मंगलवार, 19 नवंबर 2024

बेदखल

  बाबूजी ! ”

शिवकुमार ने दरवाजे की तरफ से आई वह पतली और हल्की आवाज सुनी नहीं थी या सुनकर अनसुनी करदी थी यह नहीं ठीक से तो नहीं कहा जा सकता लेकिन यह तय है कि उसने एक बार भी मुड़कर दरवाजे की ओर नहीं देखा था । वह सुबह ग्यारह –साढ़े ग्यारह का समय रहा होगा ।

बाबू नाम की प्रजाति आम लोगों से हटकर होती है ,अलग ही दिल दिमाग वाली । एक-दो बार तो सुनते ही नहीं ..सुनलें तो काम के लिये दोचार बार चक्कर लगवाते हैं । समय पर फाइल कम्प्लीट कर देना ,बिना हील हुज्ज़त के ही किसी शिकायत का निराकरण कर देना ,बिना कोई अडंगा लगाए किसी का रुका पेंमेंट निकलवा देना , भेंट पूजा बिना कोई एरियर निकाल देना आदि सारे कर्म बाबूधर्म के खिलाफ है । असल में नेताओं की तरह बाबू भी प्रायः जन्मजात होते हैं । कुछ जन्म से नहीं तो सतत अभ्यास से बन जाते हैं । शिवकुमार श्रीवास्तव बेशक उस प्रजाति का नहीं है । उसमें अठारह-बीस साल में भी कथित बाबूपना नहीं आ पाया है । इसलिये उस दिन शिक्षिका रंजना गौतम की आवाज पर कोई प्रतिक्रिया न देने के पीछे एक क्लर्क का मिज़ाज तो नहीं था बेशक ।

लेकिन कभी कभी ऐसा होता है कि आँखें देखकर भी नहीं देखतीं और कान सुनकर भी नहीं सुनते । हमें याद है क्लास में इसी कारण बच्चों की खूब धुनाई होती थी । माँ दही लेने डेरी पर भेजती थीं और हम पहुँच जाते बगीचे में । पता ही नहीं चलता कि पाँव किधर जा रहे हैं । जब ध्यान कहीं और हो तो न कान किसी काम के होते हैं न आँखें ।  शिवकुमार भी उस समय ऑफिस में होकर भी नहीं था । शिक्षिका रंजना गौतम की आवाज सुनने की बजाय दाँत में फँसे तिनके की तरह उसका सारा ध्यान कल शाम को हुई कलह पर था ,जो अभी तक शान्त नहीं हुई थी । रसोईघर में हड़ताल थी इसलिये आज वह बिना चाय-नाश्ते के ही ऑफिस आया था इसलिये पेट की आँतें विकलता से सिकुड़ फैल रही थीं ।

देखा जाय तो बात इतनी बड़ी थी नहीं जितनी कान्ता ने बना दी थी जैसा वह आदतन किया करती है । भला ज़रूरत के वक्त किसी अपने की सहायता कर देना कोई बड़ी बात तो नहीं होती , वह भी कोई अपना खास हो ,लेकिन कोई बात कितनी बड़ी हो सकती है और कितनी छोटी और मामूली इसे तय करना कान्ता ने अपने अधिकार में ले रखा है । अपनी मर्जी से दस से लेकर पच्चीस पचास हजार रुपए तक किसी को दे डालना उसके लिये मामूली बात है तो शिवकुमार द्वारा किसी को दिये हजार दो हजार भी बड़े विवाद और कलह का रूप ले लेता है । कल भी क्लेश का कारण यही था । शिवकुमार ने पिछले सप्ताह कान्ता को बिना बताए बहिन को पाँच हजार रुपए दे दिये जिनका पता कान्ता को कल ही चला था ।  

वह कल शाम को जब घर पहुँचा और थकाहारा तन मन एक अच्छी चाय और आराम की चाह कर रहा था कि एक कान्ता ने चाय की जगह एक गरमागरम सवाल सामने रख दिया -- क्यों , मंजू को पाँच हजार तुमने किस खुशी में दे दिये ?”

किस खुशी में !...

शिवकुमार के मन में एक लहर की तरह सवाल उठा ---"बहुत ज़रूरत के वक्त मदद के रूप में किसी को कुछ रुपए देना क्या खुशी में देना होता है ? खासतौर पर जब मुसीबत में उसकी अपनी छोटी बहिन हो । पर सवाल वहीं होठों से टकराकर विलीन होगया क्योंकि इसकी व्यर्थता खुद शिवकुमार भी जानता है । माँ बाबूजी तो अब हैं नहीं पर दो बहिनें भी कान्ता के लिये स्वभावतः प्रतिद्वन्दी जैसी ही हैं । कान्ता तो माँ बाबूजी के लिये भी वह कभी उदार नहीं रही । जबकि उन्हीं की बदौलत कान्ता न केवल हमारे घर में , ज़िन्दगी आई थी ,बल्कि उससे बेटी जैसा स्नेह भी पाया । उसे याद है कि जब इस रिश्ते का प्रस्ताव आया था शिवकुमार बिल्कुल तैयार नहीं था । नई नौकरी थी । स्थापित होने के लिये कुछ समय चाहिये था । पर बाबूजी ने रिश्ता स्वीकार कर लिया बोले---"घर आई लक्ष्मी को लौटाया नहीं जाता ,मैंने वचन दे दिया है .

देखने समझने के लिये मुझे थोड़ा वक्त तो देते बाबूजी ।

असली समझ बेटा शादी के बाद ही आती है ।—बाबूजी ने समझाया । सकारात्मक विचारों वाले दूर तक नहीं सोचते । अच्छे लोगों के साथ हमेशा अच्छा होता है’, वाला सिद्धान्त उन्हें हमेशा आशा विश्वास और स्नेह से परिपूर्ण रखता है । बाबूजी  ने खूब मन से विवाह की तैयारियाँ कीं थीं । बहू के लिये अलग कमरा बनवा दिया । माँ के तो पाँव ही ज़मीन पर नहीं पड़ते थे। चुन चुनकर साड़ियाँ व गहने बनवाए । यह सब बाबूजी की हैसियत से ऊपर था पर बहू लक्ष्मी के आने का उल्लास सिर चढ़कर बोल रहा था । शिवकुमार ने भी मान लिया कि भले ही लड़की उसकी कल्पना जैसी सुगढ़ सुन्दर नहीं है ,पढ़ी भी सिर्फ आठवीं पास पर कुँवारे सपने लिये वह एक निर्दोष लड़की तो है जो उसे अपना पति मानकर बैठी है । रिश्ते से मना करना उसके साथ भी अन्याय होगा । और क्या ज़रूरी है कि पसन्द से की गई शादी सदा अपने अनुकूल ही रहे । सारी आशंकाओं को मिटाकर उसने पत्नी का हदय से स्वागत किया था ।

पर क्या कान्ता ने इस स्वागत को महत्त्व दिया ? शिवकुमार को सब याद है कि किस तरह कान्ता ने खुद को शुरु से ही अलग रखा था । और कब किस तरह उस पर हावी रहने की शुरुआत करदी थी ।

आते ही उसने ससुराल की कमियाँ निकालनी शुरु करदीं थीं .

तुम्हारे घर में अभी तक गैस चूल्हा नहीं है !”---बात साधारण पर लहजा दर्प से भरा हुआ ।

हमारे यहाँ तो पाँच साल पहले ही आगया ,..बाबूजी ने पाजेब तो बहुत पुराने डिजाइन की खरीदी इन्हें अब कोई नहीं पहनता बाथरूम में टाइल्स लगवा लो ..सीमेंट का फर्श अच्छा नहीं लगता ..तुम ऐसे रंग क्यों पहनते हो ,एकदम गँवारू ..पढ़ लिख भले ही गए हो पर लगते नहीं हो पढ़ लिखे ..मुझे तो बड़ी शर्म आती है कि बाबूजी बाजार से चार केले उठाकर ले आते हैं ,हमारे घर में तो इतने आते हैं कि चार दिन तक खाते रहो ...।

बेटी सब धीरे धीरे ठीक हो जाएगा .. तू आगयी है जो भी चीज घर में ज़रूरी है बताती जाना । माँ ने समझाया । उन्होंने सास के परम्परागत कठोर रूप से बिल्कुल अलग कान्ता के साथ ममतामय व्यवहार रखा था । उन्होंने कान्ता को कभी उसके मैके की कमियाँ नहीं गिनाई जबकि सबने मेरी ससुराल में रूखे सूखे बर्ताव की आलोचना की । हमारे आशानुरूप कुछ भी नहीं था । न मान सम्मान और न हीं भेंट व्यवहार । माँ और बाबूजी के लिये बहू ही सब कुछ थी ,दहेज नहीं । लेकिन बाबूजी के स्नेह और माँ के वात्सल्य की फुहारों में भी कान्ता बिना भीगे कैसे परे खड़ी रही यह शिवकुमार को भी हैरानी थी ।

पहली रात ही कान्ता ने अपनी मंशा ज़ाहिर करदी---

मैं यहाँ तुम्हारे बिना नहीं रह सकती । 

अभी से.. !---शिवकुमार को हैरानी हुई --शादी को पूरा महीना भी नहीं हुआ ! इतनी जल्दी सास-ससुर और भरे पूरे परिवार को छोड़कर पति के साथ अलग गृहस्थी बसाने का चलन न हमारे परिवार में था न ही कान्ता के परिवार में । नई बहू पति से कहीँ अधिक सास ननदों देवरों और दूसरे परिजनों के बीच रहती है । लल्लन भैया वाली भाभी अभी तक ननद देवरों के साथ खुशी खुशी घर सम्हाल रही है । खुद कान्ता की भाभी ससुराल वाले घर में हैं । उसके भैया हर हफ्ते घर आजाते हैं । जैसा देश वैसा वेश ही अच्छा लगता है । दादी कहती थीं कि प्रेम और अपनापन हो तो सबके साथ रहने की आदत हर परिस्थिति में आदमी को मजबूत रखती है । हमारे घर में कान्ता के लिये प्रेम और सम्मान की कहाँ कमी थी ? वैसे भी जब तक शादी के मेंहदी महावर नहीं छूटते बहू घर-आँगन की शोभा बढ़ाती हैं ।

हालाँकि यह एक नवविवाहिता पत्नी की पति के प्रति प्रेम की विकलता भी हो सकती थी पर कान्ता के प्रस्ताव में उसे प्रेम कम और उसके माता-पिता के प्रति उपेक्षा और परिवार के नियमों को तोड़ने का भाव अधिक लगा । शिव ने समझाया –--"देखो कान्ता जहाँ मेरी नियुक्ति हुई है मेरे लिये भी नई जगह है मुझे पहले अपने पाँव जमाने दो । फिर चलना अभी कुछ दिन माँ बाबूजी के साथ भी रहलो उन्हें अच्छा लगेगा । कुछ दिन बाद मैं खुद तुम्हें ले जाऊँगा । हमें तो साथ ही रहना है । कुछ दिन माँ की खुशी के लिये यहाँ रहलो ।

पर उसे नहीं रहना था । खाना पीना बन्द कर दिया तब बाबूजी ने कह दिया –--"बहू को साथ ले ही जाओ बेटा । जबरदस्ती किसी को साथ नहीं रखा जा सकता ..अब उसे खुश रखना तुम्हारी जिम्मेदारी है ।

माँ भरे मन से बहू के साथ आईं और गृहस्थी जमाकर लौट गईं ।

न्यारा पूत पड़ोसी बराबरकहावत किसी ने सही कही है । खासतौर पर जब जीवनसंगिनी के विचार अलगाववादी हों , बेटा पड़ोसी से भी गया-गुजरा होजाता है ।घर-परिवार से दूर अब कान्ता बहुत खुश थी । यह खुशी पति के साथ के रहने की नहीं ,अपनी विजय की खुशी थी ।पति पर विजय पा ली तो समझो दुनिया जीतली । किसी पर विजय पाना केवल अपनी शक्ति का ही परिचायक नहीं माना जाता । उसमें प्रतिपक्षी की शारीरिक मानसिक दुर्बलता या लड़ने और जीतने की भावना न होना भी है । शान्ति बनाए रखने की चाह पीछे कदम हटा लेती है और प्रतिपक्षी आगे बढ़ता आता है । स्त्री हो या पुरुष , शोषण उसी का होता है जो शान्तिप्रिय संवेदनशील और उदार होता है । कान्ता आगे बढ़ती गई और शिवकुमार पीछे हटता गया । माता पिता की सीख कि बहू को हर हाल में खुश रखना है , और परिवार में शान्ति बनाए रखने की चाह में शिवकुमार को पता ही न चला कि कब कान्ता ने उसे अपने स्थान से लगभग पूरी तरह बेदखल कर दिया है ।

अब हाल यह कि अपने अधिकार क्षेत्र से पति का एक कदम भी बाहर बर्दाश्त नहीं है कान्ता को । उसके अधिकार क्षेत्र में आर्थिक सामाजिक और पारिवारिक के अतिरिक्त उन सभी नियमों का पालन भी है जो खुद कान्ता ने तय किये हैं । किसे कब सोना-जागना है , कब नहाना है ,कब और कितना खाना है , किससे कब और कितनी देर बात करनी है ,कहाँ जाना है और कहाँ नहीं । नियमों का उल्लंघन या व्यवस्था में दखल कान्ता को नागवार है । चाहे बात एक गुलदस्ता की जगह बदलने की हो ।

हटो , जब तुम्हें सलीका ही नहीं कि किस चीज़ को कहाँ रखना है ,तो रखते ही क्यों हो ?....कि तस्वीर वहाँ क्यों लगाई है ..गमले उस तरह क्यों नहीं रखे जिस तरह मैंने माली से रखवाए थे ?..कि मैंने सब्जी लेने जाने को कहा था और तुम अखबार लेकर बैठ गए ! ..कि मना करने के बाद भी तुमने क्यों गाड़ी निकाल ली !..चार कदम पैदल नहीं चल सकते | माँ-बाबूजी से मिलने ,क्या करोगे जाकर.... रहने दो ...अब क्या पढ़ रहे हो इतनी पढ़ाई लिखाई का भी क्या फायदा ..बाबू बनकर रह गए थोड़ी मेहनत करते तो इंजीनियर या डाक्टर होते !.. बातों में कबसे समय बरबाद कर रहे हो ।सही है , जब भी किसी से देर तक बात करनी पड़ जाती तो कान्ता एक कहावत के साथ उसे झिड़कना नहीं भूलती थी--- घर या चट्टो(चटोर) का उजड़ता है या बत्तो(बातूनी) का । बातों में समय बर्बाद करने की बजाय घर के कामकाज ही देख लिया करो ।

यह बात अलग है कि सुबह ऑफिस जाने तक और शाम को आने के बाद रात तक शिवकुमार को कोई न कोई काम लगा ही रहता है । चाहे वह मटर –लहसुन छीलने का हो या हर तीन दिन बाद सुबह सुबह सारे कवर चादर उतारने और नए चढ़ाने बिछाने का हो ..छुट्टी वाले दिन तो पूरी तरह आराम की छुट्टी रहती है । हर हफ्ते कमरे की सेटिंग बदल जाती है । भारी अलमारी और पलंग सरकाना क्या कम मेहनत का काम है की पूरी ताकत झोंक देनी पड़ती है ।

हर हफ्ते बदलना ज़रूरी है ?”

सवाल मत किया करो , काम करो !” –कान्ता किसी पुलिस सुपरिन्टेंडेंट की तरह बोलने का भी मौका नहीं देती ।

हाल यह कि शिवकुमार को अब पत्नी की बात चुपचाप मान लेने की आदत पड़ गई है । पहले प्रेम और सद्भाव के कारण कान्ता की बात मानता था ,अब कलह से बचने के लिये मान लेता है । उसे गाने बजाने का शौक है । कभी हारमोनियम बजाने की इच्छा प्रबल होती है तो कान्ता थैला सामने लाकर पटक देती है ।

आते ही इसे लेकर बैठ गए !...सब्जी अब्जी लानी है कि नहीं ?” 

अभी लाता हूँ बस पाँच मिनट ।

पाँच नहीं पच्चीस लगाओ ,पर इसे उठाकर रख दो। ..जब देखो हा हा हू हू ...रें रें पें पें ...

शिवकुमार चुपचाप हारकर हारमोनियम बन्द कर देता है .।साथ ही उसकी लालसाएं व रुचियाँ भी किसी सन्दूक में बन्द होजाती हैं ।

नियन्त्रण और आलोचना हमेशा निन्दक नियरे….’ की तरह स्वभाव को निर्मल नहीं करती बल्कि उसके पीछे हमारे विश्वास को कमज़ोर और सीमित करके अपनी जगह बनाने की एक सुनिश्चित योजना होती है । ऐसी जगह जहाँ बैठकर वह निर्बाध शासन कर सके । राजनीति में सत्ता पाने के लिये ऐसा ही तो होता है । दाम्पत्य जीवन भी कई अर्थों में राजनीति की तरह है । सत्ता हथियाने और उसे कायम रखने के लिये संकीर्ण , निष्ठुर और स्वार्थी होना पड़ता है . जो नहीं हो पाता वह शासित होता है जैसे शिवकुमार । अपने घर मोहल्ला और पूरे गाँव में सुन्दर ,समझदार , इंटेलीजेंट ,सच्चा और मेहनती माने जाने वाले शिवकुमार को अनपढ़ कान्ता ने जता दिया कि उसमें कितनी कमियाँ है । एक स्त्री की शक्ति और क्षमता को मान गया शिवकुमार .

जब जिन्दगी का ढाँचा इतना पक्का हो जाता है तो उसे बदलना पहाड़ को हटाने जैसा असंभव नहीं तो दुष्कर हो जाता है .शिवकुमार के लिये तो असंभव सा ही है ।

यह तुम्हारी अतिरिक्त संवेदना और स्नेह का परिणाम है । –मित्र कहते हैं । पर शिवकुमार ही जानता है कि पहले था पर अब तो यह न संवेदना है न प्रेम है । यह तो महज कलह से बचने का एक उपाय है ,वरना कान्ता गरजती ही नही है बरसती भी है वह भी मूसलाधार । अभी गरज रही थी ।

तो अब बात यहाँ तक आ गयी है कि भाई बहिन अपनी अलग खिचड़ी पका लेते हैं ..और मुझे खबर भी नहीं होती ! ”

शिवकुमार विमूढ़ सा पत्नी के सुलगते हुए तेवर देख रहा था । कैसे कहता कि जब लोगों में सच सुनने का साहस नहीं होता , सब कुछ ठीक रखने के लिये झूठ का सहारा लेना ही पड़ता है । हालाँकि पता तो चलना ही था । कान्ता भले ही कम पढ़ी लिखी है पर पति के एरियर ,इन्क्रीमेंट ,बढ़े हुए भत्ता और विभाग व कार्यालय की गतिविधियों का पता पूछ पूछकर चला ही लेती है । उसके लिये खाते से पैसे निकलने की जानकारी होजाना कोई बड़ी बात नहीं है .हाँ कब और कैसे बताना है , यह सोचना शेष रह गया था ।

असल में सालों तक किसी दूसरे के तय किये रास्ते पर चलने का अभ्यस्त व्यक्ति किसी कारण से ज़रा सी भी राह दिशा बदलता है तो पाँव लड़खड़ाते ही हैं । शिवकुमार के भी लड़खड़ाए .एकदम कोई जबाब सूझा ही नहीं । अपराधी की तरह चुप रह गया । ऐसे मौकों पर पति की खामोशी पत्नी के अधिकार भाव और रौब को और प्रबल बनाती है । कान्ता उसी प्रबलता से वार करती रही --

आखिर क्या सोचकर सदाव्रत सा बाँटते रहते हो ? क्या यहाँ कुबेर का खजाना भरा है ?                                                                           

बात सदाव्रत की नहीं किसी की ज़रूरत की है ,वह भी अपनी सगी बहिन की । भागवानी की कृपा से हमारे पास ऐसी कमी तो नहीं है कि ज़रूरत पड़ने पर अपनों की सहायता न कर सकें ।शिवकुमार ने तब भी संयत रहकर पत्नी को समझाने की कोशिश की ।

हाँ...ऊँट की गर्दन लम्बी है तो काटलो ! हमने जिन्दगी भर का ठेका ले रखा है ?”

तुम तो ज़रा सी बात पर ।

यह ज़रा सी बात है कि मुझे पूछे बताए बिना चुपचाप घूँस सी भर आते हो  ! क्यों ? ऐसा कौनसा पहाड़ टूट पड़ा उस पर ?”

ज़रूरी तो नहीं कि पहाड़ टूटे तभी किसी की सहायता करो ,पर वह सचमुच मुसीबत में है ।

मंजू की किस्मत में आराम नहीं है तो क्या हम अपनी जान निकालकर दे दें ?”

शिवकुमार विमूढ़ सा पत्नी को देख रहा था जो धुले बर्तनों को ठोक-पटककर अलमारी में जमा रही थी । कुछ दिन पहले अपनी बहिन की ननद को दस हजार रुपए खुद कान्ता ने दिलवाए थे । भाई-भतीजों के लिये भी कुछ न कुछ भेजती रहती है . उसने छोटी बहिन को थोड़े से पैसे दे दिये तो गज़ब होगया ..इस विचार ने शिव को कुछ उत्तेजित किया । बोला--

तुम जब अपनी मर्जी से खर्च करवाती हो कभी भतीजे के लिये तो कभी अपनी बहिन के लिये , तब मैं तो कोई सवाल नहीं करता ?”

हाँ हाँ अब इस बात के भी ताने मारो ।---कान्ता हाथ में मग लिये खड़ी थी । मारे आवेश के हाथ का मग फेंका शिवकुमार बाल बाल बच तो गया पर मग सीधा दीवार से टकराकर चूर चूर होगया ।

स्तब्ध रह गया शिवकुमार । वृन्द कवि ने गलत नहीं कहा ---दुष्ट न छाँड़े दुष्टता कितनों हू सुख देत ..।

कौन कहता है कि नारी अबला है ? कौन कहता है कि प्रेम और सद्भाव के बदले प्रेम और सद्भाव ही मिलता है ? कहाँ हैं नारी की दुर्दशा पर घड़ियाली आँसू बहाने वाले ? देखें कि तुम्हारी अबला नारी कैसे पुरुष की धज्जियाँ उड़ा सकती है कि शोषण केवल पुरुषों के मत्थे बेकार ही मढ़ दिया गया है । स्त्री भी जीना हराम कर सकती है , कर रही है ।वह तय करती है कि पति को कब कहाँ कितनी देर साँस लेनी है ।

 

बाबूजी ! अन्दर आ जाऊँ |”–--कुछ मिनट इन्तज़ार करने के बाद महिला अन्दर आते हुए बोली . शिवकुमार अभी उस हदसे से निकलकर पूरी तरह अपने कक्ष में आ नहीं पाया था । साँसें तेज थीं । एक महिला की अचानक उपस्थिति ने उसे कुछ असहज बना दिया ।

ओह ..अब आप अन्दर आ ही गई हैं तो पूछना क्या ।

मैंने पहले पूछा था ..आपका ध्यान कहीं और था इसलिये आपने सुना नहीं ।

मेरे ध्यान को छोड़ो मैडम अपनी बात करो ..

हद है, मैं अपनी ही बात करने आई हूँ । शौक नही है यहाँ चक्कर लगाने का ।

अरे, यह खूब रही ..मेरे ध्यान पर ध्यान देने की बजाय अपना काम बताओ ..।

मुझे सन् दो हजार सोलह से दो हजार अठारह तक पेमेंट का पूरा विवरण चाहिये .जी पी एफ में मिसिंग है |”

इसमें तो थोड़ा टाइम लगेगा ..आप बैठ जाएं या ।

बैठने का अवकाश नहीं है मेरे पास ..क्लास छोड़कर आई हूँ ।

यानी यह भी एक एहसान ..कोई बात नहीं कल आजाना ..।

क्या यही काम रह गया है कि ऑफिस के चक्कर लगाती रहूँ ?... कल नहीं मुझे आज ही चाहिये अभी ..।

शिवकुमार का दिमाग भन्ना गया । हाथ में चाबुक लिये हर कोई हवा के घोड़े पर सवार है ।

अभी तो नहीं कर पाऊँगा मैडम मुझे और भी ज़रूरी काम हैं । आप लिखकर दे जाएं । स्टेटमेंट कल आकर लेजाना ।

यानी आप मना कर रहे हैं ..।

मैंने ऐसा तो नहीं कहा ।

और कैसे कहा जाता है ?”

तो फिर मना ही समझ लें ।–शिवकुमार न चाहते हुए भी खीज उठा ।

आप बेकार समय खराब कर रही हैं अपना भी और मेरा भी । अब तो सब कुछ ऑनलाइन है । यूनिक आई डी से आप भी देख सकती हैं ।

नहीं देख सकती और क्यों देखूँ .आप यहाँ किसलिये बैठे हैं ?”

कम से कम आपका रौब सहने के लिये तो नहीं ।

श्रीवास्तव जी , कहाँ से बोल रहे हैं ?..आपको क्या क्या सहना पड़ सकता है आपको अन्दाज़ नहीं है ?”

अरे मैडम बेकार ही दिमाग खराब मत करिये । न अपना न मेरा , समय होगा निकाल दूँगा . ले जाना ..।

तो आप चाहते हैं कि महिला ज़रा से काम के लिये आपके आसपास चक्कर लगाती रहे...।

जो भी समझें ..।

ठीक है । समझ रही हूँ कि आप किन लोगों की सुनते हैं किनका काम तुरन्त करते हैं और कैसे करते हैं ..। रंजना दनदनाती चली गई ।

जो समझना हो समझ लेना । हद होगई ...जिसे देखो आज सींग निकाले बैठा है । ये मोहतरमा भी रौब झाड़कर चली गई ।–--शिवकुमार ने अपने आपसे ही कहा और चुपचाप की बोर्ड पर उँगलियाँ चलाते रहे .

---------------------------

महीने का अन्तिम सप्ताह । संकुल के लगभग पचास शिक्षकों के पे-बिल , सीम एम हैल्प लाइन पर तीन चार शिकायतों के निराकरण की कवायद , प्राचार्य के अलग आदेश , ऐसे में बाबू के साथ , जिसके पास सर्विस का पूरा विवरण , प्रपत्र और उनमें फेर बदल करने का भी अवसर होता है , ऐसा बर्ताव कौन करता है भला ? वह भी अकारण अपनी स्त्रीवादी संकुचित सोच के साथ , जो हर जगह तो नहीं चल सकती ना । पर चलती है और धड़ल्ले से चलती है वहाँ , जहाँ न्याय की जगह सीधे सच्चे और संवेदनशील लोगों अन्याय बन जाती है । दूसरे दिन प्राचार्य ने शिवकुमार को अपने कक्ष में बुलाया ।

यह क्या रायता फैला दिया शिवकुमार ?”

कैसा रायता ? मैं कुछ समझा नही सर ।

इसके उत्तर में प्राचार्य ने जिला शिक्षाधिकारी का पत्र सामने रख दिया । पढ़कर शिवकुमार कुर्सी से लगभग उछल पड़ा । पत्र में शिवकुमार से रंजना के साथ की गई बदसलूकी का स्पष्टीकरण माँगा गया था ।

सर ! ..यह तो .. शिवकुमार स्तब्ध ।

रंजना से तुम्हारा जो विवाद हुआ ..शिकायत डी ई ओ तक पहुँच गई है कि क्या समझकर शिवकुमार ने एक महिला के साथ बदतमीज़ी की है ? वह हर काम के पैसे चाहता है , पुरुषों का काम तुरन्त करता है जबकि महिलाओं से खुशामद चाहता है वगैरा वगैरा ।

सर यह सब झूठ है ।

यह तुम कह रहे हो । तुम्हारी कौन मानेगा ? एक तो मामला महिला का है ऊपर से , तुम जानते हो न कि वह...उस एक्ट में फँस गये तो चक्कर लगाते रहोगे अदालतों के ।

सर यह तो सरासर ज्यादती है । क्या आप भी मानते हैं कि ..?”

मैं तो यह मानता हूँ कि तुम उसका काम कर देते चुपचाप ..।

सर मैने मना नहीं किया था केवल कुछ देर बैठने को कहा था ।

एक महिला को अपने पास रुकने को कह रहे थे तुम ।–प्राचार्य ने अर्थपूर्ण दृष्टि से देखा ।

सर !” –शिवकुमार सिर्फ इतना ही कह सका उसका दिमाग भन्ना गया ।

यह मैं नही ,रंजना कह रही है । उसने लिखकर दिया है । सच उसी के लिखे को माना जाएगा । जब तक कि तुम अपनी सफाई पेश न करो ।

जी सफाई पेश कर दूँगा । वह अकारण ही मेरे काम मैं बाधा डाल रही थी जबकि मैंने विनम्रता से थोड़ी देर बैठने को कहा था ।

यही तो गलत किया शिवकुमार । रंजना जैसी महिला को मौका मत दो अपनी बेइज्जती का ।

मेरी मानो यहाँ सही गलत को बीच में मत लाओ । और मेरे विचार से माफी माँगलो । इसमें कोई बुराई नहीं ।

लेकिन सर बात बुराई की नहीं ,अनावश्यक दबाब की है । मैं भी आखिर मशीन तो नहीं ।

तुम लाख तर्क दो ,कोई नहीं सुनेगा..।

स्टाफ के दूसरे साथियों ने भी कहा –-“मेरे भाई कोर्ट कचहरी के चक्कर नहीं लगाने हों तो माफी माँगले । महिला से माफी माँगने पर कोई कुछ नहीं कहेगा । पर उसके साथ कानूनी लड़ाई में ज़रूर तुम्हारी ही हँसी होगी । क्योंकि सुनी मानी उसी की जाएगी ।

शिवकुमार को बेवजह न झुकना पसन्द है न समझौता करना । रंजना से उसने कोई अपशब्द तो नहीं कहा । सिर्फ रुकने को कहा था । ये लोग भी बाबू को रोबोट समझते हैं ।क्यों नहीं मानते कि उसे भी तनाव होता है थकान होती है ।..कुछ दिनों तक आरोप प्रत्यारोप सहता स्पष्टीकरण देता रहा । पर मामला ख़त्म होने का नाम ही न ले । घर में कान्ता की अलग तानाशाही । स्कूल में भई वह तमाशा बन रहा था । सभी एक ही बात कहे जा रहे थे कि अगर मुसीबत से छुटकारा पाना है तो मामला खत्म करो । आखिर एक सीमा पर आकर उसे माफीनामा लिखना ही पड़ा । लिखते समय उसे लगा जैसे घर में ही नहीं अपने कार्यक्षेत्र में भी उसे सम्मान व सच्चाई से बेदखल कर दिया गया ।

शुक्रवार, 19 जनवरी 2024

जाने क्यों

 मन नही होता

मिलने का अब

सुख और आराम से

क्या हुआ ,जो आज खड़े हैं

द्वार पर ही

 

पहले जब मैं उनकी राह देखती थी

किसी प्रेयसी की तरह

वे कतराकर निकलजाते थे

शायद देखकर कि

उनके बैठने के लिये

घर में एक कुर्सी तक नही है ।

आते भी तो दिखाते थे भाव

बेटी को देखने आए

नकचढे मेहमानों की तरह ।

 

नही बन पाई उनसे तब

अब वे मुझसे मिलना चाहते हैं

माँगते हैं समय ।

मैं अवहेलना नही करती

घर आए मेहमान की

लेकिन नही मिल पाती

उस तरह जिस तरह मिलता है

कोई बचपन के सहपाठी से

बहुत दिनों बाद ।

--------------------------

शनिवार, 6 जनवरी 2024

गूँज

 दरवाजे पर दस्तक हुई तो गीतिका का मन कह उठा---"शायद विनीत आगया .

तीन दिन हुए जब विनीत इन्टरव्यू के लिये दिल्ली गया था . कम्पनी वालों ने उसका चयन तो कॉलेज कैम्पस में ही कर लिया था . अब साक्षात्कार की औपचारिकता मात्र थी . जॉब तो पक्का हो ही गया है बस नियुक्ति-पत्र मिलना शेष है . जॉब भी ऐसा वैसा नहीं , शुरु में ही पच्चीस-तीस हजार रुपये महीना देने वाला जॉब है . चार हजार में ही पूरा महीना खींचने की ज़द्दोजहद से मुक्ति . अर्थ के अभाव के साथ पारिवारिक , सामाजिक मान और सम्बल का अभाव भी जुड़ा होता है . गीतिका अर्थाभाव की किसी अँधेरी सुरंग से बाहर आने वाली है इसमें अब शक की कोई गुंजाइश नहीं है . यह विश्वास उसे बड़ा बल दे रहा था .

स्नेह और विश्वास का सम्बल तो उसे किसी से कभी मिला ही नहीं . न बचपन में न ही विवाह के बाद . पति से नहीं , इसलिये परिजनों से भी नहीं . विवाह ऐसे परिवार में हुआ जहाँ माना जाता है कि पति भले ही स्वेच्छाचारी हो , आलसी और निकम्मा हो पर पत्नी को हर जिम्मेदारी निभानी होती है ,चाहे उसे कहीं भी काम करके ही सही .लेकिन मर्यादा में रहकर . विवाह के बन्धन-स्वरूप गीतिका को दो बच्चों की माँ का खिताब तो मिल गया, लेकिन उनके पालन-पोषण के लिये केवल माँ के खिताब से काम नहीं चलता , आवश्यक बजट चाहिये . पति ने कह दिया मैं कुछ नहीं जानता . तेरे बच्चे हैं तू जान ..

कहना चाहती थी कि सिर्फ मेरे क्यों , आपके भी तो हैं लेकिन जानती थी कि बहस करने का कोई लाभ नहीं परिजन इस मामले में हाथ ऊपर कर लेते . तब बी ए तक पढ़ी गीतिका ने प्राइवेट स्कूल में पढ़ाकर और कुछ ट्यूशन करके बच्चों की पढ़ाई व बेसिक ज़रूरतों को पूरा किया . बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाया ,अपनी खाने पहनने की सारी इच्छाओं को कहीं रसातल में डाल दिया था . जीवन की इक्का गाड़ी को खींचते हुए उसे केवल एक उम्मीद सम्बल देती कि बेटा बड़ा और काबिल बन जाएगा तो सारी मुसीबतें कट जाएंगी . संयुक्त परिवार में रहने के कारण कई खर्चों से बच गई थी पर पति के गैरजिम्मेदार रवैया के कारण उसकी स्थिति भी ऐसी हर स्त्री की तरह तरस खाने वाली ही थी .

वास्तव में पति का सम्बल न हो तो स्त्री के सामने समाज से, परिवार से और स्वयं से भी जूझने के लिये कई मोर्चे खड़े होजाते हैं . राह में आए गड्ढे और गहरे होजाते हैं जिन्हें भरने में सारा मनोबल चुक जाता है कभी कभी तो पूरी जिन्दगी ही ..

पर अब वह दिन दूर नहीं जब सहेजी गई उम्मीदों में फूल खिलेंगे . सारा आँगन महकेगा . घर की दीवारों में  झरोखे होंगे . सारा आसामान देखने लायक बड़े बड़े झरोखे . कहा गया है कि उम्मीद पर आसमान टिका होता है .

गीतिका की ऐसी कल्पनाएं निराधार भी नहीं थीं . होनहार बिरवान की तरह विनीत में बचपन में ही होनहार के लक्षण दिखने लगे थे .उसकी प्रतिभा और गुणों के कारण सभी शिक्षक आगे बढ़ने में उसकी यथासंभव सहायता करते और खूब प्रोत्साहन देते थे . आठवीं के बाद उसे स्कॉलरशिप मिलने लगी थी . बारहवीं कक्षा में इतने अच्छे अंक मिले कि एक इंजीनियरिंग कॉलेज में उसे बिना किसी टेस्ट के प्रवेश मिल गया . कॉलेज भी शासकीय होने से फीस भी काफी कम देनी पड़ी थी .

जिस दिन विनीत को कॉलेज में ही एक बड़ी कम्पनी ने अच्छे पैकेज पर चुन लिया  ,परिजनों ने अविश्वास के साथ इस समाचार को सुना था . जो गीतिका को तरस खाती निगाहों से देखते थे वे कह रहे थे – देखो भगवान के घर देर है अँधेर नहीं . अब तुम्हारे दुख के दिन गए . मौज करोगी , कारों में घूमोगी ...

गीतिका मन ही मन हँसी . सच है – बनी के चेहरे पर लाखों निसार होते हैं .

खट् खट् खट्...दुबारा दस्तक हुई .

गीतिका ने पुलकित मन से दरवाजा खोला . विनीत सामने था . थका हारा . जैसे कई दिन से सोया ,नहाया न हो.

होगया इंटरव्यू ?”

हाँ .”

कहाँ भेजेंगे , पूना , हैदराबाद या बैंगलोर ..?”

आराम से बात करते हैं माँ . बहुत थका हूँ ..पहले नहा लूँ . कुछ खा पी लूँ ..

थका तो होगा ही .. साक्षात्कार के लिये अधिकारियों सामने जाने कितनी देख खड़ा रहना पड़ा होगा ..ठीक से कुछ खाया पिया भी नहीं होगा फिर जनरल बोगी में सफर कितना कठिन होता है . यात्री ऐसे भरे होते हैं जैसे अलमारी में जबरन ठूँसे गए कपड़े . पाँव रखने तक की जगह मिल जाए तो गनीमत .विनीत जैसा सुन्दर सुकोमल बच्चा क्या ऐसे सफर करने लायक है ? पर रिजर्वेशन में तीन गुना पैसा अधिक लगता है . पढ़ाई और सुविधा दोनों के लिये एक साथ सोचने की अनुमति उनकी स्थिति नहीं देती . विनीत ने कभी इसकी शिकायत भी नहीं की . माँ को ही समझा दिया ---    

"छोड़ो न,  मम्मी इतनी भी परेशानी नहीं . हम जैसे कितने लोग जनरल में ही सफर करते हैं . वे भी तो इन्सान हैं . फिर मैं अभी अच्छा खासा हूँ . सफर कर सकता हूँ . चिन्ता न करो . तुम्ही तो सुनाती रहती हो—“”जितने कष्ट कंटकों में है जिनका जीवन सुमन खिला .गौरव गन्ध उन्हें उतना ही यत्र तत्र सर्वत्र मिला .

वह सब याद कर गीतिका गद्गद् हो गई -मेरा राजा बेटा . ईश्वर तुझे वह सब दे , जो तू चाहे ..

हाँ ..विनीत अब बता कैसा रहा इन्टरव्यू ? ,कहाँ मिलेगी पोस्टिंग ? गीतिका ने बेटे को खाना परोसकर पास ही बैठकर पंखा झलते हुए पूछा .

मुझे कोई पोस्टिंग नहीं मिलेगी मम्मी !”

गीता अवाक् बेटे का मुँह देखने लगी .

मज़ाक नहीं कर रहा मम्मी .

साफ साफ बता ,क्या हुआ है .”

रिजेक्ट कर दिया गया हूँ और क्या .

गीतिका की समझ में कुछ नहीं आया . दिमाग जैसे ठप्प होगया . कॉलेज का टॉपर . कम्पनी ने सबसे पहले उसका चयन किया . लेटर भी दे दिया . पैकेज वगैरा सब तय था फिर कम्पनी कैसे मना कर सकती है .

कहीं प्राइवेट कम्पनियों में भी सिफारिश और लेन देन तो नहीं चलता ?”

नही मम्मी ,ऐसा होता तो मुझे सिलेक्ट क्यों करते ?”

तो फिर ?”

कलर-ब्लाइन्डनेस के कारण .”

ब्लाइन्ड ! ..चल हट .”–-गीतिका ने बेटे की बात नकारदी . ऐसी बड़ी बड़ी साफ सुन्दर आँखें जिन्हें चश्मा की भी ज़रूरत नहीं . दूर से चीजें पहचान लेता है . शरद पूर्णिमा की रात छोटी सुई में धागा वह सबसे पहले डालता है कम्पनी वालों से भूल हुई है . तुझे पता है एक बार डाक्टर गुप्ता के यहाँ एक कम्पाउण्डर ने मेरा वी पी हाई बता दिया . मैंने कहा डाक्टर साहब आप खुद चैक करिये मुझे तो वी पी की शिकायत आजतक नहीं हुई . और वही हुआ . डाक्टर ने दोबारा चैक किया तो पहली रिपोर्ट गलत साबित हुई ..

मम्मी कलर ब्लाइण्ड का मतलब अन्धापन नहीं होता . मिश्रित रंगों द्वारा एक खास तरह का परीक्षण होता है , जिसमें उम्मीदवार किसी कलर को नहीं पहचान पाता .

तो कहीँ किसी और कम्पनी में कोशिश कर बेटा . हर कम्पनी में तो ऐसा नहीं होगा न ?”

अब मुझे कहीं उम्मीद नहीं है .—विनीत हताश स्वर में बोला .

वर्णान्धता का दोष टैक्नीकल लाइन में स्वीकार नहीं किया जाता ,दुर्भाग्य से मैंने पढ़ाई तो यही की है .

तो क्या कोई जॉब नहीं मिलेगा ?”  गीतिका को जैसे किसी ने बहुत ऊपर लेजाकर धकेल दिया .

पता नहीं .” –--कहकर विनीत कमरे में चला गया माँ को जैसे तपती रेत पर छोड़कर . उसने पहली बार माँ को इतनी निस्संगता के साथ उत्तर दिया था .यह उसकी निराशा की पराकाष्ठा थी .

गीतिका ने देखा एक तेज अन्धड़ उठा और सारे पेड़ धराशयी होगए . सालों से बुनी सपनों की चादर तार तार होगई हैं .आँखें धूल से भर गईँ हैं . आँधी आई और छप्पर को उड़ाकर लेगई .. अभावों के दरिया को पार करने के लिये जो एकमात्र नाव थी उसमें भी सूराख निकला .

एक नौकरी का महत्त्व वही जानता है जिसने अपने मुँह पर ताला लगा कर पढ़ाई की हो , सारी ज़रूरतों की गठरी बाँधकर रसातल में डाल दिया हो सिर्फ इस उम्मीद में कि नौकरी लगने पर वह गठरी खोली जा सकेगी . अब वह सिसक रही थी अँधेरे में पड़ी . उस पर लोगों के दस तरह के सवाल –

कब जा रहा है विनीत ?”

तुम्हें तो घर काटने दौड़ेगा उसके बिना .

तो क्या हुआ , कोई ऐसे ही थोड़ी जा रहा है . इतना कमाएगा कि रखने को जगह न होगी गीतिका के पास .

सो तो है , भैया हमें तो मिठाई चइये .

गीतिका क्या कहे ,कैसे कहे कि दौड़ लगाने के बावजूद विनीत ट्रेन पर नहीं चढ़ पाया . कि गागर घाट तक आते आते छूटकर कुँए में जा गिरी हो , कि किसी कमी के कारण उसे नहीं लिया गया ..क्या सुनना चाहोगे ..सच सुनकर दुख किसे होगा . ज्यादातर लोग दूसरे के दुख के कारण खुद को सुखी महसूस करते हैं . निराशा व दुख के घोर अँधेरे में अकेली भटक रही थी वह . किसको क्या कहे . 

हमारे गुरुजी ने कहा है कि अभी पढ़ने दो बच्चे को . आगे बहुत बड़ा अवसर मिलने के योग हैं ..यह नौकरी तो उसके आगे कुछ भी नहीं है ...अरे हाँ हाँ वही गुरूजी जिनकी बातें हमेशा सही निकली हैं . हमारे संकट टले हैं .”--गीतिका ने यही ज़बाब रट लिया है . फिर यही उसे सच भी लगने लगा है .वह सच उम्मीद की किरण बन गया .

बेटा इस तरह निराश ना हो .ईश्वर एक दरवाजा बन्द करता है तो दस द्वार खोल भी देता है .कोशिश तो करो .”

कहीं भी कोशिश करूँ मम्मी , किसी कम्पनी में इंजीनियरंग की जॉब नहीं मिलेगी . 

कोशिश करने वालों की हार नहीं होती , असफलताओं के बीच ही सफलता की गूँज छुपी होती है . यकीन करो कि ईश्वर जो करता है अच्छे के लिये करता है .---गीतिका ने उसे हौसला देने की कोशिश की तो विनीत बिफर पड़ा था -

आपको अन्दाज भी है कि मुझसे क्या छूट गया है ..मैं किस चौराहे पर खड़ा हूँ ? "----विनीत ने हताश स्वर में कहा –"आप आसानी से यह कह सकती हैं मम्मी , पर मुझपर क्या गुज़र रही है मैं ही जानता हूँ आपको क्या ..

मुझे क्या ! “.. गीतिका के हृदय से आह निकली .

विनीत को जॉब न मिलने से कहीँ अधिक अपने रिजेक्ट होजाने का दुख और हैरानी थी . उसका कारण भी ऐसी कमी जिसके लिये वह खुद जिम्मेदार नहीं था . यह कमी हर कम्पनी में बाधा बन सकती थी .तकनीकी क्षेत्र में तो बनेगी ही . फिर जिस कम्पनी ने आगे बढ़कर उसे चुना , उसने ही नकार दिया तो क्या उम्मीद रखी जा सकती है . कैम्पस में नौकरी का मिलना कितना आसान रहता है इसीलिये लोग ऐसे कॉलेज में प्रवेश लेना चाहते हैं जिसमें कैम्पस की गारंटी होती है . फिर कहीँ भटकना नहीं पड़ता ..अब उसमें इतना हौसला नहीं था कि वह जगह जगह कोशिश करे और बार बार असफलता का सामना करे . असफलता और हीनता का अनुभव उसके लिये सहज स्वीकारने वाली बात भी नहीं थी गीतिका दुखी मन से ऐसे तूफान का सामना कर रही थी जिसकी आवाज तक वह बाहर नहीं आने देना चाहती थी .  चहारदीवारी के भीतर दो लोग चुपचाप घुट रहे थे और लगातार इस कोशिश में थे कि बाहर निकलने का कौनसा रास्ता तलाशा जाय . जब बाहर निकलने की चाह प्रबल होती है तो द्वार खुल ही जाता है .विनीत को एक द्वार खुल गया.

मम्मी मैं गेट का फॉर्म भर रहा हूँ .टैक्नीकल जॉब मिले न मिले , एम.टैक.की डिग्री से किसी कॉलेज में पढ़ाने का अवसर तो मिल ही जाएगा . डिग्री के दौरान स्कॉलरशिप मिलेगी तो कोई आर्थिक समस्या भी नहीं होगी ..

गीतिका को खुशी तो नहीं हुई वह चाहती थी कि विनीत इंजीनियर बने पर फिलहाल यही उपाय था . सबसे बड़ी बात कि पढ़ाई में विनीत हताशा से उबर सकेगा .

विनीत ने गेट में बहुत अच्छे अंक प्राप्त किये . कानपुर आई. आई. टी में उसे प्रवेश मिल गया था . साथ ही इण्डियन इंजीनियरिंग सर्विस की परीक्षा भी देदी थी . प्रश्नपत्र बहुत अच्छे हुए . छह माह बाद एम टैक की डिग्री मिलने वाली थी . कुछ महीनों बाद ही आई ई एस का रिजल्ट भी . समय बस गुजर रहा था बिना किसी योजना कल्पना के . सारी आशा--अभिलाषाएं ईश्वर के सहारे छोड़कर .

ऐसे ही दिन की बात है . गीतिका अपनी सहेली के घर गृहप्रवेश के कार्यक्रम से अपने घर लौटी थी , रात के नौ बज रहे थे . गीतिका ने हल्का सा धक्का दिया तो दरवाजा खुल गया .

अरे निशु ने दरवाजा अन्दर से बन्द नहीं किया ! कितना लापरवाह है ,यह लड़का ? गेम खेलने में या कार्टून देखने में मस्त होगा . इसकी ज़रा खिंचाई करनी होगी .

गीतिका अन्दर पहुँची तो हैरान रह गई . चारों ओर सामान बिखरा पड़ा था गद्दा चादर पलंग की बजाय नीचे फर्श पर पड़े थे . किताबें मेज पर और अखबार अलमारी में नहीं थे . रसोई के डिब्बी डिब्बे नीचे लुढ़के पड़े थे .

यह कैसा तूफान आया है ..गीतिका ने सोचा और चिल्लाई –--"निशान्त !..अरे निशु ..इधर आना !”

निशु गुमसुम सा सोफा पर बैठा था ,उठकर माँ के सामने आया .

यह क्या है ? पागल होगया है ?

आप सुनोगी तो आप भी पागल होजाओगी मम्मी .  निशु दोनों हाथ ऊपर तानते हुए चिल्लाया   

मम्मी ..दादा को काफी बड़ी सफलता मिल गई है ..

देख निशु अगर तू हर बार की तरह मज़ाक कर रहा है तो यह बहुत भद्दा मजाक है .

अरे मम्मी यह मजाक करने वाली बात है क्या ? आई ई एस का रिजल्ट आया है . दादा बहुत अच्छी पोजीशन से पास हुए हैं .  साथ ही कॉलेज कैम्पस में उन्हें इसरो के साइंटिस्ट भी चुनकर गए हैं दादा को .मेरा कहा न मानो , दादा खुद कहेंगे तब तो मानोगी .

गीतिका की समझ में नहीं आ रहा था कि कैसे विश्वास करे . दूध का जला छाछ को भी फूँक फूककर पीता है . तभी विनीत का फोन आगया .

हाँ मम्मी मैं सचमुच फाइनली चुन लिया गया हूँ . इस बार कोई संशय या धोखा नहीं ..

लेकिन बेटा वह आँखों की बात ..? —गीतिका को अभी भी डर था कि खुशी छिन न जाए .पूरी तरह यकीन कर लेना चाहती थी .

मम्मी सब जानने के बाद ही मुझे चुना गया है .अब कोई बाधा नहीं है .

गीता कुछ पल अवाक् खड़ी रही .इस उपलब्धि पर एकाएक उसे विश्वास ही नही हुआ . आज ईश्वर के छप्पर फाड़कर देने वाली कहावत चरितार्थ हो रही थी . खुशी के मारे वह रो पड़ी . फिर कमरे में नज़र डाली ,जहाँ चारों ओर सामान इधर उधर पड़ा था . यह दूसरी तरह का तूफान था जिसमें नीरवता नहीं थी , शोर था, उमंग थी उम्मीदें थीं ,तमाम सपनों की गूँज थी .

तूफान केवल विध्वंस का प्रतीक नहीं होते ,कभी कभी उनमें निर्माण की गूँज भी होती है .

यह सोचकर गीतिका आँसुओं के बीच भी मुस्करा उठी .