समीर हाथ में स्वेटर
लिये लगभग पन्द्रह मिनट से असमंजस में खड़ा था. उसकी समझ में नही आ रहा था कि
स्वेटर को कहाँ रखे .एक सूटकेस में केवल शालू के कपड़े थे . एक बैग में पिंटू के
कपड़े थे और एक बड़े सूटकेस में सबके मिश्रित . तीनों में ही इतनी जगह तो थी कि किसी
एक में समीर अपने स्वेटर को रख देता पर उसे मालूम था कि अगर उसने शालू से बिना
पूछे रख दिया तो वह निश्चित ही उसे निकालकर कहीं दूसरी जगह रख देगी और दस नसीहतें
देगी सो अलग कि तमीज नही है कपड़े रखने का भी .कि कुछ तो ढंग का सीख लिया होता
वगैरा वगैरा..
दस साल से यही सब तो देख रहा है समीर .अगर वह अखबार पढ़ते
हुए बीच में टायलेट या सब्जीवाले की पुकार सुनकर गली में चला जाता है तो शालू अखबार
समेटकर रख देती है यानी कि बस हो चुका पढ़ना . और अगर समीर अपने हारमोनियम को
अलमारी में रख देता है तो शालू उसे ऊपर ताक़ पर रखवा देती है .चाहे बजाने के लिये
उतारने में उसे कितनी ही परेशानी हो . उसकी संगीत में गहरी रुचि है लेकिन वह न तो
कोई मनपसन्द चीज सुन पाता है ना ही गा पाता है . पाँच साल पहले शकुन जीजी ने उसे
जन्मदिन पर एक टू-इन-वन दिया था और साथ में गुलाम अली ,राशिदखान ,भीमसेन जोशी आदि
के कैसेट भी रखे थे पर वे ज्यों के त्यों रखे हैं .हारमोनियम भी वह अच्छा खासा बजा
लेता है पर नहीं बजा सकता . कभी पिंटू को पढ़ाई में डिस्टर्ब होता है तो कभी शालू
को उसी समय अपनी माँ से जरूरी बात करनी होती है चार कमरों के घर में उसके लिये ऐसी
कोई अलग जगह नहीं है जहाँ वह निश्चिन्तता के साथ अपना कोई काम करले . अखबार भी तो
उसे सीढ़ियों पर बैठकर पढ़ना पड़ता है . उस समय भी शालू चार बार छत पर जाती है .उससे
अड़ती हुई .
“यह क्या तरीका
है ?”—समीर हल्की सी भी आपत्ति करता है तो शालू टोक देती है .
“तो ?...यह कोई जगह
है बैठने की ?”
"फिर कहाँ बैठूँ ?"
"मेरे सिर पर बैठ जाओ ." शालिनी झल्लाती है .समीर खिसिया जाता
है .
समीर को गाने बजाने का शौक है पर शालिनी
समीर को गाने बजाने का शौक है पर शालिनी
गाने बजाने को फालतू और बैठे-ठाले की चीज समझती हैं .बल्कि वह मानती है कि यह कुलीन लोगों का काम नही है . इसलिये जब भी ऑफिस से आकर समीर का मन कोई गीत या गज़ल बजाने
का होता है जो रास्ते में ही कहीं कानों में उतर गई होती है तभी शालू सामान या सब्जी के लिये थैला पकड़ा देती है –--“आते ही इसे लेकर बैठ गए .सब्जी-अब्जी लानी है कि नही ...घर के भी कुछ काम
कर लिया करो ..”
“सब्जी ? अभी लाता हूँ बस
पाँच मिनट ...”
“पाँच नही
पच्चीस मिनट लगाओ पर इसे उठाकर रखदो बस...आते ही पें....पें , रें रें.”
तब समीर के पास अपने अभ्यास को छोड़ने के अलावा कोई चारा
नहीं होता .
समीर अभी तक स्वेटर को रखने की जगह तय नहीं कर पाया था
.शालू हैरान हुई सी बोली --
“ऐसे
क्यों खड़े हो ?”
“यह
स्वेटर ..?”
“हे भगवान
!”–शालू ने माथा ठोका—“मैंने सारा समान
जमा लिया और आप हैं कि स्वेटर की जगह तलाश रहे हैं कि कहाँ रखें .”
“वही तो
पूछ रहा था कि..”
“मेरे
पर्स में रखदो .”–शालू ने खीजकर कहा— “इन पर कोई काम
छोड़ा ही नही जा सकता लाओ मुझे दो .”
स्वेटर समीर के हाथ से छीनकर शालू ने अलमारी में रख दिया
.कहा—“अब इतनी
सर्दी नही कि स्वेटर का वजन बढ़ाया जाए . मैंने खुद कोई गरम कपड़ा नही रखा .”
“पर रात
में तो सर्दी रहती है .”–समीर
कहना चाहता था पर उसे शालू के जबाब का अनुमान था कि – “कहीं नही रहती सर्दी वर्दी..फालतू ही सामान बढ़ाना बेकार है .”
इसलिये वह बिना कुछ बोले स्वेटर को तबतक देखता रहा जबतक
शालू ने उसे अलमारी में नही रख दिया .मानो इस तरह स्वेटर को देखना उसके व्यस्त
रहने का माध्यम हो . फिर पत्नी की बात को समर्थन देने के लिये बोला—“ठीक ही
है तीन-चार दिन की तो बात है . आज अट्ठाईस हुई है .तीस की शादी है . एक का
रिशेप्सन ..अपन दो या तीन को लौट ही आएंगे..ज्यादा कपड़े रखकर क्या करना है ..”
“अब जरूरी
तो रखने ही होंगे कि नही ..बड़े-बड़े लोग वहाँ आएंगे . अच्छा लगेगा क्या कि एक दो
ही जोड़ पहनते रहो ...सच्ची उन लोगों के ठाठ-बाट देखकर तो लगता है कि हम तो यों ही
जी रहे हैं .काइ की जिन्दगी है .”—शालू ने
सूटकेस बन्द करते हुए कहा .
“जो भी
मिलता है यही पूछता है ,शालू तुम्हारे पापा ने क्या देखा .न घर न ..”
“ और न वर .”–समीर
ने मन ही मन पत्नी के अधूरे छोड़ दिये वाक्य को पूरा किया
.और कातर-भाव से पत्नी को देखा . जब भी मौका मिलता है वह समीर को सुनाती हुई यही
तो जताती रहती है कि उसके और उसके मायके के मुकाबले न समीर है न समीर के घरवाले .
'शालिनी का असन्तोष अस्वाभाविक भी तो नही है'--समीर निष्पक्षता से सोचता है .
'अच्छे खाते-पीते ,नए नए ही सम्पन्न हुए पिता की भौतिक सुविधाओं में पली बेटी को वह दे भी क्या पाया है . एक निम्न श्रेणी क्लर्क का मासिक वेतन होता ही कितना है .सब्जी और राशन से आगे कुछ सोच ही नही पाता .इस बड़े शहर में एक कमरा भी दो हजार रुपए से कम नही मिलता . कहाँ तो समीर का एक दो कमरों वाला छोटा सा मकान और कहाँ शालिनी के पिता का बढ़िया बड़ा सा घर जिसमें चार-पाँच कमरे हैं . अन्तर तो पड़ता ही है न .उनका एक कमरा तो बक्स अलमारी और दूसरे सामान से भरा है .दूसरे कमरे को चाहो तो ड्राइंगरूम मानलो चाहो बेडरूम .'
'अच्छे खाते-पीते ,नए नए ही सम्पन्न हुए पिता की भौतिक सुविधाओं में पली बेटी को वह दे भी क्या पाया है . एक निम्न श्रेणी क्लर्क का मासिक वेतन होता ही कितना है .सब्जी और राशन से आगे कुछ सोच ही नही पाता .इस बड़े शहर में एक कमरा भी दो हजार रुपए से कम नही मिलता . कहाँ तो समीर का एक दो कमरों वाला छोटा सा मकान और कहाँ शालिनी के पिता का बढ़िया बड़ा सा घर जिसमें चार-पाँच कमरे हैं . अन्तर तो पड़ता ही है न .उनका एक कमरा तो बक्स अलमारी और दूसरे सामान से भरा है .दूसरे कमरे को चाहो तो ड्राइंगरूम मानलो चाहो बेडरूम .'
“घर में किचिन के
अलावा कम से कम तीन कमरे तो होने ही चाहिये .”
“हाँ होने तो
चाहिये . ”–समीर
कहता है --“पर उसके
लिये पैसे की गुंजाइश भी तो हो .”
“बस अब तो यही सुनते
रहना पड़ेगा और क्या....”
साधारण स्कूलमास्टर रामप्रसाद का सादा-सरल विचारों वाला
बेटा समीर अपनी ही नजरों में छोटा होजाता है . उस पर साले सालियाँ उसके कद को और छाँटने
में कसर नही रखते –“क्या
जीजाजी ! इस शर्ट पर और कितना जुल्म ढाओगे . दूसरी निकाल लो या खरीद लो.....कि जीजाजी अब तो अपना हेयरस्टाइल बदल लो ..अरे जूते तो
ब्रान्डेड पहना करो ..नही तो चलिये आपको हम दिलवा देते हैं .”
समीर कहना चाहता है –“इसके लिये बाजार
जाने की क्या जरूरत . घर में ही इतने जूते चप्पलें हैं .तुम्हारे सामने बैठा तो
हूँ .”
लेकिन कह नही पाता . तभी बड़ी साली भी अपनी
बहन से शिकायत कर बैठती है –“क्या जीजी ! तुमने मेरे ‘बड्डे’ पर कुछ भी नही दिया ..
शालिनी बड़ी बड़ी आँखों में एक उलाहना भरकर कि ऐसे कंगाल
जीजाजी से क्या उम्मीद रखती है ,समीर को देखती है . ऐसे में समीर का मन-मण्डल
अपराध-बोध के सघन बादलों से घिर जाता है . और फिर घिरता चला जाता है .वह किसी को कोई सन्तुष्ट नही कर सका है . स्कूल में उसके सहपाठी उससे नाराज रहते थे क्योंकि वह परीक्षा में नकल कराने से मना कर देता था .गणित के शिक्षक पाठक ने तो उसे बुरी तरह पीटा तक था क्योंकि उसने बोर्ड पर सर द्वारा लिखे फार्मूले को गलत बता दिया था . उसने पिताजी की इच्छानुसार इंजीनियर बनने में कोई रुचि नही दिखाई क्योंकि वह सिविल सेवा में जाना चाहता था .पर नही जासका और क्लर्क बन कर रह गया
क्लर्क को छोटा मोटा आदमी मत समझो . कार्यालय का असली मालिक वही होता है . अफसर तो केवल चिड़िया बैठाने के काम के होते हैं . रुतबा तो उसका है ही, पैसा भी इतना कि दोनों हाथों से बटोर लो ..पर क्या समीर से ऐसी उम्मीद की जा सकती है ? पर करते हैं . शालिनी , शालिनी के माता पिता , समीर के मित्र ..उसे
चारों ओर हताशा का ही अँधेरा नजर आता है .वह शालिनी की अपूर्ण इच्छाओं के बोझ तले दब जाता है .सचमुच शालिनी के पिता ने कुछ भी तो नही देखा ..
क्लर्क को छोटा मोटा आदमी मत समझो . कार्यालय का असली मालिक वही होता है . अफसर तो केवल चिड़िया बैठाने के काम के होते हैं . रुतबा तो उसका है ही, पैसा भी इतना कि दोनों हाथों से बटोर लो ..पर क्या समीर से ऐसी उम्मीद की जा सकती है ? पर करते हैं . शालिनी , शालिनी के माता पिता , समीर के मित्र ..उसे
चारों ओर हताशा का ही अँधेरा नजर आता है .वह शालिनी की अपूर्ण इच्छाओं के बोझ तले दब जाता है .सचमुच शालिनी के पिता ने कुछ भी तो नही देखा ..
“क्या नहीं देखा ?”—ऐसे में उसकी
बड़ी बहिन सकुन किरण की तरह निराशा की धुन्ध हटाती है .अपने छोटे भाई को इस तरह
मायूस पाकर वह हमेशा दुखी होजाती है . वह समीर से कम से कम आठ साल बड़ी है . और एक
माँ की तरह उसने समीर का ध्यान रखा है . सुशिक्षित है . सरकारी स्कूल में शिक्षिका
है . समीर के घर से कुछ ही दूरी पर स्कूल के नजदीक रहती है . वह अपने पिताजी के
सिद्धान्तों का अनुशरण करती है . उसे बेहद नागवार होता है कि शालिनी जो रंग रूप
में बीस होने के बावजूद वैचारिक और भावनात्मक स्तर पर किसी भी तरह समीर के समकक्ष नहीं
,उसके प्रतिभाशाली ,ईमानदार ,सच्चे और छल-दिखावे से दूर रहने वाले सीधे-सादे भाई
को जब देखो झिड़कती रहती है .जैसे वह उसका पति न हो कोई मजदूर भिखारी हो .
“मेरी समझ में तो
उन्होंने कुछ ज्यादा ही देख लिया ..सुदूर भविष्य तक .
शकुन इस बात को मजबूती से पकड़े हुए है कि शालिनी के पिता ने सब कुछ जानकर भी आग्रहपूर्वक रिश्ता तय किया था . पिताजी ने पहले ही सब कुछ साफ बता दिया था कि रमेश बाबू पहले सब कुछ अच्छी तरह देख-समझ लो उसके बाद कोई निर्णय लेना ताकि बाद में कोई फसाद ना हो .हम गाँव में रहने वाले सीधे-सादे ईमानदार लोग हैं. कोई बड़े या पैसे वाले भी नही हैं . जो है सब आपके सामने है .. समीर की नौकरी अभी नई नई ही लगी है इसलिये शुरु में आपकी बेटी को गाँव में ही रहना पड़ेगा ..इतना सुन देखकर भी उन्होंने समीर के हाथ में ग्यारह सौ रुपए और मुँह मीठा करा दिया था ..फिर भी इसके लिये तू खुद को जिम्मेदार मानकर अपराधबोध पाल रहा है यह बात आज तक यह बात नही आई समीर .हमने तो नही कहा था कि आओ हमारे समीर को अपना दामाद बनालो .
.पर तब तो ठेकेदार साहब को लड़के की सरकारी नौकरी दिख रही थी . रमेशचन्द्र जी पहले ही सब जाँच-परख कर ही गाँव तक आए थे . उनसे कुछ भी नही छुपा था , क्या उन्हें मालूम नही कि एक क्लर्क को इतना वेतन तो नही मिलता कि वह ईमानदारी के साथ ठाठबाट से भी रह सके . या कि यह मालूम था कि लड़का हमसे दबा रहेगा और बेटी राज करेगी .बता इसमें तेरी क्या गलती है ? यह तो तू है कि स्थिति को उनकी नजर से देखता है पर वे लोग कभी तेरी भावनाएं समझते हैं ”
शकुन इस बात को मजबूती से पकड़े हुए है कि शालिनी के पिता ने सब कुछ जानकर भी आग्रहपूर्वक रिश्ता तय किया था . पिताजी ने पहले ही सब कुछ साफ बता दिया था कि रमेश बाबू पहले सब कुछ अच्छी तरह देख-समझ लो उसके बाद कोई निर्णय लेना ताकि बाद में कोई फसाद ना हो .हम गाँव में रहने वाले सीधे-सादे ईमानदार लोग हैं. कोई बड़े या पैसे वाले भी नही हैं . जो है सब आपके सामने है .. समीर की नौकरी अभी नई नई ही लगी है इसलिये शुरु में आपकी बेटी को गाँव में ही रहना पड़ेगा ..इतना सुन देखकर भी उन्होंने समीर के हाथ में ग्यारह सौ रुपए और मुँह मीठा करा दिया था ..फिर भी इसके लिये तू खुद को जिम्मेदार मानकर अपराधबोध पाल रहा है यह बात आज तक यह बात नही आई समीर .हमने तो नही कहा था कि आओ हमारे समीर को अपना दामाद बनालो .
.पर तब तो ठेकेदार साहब को लड़के की सरकारी नौकरी दिख रही थी . रमेशचन्द्र जी पहले ही सब जाँच-परख कर ही गाँव तक आए थे . उनसे कुछ भी नही छुपा था , क्या उन्हें मालूम नही कि एक क्लर्क को इतना वेतन तो नही मिलता कि वह ईमानदारी के साथ ठाठबाट से भी रह सके . या कि यह मालूम था कि लड़का हमसे दबा रहेगा और बेटी राज करेगी .बता इसमें तेरी क्या गलती है ? यह तो तू है कि स्थिति को उनकी नजर से देखता है पर वे लोग कभी तेरी भावनाएं समझते हैं ”
पॉलिटिक्स में स्नातकोत्तर बड़ी बहन समीर को ऐसे मौकों
पर खींचकर दोराहे पर खड़ा कर देती है दस साल से वैवाहिक जीवन की जिस कटु सच्चाई
को वह जी रहा है ,उसे शकुन कुछ पलों के लिये संदिग्ध बना देती है .'देखा जाए तो जीजी
की बात में एक अक्षर भी तो गलत नही है . जिस समीर को घर ,बाहर, स्कूल कॉलेज हर जगह
हमेशा प्रशंसा मिलती रही थी और वह भी कोरी नहीं वास्तविक ..कोई उसके गायन से
प्रभावित था , कोई उसकी तर्कशक्ति से तो कोई उसके विस्तृत सामान्य-ज्ञान से ..वही
समीर विवाह के बाद हीनता से भर दिया गया . उसके सामने कितने ही उदाहरण पेश किये
जाते हैं जो उसे नाकाम सिद्ध करने पर्याप्त हैं कि तुमने सुना है तुम्हारे साथ के प
ने शानदार कार खरीदी है . क ने इसी नौकरी में रहते हुए बढ़िया मकान बना लिया और ज
ने अपनी बीबी को डायमण्ड सेट लाकर दिया है . मुझे तो...'
"शालू मैं इन चीजों के महत्त्व को नकार नहीं रहा पर अपनी
गुंजाइश भी तो देखनी चाहिये फिर इन्सान की कीमत पैसे से नहीं उसके गुणों से होती
है ...."
बस इनसे और कुछ तो होता नहीं पर प्रवचन देना खूब आता है
.
समीर विमूढ़ सा पत्नी को देखता रह जाता है .क्या सबके
पास गाड़ी बंगला है ..जिनके पास नी हैं क्या वे खुश नहीं हैं ...
ईमानदार और सादा जीवन, उच्च विचार का पालन करने वाले
मास्टर रामप्रसाद का इकलौता बेटा समीर अपने पिता से भी अधिक सच्चा और ईमानदार है
यह क्या गलत है, लेकिन व्यवहार में तो वह गलत और बेकार ही सिद्ध हो रहा है .शालिनी
और उसके भाई-बहिन उसे सम्मान देते हैं पर उसमें उनके भीतर छुपा अपनी उच्चता और
समीर के प्रति उपेक्षा का भाव साफ झलकता है . और माता-पिता के बर्ताव में भी स्नेह
तो होता है लेकिन वैसा ही जैसा माता-पिता अपने असहाय और नाकाबिल बच्चे पर करते हैं
. वह भी इसलिये कि जैसा भी है ,वह उनकी बेटी का जीवन साथी है .और कम से कम निरापद
है .इसमें वे भी तो गलत कहाँ हैं .
“यही बात तो तुम्हें
कमजोर बना रही है कि तू दूसरे के पाले में जाकर सोचता है . किसे तुमसे क्या बर्ताव
करना चाहिये यह बहुत कुछ तुम्हारे ऊपर निर्भर है समीर .”—जीजी जब इस तरह कहती है तब समीर की हालत
बिना तैयारी के ही पहली बार मंच पर आ खड़े हुए वक्ता जैसी होजाती है .
“अपने आप को खुद
ही निरीह बना रखा है तूने . क्या कमी है तुझमें .बल्कि कहूँगी कि जो हुनर तेरे पास
है वह रमेश शर्मा जी की तीन पीढ़ियों में नही है .वरुण और नकुल दो साल से दसवीं और
इन्टर में फेल हो रहे हैं . और ग्रेजुएट शालू की नॉलेज कितनी है हम सब जानते हैं
.पैसा ही सब कुछ नही होता मेरे भाई. पैसा तो कोई भी कमा सकता है . और तुझे यह भी
याद नही रहता कि स्कूल में दस साल तक नम्बरों में सबसे ऊपर तेरा नाम रहा है .
पर मिला क्या उन नम्बरों से .”
“यह तो तेरी
लापरवाही का नतीजा है समीर .”—शकुन उसे कसती ही जाती है .
“पिताजी की कितनी
चाहत थी कि पीएससी और आईएएस जैसी परीक्षाओं की तैयारी करो और मेरे भाई तुझे भी पता
है कि उनकी यह अपेक्षा हवा में छोड़ा गया तीर नही है .प्री पीएससी परीक्षा तुमने
बिना तैयारी के ही दो बार पास कर ली पर मुख्य परीक्षा की तैयारी ही नही की क्योंकि
तूने खुद को इस लायक समझा ही नही .शालू के घरवालों ने यह अहसास कराने में कसर नही
छोड़ी है ..”
“जीजी अब इन
बातों का मतलब ही क्या है .”—समीर हथियार डाल देता है पर शकुन वार पर वार करती है –- “मतलब है . मुझे
बिल्कुल गवारा नही कि मेरा कलाकार और प्रतिभाशाली भाई अपनेआप को यों गलाता रहे . ...मैं
शालिनी या उसके परिवार के खिलाफ नही हूँ . मैं खिलाफ हूँ तेरी इस हीनता व निरीहता की .
जबकि जीवन के प्रति तेरा और ससुराल वालों का नजरिया बिल्कुल अलग है ,तू खुद
अपने-आप को मान नही देगा तो कौन तुझे मान देगा .”
समीर को जीजी की हर बात सही लगती है .सचमुच अगर वह ठान
लेता तो सफलता में कहीं कोई सन्देह नही था .पर अब ... वह भ्रमित हो जाता है कि उसे
जाना कहाँ है .
ठक्..ठक्..ठक्..
समीर ने दरवाजे की ओर देखा . कुछ पल यह सोचने में बीत गए
कि दरवाजे पर दस्तक देने वाला कौन होगा तब तक शालू चिल्ला पड़ी—
"दरवाजा भी नही खोल सकते उठकर .बैठे बैठे सुन रहे हैं देख
नही रहे कि मैं काम में लगी हूँ .टाइम से नही निकले तो गाड़ी नही मिलने वाली .."
समीर लपककर दरवाजे पर पहुँचा .किवाड़ खोलते ही हर्ष और
विस्मय के साथ बोला—"जीजी आप !"
"क्या बात है समीर ? कुछ परेशान लग रहा है . .शालू कहाँ है ,दिखाई नही दे रही ?"—शकुन ने इधर-उधर
देखते हुए पूछा .
"शालू अन्दर है ...आ जाओ ."---समीर शकुन की तरफ बिना देखे
ही अन्दर आते हुए बोला . जीजी का आना उसे खुशी से अधिक उलझन में डाल देता है .वह
बचने के लिये अखबार लेकर बैठ गया
“अरे तैयारी
जोरों पर है .”--शकुन मुस्कराकर
कहते हुए किचन में चली गई .
“मैं कुछ हाथ
बटाऊँ ?”—शकुन
भरसक मुस्कराकर संवाद जारी रखना चाहती है यह जानते हुए भी कि यह प्रयास गहरी नीद
में सोए व्यक्ति को धीरे से पुकारने जैसा है. वह भाभी से कोई कटुता नही रखना चाहती
.समीर से जो भी कहती है ,उसकी बड़ी बहन की हैसियत से . एक परम्परागत ननद की तरह वह
कभी आलोचक नही रही लेकिन ससुराल और पत्नी को लेकर भाई की हीनावस्था पर वह जरूर दुखी
व नाराज होजाती है .
“तैयारी हो चुकी ?”---शकुन ने बात को
आगे बढ़ाते हुए कहा ताकि शालू के मिजाज में सहजता आ सके .पर वह कुछ खीज और कुछ
असहायता भरे भाव से बोली—“क्या हो चुकी ! ये तो कुछ करते ही नही बस यह स्टूल कहाँ रखदूँ ..या
क्या यह पानी पीने का है जैसी बातें ...उफ् ..पिंकू को कपड़े तक नही पहना सकते ..”
कहते कहते शालू ढेर सारा तनाव पोत लेती है ,पसीने में
टैलकम पावडर की तरह .शकुन को पेट में ऐसिडिटी जैसा अहसास होता है . उसे पता है कि
शालिनी जानबूझकर शकुन को समीर के दोष गिनाती है . क्या समीर पहले ऐसा निष्क्रिय था ? घर के
सारे कठिन काम वही करता था वह भी पूरे उत्साह के साथ .ड्रमभर गेहूँ छत पर चढाना
,उतारना ,कुए से दस दस बाल्टी पानी लाना , कोई वृद्धा पानी का मटका नही उठा पारही
तो उसके घर पहुँचा देना .मोहल्ले की ताई चाची भाभी जीजी कोई भी पानी भरने
बैठी हैं तो सबके कलसे भर देना ,बाजार से घर का सारा सामान लाना..ये सब काम
कौन करता था . पूरे गाँव में उत्साह और मदद की भावना को लेकर समीर का नाम था .इस
आरोप पर शकुन के अन्दर चीत्कार उठती है –'शालू
इसकी जिम्मेदार तू ही है .' पर जान चुकी है कि ऐसे में कुछ कहना कपूर को
तीली लगाना होगा . इसलिये स्थिति को सहज बनाए रखने के लिये कहती है – “कोई बात नही
शालू मैं करवा लेती हूँ .” पर शालू ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाई .
समीर देखता है कि जीजी चुपचाप खड़ी है . शालू को जीजी से
बैठने को कहना चाहिये . बनाए नही पर शिष्टाचार के लिये ही चाय की तो पूछ लेना
चाहिये . यह तो शिष्टाचार है फिर जीजी तो अपनी है बड़ी है . समीर को उन्होंने माँ
की तरह पाला है .पिताजी की पूरी देखभाल वही करती हैं . कहीं गहरे में समीर की
इच्छा होती है कि वह खुद जीजी को अपने पास बिठाए .बहुत सारी बातें करे .अपने गाँव
की ,स्कूल की , खेतों और नदी की .चर्चा करे कि अभी कौनसी किताब पढ़ी है .मुझे के एम
मुंशी को पढ़ना अच्छा लगा कि जीजी तुमने राग-दरबारी और इदन्नमम् पढ़ा है . दोनों
कमाल के हैं एक हास्य-व्यंग्य और दूसरा शानदार आंचलिक उपन्यास ..नही तो जरूर पढ़ना
कि जीजी मुझे फ्यूजन के सभी गाने अच्छे लगते हैं पर
खासतौर पर मोरा सैंया मोसे बोले ना ..और ए चाँद .जो जोग पर आधारित है .. तुम्हें
सुनाऊँगा तुम खुश हो जाओगी जीजी..
समीर जीजी को खुश करना चाहता है क्योंकि वह खुद खुश होना चाहता है .क्योंकि
उनकी खुशियाँ एक हैं रुचियाँ एक हैं . पर ऐसी बातें वह शालू के सामने हरगिज नही कर
सकता .तूफान खड़ा कर देगी ...
शालू की रुचियाँ बिल्कुल अलग हैं .गाने और बाँसुरी या हारमोनियम बजाने को
वह फालतू काम समझती है किताबें पढ़ना उसे बैठे-ठाले लोगों का काम लगता है .वह हर
चीज को पैसे से तौलती है . गुप्ता से अच्छा डाक्टर अग्रवाल है .गुप्ता की फीस सौ
है और अग्रवाल की तीन सौ रुपए .
घर पहुँचते ही शालिनी के पापा पूछते हैं –“स्टेशन से कैसे आए ऑटो से या टेम्पो से ?”..हद होगई यार ,पहुँचने से ज्यादा पहुँचने का साधन होगया .
“यह जरूरी है पापा कहते हैं .”–शालिनी गर्व से कहती है .
“इन्ही बातों से हमारी स्थिति तय होजाती है पर तुम क्या
समझो इन बातों को ..”
समझ में न आने पर भी समीर मान लेता है और पत्नी की कसौटी पर खरा न उतर पाने
का अफसोस गहरा जाता है .
“अच्छा चलती हूँ .”–शकुन निरुपाय सी बैठी ऊब गई तो उठ खड़ी हुई .वह आती तो समीर और बच्चों के
मोहवश है लेकिन दोनों ही अक्सर उपलब्ध नही होते . शालिनी का बर्ताव बर्फ जैसा
स्वादहीन है . इसलिये कुछ ही दूर उसका घर होने के बावजूद उसे हफ्तों गुजर जाते हैं
अपने सगे भाई के घर आए .शालिनी का सर्द व्यवहार उसे हताश कर देता है . वह बिना बात किये इधर से उधर
टहलती रहती है .शकुन बच्चों से बात करती है तो वह उन्हें भी उसी समय बिजी कर
देती है - पिंकू बेटा जरा आंटी की कटोरी दे आना .रिंकी तेरा होमवर्क होगया ...शकुन
फिर क्या करे . लड़ाई या विरोध हमेशा शब्दों में ही मुखर नही होता . सच तो यह है
कि मूक उपेक्षा ,आँखों की रूखाई शब्दों से कहीं अधिक मारक होती है . कोई शिकायत
करे भी तो क्या करे .कि अमुक ने मुझे ऐसे देखा ..कि अमुक देखकर मुस्कराई भी नही
...शब्द हों तो शिकायत के लिये कुछ तो हो .
“ये शकुन जीजी भी हवा पर सवार रहती हैं . न बोल-बतियाना न
कुछ करना-धरना . बस मौका मिल जाए उपदेश जरूर दे जातीं हैं .ऐसी बहनें होतीं हैं .
पहले अपना घर तो देखलें .”—शकुन
के जाते ही शालिनी का आक्रोश फूट पड़ा .
वैसे तो समीर शान्त रहता है . यह भी जानता है कि शालिनी जीजी को पसन्द नही
करती .रूखा बर्ताव करती है लेकिन जीजी भी तो पीछे नही रहती .
दो चार वाक्यों में ही इतना कुछ कह देती है कि वह डगमगा जाता है . शालिनी
की बजाय वह अपनी नजर में मां और पिताजी का अपराधी बन जाता है .जैसे कुछ दिन पहले जीजी
ने बस पूछा था--
“समीर गाँव कबसे नही गए . माँ-बाबूजी बहुत याद कर रहे थे
. क्या होली पर जाओगे ?”
बात सीधी सी थी पर इतनी तेज और व्यंजनामय कि समीर को कुरेदकर रख दिया . ऐसे में वह अपने आप से अलग सा होजाता
है . जैसे कोई बखिया उधेड़कर जोड़ को अलगकर देता है .
वास्तव में इस बार उसकी खुद ही बड़ी इच्छा थी गाँव जाकर होली मनाने की . योजना थी कि
शालिनी को उसके पापा के घर छोड़कर वह माँ-बाबूजी के पास चला जाएगा .गाँव की होली
का रंग ही कुछ और होता है .बच्चे बूढ़े सब भंग के रंग में रातभर हो हल्ला मचाते
हैं .पूर्णिमा की चाँदनी पूरी आजादी के साथ गलियों में विचरती है . सुबह सब लोग
मिलकर द्वार द्वार जाकर गीत गाते हैं .मिठाइयाँ बाँटी जातीं हैं समीर का मन स्मृति
से ही गद्गद हो रहा था .पर तभी शालू के “पिताजी ने अधिकार भरे लहजे में कहा .गाँव जाकर क्या करोगे बेटा ?”
यह उनकी सबसे बड़ी विशेषता है कि वे दूसरों के निर्णय में दखल देने और अपनी बात को मनवाने की कला बखूबी जानते
हैं .
“मास्टर साहब और माताजी को भी यहीं बुलवा लेते हैं ..उनकी भी
होली हमारे साथ मनेगी .”
समीर ऐसे प्रस्तावों पर जड़ होजाता है . न हाँ कहते बनता है और न ही ना .
बचपन से ही पिताजी ने बड़ों की बात मानना सिखाया . शालू के पिता भी उसके पिता जैसे
ही है .उन्हें खुद सोचना चाहिये कि न रोकें ..
“आगे नकुल और वरुण इसी तरह उनके पास न आएं तो ..”
“तुम पापा को मना कर सकोगे और उन्हें सुनकर कैसा लगेगा .”–शालू समीर के मन को पढ़ लेती है.
“पापा हमारे लिये कितना कुछ तो कर रहे हैं .”
“क्यों कर रहे हैं .मैंने कहा है कभी उनसे कि करें ?”.जाने कैसे समीर के अन्दर जीजी का मन आगया .पर परिणाम यह
हुआ कि समीर को शालिनी का प्रचंड कोप सहना पड़ा . देर तक सुनाती रही –“ हाँ हाँ तुम तो कहोगे ही ..बैठे बिठाए सब मिल रहा है ना
. एक बाप को अपनी बेटी की कितनी चिन्ता होती है तुम क्या जानो . वे तो अपने एक फैसले
पर ही इतने पछता रहे हैं ..तुम और …”
कुल मिलाकर समीर गाँव नही जा पाया . ऐसा ही होता है अब .माता-पिता हताश
होगए हैं .जाने कब समीर की सूरत देखने मिले ..मिले भी कि नही .वह तो वैसे ही
अपराध-बोध से भरा हुआ है उस पर ये जीजी.....
“तुम अपने फैसले दूसरों से करवाते हो इसलिये होता है यह .
शालू अपने माता-पिता के साथ ही त्यौहार मनाना चाहती है गाँव नही जाना चाहती तो ठीक
है तू भी अपने माता पिता के साथ मना ..इसमें कौनसी अवज्ञा होती है . पर तू अभी तक
कैसे नही समझ पाया कि यह प्रेम नही है तुझे अपने माता-पिता से दूर रखने की चाल है.”
इस बात ने समीर के ऊपर जैसे बड़ी भारी चट्टान लाद दी हो ....
(2)
दरवाजे पर लटके ताले को खोलने के बाद किसी को अस्तव्यस्त घर सँवारना पड़े
.रसोई में बड़े जूठे बर्तन साफ कर करने पड़ें , दफ्तर से लौटकर खुद चाय बनाकर पीनी
पड़े तो पत्नी-वियोग-व्यथा चरम पर पहुँच
जाना स्वाभाविक है .इसी से तो पत्नी के महत्त्व का पता चलता है .तमाम गुबार भी फूट
पड़ेगा कि मायके जाने की धुन में यह भी नही कि जूठे बर्तनों को भी धो जाती , कि अब
वहाँ रुक जाने की क्या जरूरत थी माँ से मिलकर मन नही भरा ...वगैरा वगैरा..लेकिन
समीर को कोई शिकायत नही थी कि शालू बिना किसी कारण के ही रुक गई थी .और वह यहाँ ब्रेड टोस्ट खाकर काम चला रहा है .
“पापा कह रहे हैं कि मेहमानों की भीड़ छँट जाएगी तब
इत्मीनान से बात करेंगे .”--शालिनी ने कहा .
“लेकिन पापा आजकल….”–समीर ने कुछ कहना चाहा पर पापा ने बात वही रोकदी .
“तुम नही आ सकोगे तो हम भिजवा देंगे .”---इसके बाद कोई प्रश्नकारक शब्द नही होता . उन्होंने समीर
को आगे समझाते हुए कहा—“पुताई
वाले को भेज रहा हूँ . अगले महीने अपने वाले मकान में पहुँच जाना .एक कमरे में
गुजरभर होती है पर शालिनी जिन्दगी गुजारती ही तो नही रहेगी .”
समीर के रोम रोम में चिनगारी सी लगी .शालू के पापा जानबूझकर उसे कंगाल
सिद्ध करने पर तुले हैं .
“मैंने पहले ही कह दिया कि मैं जितना कमा रहा हूँ एक
सामान्य खुशहाल जिन्दगी के लिये काफी है . लोग ज्यादा खर्च करने के लिये ज्यादा
कमाते हैं .जरूरी तो नही कि रोजमर्रा में हजार रुपए तक की साड़ी पहनी जाय .कि
बच्चों को रोज पिज्जा-बर्गर या टेम्प्टेशन खिलाई जाय .या कि ..”
“अरे यार ससुर दे रहा है तो ले ले ..ऐरा गैरा पैसा कमाया
है .” –अविनाश ने कहा . अविनाश उसी
के दफ्तर में है . समीर के बाद पोस्टिंग हुई है पर नेहरू नगर में दो मंजिला मकान
ठुकवा लिया ..शालू रोज उसका जिक्र कर लेती है .
“मैं सिर्फ ईमानदारी से कमाना व खर्च करना चाहता हूँ .
किसी को पसन्द हो या न हो .
इसतरह तो मकान क्या एक मोपेड नही ले सकते .हम लोग . बने रहो हरिश्चन्द्र
..कोई नही पूछता आज की दुनिया में ..हम तो ऐसे ही कीड़े मकोड़ों की जिन्दगी जीकर
मर खप जाएंगे ..
मैं सचमुच इन्हें कोई सुख नही दे पाया ...पर करूँ तो क्या करूँ ..मैं उस
तरह पैसा नही कमा सकूँगा ..”
मन ज्यादा विचलित हुआ तो हारमोनियम उठा लिया .कम से कम शालिनी की
गैरमौजूदगी का यह लाभ तो लिया जा सकता है .
तभी शकुन उधर से निकली . हारमोनियम की आवाज सुनकर ठिठक गई . तो समीर लौट
आया और शालू साथ नही आई ..वरना ...
“अच्छा आजादी का लाभ लिया जा रहा है .”—शकुन मुस्कराई .समीर ने जीजी को देख हारमोनियम बन्द कर
दिया .
“अरे बजाओ बजाओ ..क्या शालू नही आई .घर कितना बिखरा हुआ
है .”
शकुन ने बर्तन समेटकर बाहर रख दिये अखबार और किताबें जमादीं .चादर ठीक किया
.झाड़ू लगाकर बर्तन भी साफ कर दिये .साथ ही सवाल भी छोड़ती जा रही थी –“अब कब आएगी . शादी तो हो गई .उसे आजाना चाहिये था .
बच्चों की पढ़ाई पर भी तो असर होता है .फिर किराया खर्च भी तो होता है आने जाने
में .”—भाई को अकेला पाकर शकुन
सारी जरूरी लगने वाली बातें कर लेना चाहती है
“समीर तुझे बुरा नही लगता कि दो बच्चों की माँ होकर भी
शालिनी का ध्यान अपने परिवार से ज्यादा अपने मायके पर रहता है .मैं देखती हूँ कि
साल के बारह महीनों में आठ महीने उसके मायके में कटते हैं .”
“तो मैं इसमें कर ही क्या सकता हूँ जीजी .उसकी समझ में
नही आए तो मैं क्या करूँ . यह उसका अपना मामला है अपनी जिम्मेदारी है .”.
समीर...शकुन ने आश्चर्य व खेद के साथ भाई को देखा . इसलिये नही कि पत्नी के
लिये उदार है बल्कि इसलिये कि जीवन की एक सुनिश्चित सुडौल आकृति से उसकी पकड़ छूट
रही है . वह हर खुशी के प्रति उदासीन हो गया है .पति फक्कड़ों जैसा जीवन जिये ,
रूका सूखा कच्चा अधपका खाना खाता रहे और पत्नी अपनी भाभी को खोह देकर पिता के यहाँ
मौज करती रहे ,भला यह भी कोई बात हुई .सिर्फ इसलिये कि वह कुछ कहता नही है .
शकुन अपने इस छोटे भाई के लिये द्रवित हो उठी . उसे याद आता है कि पिताजी
सबसे ज्यादा समीर को ही डाँटते थे चाहे गलती दूसरों की हो .सौरभ के पीछे तो उसे
अक्सर मार भी पड़ती थी .गलती सौरभ की होती पर समीर सिर झुकाए डाँट सुनता रहता था .
अब भी सुन रहा था .शकुन ने स्नेह से समझाया—“समीर मेरे भाई खुद को थोड़ा तो मान दो .कुछ तो अपनी जगह बनाओ कि हमेशा
दूसरों के अनुसार ही चलते रहोगे .”
“मैं दूसरों के हिसाब से कुछ नही चलता जीजी .”---समीर खीज उठा .जीजी हमेशा बेवक्त की बातें करती रहती
हैं . यह तो नही कि कुछ अच्छी बातें करतीं . मुझसे कोई गीत सुनतीं .जबकि इन्हें
पता है कि मैं इन्हें कुछ न कुछ अच्छा सुनाना चाहता हूँ . मुझे इससे कितनी खुशी
मिलती है . फिर इनमें और शालू में क्या फर्क है . फर्क है तो यह कि शालू के साथ
मुझे पूरी जिन्दगी गुजारनी है .
“शालू अपने आप आ जाएगी जीजी . कुछ दिन के लिये रुक गई है
. उधर से साथ में मम्मी-पापा भी आएंगे . हमें नए मकान में शिफ्ट करवाने ...”
“अच्छा ?”---–शकुन
का सारा स्नेह समीर के मुँह से मम्मी-पापा के अपनत्त्व भरे उच्चारण से सूखे पत्ते
की तरह उड़ गया . याद आया कि पिताजी ने जाने
कितनी बार कहा था कि समीर अगर तुझे इन्दौर में ही रहना है तो फिर एक मकान खरीद
लेते हैं .मेरे पास अभी पैसों की व्यवस्था है .तब तो समीर ने मना ही कर दिया . कहा
कि मैं अगर दे नहीं सकता तो उनसे पैसे नही ले सकता .तो फिर अब ससुरजी का एहसान
क्यों चढ़ाए जा रहा है सिरपर . शालू वैसे ही क्या कम जूते मारती है . बोली---
“देख समीर तू या तो इस अपराध-बोध में जीना बन्द कर कि
शालिनी को तू सुख न-सुविधाएं नही दे पारहा .या फिर उसके पापा जो कुछ कर रहे हैं
उसे स्वाभिमान से स्वीकार कर . वे सचमुच कोई एहसान नही कर रहे . अपनी बेटी को
सुविधाएं दे रहे हैं . तूने या हमने उनसे कुछ छुपाया नही था . हमने साफ कहा था कि
आपकी बेटी दूसरी तरह से पली है .उतनी सुविधाएं शायद समीर नही दे पाएगा . आप सब सोच
समझकर ही आगे बढ़ें तब शालू के पिता ने पता है क्या कहा था .कहा था कि जो और जैसा
भी है हमें लड़की के लिये इससे अच्छा घर मिल भी जाए पर वर नही मिलेगा ..क्यों कहा
था सोच ..इसलिये मेरे भाई तू इन घेरों से बाहर निकल . तेरे आगे एक सुन्दर सम्मान
भरी दुनिया है .चकाचौंध की दुनिया से परे एक और भी दुनिया है कला की दुनिया ..”
आप सही कहती हैं जीजी .
ट्रिनन..ट्रिनन..
समीर ने लपककर फोन उठाया जैसे वह उसी का इन्तजार कर रहा था .
“हैल्लो....शालू ..हाँ ,क्यों ? .अच्छा ..ठीक है ...हाँ कल ही आता हूँ .” शकुन हैरान हुई . समीर के बिना कोई सवाल किये प्रस्ताव मान लेने पर .शालू
ने यही कमजोरी तो पकड़ रखी है .
“क्या हुआ ?”
“शिवपुरी जाना है .शालू और बच्चों को लिवाने .”
“क्यों ,वह तो खुद ही आने वाली थी अपने पापा के साथ ?”
“कह रही थी पापा को अर्जेंट काम लग गया है . “
“मुझे तो पता ही था कि..”
“जीजी तुम क्यों इतनी परेशान होती हो ?”
“परेशान क्यों होऊँगी भला ? मैं तो यह कहना चाहती हूँ कि अपनी मर्जी से रुक गई है तो......”
“अब जो भी हो ..पिंकू की पढ़ाई का हर्जा हो रहा है .”
“यह बात उसकी समझ में नही आती ..?”
समीर शकुन की बातों को हमेशा की तरह सुनता रहा .अन्त में सकुन को ही ग्लानि
हुई कि क्यों इतना दिमाग खपाती है . वह तो सालू समीर की इतनी शिकायतें करती है
जैसे समीर अवगुणों की खान हो ...इसलिये समझाने का मन होता है नही तो ...
“अच्छा चलती हूँ समीर ..”
समीर निरुत्तर जीजी को जाते हुए देखता रहा . जानता है कि वह जीजी को कभी
सफाई नही दे पाएगा . वह कहती तो उसके हित की ही है पर ....