बैंगलोर आए
मुझे पन्द्रह-बीस दिन हो चले हैं . इतने दिनों में हम लालबाग ,कब्बन पार्क ,स्कॉन
टेम्पल ,सैंकी टैंक , फोरम ,आदि कई जगह घूम आए हैं .लेकिन मेरा ध्यान आज भी सामने
वाले दरवाजे पर टिका है ,जो हमेशा बन्द ही रहता है .
सुशील और
सुहानी कोडीहल्ली के एक अपार्टमेंट में थ्री बी एच के फ्लैट में रहते हैं . वे दोनों
ही इंजीनियर हैं .सुशील विप्रो में और सुहानी इन्फोसिस में. वास्तव में बैंगलोर और
इंजीनियर दोनों आपस में इतने सम्बद्ध होगए हैं कि ट्रेन में एक सहयात्री ने यह
जानकर कि मैं बेटे के पास जा रही हूँ ,तपाक से कह दिया-- बेटा किसी कम्पनी में इंजीनियर
ही होगा .
यों तो किसी
बड़े शहर में ही मैं पहली बार रह रही हूँ लेकिन यहाँ कई बातें हैं जो दूसरे शहरों में नहीं हैं जैसे कि मई--जून के महीने में ,जबकि उत्तर भारत तप रहा होता है यहाँ
मौसम बड़ा सुहावना रहता है .शाम को अक्सर बारिश हो जाती है और कभी-कभी इतनी ठण्डक
होजाती है कि स्वेटर पहनना पड़ता है . यहाँ सुबह-सुबह हर घर के दरवाजे पर सुन्दर
रंगोली बनी देखी जा सकती है और हर महिला के ,चाहे वह अमीर गरीब कुलीन निम्न ,किसी भी
वर्ग की हो ,बालों में गजरा लगा देखा जा सकता है जो बड़ा अच्छा लगता है . सोचिये कि सुबह काम
वाली के साथ ही मोगरा की प्यारी खुशबू भी आपके कमरे में प्रवेश करे तो कैसा लगेगा !
यहाँ लोग पेड़ों का बहुत ध्यान रखते हैं . हर घर में नारियल का पेड़ तो जरूर देखा
ही जा सकता है पर आम कटहल चीकू और अनार के पेड़ भी यहाँ-वहाँ दिख ही जाते हैं वैसे
ही जैसे दस साल पहले लगभग हर तीसरी दुकान में एस.टी.डी और पी सी ओ के केबिन हुआ
करते थे . अगर जेब में पैसा है तो यहाँ सुविधाओं की कमी नही है .सामान लेने के
लिये हमारे कस्बा की तरह दुकानदार से मगजपच्ची नही करनी पड़ती कि 'भैया जल्दी करो
..यह ठीक नही है दूसरा दिखाओ ..कि अरे तुमने पचास रुपए ज्यादा जोड़ दिये हैं ...वगैरा वगैरा .' यहाँ शापिंग माल में जाओ पसन्द का सामान टोकरी में डालते जाओ और कम्प्यूटर पर बिल
अदा करदो यही नही ऑर्डर देकर घर पर ही हर तरह का सामान मँगाया जा सकता है .बाजार
जाने की भी जरूरत नही . सुहानी तो दही या प्याज-टमाटर तक ऑर्डर से घर मँगा लेती है .यह
अच्छा है .जीवाजीगंज में हम लोग सब्जी और राशन के थैले लादे लादे हाँफते-डगमगाते
कैसे घर पहुँचते हैं हमी जानते हैं . यहाँ सोफा पर बैठे बैठे ही हर चीज आपके सामने
हाजिर . एकदम कहानियों के जिन्न की तरह ही. .
लेकिन दूसरे शहरों की तरह यहाँ बहुत
सी अखरने वाली चीजें भी हैं जैसे अब चारों ओर पेड़ों से ज्यादा बड़े-बड़े उगते अपार्टमेंट
हरियाली को उसी तरह नकारते जा रहे हैं जिस तरह घरों में अक्सर बड़े-बुजुर्गों को नकार दिया
जाता है .यहाँ आप अकेले हैं , सैकड़ों की भीड़ में न आप किसी को जानते हैं न कोई
आपको . बड़े-बड़े अपार्टमेंट्स में कई मंजिल ऊँचाई पर हजार-पन्द्रह सौ वर्गफीट के
फ्लैट्स , दूर से किसी विशाल वृक्ष के तने में पक्षियों के कोटर जैसे प्रतीत होते हैं. उनमें एक छत के नीचे
ही आपकी पूरी दुनिया है .दैनिक क्रियाओं के लिये बाहर निकलने की जरूरत ही नही होती
.बाहर भी बिना किसी से बात किये आप अपने सारे काम कर सकते हैं .पूरा जीवन गुजार
सकते हैं . एकाकी ,नीरस और बेरंग से जीवन में टेलीविजन ही रंग भरने का एकमात्र
साधन है .
सुशील बताता है कि-- ‘तेजी से हो रहे विकास और आधुनिकीकरण के कारण आई टी सिटी बन गए इस शहर की अपनी
मौलिकता खत्म हो रही है .बागों झीलों और सुहावने मौसम ,और स्वच्छ आबोहवा के लिये
मशहूर इस शहर में अब हरियाली सिमटती जा रही है . आगे बढ़ता शहर धीरे-धीरे कंकरीट
के जंगल में बदलता जा रहा है . सड़कों से ऊपर कारें दिखाई देतीं हैं. दुनिया भर से
कम्पनियाँ और ऐम्पलायीज यहाँ इस तरह दौड़े चले आ रहे हैं जैसे ज्वैलरी और साड़ियों
की सेल की ओर महिलाएं भागतीं हैं .”
“ऐ !
मैं नही भागती हाँ !.और शायद मम्मी भी नही .”-–सुहानी हँसते
हुए सुशील को बीच में ही टोक देती है .
“तब तुम विशुद्ध महिला नही हो .”
सुशील भी हँसता
है .दोनों की हँसी मन से हर तरह का बोझ हटा देती है .लेकिन जब वे ऑफिस चले जाते
हैं तो समय जैसे ठहर जाता है . शनिवार और रविवार को उन्हें अवकाश मिलता है .ये दो
ही दिन हैं जबकि हम लोग साथ बैठकर बोलते-बतियाते हैं .कहीँ घूमने चले जाते हैं या
बाहर खाना खाने की योजना बनाते हैं .
इन दो दिनों के
अलावा सप्ताह के पाँच दिनों का समय उन दोनों के लिये जहाँ सुपरफास्ट ट्रेन जैसा है
तो मेरे लिये सुस्त बैलों वाली गाड़ी जैसा . कोडीहल्ली नाम के इस एरिया के एक
अपार्टमेंट में रहते हुए मैंने महसूस किया कि सिवा इस भाव के कि हम अपने ही देश के
एक शहर में हैं ,यहाँ रहना विदेश जैसा ही है .रश्मि दीदी ने जो अब आस्ट्रेलिया में
स्थाई रूप से बस गई हैं ,बताया था कि वहाँ किसी को किसी से कोई मतलब नही हैं .साथ
साथ चल रहे हैं पर सिवा इस ज्ञान के कि वे सब मनुष्य जाति के ही हैं ,एक दूसरे के
बारे में कुछ नही जानते . मतलब जानना ही नही चाहते .
मुझ जैसी
मोहल्लाई संस्कृति की अभ्यस्त महिला के लिये यह हैरानी की बात है कि आप एक ही जगह
पर रहने या रोज मिलने वाले लोगों का नाम तक नही जानते . अपने दो-ढाई मीटर की दूरी
पर रह रहे पड़ौसी से अनजान हैं .एक हमारा मोहल्ला है जहाँ घर की बातें गली में
गूँजा करती हैं .किसके घर कौन मेहमान आया है ,किसकी बेटी ससुराल जा रही है ,किसके
घर में कलह के कारण चूल्हे अलग होगए हैं .ये बातें कम से कम पड़ौसी से छुपी नही
रहती .हमारे पड़ौसी सक्सेना जी ऑफिस जाते हैं तो पूरे मोहल्ले को खबर होजाती है
.पहले तो बाहर गली में आकर स्कूटर स्टार्ट कर बैठते हुए वे अपनी पत्नी को जोर से
सुनाते हैं----उमा जा रहा हूँ .” फिर रास्ते में मिलने वाले हर व्यक्ति से उनका संवाद बुलन्द होता है—“भैया जी नमस्कार ...चाचाजी कैसे हैं ?..जीजीबाई सब ठीकठाक है ?”...इन संवादों
से सड़क तक पूरी गली जाग जाती है .
सुबह पानी आता
है तो कोई न कोई चिल्लाकर सबको बता ही देता है कि नल आ गए . गली में झाड़ू
लगाने चाहे कोशला आए या उसकी सास या फिर उसका पति आए, चिट्ठी डालने डाकिया आए या फिर सब्जी
वाला गोविन्द ,..बिना राम राम, श्याम श्याम के नही निकलते . कहीं कथा होती है तो
चरणामृत और पंजीरी पास-पडौस में बाँटी जाती है .किसी के यहाँ गमी होजाती है तो
मोहल्ले भर की औरतें वहाँ रात रात भर बैठकर जागतीं हैं . बिना बुलाए ही
भजन-कीर्त्तन में शामिल हो जातीं हैं .
“मम्मी यह फ्लैट शंकर रेड्डी का है .तेलगू है.”— मेरे आते ही सुहानी ने मुझे कई जरूरी ,गैर-जरूरी जानकारियाँ दे डालीं
थीं—“ग्राउण्ड फ्लोर पर सुगन्धा है . बहुत अच्छी है वह तमिल है . हाउस-वाइफ है पर बहुत इन्टेलिजेंट है .उसकी अँग्रेजी भी बहुत अच्छी है इसलिये चीजों को समझने में उससे बहुत हैल्प
होजाती है .बगल में कोई बंगाली रहते हैं .
मम्मी आप दिन में दरवाजा बन्द ही रखना ,वरना रोज दोपहर मछली की बू आपको परेशान करेगी .और हाँ सामने वाला फ्लैट एक न्यू कपल का है जोसेफ और
प्रिया .क्रिश्चियन हैं .जोसेफ टीसीएस में इंजीनियर है और प्रिया हाउस वाइफ है . मलयाली
हैं पर हिन्दी भी जानते हैं .बोलते भी है . आपको अच्छा लगेगा .प्रिया शायद
प्रेगनेंट भी है .”
मैंने साश्चर्य
सुहानी को देखा .सुबह से शाम तक ऑफिस में रहने वाली लड़की स्वभाव और जिज्ञासावश
कितनी जानकारियाँ इकट्ठी कर लेती है .
“अरे मम्मी !,मुझे तो सुगन्धा ने बताया .”—सुहानी मेरा
भाव समझकर हँस पड़ी. यहाँ भी
अभिव्यक्ति और उसकी समझ ही संवाद को सुलभ बना रही थी .
और ..तभी से मेरा ध्यान जबतब सामने वाले फ्लैट पर अटका रहता है .
और ..तभी से मेरा ध्यान जबतब सामने वाले फ्लैट पर अटका रहता है .
वास्तव में यहाँ
जो बात मुझे सबसे ज्यादा अखरती है वह भाषा की अनभिज्ञता ही है .
दरअसल यह एरिया
पूरी तरह अहिन्दी भाषी है .यह बिल्डिंग ,जो दूसरे अपार्टमेंटों की तुलना
में छोटी है .इसमें तीस फ्लैट हैं और जहाँ तक सुशील व सुहानी को मालूम है लगभग सभी
परिवार या तो कन्नड़ और तेलगू भाषा भाषी हैं या तमिल और मलयालम . ये चारों भाषाएं
द्रविड़ परिवार की हैं .चारों की लिपियाँ अलग होने पर भी आपस में काफी कुछ समझ
लेते हैं .मैं शाम को छत पर चली जाती हूँ वहाँ कुछ महिलाएं आपस में बातें करतीं
हैं पर मेरे पल्ले नही पड़ती है .संभव है कि मेरी खिल्ली उड़ाती हों लेकिन उनकी
मुस्कराहट जो कभी कभी मेरी ओर आजाती है .इससे मुझे यह तो पता चल जाता है कि वे
मेरे लिये अच्छा भाव ही रखतीं होंगी .मैं उनके साथ खूब सारी बातें करना चाहती हूँ
.बातें उनकी परम्पराओं की ,रीतिरिवाजों की ...भावों और विचारों की ..
हालाँकि ऐली
शायद मेरा भाव समझकर ही कहती है –“आइ अण्डरस्टेंड
हिन्दी लिटिल लिटिल .”..और सुगन्धा जो तमिल भाषी है और
सुहानी की सहेली भी ,कभी कभी पूछ लेती है—“हाउ आर यू आंटी ?” उसके दाँत बहुत उजले हैं और हँसी बहुत
प्यारी कोमल ..लेकिन ‘ओ के’ ,’फाइन थैंक्यू’ तक सीमित संवाद मुझे भूखे मेहमान को एक गिलास पानी देकर
टरकाने जैसा लगता है .सचमुच भाव-संचार के लिये भाषा कितनी आवश्यक है .
शान्ताम्मा हमारे
यहाँ काम करती है . वह गहरे काले रंग की सीधी-सादी अधेड़ महिला है .बड़ी बड़ी
आँखें विनम्रता से भरी हैं . बाल काले और घुँघराले हैं . यहाँ की दूसरी महिलाओं की
तरह वह भी गहरे रंग ( हरा, नीला जामुनी ,कत्थई )की किनारीदार साड़ी पहनती है . नाक में दाँयी
तरफ चाँदी का बड़ा सा फूल पहने है . गजरा नही लगाती इसलिये अनुमान लगाया कि शायद उसका पति
नही है . सुहानी ने ही बताया कि गजरा यहाँ उसी तरह सुहाग का प्रतीक है जिस तरह अपने यहाँ सिन्दूर और कंकुम .शान्ताम्मा अनपढ़
है .पढ़े-लिखे लोग टूटी-फूटी ही सही अंग्रेजी से काम चला लेते हैं पर शान्ताम्मा
को यह बताने के लिये कि मेरे आने से जो अतिरिक्त काम बढ़ा है उसके पैसे अलग देंगे
,सुहानी ने सुगन्धा का सहारा लिया .
मुझे घुटन होती
है . अगर मैं तमिल समझ सकती या शान्ताम्मा हिन्दी समझ पाती तो मैं जान सकती कि ,’वह कहाँ से आती है ? उसके घर में
कौन कौन है ?
वह कभी कभी बहुत उदास क्यों होती है ? .कि एक दिन वह काम करते करते रो क्यों रही थी ? अगर मैं कन्नड़ समझती तो पता लग जाता कि अभी-अभी दो आदमी एक लड़के को
क्यों पीट रहे थे ? या कि रोज फेरी वाला क्या बेचते हुए निकलता है ?’
यहाँ मुझे
निरक्षरता और भाषा की अनभिज्ञता की पीड़ा का अहसास तीव्रता से हुआ है .साथ ही अपनी
भाषा के महत्त्व का भी .. क्यों अपनी भाषा मातृभाषा कहलाती है .क्योंकि वह माँ की
गोद जैसी निश्चिन्तता और तृप्ति देती है .माँ की तरह हमारी बात समझती है ,औरों को
समझाती है . भाषायी संवेदना मुझे सोचने मजबूर करती है कि राष्ट्रीय एकता के लिया
भाषा की एकता सबसे ज्यादा जरूरी है.
सुशील व सुहानी
सुबह साढ़े आठ तक चले जाते हैं . सुबह तो ऐसी भागमभाग मचती है कि पूछो मत . मैच की
चुन्नी या जरूरी कागज न मिलने पर सुहानी हड़कम्प मचा देती है .चाय भी अक्सर भागते
भागते पीती है .वह ऑफिस की वैन से जाती है और सुशील अपनी गाड़ी से . सुशील जाते
जाते जरूर कहता है – “मम्मी दरवाजा बन्द ही रखना . आपको बाहर निकलने की जरूरत
नही है कोई खास बात हो तो मुझे फोन करना .”
उनके जाते ही
खामोशी छा जाती है .मेरे सामने पूरा दिन होता है .काम तो सारा शान्ताम्मा ही निपटा
जाती है .मैं किचिन में डिब्बे-डिब्बी साफकर जमा देती हूँ .सुहानी के बेतरतीबी से
अलमारी में ठूँसे गए कपड़ों को तहाकर रख देती हूँ .नहाने के बाद थोड़ी देर ईश्वर
का ध्यान करती हूँ पर मेरा मन ही जानता है कि वह सिर्फ एक नियम पालन होता है . अभी
मुझमें वह क्षमता नही कि चारों ओर से ध्यान खींचकर सम्पूर्ण भाव ईश्वर में लगा दूँ
.
बन्द कमरे में मेरा
मन नही लगता . टीवी पर ज्यादातर ऐसे कार्यक्रम आते हैं जिन्हें देखकर लगता है कि
इससे तो न देखते वही अच्छा था . पैसे की चमक दमक वाले सीरियल आम जिन्दगी से दूर ले
जाने वाले हैं . गाड़ी ,बँगला ,मँहगे कपड़े भारी भरकम गहने आदि से कुछ नीचे ही नही
दिखता .बिना षड़यन्त्र के कहानी आगे नही चलती . यही हाल फिल्मी चैनलों का है .एक
ही तरह की सस्ती फिल्में रिपीट होती रहती हैं . और समाचार चैनलों की तो बात करना
ही बेकार है ..टीवी के सहारे दिन नही काटा जा सकता .
मैं एक नजर
सामने के दरवाजे पर डालती हुई अक्सर गैलरी से होती हुई सामने झरोखा तक चली जाती
हूँ जहाँ से नीचे गली का दृश्य दिखाई देता है . सामने एक शानदार कोठी है जिसमें
केवल कार और कुत्ता दिखाई देता या फिर कुत्ता को घुमाने वाला एक ल़ड़का . बगल में एक प्रोवीजनल स्टोर है जिसका मालिक
रजनीकान्त है .असली रजनीकान्त के विपरीत दुबला और सुस्त . दुकान पर जो बोर्ड लगा
है उसपर रोमन में लिखे प्रोवीजनल स्टोर के अलावा जो लिखा है वह मेरे लिये काला
अक्षर भैंस बराबर हैं .निरक्षरता के अँधेरे की भयावहता को मैंने सबसे पहले यहीं
महसूस किया . कन्नड़ सिखाने वाली किताब से मैंने हालु ,मोसरू, सोप्पु जैसे कुछ
शब्द याद किये तब मुझे एक कविता याद आई—
शब्द खिड़कियाँ
हैं ,रोशनदान हैं आती है जिनसे धूप और हवा मेरे अँधेरे कमरे में ..
हाँ 'सिर्फ तुम' का एक गीत --'एक मुलाकात जरूरी है सनम', जरूर जब तब
सुनाई देजाता है तो लगता है जैसे कोई अपना ही पुकार रहा हो .
गली में कुछ
आगे मटन शॉप है जिसमें दिन भर खट्खट् कच् कच् होती रहती है .न चाहते हुए भी भेड़-बकरों के
चमड़ी और सिरविहीन धड़ लटके दिख ही जाते हैं .मांस का यूँ खुलेआम बिकना मुझे ठीक
नही लगता पर मेरे लगने से क्या होता है . दूसरी तरफ एक पाँच सितारा होटल दिनोंदिन
आसमान को दबाते हुए उठ रहा है . मुझे आसमान का यूँ दबते जाना बहुत अखरता है.
सामने से लौटकर
कमरे में आने से पहले मैं एक नजर फिर सामने वाले दरवाजे पर डालती हूँ .यह प्रिया
कभी बाहर नही निकलती ?क्या इसे धूप और हवा की जरूरत नही है ? क्या इसे खुला आसमान
देखने की इच्छा नही होती ? एक ही कमरे में दिनभर बन्द रहकर क्या ऊब नही होती होगी ? क्या बाहर निकलने से डरती है ? पागल है .यहाँ डर की क्या बात है . मैं तो हूँ .मेरे
लिये वह भी सुहानी जैसी ही तो है .
मैं इन्तजार करती हूँ कि दरवाजा खुले तो मैं कुछ
बात करूँ .जरूरत हो तो कुछ सहायता भी करूँ .गर्भवती की कितनी ही समस्याएं व
जरूरतें होतीं हैं .मैं खुद ही यह सब सोचती रहती हूँ .एक दूसरे की भाषा समझने
वालों में वह भी इतने निकट रह रहे लोगों में कम से कम संवाद तो होना चाहिये न
.
एक दिन जोसेफ
के दरवाजे पर कई जोड़ी जूते-चप्पल रखे दिखे .बाजू वाली खिड़की भी खुली है .हँसने
की मिलीजुली आवाजें आ रही थीं .कुछ अजीब तरह की गन्ध भी .
“इनका कोई त्यौहार होगा शायद .”---सुहानी ने शाम
को बताया .मुझे अजीब लगा .
“ये लोग त्यौहार भी बन्द कमरे में ही मना लेते हैं !”
मम्मी आप बेकार
ही इतना सोचतीं हैं . इन लोगों का कल्चर अलग है . वैसे भी यहाँ अपने कस्बा जैसी
बात नही है कि लोग चाय-चीनी तक माँगने के बहाने रसोई तक चले आते हैं .यहाँ बस दूर
से हाई-हैलो काफी होती है .
मैं देखती हूँ
कि सुहानी यहाँ की अभ्यस्त होगई है .उसका काम भी ऐसा ही है .सुबह से शाम तक ऑफिस
में बिजी रहने वाले को वैसे भी किसी से मेलजोल की न फुरसत होती है न जरूरत . पर उसकी बात मेरे सिर से किसी चलताऊ गाने की तरह गुजर गई .
मुझे सुबह छह
बजे जागने की आदत है लेकिन कामकाजी लोगों की सुबह अक्सर आठ से नौ बजे तक ही होती
है . दूधवाला सात बजे दूध की थैलियाँ दरवाजे के बाहर टँगी पालीथिन में रख जाता है
. मैं तो अपनी थैलियाँ उठा लेती हूँ पर कई बार बन्दरों को पैकेट उठाकर भागते देखा
गया है एक बार तो पैकेट को वहीं फाड़कर दूध पी भी गए हैं . उस दिन भी अपने पैकेट
उठाते हुए मैंने टैरेस पर एक बन्दर को बैठे देखा . जोसेफ के पैकेट उसके दरवाजे पर रखे थे .
‘जोसेफ को जगाकर दूध के पैकेट अन्दर ले लेने को कहना चाहिये---‘–मैंने सोचा .इसी बहाने मुझे उन लोगों से बात करने का अवसर भी मिल जाएगा .
पहल कोई भी करे पहल तो होनी ही चाहिये .
मैंने किवाड़ों
पर हल्की सी दस्तक दी .कुछ देर बाद ही दरवाजा खुला . एक युवक ने सिर निकालकर मेरी
ओर विस्मय से देखा . सुशील की ही उम्र का साँवला सलोना बड़ी और मोहक आँखों वाला यह
युवक जरूर जोसेफ ही होगा .
"दूध का पैकेट
अन्दर ले लो , बाहर बन्दर घूम रहा है .कल बाजू वालों के पैकेट उठाकर भाग गया था ."
“ओह..सॉरी आंटी !...नींद नही खुली .. थैंक्यू .--कहते हुए वह हल्का सा मुस्कराया .एक अभ्यस्त सी मुस्कराहट पर मुझे बड़ा अच्छा सा महसूस हुआ .
मैं कहना चाहती
थी कि ‘कभी बाहर भी निकला करो बेटा’ .हाँ यह ठीक रहेगा . वह मेरे बेटे की उम्र का ही होगा . उसने मुझे कितने अपनेपन के साथ आंटी कहा .पड़ौसी से
व्यवहार अच्छा हो तो जीवन ज्यादा सहज और सरल हो जाता है .लेकिन तबतक वह जा चुका था और दरवाजा बन्द
होगया था .शायद वे लोग अभी नीद में ही होंगे .कोई बात नही जोसेफ की मुस्कराहट ने यह
तो बता ही दिया कि न तो मैं उनके लिये अपरिचित हूँ न ही वे मेरे लिये .
और..आज सुबह मैं
सुखद आश्चर्य से भर उठी .जोसेफ का दरवाजा खुला है .सामने जो गुलाबी गाउन पहने लम्बी
छरहरी युवती गुलदस्ता ठीक कर रही है वह प्रिया ही होगी .उसके बाल काले घने और
घुँघराले हैं .जब वह बाहर आई तो चिरपरिचित मुस्कान के साथ बोली—“हैलो आंटी कैसे हो ?”
‘अरे वाह ! यह तो मुझे जानती है . ’—मन पुलकित होगया . अपनी भाषा में किसी का संवाद सुनकर .
“अच्छी हूँ .आज अच्छा लग रहा है तुम्हें देखकर .”
“सुहानी ने आपके बारे में बताया था .”
“मैं भी कबसे सोच रही थी कि तुम्हें देखूँ ..बात करूँ .”—मेरा उत्साह मेरी आवाज से छलका जा रहा था .वह पहली बार मिल रही थी . वैसे तो आजकल तो बच्चों से भी आप कहा जाता है पर सुहानी की उम्र की उस लड़की से आप कहा ही
नही गया .मेरी बात सुनकर वह सिर्फ मुस्कराई . मैं बोलती रही –
“सुहानी ने जब बताया कि हमारे सामने वाले पड़ौसी हिन्दी जानते हैं तो मुझे
बड़ी खुशी हुई .नही तो लग रहा था कि जाने कौनसे देश में ..”
“सुहानी चला गया ?”–प्रिया ने बीच में ही पूछा . शायद
उसे सुहानी के बारे में कुछ और पूछना या कहना हो ,मैंने सोचा लेकिन उसने फिर कुछ कहा
नही . मैंने ही पूछा –“आप लोग कहाँ से हैं ?”
“केरला से.”
“अच्छा केरल से !”–मैंने उल्लास के साथ दोहराया ,मानो केरल मेरा गाँव हो .
“यहाँ कौन कौन हैं ?”
“मैं और मेरा हसबैंड .”
“तुम बाहर नही आती हो ..मैं तो कई दिनों से...”
“मेरा तबियत ठीक नही रहता .” उसने संक्षिप्त
उत्तर दिया . वह मेरी बातों को ऐसे सुन रही थी जैसे कोई बड़ा कवि किसी नौसिखिया की
छोटी मोटी तुकबन्दियों को सुनता है .उसने मेरे या हमारे बारे में कुछ नही पूछा
.जैसे कि वह सब जानती हो .या शायद जानना ही न चाहती हो .
'लेकिन यह तो नही जानती कि अगर वह ऐसे ही चौबीसों
घंटे अन्दर रहेगी , बाहर निकलकर खुली हवा और धूप नही लेगी तो तबियत तो खराब रहेगी
ही .'--.पर मैं यह सब उसे बताती तब तक तो वह 'अच्छा आंटी' कहकर अन्दर चली गई और मेरे
देखते देखते दरवाजा भी बन्द कर लिया और मेरा यह वाक्य कि ,“कोई परेशानी या जरूरत हो तो बिना संकोच बता देना ...”
बाहर ही पड़ा ही रह गया .