थकी--हारी नमिता जब घर में
आई तो उसकी थकान और बढ़ गई । जहाँ देखो चीजें बेतरतीब बिखरी पड़ीं थीं । निखिल मैगी
बनाने में तीन बर्तन खराब करके वहीं प्लेटफार्म पर सरका गया था । मसालादानी खुली
रखी थी और आलू-प्याज के बिखरे छिलके जैसे उसकी खिल्ली उड़ा रहे थे .
सौमित्र को भी , जब तक
घर में रहा अपने जाँघिया बनियान बाथरूम में ऐसे ही छोड देने
की आदत थी . चाहे उन्हें माँ धोए या कपडे धोने वाली । अरे ! हाँ 'या' के लिये
तो कोई विकल्प ही कहाँ है पन्द्रह दिनों से ।
किशोरीबाई छुट्टी पर है ।
अच्छा है कि कामवालियों को छुट्टी तो मिल जाती है । घर की बात छोड़ें ,नमिता को
तो एक सी. एल. के लिये प्राचार्य कक्ष के कितने चक्कर लगाने पडते हैं । कोई ठोस
कारण बताना होता है । तब भी छुट्टी मिल जाए तो गनीमत है ।
और पतिदेव की तो बात ही
निराली है । उनका वश चले तो कुल्ला भी पलंग पर ही करें । अखबार पूरे कमरे में
बिखरा था । जैसे कोई मशीन को सारे पुर्जे खोले बिना ठीक नही कर सकता उसी तरह वे
अखबार को भी अलग-अलग पेज करके पढते हैं । और सारे पेज यहाँ वहाँ छोड देते हैं ।
नमिता को इस आदत से बडी चिढ़ होती है । उसे अखबार पढना होता है तो तारीख देख-देख
कर पहले सारे पेज जोडने होते हैं । नही तो तीसरा पेज चार दिन पहले का पढो और छठा
पेज पिछले महीने का । इसी झंझट के कारण वह अक्सर अखबार पढ ही नही पाती ।
उसके स्कूल जाने के बाद
जरूरत होने पर साहब जी चाय बना कर तो पी लेते हैं पर चाय पिये कप किस अलमारी में
मिलेंगे पता नही । कम से कम चीजों को अपनी जगह पर तो छोडा जा सकता है न ,कि उसमें
भी भारी मेहनत लगती है । नमिता एक साफ-सुथरे व्यवस्थित घर की कल्पना में ही अधेड
हो गई है । वह कभी-कभी अपनी यह खीज प्रगट करने से रह नही पाती और तब उसे तडाक् से
पति की ओर से जबाब मिलता है----
"अरे ! तो ठीक है न !
तुम भी मत करो । पडा रहने दो यूँ ही सब । और नही तो फिर बड़बड़ाओ मत ।"
"मम्मी पता नही क्यों
टेंशन लेती रहतीं हैं ?"
"अरे बेटा ! मम्मियों
की तो आदत होती है कुछ न कुछ मीन-मेख निकालने की । पर कोई दिल से नाराज थोडी होतीं
हैं ।"
पति और बेटों की मिली जुली
प्रतिक्रियाएं ..। सारी बातें सहज और आम हैं लेकिन नमिता को अब ये ही बातें पीडा
देने लगीं हैं। पहले जिन बातों को वह परिहास मानकर मुस्करा भर देती थी ,वे असहज
व चुभने वालीं होने लगीं हैं । क्योंकि इनमें वह संवेदना और अपनापन नही है जिसकी
जरूरत नमिता को अब ज्यादा महसूस होने लगी है । वह अक्सर थकान महसूस करती है जो काम
से उतनी नही होती जितनी सबकी बेपरवाही से , उसके अकेलेपन और परेशानियों के प्रति
उदासीनता से यह कुछ उम्र का प्रभाव है और कुछ उम्मीदों के धूमिल होजाने का .बड़ा
बेटा सौमित्र जो माँ की हर परेशानी का बहुत ध्यान रखता था . माँ को पास बिठाए बिना
वह खाना तक नही खाता था ...उसके पिता तो उसे माँ का बेटा कहकर बुलाते थे . नौकरी
और शादी के बाद जैसे भूल ही गया है . नमिता ही फोन करती है तब उसे ध्यान आता है ओ
मम्मी आजकल काम कुछ ज्यादा है ..काम ज्यादा होना बेध्यानी का कारण नही होता इसे
नमिता महसूस कर सकती है . निखिल कहता है—“मम्मी यू
शुड हैव चेंज योर थिंकिंग ..समय बदल रहा है . भैया अब उतने छोटे तो नही रहे ...”
.नमिता क्या यह सब जानती
नहीं...वह भी नौकरी करती है . जानती है समय के साथ कुछ बदलाव आते ही हैं पर बदलाव
का मतलब स्नेह और रिश्तों की ऊर्जा खत्म होना तो नहीं है ..निखिल को तो कॉलेज और
दोस्तों से फुरसत ही नही मिलती . नमिता को यह भावनात्मक अकेलापन अखरता है .
स्कूल में स्टाफ की
महिलाओं की बातें उसकी इस अनुभूति को और भी प्रखर बना देतीं हैं जो बड़ी
निश्चिन्तता के साथ अपने घर और बेटियों के बारे में करतीं रहतीं हैं ।
मेरी बेटी लन्दन में
कम्पनी-मैंनेजर है . पर सोने से पहले जब तक मुझे फोन नही कर लेती तब तक उसे चैन
नहीं-नीलिमा कहती है
" भई मैं तो बहुत मजे
में हूँ . जब घर पहुँचती हूँ मुझे चाय का कप तैयार मिलता है ।"--माधुरी कहती
है---"मेरी बेटी ऋचा मेरी हर बात का बड़ा ध्यान रखती है । मम्मी को क्या
अच्छा लगता है क्या नही । अगर जरूरी लगता है तो टोकना भी नही भूलती कि, मम्मी
रात में कितने बजे तक काम करती रहती हो तबियत खराब होजाएगी । ठण्डी रोटी क्यों खा
रही हो ? रात को थोडा दूध भी लिया करो . पापा भी तो लेते हैं ना.....
।"
"अरे मुझे तो यह भी नहीं
सोचना पडता कि मुझे कब क्या पहनना है "---जया बीच में ही बोल उठती है---
"हमारी पूनम जितनी पढाई में आगे है उतनी ही कला-पारखी भी है . मेरे कपड़ों का
चुनाव वही करती है जिनका डिजाइन और क्वालिटी आप सब देखतीं ही हैं . और उतनी ही
जिम्मेदार भी है । भाभी का मुँह नहीं देखती ,कालेज जाने से पहले अपने और मेरे आधे
काम निपटा जाती है । यही नही बिल वगैरा वही भर आती है । अपने पिता को भी परेशान
नही होने देती जरा भी ।"
नीरा कहती है--"मेरे
घर में बेटा नही हैं। सच कहूँ , पहले तो मुझे बहुत बुरा लगता था लेकिन मेरी बेटी और
दामाद के व्यवहार ने मेरा वह दुख जाने कबका मिटा दिया है । बेटी तो अपनी है ही पर
दामाद भी अपनी माँ से ज्यादा मेरी परवाह करता है ."
"देखा जाए तो लडकों
का सुख तो बचपन तक ही है और ज्यादा समझो तो विवाह होने तक । विवाह के बाद अब
लडकियाँ नही लडके पराए हो जाते हैं । लडकियाँ तो विवाह के बाद भी अपने माता-पिता
का कितना ध्यान रखतीं हैं ."
मिसेज शुक्ला आज जैसे
नमिता को सुनाने के लिये ही बड़े गर्व से कह रही थीं । उनके पास एक से बढ कर एक
डिजाइन के पर्स और ज्वेलरी सैट हैं । सब उनकी बेटी अमेरिका से भेजती रहती है ।
और ...दूर क्यों
जाएं..नमिता की अपनी बहू शालिनी भी तो अपनी माँ का कितना ध्यान रखती है । जब तक
फोन पर माँ से बात नही कर लेती सोती नही है । माँ को कितनी आत्मीयता से हिदायतें
देती रहती है ।
जरा भी तबियत खराब होने पर
नाराज होती है पर उस नाराजी में भी कितना स्नेह रहता है कि "आलू और चिकनाई कम
से कम खाया करो माँ । कि बी.पी. कैसे बढ गया । चिन्ता कर रही होगी .जरूर पापा ने कुछ कह दिया होगा . तुम मत सुना करो
किसी की बात । मैं भाई और भाभी को भी समझाऊँगी । उनके लिये क्या माँ का ध्यान रखना
जरूरी नही है क्या ?.... और नही तो कुछ दिन के लिये यहाँ आ जाओ । मन लग जाएगा
।"
और जब भी शालिनी की माँ
यहाँ आती है उसका उल्लास देखते ही बनता है । सौमित्र की भी हर कोशिश यही रहती है
कि वे खुश रहें . उनकी इच्छाओं व सुख सुविधा का ध्यान रखा जाता है . उसके लिये
इतना कौन कहाँ सोचता है . सचमुच बेटी माँ
के लिये ससुराल में रह कर भी कितना सोचती है और करती भी है ! कितनी आत्मीयता होती
है दोनों के बीच ..
नमिता ने पहले इन बातों पर
कभी गौर नही किया . पर अब थके हारे तन-मन के कोने से एक आवाज गूँजती है । काश आज
उसकी बेटी होती... बेटी ,कुछ नही भी करती तो भी इतनी लापरवाह नहीं होती ,माँ के
साथ सहानुभूति तो रखती ही । नमिता का दिल-दिमाग एक गहरे खालीपन से भर जाता है ।
अन्दर से एक हूक सी उठती है----"काश यह सब उसने तब सोचा होता ..अपनी बेटी की
अच्छी देखभाल की होती.... आह.. "
नमिता अनायास ही जैसे अतीत
की गहरी गुफा में चली जाती है । गुफा के अँधेरे में भी स्मृतियों की चिनगारियाँ
चमक उठतीं हैं . गरम झुलसाता हुआ सा उजाला...
बीस-बाईस वर्ष का सूखा घाव
जैसे फिर हरा होने लगा .
नमिता का विवाह उस उम्र
में होगया था जब वह विवाह के सही मायने भी नहीं समझती थी. विवाह यानी सपनों के
राजकुमार का आना और उसे अपने साथ एक सुन्दर दुनिया में ले जाना . उस राजकुमार ने
मन के कच्ची दीवार पर जाने क्या लिखा कि बस वही वह रह गया नमिता की दुनिया में .
वह दिन कहे तो नमिता को दिन ही दिखे भले ही शाम या रात हो . यह एक अच्छी पत्नी का
धर्म माना जाता है .
जब वह पहली बार गर्भवती
हुई तो पति ने उसे खुशी के मारे बाँहों में भरकर ऊपर उठा लिया और झूमते हुए कहा—“ मुझे तो
बेटा चाहिये . मेरा शेर जिसे देख मेरी छाती चौड़ी होजाए ..”
पति की ऐसी लालसा देख नमिता
ने भी ईश्वर से प्रार्थना की कि हे प्रभु गर्भ में पल रहा बच्चा बेटा ही हो .
वह बचपन से ही सुनती और
देखती भी आ रही थी कि उसके गाँव में पहला बच्चा लड़का होने की ही उम्मीद की जाती
थी .लड़की होने पर बहुओं को क्या कुछ नहीं सुनना पड़ता था . उसके साथ अपराधियों
जैसा बर्ताव होता था . न उनकी देखभाल होती और न बच्ची की . जबकि बेटे के जन्म पर
तोप गोले चलवाए जाते बताशे बाँटे जाते . गीत-बधाए होते ..रानी भाभी को जब टीनू हुआ
था उन्हें पानी में हाथ भी नहीं डालने दिया जाता था .पोते के फरुआ-कच्छी तक दादी खुद
धो डालती थी . हर समय जच्चा के दरवाजे पर अंगारे सुलगते रहते थे । बुरी हवा से
बचने के लिये उसमें गन्धक डाला जाता था । हर किसी को जच्चा के कमरे में आने की
इजाजत नही थी . नवजात की कोमल कलाई में नजर से बचने के लिये हींग-राई बँधा काला
कपडा बाँध दिया गया था । भाभी को महीना भर सोंठ के लड्डू और हरीरा दिया गया था . सवा
महीना तेल-मालिश करवाई गई । और धूमधाम से दष्टौन किया गया । लड्डू बाँटे गए . उसके
दिमाग में यह सब स्थायी होगया .
विवाह के बाद ससुराल में
वह विचार और पुष्ट होगया . सास के मुँह से भी कई बार सुना ---
“बिटिया साठ ,तौऊ बाप की नाठ ' . फिर लड़की
जन्म के साथ दस जंजाल लाती है . उसकी रखवाली करो ,घर-वर
तलाशो , दस जगह की खाक छानो , लडके
वालों के तमाम नखरे सहो .भारी-भरकम दहेज दो उस पर भी लडकी ससुराल में सुखी नहीं तो
जीवनभर का क्लेश .....बस पहली बार एक बेटा हो जाय फिर बाद में कुछ भी हो ."
अगर बेटी होगई तो ?---एक दिन
नमिता ने पति के बालों में उँगलियाँ चलाते हुए पूछा . इस बहाने वह पति के मन की थाह
लेना चाहती थी . पति ने भी परिहास के बहाने सच उगला --
"तो माँ बेटी दोनों को
देश निकाला ."
‘अगर उसे बेटी हुई तो सबसे पहले तो पति की नजरों से गिर
जाएगी .’--नमिता मन ही मन सिहर उठी थी .हमारे समाज में स्त्री के
लिये पति की स्वीकृति और सहमति कितनी आवश्यक होती है. बेटी के जन्म की कल्पना से
ही उसका सुन्दर सपना बिखर गया .जैसे पुल टूटने पर यातायात अस्त-व्यस्त हो जाता है
. अगर सचमुच ही ऐसा हुआ तो ..
और सचमुच वही होगया ....
अस्पताल में घंटों तक दर्द
की कई लहरों के गुजरने के बाद नन्ही सी रुलाई फूटी तो नर्स की ने कहा—“बधाई हो
लक्ष्मी आई है .”
नमिता को पलभर को एक
अपूर्व सा अहसास हुआ पर वह दूसरे ही पल उसके कानों मे एक रूखी सी आवाज आई
'धीधरिया’ आई तो काहे की बधाई '--सास ने मुँह
बनाकर कहा और घर चली गई । पति सुजीत भी उसे निराशाभरी नजरों से देखते हुए उसे
अकेली छोड़ गया ,वैसे ही जैसे हारा हुआ चुनाव-परिणाम मिलने पर समर्थक चले
जाते हैं । नमिता को घबराहट महसूस हुई जैसे कि वह कोई गंभीर अपराध कर बैठी ....
अस्पताल में रह गई सुजीत
की बुआ ।
“कोई बात नहीं बहू...”—सुजीत
की बुआ ने समझाया . नमिता का उतरा चेहरा देख .
“बच्चा जब सामने रहता है
तो बेटा हो या बेटी, प्यारा लगने लगता है .”
तीसरे दिन छुट्टी करवा कर
घर भी उसे अकेली जेठानी लेकर आई । घर पर ऐसे सन्नाटा पसरा था जैसे व्यापार में कोई
बडा घाटा होगया हो या किसी ने सारी सम्पदा चोरी होजाने का समाचार दे दिया हो ।
अस्पताल से छुट्टी कर नमिता
घर पहुँची तो जच्चा के आगमन और स्वागत की कोई तैयारी नही की गई . मिठाई और
गीत-बधाई का तो सवाल ही नहीं .. उसे याद है कि सौमित्र के आगमन पर कितने पटाखे
चलाए गए थे .कितनी धूम थी घर में .. इस बार माहौल एकदम शान्त था . कोई चहल-पहल
नहीं थी . बस ‘नहान’ के लिये नीम का पानी उबाल दिया . नहान के बाद नमिता को
हल्के-फुल्के नाश्ते के बाद चाय दी .
मेवागुड़ न हरीरा ...! "
नमिता के मन में फाँस सी
करक उठी . एक बच्ची को जन्मने के कारण वह अपने ही घर में पराई सी होगई थी .पराई
नहीं अपराधिनी .. वह घर के कामकाजों में लगी रहती और बेटी उपेक्षिता सी एक तरफ पडी
रोती रहती । सुजीत निरपेक्षता से देखते हुए निकल जाते .नमिता का मन डगमगाने लगता ।
सास तो सास पति भी नाराज हैं ।
"नाराज न होऊँ तो
शाबासी दूँ ? बडा किला फतह करके दिया है न तूने ? .. जाने
किस किसके हाथ जोड़ने पड़ेंगे . किस किसके दरवाजे पर माथा टेकना होगा ."
सौमित्र जैसी नहीं है
...अपनी माँ पर गई है .—सास की मुँहलगी पड़ोसन कह रही थी -- एक तो लड़की ऊपर से
कमसूरत ..मुसीबत ही है ..लड़कों का रंगरूप कोई नहीं देखता पर लड़की तो .....नमिता का
अपराध-बोध और बढ़ गया . बेटी को जन्म देकर वह जैसे अपने स्थान से गिर गई । अपने
पति की इतनी उपेक्षा सहन करना उसके लिये सबसे कठिन काम था । उसका एक ही दायरा था
पति की अनुकूलता उसकी सोच के अनुसार ही ढलना । पति प्रसन्न तो जग प्रसन्न .
उसे आज हैरानी होती है कि सौमित्र
के पापा की बात को वह किस तरह आँखें बन्द कर स्वीकार कर लेती थी .किस तरह अपने
वात्सल्य को अनदेखा कर उनकी इच्छानुसार चलती थी .छोटे भाई के विवाह में हो रही
फोटोग्राफी में उन्होंने बच्ची को गोद में नहीं लेने दिया था नमिता को . कहा----"
उसे फोटो खिंचवाने लायक बड़ी तो होजाने दे .. गर्दन भी नहीं सम्हल रही ... " और
उसने बिना कोई आग्रह किये बेटी को पलंग पर लिटा दिया . आज उसका फोटो तक नहीं है .
उसकी स्थिति किसी
महत्त्वपूर्ण परीक्षा में फेल होगए विद्यार्थी जैसी थी ..ममता के स्रोत बन्द होगए
. छातियाँ सूख गईँ ..बच्ची भी सूखती गई . शायद वह भी माता-पिता की उपेक्षा नहीं सह
सकी इसीलिये एक दिन वह माँ को ग्लानि और सारे तानों-उलाहनों से मुक्त कर गई .कुछ
दिनों के लिये नमिता को लगा कि वह अन्दर से खोखली होगई है , उसमें अब
माँ बनने की न तो क्षमता है न ही उसका कोई अधिकार है । लेकिन अनचाहे ही जब गोद में
बहुत जल्दी सौमित्र आगया तो वह बेटी के दुःख को पूरी तरह भूल गई । सौमित्र के बाद
निखिल ..नमिता की जिन्दगी एक बार खिल उठी . बेटी की याद से हल्की सी दर्द की लहर
उठती जो निखिल सौमित्र की लुभावनी क्रीड़ाओं में विलीन हो जाती ...
लेकिन अब सोया दर्द जाग
उठा है . उसे महसूस हो रहा है कि असल में वह अपराधियों का जीवन जी रही है । अपराधी
जो भले ही अपने किये को भूल गया हो पर उसे कभी न कभी दण्ड मिलता ही है । नमिता
ईश्वर की भेजी उस पवित्र आत्मा का सम्मान न कर सकी तभी तो उसे यह अकेलेपन की सजा
मिली है । पति के लिये वह हर आवश्यकता को पूरी करने वाली मशीन और बहू-बेटों के
लिये वह सिर्फ घर व रसोई सम्हालने और पोते-पोतियों की देखभाल करने वाली महिला है .
माँ तो जाने कहाँ कबकी विलीन होगई है . शायद तभी जब उसने अपनी बेटी को खो दिया ..
हाय वह कैसी हृदयहीन थी ।
मन में पति की मानसिकता का विरोध पालना तो दूर उसने एक बार भी उलट कर नही सोचा कि
वह अब सबसे पहले माँ है . एक मासूम बच्ची की माँ . बेटी के लिये कोई भी कठोर होजाए
पर माँ कैसे कठोर होसकती है ? क्यों ? क्यों उसने खुद बेटे और बेटी में इतना भेद भाव माना ? जबकि वह
खुद एक स्त्री है . सृष्टि में जितनी भूमिका पुरुष की है उतनी ही स्त्री की भी है
फिर क्यों बेटी के जन्म पर इतना विषाद ?
और क्यों इसके लिये सिर्फ माँ ही जिम्मेदार माना जाता
रहा है ?
वह , नमिता
सचमुच एक हृदयहीन, कमजोर व कठोर माँ .. माँ जो बेटी के आने पर शर्म और
संकोच से भर उठी थी कि बेटी उसके पति और परिजनों को स्वीकार न थी , कि बेटी
उसके लिये उपेक्षा व अपमान का कारण बन गई थी । कितनी गलत और कमजोर सोच थी नमिता की। सिर्फ कुछ लोगों की सोच के कारण वह
माँ एक के दायित्त्व को ही दरकिनार कर बैठी ।
उस प्रसंग को याद कर नमिता
की आँखें छलछला आईं । खुद को ही हजार बार धिक्कारा । पति और परिवार से कहीं अधिक
दोषी वह स्वयं है । कैसी स्त्री है वह । कैसी माँ । माँ के नाम पर एक कलंक ।
"मेरी बेटी , मैं
तुझसे क्षमा नही माँगूगी क्योंकि मेरा अपराध क्षम्य है ही नही । " --नमिता
ग्लानिबोध से पिघल कर बोल उठी ---" मैं तुझे सम्हाल न सकी । काश तुझे बचा
सकती । तुझे छाती से लगा कर पाल-पोस कर बडी करने का हौसला जुटा सकती । तेरी माँ
होने पर गर्व कर सकती । जो मुझे करना चाहिये था । मैं माँ के नाम पर सचमुच एक कलंक
हूँ । तेरे पिता को क्या दोष दूँ जबकि माँ होकर मैं ही मातृत्व न निभा सकी ।
मेरी यही सजा है कि मैं
दूसरों की बेटियों को देख देख कर कर पछताती रहूँ। उनकी अपने माता-पिता के प्रति
आत्मीयता देख-देख जीती रहूँ । स्नेहहीन उजाड में अकेली ही जीवन को ढोते हुए , बिना
किसी हमदर्द के ही उपेक्षाओं का जहर पीती रहूँ । जीती रहूँ एक स्नेह और सम्बल रहित
अकेली जिन्दगी । और तुझे खो देने का मूल्य चुकाती रहूँ अपना सुकून देकर । याद करती
रहूँ अपने अपराध को । इससे बडी सजा एक स्त्री के लिये क्या होसकती है । मेरी बेटी ,मैं सदा
शर्मिन्दा रहूँगी एक कमजोर माँ के रूप में । "
नमिता ने गहरी साँस लेकर
आँसू पौंछे और थकी-हारी बिखरे कागज समेटने लगी ।