शुक्रवार, 20 मार्च 2015

उमस भरी सुबह और एक फोनकॉल


त्रिनन्...त्रिनन्....

गुलमोहर काली के एक एम आई जी फ्लैट में तीसरी बार फोन की घंटी बजी तो कुछ पलों के लिए वहां जमी एकरसता भंग हो गई , जिस तरह के पत्थर की चट्टान पर कुछ समय के लिए पानी पर जमी काई फट जाती है , घर में मौजूद लोगों का ध्यान उस काले उपकरणों पर केंद्रित हो गया।

फोन का सामान और घुटनों को तोड़ना है। लेकिन कभी-कभी लोग आपको अपने में ही इतना ट्रस्ट और उलझे हुए होते हैं कि फोन पर आना किसी ढीठ पड़ौसी की अलौकिक घुसपैठिया सा भी महसूस होता है। 51 नंबर के उस एम आई जी फ्लैट में सुबह   कुछ ऐसा ही हुआ।

इस घर में कुल चार जीव हैं। पेंटालिस पार के गृहस्वामी सुधाकर राय , पत्नी अमला और दो बेटे। बड़ा बच्चा और छोटा विकास यानि बचपन। लेकिन फिर भी वे अभी भी गाड़ी की एक ही बोगी में सवार मुसाफिर की तरह हैं , अक्सर अपने आप में डलिया में पड़े पोथियों की तरह रहते हैं।

सुधाकर बाबू एक स्थानीय समाचार पत्र ' सांध्य-संदेश ' के सम्पादक हैं। व्यक्तित्व में एक फक्कपन है। बाल खिचड़ी हैं। रंग गहरा, शक्ल-सूरत बाहरी तौर पर किसी भी कोण से सुंदर नहीं हैं , लेकिन बड़ी आंखों की धारियां बनी नजर में एक खास आकर्षण है। उनकी आवाज़ और संगीत का तरीका लोगों को खास प्रभावित करता है उन महिला लेखकों की संख्या अच्छी है। सम्पादन के साथ-साथ अच्छा भी शेयर किया जाता है, इसीलिये अखबार तो फिर भी चल जाता है सम्पादक जी का नाम बहुत चलता है। यह उनके आने वाले पत्र और फोन पर बताया जा सकता है। हालाँकि घर में उनके वैज्ञानिक 'घर की 'चिकित्सक' जितनी भी नहीं है। बच्चों के लिए , विशेष रूप से छोटे बेटों के लिए वे सिर्फ स्कूल की फ़ेस फ़ाइनल या किसी पेपर पर हस्ताक्षर करने वाले व्यक्ति भर हैं और पत्नी के लिए अकीकन साकिआम को पूरा करने वाला उपकरण। इसमें सुधाकर बाबू बहुत सारे तत्व हैं, इसलिए सुधाकरबाबू का मन होता है कि ' कमरे ' की एकरसता से मुक्ति के लिए कोई बड़ी सी 'खिड़की' हो ताजी बयार मिले और वे गहरी सांस लेकर खुद को तरोताजा महसूस कर सकें। घर की मजबूत दीवारों को खिड़की बनाना इतना आसान नहीं है।

मंझोले कद और गेहुँआ रंग की सामान्य चेहरे वाली अमलादेवी एक बेबाक और कुछ रोयी सी महिला है। पढ़ाई का उपयोग तर्क और बहस के लिए बहुत कुछ होता है। संवेदना के स्तर पर आधारित है. दुनियादारी के मामलों में उनकी छठी इंद्रिय पति सुधाकर से बहुत आगे की किताब है। आपके ऊपर आये वैज्ञानिक और जिम्मेदारी को वह बड़े कौशल से एक तरफा सरका इंटरनेट है। इसी कौशल के कारण, शहर से दूर गाँव में बस्ती की कोठरी और भिक्षु ' सुधाकर भैया' के घर आए दिन ' अम्मा का घर ' समझकर और धमकाते थे , धीरे-धीरे-धीरे-धीरे आना भूल गए हैं। उनके पति कई तरह से नागावार हैं, जिनमें आज तक वह बदला नहीं है, हालांकि कोशिश अभी भी जारी है। 

दोनों की शादी तो एक बार फिर से अकेले ही हो गई लेकिन असल में उनका एक प्रेमविवाह था। यह बात अलग है कि अब जैसे कि शादी हो जाने पर उनके बीच प्रेम की बातें तर्क और बहस ने ले ली हैं। हर शोधकर्ता की पत्नी की तरह अमला को भी सन्देह रहता है कि पति महाशय सिर्फ तन से उसके साथ हैं, मन से वे इधर उधर भटकते रहते हैं, इसलिए उसका ध्यान ' जो मिला है' जो नहीं मिला या छूट गया ', उसी पर रहता है इस तरह घर में जब लकड़ी का कूड़ा-कचरा निकलता है।

नवजात शिशु हुई उम्र का सांवला-सलोना लड़का है। उसकी एक उपलब्धि तो यही है कि वह इंटर का एग्जाम बिना किसी स्कूल के सेकेंड डिविजन से पास कर सकती है। उन्होंने बोर्ड में दो विषयों की स्थापना की थी। इस बात को लेकर सुधाकर बाबू कहते हैं कि, "भविष्य में क्या करने वाला है पता नहीं   । पढ़ने में मन ही नहीं लगता.. ?"

अमलादेवी को पति की ऐसी बातें अनाधिकृत चेष्टा दिखती हैं। उसने एक अचूक अस्त्र का प्रयोग किया है-

"तो खुद किसने तीर मारा ? बाबूजी ने एड़ी से चोटी तक जोर लगाया तब कहीं रो धोकर बी.ई. की डिग्री ले पाए ?"

“समुद्र तट पर बोलना ज़रूरी है ?”

“मैंने तो बिल्कुल सच कहा है।”

“सच की खोज का दूसरा तरीका भी हो सकता है।”

"मुझे तो यही तरीका आता है। साफा कहता है और खुशियाँ छुपाता है। लपेटकर कहता है मैं नहीं सीखता।"

" साफा देखने वालों में साफा सुनने वालों की भी लोकमान्यताएं शामिल हैं। "

वह तो सबसे ज्यादा उजागर है।

“अच्छा ठीक है. अपना काम करो...”

"काम ही कर रही थी। पार्टनर की तरह नहीं कि फालतू पेपर-पत्तर फैलाए सबेरे से बैठा रहता हो।"

“तुम अपना देखो क्या क्या करने को है ।”

"क्यों , सारी जिम्मेदारियां मेरी ही हैं ? घरवाली भी संभालूं और बच्चों को भी मैं ही पढ़ूं और तुम फोन पर बतियाते रहो अपने दोस्त--मित्रानियों से..।"

“तुम लोग आराम से आओ, बहस करो। तब तक मैं वापस आ गया हूँ।

माता-पिता की इस तरह की फालतू बहसों का लाभ अक्सर बाहर निकल जाता है। अब उसे जाने के लिए प्लांट की भी जरूरत महसूस नहीं होती। जब भी वह दोस्तों के साथ फिल्म देखने या क्रिकेट खेलने जाती है। पिता के कई बार ये फिल्में भी इस गेम-वेल को छोड़कर किसी कॉम्पटीशन की तैयारी कर लेती थीं , वह रोज सुबह-सवेरे लड़ाई करके घर से निकल जाते थे।

दस साल का विकास बहुत ही चुस्त और तुनकमिजाज लड़का है। आपकी उम्र से कहीं ज्यादा आगे निकल गए ये महाशय चौधरी परिवार में अकेले हैं जो कान्वेंट में अंग्रेजी माध्यम से पढ़ रहे हैं इसलिए अपने भाई से ही खुद को अपनी मां और पिता से भी ज्यादा समझ रहे हैं। और उनकी हर बात में मीनमेख अवशेष रहते हैं।

"पापा क्या बोला आपने 'डीफ' ? या फिर बहरा ?.. इसे डीफ नहीं 'डेफ' कहते हैं...हद है.. पापा शैतान नहीं 'शैट' बोलते हैं। यहां 'आर' साइलेंट है।"

इस बात से भी बार-बार नाराजगी होती है कि पापा अपने पुराने स्कूल में नहीं जाना चाहते। कही भी जायेंगे , आदिवासियों में पुराने जूते , कंधे में लम्बा झोला लटकाये जायेंगे। दो-दो हफ्ता शेविंग नहीं करते तो दाढी कटेरी के कांटों सी उग आती है .विक्की ने कई बार टोक चुकाया है कि लेखक-संपादकों की ये यूनिफॉर्म है क्या जो ?... पर पापा हमेशा अपनी राह पर रहते हैं. अन्य माताएँ हैं...नाश्ता बनाने की बजाय या तो टी.वी. पर मैच देखने बैठ जाते हैं या पापा से बेमतलब ही उलझी रहती हैं कि ' क्यों जी दाढी कुक टाइम एक तरफ मुँह क्यों फुला लेते हो ? भद्दा लगता है। या शार्क शाहरुख क्यों पसन्द नहीं है सारी दुनिया क्या पागल है जो उसे पसन्द करती है ?

उसे टीवी देखने के अलावा घर में और कुछ ' दिलचस्प ' नहीं दिखता इसलिए वह जब तब टीवी से क्लिप्स डॉक्यूमेंट्री देखता रहता है।

"बिक्की , बहुत होचुका अब टीवी बंद करो और ना लो।"

सुधाकरबाबू कुछ गहराई और कुछ समझने की कोशिश भरी निगाहों से इधर-उधर देख रहे हैं।

“विकास , सुना नहीं माँ ने क्या कहा ?”

“किसकी माँ ने ? तुम्हारी या मेरी ?” पिता के इस तरह के संवादों पर निकोल फिक्शन से हंसी-मजाक होता है।

“देखा , कितना कुछ हो रहा है ?”

"और क्या होगा!   जब बच्चों को कोई देखने वाला न हो।"

“क्यों , तुम हो ना बहुत बड़ी फिल्में वाली। मैं तो जब भी उन्हें कुछ समझाना चाहता हूं तो तुम हमेशा के लिए टॉक डॉट हो गए हो कि , ' रहना दो उसने थका लिया है '

"क्या मैं आज मेरे साथ रहना चाहता हूँ ? मेरा तो सिर वैसा ही भाना आ रहा है।"

"कमाल है। सिर्फ इल्ज़ाम देना है...चोरी और सीनाजोरी कहते हैं।" सुधाकरबु निःशब्द मन मसोस कर रह जाते हैं। आगे कुछ समीक्षा का प्रश्न ही नहीं है। पत्नी से एक कहो , बीस सुनो--कि...'मेरा तो सिर चकरा रहा है। ..किस तरह के लक्षणों का दर्द होता है नहीं , कि मैं ही पूछ रहा हूं कि कैसे काम चल रही है। मेरी तो जिंदगी चूल्हे-चौके में ही चली गई...।" वगारा..वगरा।

हाँ तो बात है सूर्योदय हुई थी फूलों की एक भारी गिजगिजी, चिपचिपी सी सुबह से। बादल कभी तो मनमाने तरीके से अपनी भरी गागर उंडेल जाते थे तो कभी धूप चिलचिला उठती थी। हवा का कोई नाम नहीं था. अब भी जब सूरज बाहर गुडहल कलियों से कानाफूसी डे लोन में गिर गया था पानी की तरह , गुलमोहर कलियों के उस एम.आई.जी. फ्लैट में अजीब सी खुन्नस था उसके लिए किसी खास कारण की बर्बादी नहीं होती हवा के साथ फ्लो एटेल सूट की तरह स्वभाव होता है। 

सुधाकर राय सुपरमार्केट में नहाए हुए थे अपने आस-पास कई पत्र-पत्रिकाएं बिखराए बैठे थे। यह दृश्य अमला के वैयक्तिकृत शत्रु के जन्म के लिए काफी है। कम से कम छुट्टी के दिन तो घर में रहो...संपादक का मतलब यह है कि घर-बार और बीबी-को काम करना ही मत ... काम के नाम घर में तो महाशय को छुट्टी के दिन भी फुरसत नहीं। काम में हाथ बँटाता है। तो यह भी नहीं होता कि पंत नगर से मिल गया। शिल्पी के बारे में बात करने के लिए कहा  

पत्नी की बातों से सुधाकर का ध्यान अपने काम से उचट जाता है। गर्मी और उसम और बढ़ी हुई   दिखती है।

"काम मत करना दो, रोज सुबह एक ठेले वाला बिल्कुल ताजी   सब्जी लेकर नारियल वाला है। वह नहीं जाता। अच्छा फिर मुझे लोके का मौका कहां मिलेगा ?"

"यहाँ बहुत ताज़ी पेश है! बीस रुपए किल टमाटर चालीस में बिकता है। ये तो नहीं कि आदमी बचत की सोचे। "

सही बात है।--- सुधाकरबाबू ने बेध्यानी में कहा। फिर अनायास ही सारा ध्यान छत से लटके हुए जापान पर जाम हो गया था जो लंबी बीमारी से उठ खड़ा हुआ आदमी की तरह धीमा चल रहा था। ठीक उसी तरह जैसे ही ममी कम है क्या, सो भयानक पंखा तेज किया ही था अमला तन्टनकर आई और रेशम धीमा कर दिया।

“यह क्या मजाक है ?”

"मजाक नहीं एलेगोन और सीरियस बात है। बिल डिलिट फिलिंग अपोजिट है ?"

“नहीं ..बिल तो तुम पर टिप्पणी हो गई न ?”

"मैं क्यों जाऊँगा होता हूँ ? मेरे तो घर में ही इतने काम हैं कि...।"

"हां देख रहा हूं। कितने सारे काम हैं, इतने तो दस बज रहे हैं। एक कप चाय तक नहीं मिली।"

 "क्यों ? कभी खुद भी बना कर पी लिया करो। पता तो चले कि चाय बैठे-बैठे नहीं बन जाती..मेरे भैया को देखो..।"

"अरे यार! एक और तुम एक लड़की भाई है बस..! मुझे काम करने दो। तुम्हें अपने काम से काम दिखाया।"

"हां..हां एक मैं ही हूं जो सुरक्षा खेल रही हूं। कौनसा सुख मिला है साथ.. ?"

पति को परास्त करने का ये अचूक बान है जब-जब अमला देवी सामने आईं। पर कभी-कभी सुधाकरबाबू भी बाण के प्रत्युत्तर में बाण चला देते हैं --

"तो सूरज जहां सुख दिख रहा है, वहां सामान दिख रहा है न, मैंने कब मना किया। हद है यार, रोज-रोज एक ही बात है...मेरा कितना काम अधूरा रह गया है। अभी भी एक कलात्मक रिकॉर्डिंग आना है ' हिन्दुस्तान ' को ...आपकी दुकान और कोई भी ढूंढ हो ?"

“मैं नहीं रुका तो फुल और कौन सी जगह है जो जिमा जाए रोज गरम-गरम के ?”

“बंद करो यह नाटकबाजी।”

अनैतिक चीख उठाना। इस समय वह मैसाचुसेट्स का पूरा डिब्बा सामने रखा था और किसान भर-भर के खा रहा था।

“यह विशेषता क्यों है ? नक्सन नहीं चाहिए ?” सुधाकर ने तल्ख अंदाज़ में कहा।

“इसकी कीमत किसे है ?”-- यूनाइटेड की आवाज भी दोहराई गई है , लज्जा भी वैसी ही है।

"घर में बारह-ग्यारह बजे तक नाश्ता नहीं बनता। कुछ तो खाना चाहिए ना ?"

सुधाकर ने एक समुद्री दृश्य पत्नी पर कास्ट किया जो अभी तक लंबे समय तक फूल झाडू सेडे-खड़े ही आंगन में झाड़ू लगा रही थी। कमर पतली हो गई है और पेट इतना निकल आया है कि झकझोरते नहीं। आलू-चावल छूटते नहीं हैं। काम के नाम स्त्री चर्चा पर दस ख्यात सुनो। 

 "गृहमंत्री जी! बच्चा क्या कह रहा है ?"

"तुमने सुन लिया करो कभी-कभी। शादी भी जिम्मेदारी है..मैं सोचता हूं कहां-कहां मरूं ? आटे गण धोकर सुखा रहे हैं। पलंगों के अंधेरे में खटमल हो गए हैं। दवा डालनी है। तीन दिन से कपडे बर्तन रहे हैं उन्हें कपड़े हैं। ऊपर वाली माल अलग हो रही है..."

“सुन लिया भाई, सुन लिया....”--सुधाकर ने कहा। सोचा कि "काम का रंग नहीं है अमला , अभी भी गाती है .

लेकिन यह सब कहते हैं बारूद में चिंगारी चलाएंगे। इसलिए शान्त लौंडे में कहा --

ठीक है घरवाले दम से ही चल रही है अमलारानी..पर मैं भी तो बुरा नहीं हूँ।

“हां..देख रही हूं, बड़े काम करती हो!..और करती हो तो क्या..करोगे नहीं क्या ?”

" फिर भी जब देखो मेरे काम से शिकायत रहती है संकट .... "

" तो फिर कौन सा फर्क पड़ता है। कौन सी मेरी बातें सुनती हो। बस बेकार और... ?"

"अरे यार , अब बंद भी करो अपना ये याचिका पुराना। जो काम हो सके, करलो नहीं हो , मत करो। बात ख़त्म...

' बात ख़त्म ' सुधाकरबाबू के प्रतिद्वंद्वी के आगे हथियार डालने का संकेत-वाक्य है। लेकिन अच्छी बात ऐसे आसानी से ख़त्म हो जाती है ? कोई दूसरा प्रसंग बात को हवा देता है।

“ट्रिन्न्...ट्रिन्न्....”

सुधाकर राय ने कुछ रहस्यमयी नजरों से देखते हुए रिसिव करना चाहा, तभी अमलादेवी ने लपककर गोद उठाया।

हैलो ..कौन ?”

“…….”

" हैलो...हैलो..हेलो.मुंह में जबान नहीं है क्या.. ? अरे बात नहीं करनी तो...लो फोन कट गया ।"

क्यों परेशान हो ? कौन सी भी बात करनी होगी फिर से।

"ये कॉल मैंने जरूर उठाई थी इसलिए अब नहीं आएगी... "

अरी भाग्यवान ! मेरे लिए फ़ोन तो मेरे मोबाइल फ़ोन पर आता है न ?”

कॉल रिसीव करते हाईफ़िफ़ फेस पर जो चमकती और मुस्कुराती है, वह बहुत कुछ बताती है।

मतलब क्या है लड़की ?”

“मैं कोई जापानी या फ़्रेंच थोड़ी बोल रही हूँ जिसका मतलब समझाना चाहता हूँ ?”

“नहीं ..बोल तो हिंदी ही रही हो पर नकली शब्दों का मतलब अलग-अलग होता है ना ?”

"वही तो! चोर की नई में तिनका। बहुत सारे पात्र हो पर अनाम नाम के हो। कितनी बार कहा है कि आई डी स्टॉक ने लो पर नहीं...भेद जो खुल जाएगा...।"

कैसा भेद.. ?”

" अच्छा, इतने सारे नियम नहीं मैं। तुम्हारी डायरी में मैंने एक दो चिट्ठियाँ भी देखीं जिनमें गोलमोल सा कुछ लिखा था। कोई अच्छा इंसान तो सीधा ही कुछ लिखा होगा ना ? ..और कई बार तुम बिना किसी मान्यता के महिला से बाहर भी मिले हो, सुरेश भाई ने बताया ..सब साथी हूँ कैसे हो...। "

पत्नी के ऐसे दोस्त कभी-कभी सुधाकर राय को गुदगुदाते हैं। काश ऐसा होता है..कोई खिड़की खुली इस कमरे में तो ताजी हवाएं रहती हैं..

"अरे भाई आवाज से अनुमान तो हो जाता है कि..."

"वह तो तब हो जब कोई बात करे। फोन करने वाली बात तो मेरी आवाज सुने ही फोन काटता है।"

 “वाह माँ आप तो बड़ी वैज्ञानिक हो।” यूक्रेन हंसने लगा।

 “बिना बात के ही पता चला कि वह कोई महिला थी।”

“बेटा वर्जिन माँ शर्लक होम्स के खानदान से जो है।”

“बाप–बेटा , बहुत बढ़िया मजाक उडने पर मै घास नहीं।

“मान लिया। लेकिन फोन अयॉन या अलोन के लिए भी हो सकता है।”

“उनके सब दोस्त मुझसे बातें करते हैं।”

"आजकल लड़कियाँ भी दोस्त होती हैं। और वे सबसे ज्यादा बातें नहीं करतीं।"  

"यह मजाक कुछ जमा नहीं है। लेकिन मेरी गर्लफ्रेंड जैसी नहीं है। वे हर अपनी बात मां को सिखाते हैं।"

"भरोसा भी कुछ होता है ना ?"

"भरोसा ? और तुम पर ?

बहुत ज्यादा ही नहीं लिखा हो मेरे बारे में.. !”

"तो क्या गलत कहा गया है ? मर्दों को दूसरी औरतें ही सबसे ज्यादा अच्छी लगती हैं। तुम क्या अलग हो ?"

“कितने मर्दों को पसंद हो जो... ?”

“सबको अज्ञातवास क्या है , नक्षत्र जान लेना ही काफी है।”

"नहीं अमला तुम मुझे नहीं देखते-समझती, काश जान रचनाएँ। -सुधाकर के अंतमन से नीरव भाव-धारा फूटी। तुम तो सिर्फ बहस करना और बात करना, किसी भी तरह की टिप्पणी करना। घर को संसद भवन बनाया है ..पढ़ी लिखी होने का अर्थफे के लिए बस इतना है कि पति का विरोध जारी रहता है, चाहे वह हो या न हो...लेकिन यह सब दिखाने का कोई मतलब नहीं है।"

अब सच कहा तो बोलती बंद होगी।

एक मिनट, फ़ोन तो सबसे ज़्यादा फ़ायदे आते हैं। नहीं ?”

" हां , तो.. ? मेरा हुआ तो क्या मेरी बात नहीं हुई क्यों बिना बात किए फोन काटा ? फिर जो अपने हो गए तो याद आएंगे। मेरे परिवारवाले मेरा ध्यान रखते हैं ..तुम्हारा तो इतना बड़ा कुरमा है। अपने से कोई काम नहीं करता है कभी फोन ? जाएंगे भी तो 'मिस्कॉल'। कंजूस नंबर एक। यहां से हम बात करें तो कार्लें। उस दिन गर्लफ्रेंड ने..।"

"अरे! यह क्या विवाह--तुम्हारी रहना लगा है ? क्या मेरी बहन का विवाह कुछ नहीं हुआ ?"

“वो समझती है मुझे अपना ?

“तुमने भी कौन सी कोशिश की है दोस्तों ?”

मेरे पास इतना न अक्ल है न इसकी जरूरत...

" तो ये कहो ना. फालतू दोष क्यों रहता है ..?"

"हां,...तुम तो अपनी बहन का ही पक्ष लोगे। मैं तो...।"

"बहन को छोड़ो , अम्मा ने तो हमेशा बेटी को किस तरह से सजाया है। अपने हाथों से बनाया है कुछ भी नहीं कहा है। फिर भी तुम भी तुम्हारे साथ मिलती-जुलती रहती हो। कभी यहां चली जाती हो तो ठीक से बात नहीं करती। यही नहीं अगर मैं हलचाल भी मांगता हूं तो तुम उन्हें ' खटपाटी ' चबाती हो। देखा है ?

ये क्या किया सुधाकर बाबू ने। ज़रा सा सच कहे तो राकेश सलग रही आग को भड़का दिया।

“तुम मेरे साथ अकेले रहना चाहते हो ?”

"नहीं, मैं चाहता हूं कि मुझे शांति से काम करने दो और तुम भी इस समय जो सीख रहे हो, वह कार्लो। विकी कबसे इंस्टेंट मांग रही है...दिमाग में गहरी भारी-भरकम बातें दो को हटा दी गईं।"

"कैसे हटा दूं , जबकि वे सब लोग घर के हों या बाहर के..आज भी बहुत हैं। इतनी दूर रह रहे हैं फिर भी मुक्ति नहीं है...कभी घरवाले खून सुखाते हैं तो कभी...ये बाहरवाले..बालियां चैन नहीं छोड़ते..."-अमलादेवी का आवेश चरम पर पहुंच गया तो सुधाकर का गुस्सा फूट पड़ा।

"बिना सोचे समझे मुंह मत खोलो समझी। गाली बंद करो और मुझे काम दो। दोस्त के अलावा भी कुछ मिलता है स्टार ? जीना मुहाल हो गया है। सिर्फ एक दिन की छुट्टी घर में रहना कितना मुश्किल होता है! अच्छा है कि बाहर कहीं चला जाऊं।"

"हां हां..मैं ही बुरा हूं। मेरी बातों में तो कंगाल हैं ना ? ऐसे आदमी के पल्ले बंधकर मेरी तो जिंदगी बर्बाद हो जाएगी" -अमला ने चिल्लाते हुए कहा। फिर रुआंसी आईडिया एक तरफ पटक दिया और अंदर वाले कमरे में फ्लैट पलंग पर जा लेटी और सिसकने लगी। पत्नी के इस विचार को देखकर सुधाकरराय का सारा तनाव या जोश ठंडा पड़ गया। साड़ी कागजात एकत्रित करके रखें। लेख लिखा है। ऐसी स्थिति में कोई कैसे काम करे।

इलिनोइस इस घटना से लेकर टीवी दृश्य तक। उसे पता है कि माँ का इस तरह का 'कोपभवन' में जाना जाता है हर तरह के डर का क्लाईक मैक्स होता है। पिता उस पर विश्वास करते हैं। ऐसा हुआ ये मौसम हमेशा की तरह कुछ देर बाद आपके आप ही ठीक हो जाएगा जैसे कुछ हुआ ही न हो।

और सुधाकर राय किसी दिग्भ्रमित रुचि व्यक्ति की तरह बैठे किसी विंडो से आर्हे हवा के झोंके की कल्पना करके ही मित्र और गर्मी से उपकरण पाने की कोशिश कर रहे थे।

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