हफ्ता शेविंग नहीं करते तो दाढी कटेरी के कांटों सी उग आती है .विक्की ने कई बार टोक चुकाया है कि लेखक-संपादकों की ये यूनिफॉर्म है क्या जो ?... पर पापा हमेशा अपनी राह पर रहते हैं. अन्य माताएँ हैं...नाश्ता बनाने की बजाय या तो टी.वी. पर मैच देखने बैठ जाते हैं या पापा से बेमतलब ही उलझी रहती हैं कि ' क्यों जी दाढी कुक टाइम एक तरफ मुँह क्यों फुला लेते हो ? भद्दा लगता है। या शार्क शाहरुख क्यों पसन्द नहीं है सारी दुनिया क्या पागल है जो उसे पसन्द करती है ?

उसे टीवी देखने के अलावा घर में और कुछ ' दिलचस्प ' नहीं दिखता इसलिए वह जब तब टीवी से क्लिप्स डॉक्यूमेंट्री देखता रहता है।

"बिक्की , बहुत होचुका अब टीवी बंद करो और ना लो।"

सुधाकरबाबू कुछ गहराई और कुछ समझने की कोशिश भरी निगाहों से इधर-उधर देख रहे हैं।

“विकास , सुना नहीं माँ ने क्या कहा ?”

“किसकी माँ ने ? तुम्हारी या मेरी ?” पिता के इस तरह के संवादों पर निकोल फिक्शन से हंसी-मजाक होता है।

“देखा , कितना कुछ हो रहा है ?”

"और क्या होगा!   जब बच्चों को कोई देखने वाला न हो।"

“क्यों , तुम हो ना बहुत बड़ी फिल्में वाली। मैं तो जब भी उन्हें कुछ समझाना चाहता हूं तो तुम हमेशा के लिए टॉक डॉट हो गए हो कि , ' रहना दो उसने थका लिया है '

"क्या मैं आज मेरे साथ रहना चाहता हूँ ? मेरा तो सिर वैसा ही भाना आ रहा है।"

"कमाल है। सिर्फ इल्ज़ाम देना है...चोरी और सीनाजोरी कहते हैं।" सुधाकरबु निःशब्द मन मसोस कर रह जाते हैं। आगे कुछ समीक्षा का प्रश्न ही नहीं है। पत्नी से एक कहो , बीस सुनो--कि...'मेरा तो सिर चकरा रहा है। ..किस तरह के लक्षणों का दर्द होता है नहीं , कि मैं ही पूछ रहा हूं कि कैसे काम चल रही है। मेरी तो जिंदगी चूल्हे-चौके में ही चली गई...।" वगारा..वगरा।

हाँ तो बात है सूर्योदय हुई थी फूलों की एक भारी गिजगिजी, चिपचिपी सी सुबह से। बादल कभी तो मनमाने तरीके से अपनी भरी गागर उंडेल जाते थे तो कभी धूप चिलचिला उठती थी। हवा का कोई नाम नहीं था. अब भी जब सूरज बाहर गुडहल कलियों से कानाफूसी डे लोन में गिर गया था पानी की तरह , गुलमोहर कलियों के उस एम.आई.जी. फ्लैट में अजीब सी खुन्नस था उसके लिए किसी खास कारण की बर्बादी नहीं होती हवा के साथ फ्लो एटेल सूट की तरह स्वभाव होता है। 

सुधाकर राय सुपरमार्केट में नहाए हुए थे अपने आस-पास कई पत्र-पत्रिकाएं बिखराए बैठे थे। यह दृश्य अमला के वैयक्तिकृत शत्रु के जन्म के लिए काफी है। कम से कम छुट्टी के दिन तो घर में रहो...संपादक का मतलब यह है कि घर-बार और बीबी-को काम करना ही मत ... काम के नाम घर में तो महाशय को छुट्टी के दिन भी फुरसत नहीं। काम में हाथ बँटाता है। तो यह भी नहीं होता कि पंत नगर से मिल गया। शिल्पी के बारे में बात करने के लिए कहा  

पत्नी की बातों से सुधाकर का ध्यान अपने काम से उचट जाता है। गर्मी और उसम और बढ़ी हुई   दिखती है।

"काम मत करना दो, रोज सुबह एक ठेले वाला बिल्कुल ताजी   सब्जी लेकर नारियल वाला है। वह नहीं जाता। अच्छा फिर मुझे लोके का मौका कहां मिलेगा ?"

"यहाँ बहुत ताज़ी पेश है! बीस रुपए किल टमाटर चालीस में बिकता है। ये तो नहीं कि आदमी बचत की सोचे। "

सही बात है।--- सुधाकरबाबू ने बेध्यानी में कहा। फिर अनायास ही सारा ध्यान छत से लटके हुए जापान पर जाम हो गया था जो लंबी बीमारी से उठ खड़ा हुआ आदमी की तरह धीमा चल रहा था। ठीक उसी तरह जैसे ही ममी कम है क्या, सो भयानक पंखा तेज किया ही था अमला तन्टनकर आई और रेशम धीमा कर दिया।

“यह क्या मजाक है ?”

"मजाक नहीं एलेगोन और सीरियस बात है। बिल डिलिट फिलिंग अपोजिट है ?"

“नहीं ..बिल तो तुम पर टिप्पणी हो गई न ?”

"मैं क्यों जाऊँगा होता हूँ ? मेरे तो घर में ही इतने काम हैं कि...।"

"हां देख रहा हूं। कितने सारे काम हैं, इतने तो दस बज रहे हैं। एक कप चाय तक नहीं मिली।"

 "क्यों ? कभी खुद भी बना कर पी लिया करो। पता तो चले कि चाय बैठे-बैठे नहीं बन जाती..मेरे भैया को देखो..।"

"अरे यार! एक और तुम एक लड़की भाई है बस..! मुझे काम करने दो। तुम्हें अपने काम से काम दिखाया।"

"हां..हां एक मैं ही हूं जो सुरक्षा खेल रही हूं। कौनसा सुख मिला है साथ.. ?"

पति को परास्त करने का ये अचूक बान है जब-जब अमला देवी सामने आईं। पर कभी-कभी सुधाकरबाबू भी बाण के प्रत्युत्तर में बाण चला देते हैं --

"तो सूरज जहां सुख दिख रहा है, वहां सामान दिख रहा है न, मैंने कब मना किया। हद है यार, रोज-रोज एक ही बात है...मेरा कितना काम अधूरा रह गया है। अभी भी एक कलात्मक रिकॉर्डिंग आना है ' हिन्दुस्तान ' को ...आपकी दुकान और कोई भी ढूंढ हो ?"

“मैं नहीं रुका तो फुल और कौन सी जगह है जो जिमा जाए रोज गरम-गरम के ?”

“बंद करो यह नाटकबाजी।”

अनैतिक चीख उठाना। इस समय वह मैसाचुसेट्स का पूरा डिब्बा सामने रखा था और किसान भर-भर के खा रहा था।

“यह विशेषता क्यों है ? नक्सन नहीं चाहिए ?” सुधाकर ने तल्ख अंदाज़ में कहा।

“इसकी कीमत किसे है ?”-- यूनाइटेड की आवाज भी दोहराई गई है , लज्जा भी वैसी ही है।

"घर में बारह-ग्यारह बजे तक नाश्ता नहीं बनता। कुछ तो खाना चाहिए ना ?"

सुधाकर ने एक समुद्री दृश्य पत्नी पर कास्ट किया जो अभी तक लंबे समय तक फूल झाडू सेडे-खड़े ही आंगन में झाड़ू लगा रही थी। कमर पतली हो गई है और पेट इतना निकल आया है कि झकझोरते नहीं। आलू-चावल छूटते नहीं हैं। काम के नाम स्त्री चर्चा पर दस ख्यात सुनो। 

 "गृहमंत्री जी! बच्चा क्या कह रहा है ?"

"तुमने सुन लिया करो कभी-कभी। शादी भी जिम्मेदारी है..मैं सोचता हूं कहां-कहां मरूं ? आटे गण धोकर सुखा रहे हैं। पलंगों के अंधेरे में खटमल हो गए हैं। दवा डालनी है। तीन दिन से कपडे बर्तन रहे हैं उन्हें कपड़े हैं। ऊपर वाली माल अलग हो रही है..."

“सुन लिया भाई, सुन लिया....”--सुधाकर ने कहा। सोचा कि "काम का रंग नहीं है अमला , अभी भी गाती है .

लेकिन यह सब कहते हैं बारूद में चिंगारी चलाएंगे। इसलिए शान्त लौंडे में कहा --

ठीक है घरवाले दम से ही चल रही है अमलारानी..पर मैं भी तो बुरा नहीं हूँ।

“हां..देख रही हूं, बड़े काम करती हो!..और करती हो तो क्या..करोगे नहीं क्या ?”

" फिर भी जब देखो मेरे काम से शिकायत रहती है संकट .... "

" तो फिर कौन सा फर्क पड़ता है। कौन सी मेरी बातें सुनती हो। बस बेकार और... ?"

"अरे यार , अब बंद भी करो अपना ये याचिका पुराना। जो काम हो सके, करलो नहीं हो , मत करो। बात ख़त्म...

' बात ख़त्म ' सुधाकरबाबू के प्रतिद्वंद्वी के आगे हथियार डालने का संकेत-वाक्य है। लेकिन अच्छी बात ऐसे आसानी से ख़त्म हो जाती है ? कोई दूसरा प्रसंग बात को हवा देता है।

“ट्रिन्न्...ट्रिन्न्....”

सुधाकर राय ने कुछ रहस्यमयी नजरों से देखते हुए रिसिव करना चाहा, तभी अमलादेवी ने लपककर गोद उठाया।

हैलो ..कौन ?”

“…….”

" हैलो...हैलो..हेलो.मुंह में जबान नहीं है क्या.. ? अरे बात नहीं करनी तो...लो फोन कट गया ।"

क्यों परेशान हो ? कौन सी भी बात करनी होगी फिर से।

"ये कॉल मैंने जरूर उठाई थी इसलिए अब नहीं आएगी... "

अरी भाग्यवान ! मेरे लिए फ़ोन तो मेरे मोबाइल फ़ोन पर आता है न ?”

कॉल रिसीव करते हाईफ़िफ़ फेस पर जो चमकती और मुस्कुराती है, वह बहुत कुछ बताती है।

मतलब क्या है लड़की ?”

“मैं कोई जापानी या फ़्रेंच थोड़ी बोल रही हूँ जिसका मतलब समझाना चाहता हूँ ?”

“नहीं ..बोल तो हिंदी ही रही हो पर नकली शब्दों का मतलब अलग-अलग होता है ना ?”

"वही तो! चोर की नई में तिनका। बहुत सारे पात्र हो पर अनाम नाम के हो। कितनी बार कहा है कि आई डी स्टॉक ने लो पर नहीं...भेद जो खुल जाएगा...।"

कैसा भेद.. ?”

" अच्छा, इतने सारे नियम नहीं मैं। तुम्हारी डायरी में मैंने एक दो चिट्ठियाँ भी देखीं जिनमें गोलमोल सा कुछ लिखा था। कोई अच्छा इंसान तो सीधा ही कुछ लिखा होगा ना ? ..और कई बार तुम बिना किसी मान्यता के महिला से बाहर भी मिले हो, सुरेश भाई ने बताया ..सब साथी हूँ कैसे हो...। "

पत्नी के ऐसे दोस्त कभी-कभी सुधाकर राय को गुदगुदाते हैं। काश ऐसा होता है..कोई खिड़की खुली इस कमरे में तो ताजी हवाएं रहती हैं..

"अरे भाई आवाज से अनुमान तो हो जाता है कि..."

"वह तो तब हो जब कोई बात करे। फोन करने वाली बात तो मेरी आवाज सुने ही फोन काटता है।"

 “वाह माँ आप तो बड़ी वैज्ञानिक हो।” यूक्रेन हंसने लगा।

 “बिना बात के ही पता चला कि वह कोई महिला थी।”

“बेटा वर्जिन माँ शर्लक होम्स के खानदान से जो है।”

“बाप–बेटा , बहुत बढ़िया मजाक उडने पर मै घास नहीं।

“मान लिया। लेकिन फोन अयॉन या अलोन के लिए भी हो सकता है।”

“उनके सब दोस्त मुझसे बातें करते हैं।”

"आजकल लड़कियाँ भी दोस्त होती हैं। और वे सबसे ज्यादा बातें नहीं करतीं।"  

"यह मजाक कुछ जमा नहीं है। लेकिन मेरी गर्लफ्रेंड जैसी नहीं है। वे हर अपनी बात मां को सिखाते हैं।"

"भरोसा भी कुछ होता है ना ?"

"भरोसा ? और तुम पर ?

बहुत ज्यादा ही नहीं लिखा हो मेरे बारे में.. !”

"तो क्या गलत कहा गया है ? मर्दों को दूसरी औरतें ही सबसे ज्यादा अच्छी लगती हैं। तुम क्या अलग हो ?"

“कितने मर्दों को पसंद हो जो... ?”

“सबको अज्ञातवास क्या है , नक्षत्र जान लेना ही काफी है।”

"नहीं अमला तुम मुझे नहीं देखते-समझती, काश जान रचनाएँ। -सुधाकर के अंतमन से नीरव भाव-धारा फूटी। तुम तो सिर्फ बहस करना और बात करना, किसी भी तरह की टिप्पणी करना। घर को संसद भवन बनाया है ..पढ़ी लिखी होने का अर्थफे के लिए बस इतना है कि पति का विरोध जारी रहता है, चाहे वह हो या न हो...लेकिन यह सब दिखाने का कोई मतलब नहीं है।"

अब सच कहा तो बोलती बंद होगी।

एक मिनट, फ़ोन तो सबसे ज़्यादा फ़ायदे आते हैं। नहीं ?”

" हां , तो.. ? मेरा हुआ तो क्या मेरी बात नहीं हुई क्यों बिना बात किए फोन काटा ? फिर जो अपने हो गए तो याद आएंगे। मेरे परिवारवाले मेरा ध्यान रखते हैं ..तुम्हारा तो इतना बड़ा कुरमा है। अपने से कोई काम नहीं करता है कभी फोन ? जाएंगे भी तो 'मिस्कॉल'। कंजूस नंबर एक। यहां से हम बात करें तो कार्लें। उस दिन गर्लफ्रेंड ने..।"

"अरे! यह क्या विवाह--तुम्हारी रहना लगा है ? क्या मेरी बहन का विवाह कुछ नहीं हुआ ?"

“वो समझती है मुझे अपना ?

“तुमने भी कौन सी कोशिश की है दोस्तों ?”

मेरे पास इतना न अक्ल है न इसकी जरूरत...

" तो ये कहो ना. फालतू दोष क्यों रहता है ..?"

"हां,...तुम तो अपनी बहन का ही पक्ष लोगे। मैं तो...।"

"बहन को छोड़ो , अम्मा ने तो हमेशा बेटी को किस तरह से सजाया है। अपने हाथों से बनाया है कुछ भी नहीं कहा है। फिर भी तुम भी तुम्हारे साथ मिलती-जुलती रहती हो। कभी यहां चली जाती हो तो ठीक से बात नहीं करती। यही नहीं अगर मैं हलचाल भी मांगता हूं तो तुम उन्हें ' खटपाटी ' चबाती हो। देखा है ?

ये क्या किया सुधाकर बाबू ने। ज़रा सा सच कहे तो राकेश सलग रही आग को भड़का दिया।

“तुम मेरे साथ अकेले रहना चाहते हो ?”

"नहीं, मैं चाहता हूं कि मुझे शांति से काम करने दो और तुम भी इस समय जो सीख रहे हो, वह कार्लो। विकी कबसे इंस्टेंट मांग रही है...दिमाग में गहरी भारी-भरकम बातें दो को हटा दी गईं।"

"कैसे हटा दूं , जबकि वे सब लोग घर के हों या बाहर के..आज भी बहुत हैं। इतनी दूर रह रहे हैं फिर भी मुक्ति नहीं है...कभी घरवाले खून सुखाते हैं तो कभी...ये बाहरवाले..बालियां चैन नहीं छोड़ते..."-अमलादेवी का आवेश चरम पर पहुंच गया तो सुधाकर का गुस्सा फूट पड़ा।

"बिना सोचे समझे मुंह मत खोलो समझी। गाली बंद करो और मुझे काम दो। दोस्त के अलावा भी कुछ मिलता है स्टार ? जीना मुहाल हो गया है। सिर्फ एक दिन की छुट्टी घर में रहना कितना मुश्किल होता है! अच्छा है कि बाहर कहीं चला जाऊं।"

"हां हां..मैं ही बुरा हूं। मेरी बातों में तो कंगाल हैं ना ? ऐसे आदमी के पल्ले बंधकर मेरी तो जिंदगी बर्बाद हो जाएगी" -अमला ने चिल्लाते हुए कहा। फिर रुआंसी आईडिया एक तरफ पटक दिया और अंदर वाले कमरे में फ्लैट पलंग पर जा लेटी और सिसकने लगी। पत्नी के इस विचार को देखकर सुधाकरराय का सारा तनाव या जोश ठंडा पड़ गया। साड़ी कागजात एकत्रित करके रखें। लेख लिखा है। ऐसी स्थिति में कोई कैसे काम करे।

इलिनोइस इस घटना से लेकर टीवी दृश्य तक। उसे पता है कि माँ का इस तरह का 'कोपभवन' में जाना जाता है हर तरह के डर का क्लाईक मैक्स होता है। पिता उस पर विश्वास करते हैं। ऐसा हुआ ये मौसम हमेशा की तरह कुछ देर बाद आपके आप ही ठीक हो जाएगा जैसे कुछ हुआ ही न हो।

और सुधाकर राय किसी दिग्भ्रमित रुचि व्यक्ति की तरह बैठे किसी विंडो से आर्हे हवा के झोंके की कल्पना करके ही मित्र और गर्मी से उपकरण पाने की कोशिश कर रहे थे।

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