सोमवार, 14 अक्टूबर 2013

कर्जा-वसूली

वर्तमान-साहित्य ( सितम्बर 2010) में प्रकाशित यह कहानी पिछले सप्ताह उज्जैन में प्रेमचन्द सृजन-पीठ द्वारा आयोजित कथा गोष्ठी में भी पढी गई । आप सबके अवलोकनार्थ यहाँ भी प्रस्तुत है ।
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बलीराम बौहरे का हाल वैसा ही था जैसा सरेबाजार जेब कटा बैठे किसी मुसाफिर का होता है । वह ठगा सा खडा रह जाता है । कोई उपाय सूझता ही नही ।
यह तो हद ही होगई । 
रामनाथ ने इस चैत में रुपए लौटाने की कैसी कसमें खाईं थीं कि, " पिरान बेचकर भी तुम्हारे रुपए लौटाऊँगा कक्कू ।" लेकिन वह सब भूलकर मानो बौहरेजी को ठेंगा दिखाता ठाठ से कैलादेवी की जात करने गया है । अकेला नही पूरे कुरमा को लेकर । बस वाला क्या इसका बहनोई है ? कि दुकानवाले चाचा-ताऊ ? जो इसे सेंतमेंत ही मेला करा देंगे । पाँच-सात सौ से क्या कम खर्च होंगे ! फिर रामनाथ का हाथ 'जगन्नाथ का भात.'.। पैसा आया चइये हाथ में ....। 
बलीराम को तो पता भी नही चलता पर सुबह नदी स्नान को जाते समय कलुआ खवास ने घेर लिया---"बौहरेजी इस बार तो रामनाथ ने रुपए लौटा ही दिये होंगे ।"
"नही "...क्यों ?"
"नही बस ऐसे ही । आज तडके ही रामनाथ को गाडी भर कर मेला जाते हुए देखा तो सोचा कि इस बार तो बौहरे का कर्जा को पटा ही दिया होगा उसने । पर सच्ची ?..नही लौटाया ? राम-राम बडी 'धरमारी' है...।" 
बलीराम दुबे का मन जैसे भाड का चना होगया । गाँव का बच्चा-बच्चा जान चुका है कि रामनाथ ने बौहरेजी से रुपए उधार लिये हैं । छह महीने के छह साल होगए हैं पर उसने लौटाने का नाम भी नही लिया है अब तक । और अब यह जात-मेला...।
"यह तो होना ही था ।"---गाँव के लोग आपस में बतराते हैं---"भैया बलीराम काका को 'बौहरगत' का शौक भी हुआ तो रामनाथ के लिये । सब जानते हैं कि रामनाथ को रुपए देकर तो भूल जाना ही ठीक है । वरना वसूली के लिये इतने चक्कर लगवाता है जितने ऑफिस का बाबू क्या लगवाएगा । गाँव में सालों से देखते आरहे बौहरेजी क्या जानते नही थे ।
बेशक जानते थे । सच्ची बात तो यह है कि वे अब लेन-देन का काम भी छो़ड चुके थे । लेन देन का काम तो उसी के वश का है जिसकी लाठी में दम हो । ईमानदार लोग तो खुद ही वादे पर रुपया लौटा जाते हैं पर सब तो इतने ईमानदार नही होते । उनसे रुपया निकलवाने के लिये तो जूता का जोर ही काम आता है । हाँ बलीराम के पिता ,दादा और परदादा को यह व्यवसाय खूब फला-फूला था । लोग न केवल समय पर रुपया लौटाते थे बल्कि एहसान तले दबे हुए बौहरे जी के बहुत से कामों को यों ही खुशी-खुशी करते थे । खाट बुनने, छप्पर छाने ,रस्सी बटने या दीपावली पर गाय-बैलों के लिये मोरपंख के बन्धन बनाने जैसे कामों के लिये बौहरेजी को किसी से कहने की जरूरत नही होती थी । साग-भाजी, गन्ना-गुड, और मौसम की चीजें अपने आप ही उनके घर आजातीं थीं इसीलिये न कि उनके पास लाठी थी ,जूता था ? "ज़र ज़मीन जोर के ,नही तो किसी और के..।" 
बलीराम जी तो नाम के बौहरे (गाँवों में ऋणदाता को बौहरे कहा जाता है ) हैं । उनकी न तिजोरी में दम है न जूता में और ना ही आवाज में । लेन देन का धन्धा ?, राम भजो । 
लेकिन उस दिन आषाढ की भरी दुपहरी में पसीने में लथपथ रामनाथ बलीराम के पैरों में गमछा रखकर रोने लगा तो वे असमंजस में पड गए ।
"मेरी उजडती मडैया को बचालो कक्कू"---रामनाथ गिडगिडा रहा था--"तुम्हारी बहू की 'नबज' भी नही मिल रही है । अस्पताल लेजाने के लिये जेब में एक छदाम भी नही है । एक हजारक रुपए हों तो दे दो काका । तुम्हारा औसान 'जिनगी' भर नही भूलूँगा ।" 
बलीराम बौहरे पल भर के हिचकिचाए पर संकट में फँसे आदमी से ना कहें भी तो कैसे । फिर भी एक बारगी उन्होंने उसकी याचना की धारा से खुद को किनारे करते हुए कहा--- "रुपए लेकर तू लौटाता तो है नही रामनाथ ।" 
"अब वो रामनाथ नही रहा काका । घर की लक्ष्मी जा रही है उसे बचालो । तुम्हारा गुलाम बनकर रहूँगा । 'पिरान' बेचकर भी तुम्हारे रुपए लौटाऊँगा ।" 
 बौहरे जी की तटस्थता कागज की तरह याचना की उस तेज धार में बह गई । पल्लू से आँसू पौंछते हुए पास ही खडी बौहरी राजबाई ने भी सहारा लगाया---"दे दो बिचारे को मुसीबत का मारा है ।" 
बौहरेजी ने बडी हिफाजत से रखे सौ सौ के दस नोट लाकर रामनाथ को थमा दिये । ये रुपए उन्होंने हरिद्वार जाने के लिये अलग से बचा रखे थे । आमदनी का जरिया अब केवल छोटी सी दुकान ही है । । जमीन की आधी उपज तो जमीन में ही लग जाती है । वैसे भी पैसे को वे बहुत सोच-समझकर खर्च करते हैं । उन रुपयों को देते समय उन्हें लगा कि जैसे कोई अपनी जमा की हुई गुल्लक को सौंप रहा हो । रामनाथ ने माथे से लगाकर कहा--
"भगवान ने चाहा तो इसी कातिक में लौटा दूँगा काका । तिली बाजरा ठीक-ठाक होगए तो...नही तो चैत में पक्के ..।"
कार्तिक की फसल आई । बाजरा कुट-फटककर घर आगया । तिली झडाकर कनस्तरों में भर ली गई 
थोडी मूँग भी होगई थी । रोज मँगौडे बनने लगे । तिली गुड के साथ कूटी जाने लगी । महक बलीराम बौहरे की नाक तक पहुँची पर इससे पहले कि वे पैसों का तकाजा करते रामनाथ की घरवाली खुद काकाजू को पल्लू से पाँव छूकर गुड तिली वाली बाजरे की टिकिया और तिलवा लड्डू दे आई । बौहरे जी स्वाद-सम्मान पाकर कह उठे--"वाह" । 
रुपयों की बात भूल ही गए ।
चैत में यह हुआ कि गेहूँ-चना खलिहान से घर पहुँचता इससे पहले ही सियाराम सेठ के आदमी अपना हिसाब चुकाने आधे से ज्यादा अनाज भरकर लेगए । 
"अब तो बच्चों को भी पूरा न पडेगा काका । अभी तो मजबूर हूँ ..।" रामनाथ ने खुद आकर बौहरे जी को बताया । बौहरे जी क्या कहते । बच्चों का निवाला तो नही छीन सकते वे ।
लेकिन तब से कितने चैत कातिक निकल गए । गढी--अनगढी नई-नई कथाओं के साथ । 
कभी बहनोई के भाई को 'टिसनिस' होगई तो कभी साले का बैल ऐन जुताई के मौके पर ही मर गया कभी बुआ के लडके के ससुर का एक्सीडेंट होगया । कभी लडकी कातिक न्हाई है या ससुर का 'चिन्नामित्त' (चरणामृत) लिया है सो उसके सास-ससुर को 'सवागा' (पाँचो कपडों सहित कई उपहार )भेजा है । तो कभी बच्चों के लिये नई रजाइयाँ भरवालीं । 
"अब काका घर-गिरस्ती लेकर बैठे हैं तो नातेदारी भी देखनी पडती है और जिम्मेवारी भी । मजबूरी है लेकिन मैं तुम्हारे रुपयों को भूला नही हूँ ..।"
मजबूरी में बौहरे जी भला क्या कहते और कैसे कहते ! लेकिन लोग हँसते हैं ---
"रामनाथ की बात ,गधे की लात..। बलीराम काका को बौहरगत करने मिला भी तो रामनाथ लुहार?" रामनाथ ,हरीचरन लुहार की निकम्मी औलाद । बाप के पाँवों पर रत्तीभर नही गया । वह बातवाला आदमी था । मेहनती था और पानीदार भी । पाँच--छह बीघा जमीन के अलावा अपना पुश्तैनी धन्धा भी चालू रखे था । जब भी फुरसत मिलती चिमटा-सँडासी, हँसिया-खुरपी, कन्नी-बसूला,  
बना कर गाँववालों को दे देता था । सालभर का अनाज तो ऐसे ही मिलजाता था ।
रामनाथ ने न कभी घन उठाया न हल की मूठ पकडी । दो-तीन बीघा जमीन तो पट्ठा बैठे बैठे ही खागया । रूपवती घरवाली आगई । आए दिन जलेबी--पकौडियाँ छनतीं । खाट में पडे सतरंगे सपने देखे जाते । वह तो एक दिन दुलारी को पता चल गया कि ये मौज-मजे जमीन बेच कर कराए जारहे हैं तो उसने अनशन ठान लिया । बोली--"खेती नही होती तो मिट्टी डालो ,खान में पत्थर तोडो पर काम करो ।"
अब दुलारी है रामनाथ की 'नाक का बाल' । सो बँटाईवाले को हटाकर खुद खेती सम्हाल ली है लेकिन रुपए को वह सुख का साधन मानता है संचय का नही । 
"रुपया तो रुपया है अपना हो या दूसरे का । रुपया हाथ का मैल होता है "---वह अक्सर दार्शनिकों की तरह कहता है---"इसे चिपकाकर क्या रखना । माया महा ठगिनी हम जानी .ये काहू के ना ठहरानी । खूबचन्द काका को ही देखलो जिन्दगी भर जोडते रहे । न ढंग का खाया न पहना । घी शक्कर को ताले में रखते थे । घरवाली के माँगने पर कटोरी भर ही निकालते थे । जब मरे तो गद्दे-तकिया तक से नोट झरे थे जैसे हवा से पके सूखे पत्ते झरते हैं । किसके काम आए । सन्तान को लडने-झगडने का कारन और देगए । रुपया तो खरच करने के लिये होता है ..।"
अपना यह दर्शन रामनाथ को इतना प्रिय है कि रुपया हाथ में आना चाहिये बस..खर्चने के दस रास्ते निकल आते हैं । चन्दा लँहगा-चुन्नी माँगती है उसे तुरन्त बढिया लहँगा-चुन्नी ला दिये जाते हैं । दीना ने घडी माँगी ,उसकी घडी आगई । और जो दुलारी उसाँस भरकर कहदे कि--"जिनगी बीत गई कभी नाक में सोने की लौंग तक न पहनी", तो रामनाथ के कलेजे को लग जाती है उसका वश चले तो लौंग क्या घरवाली को सोने से मढ दे । कहाँ के काका बाबा के रुपए । उनकी तिजोरी में पडे-पडे सड जाएंगे । क्या करेंगे लेकर ? हम उनका उपयोग तो कर रहे हैं कम से कम..।" 
पिछले साल रामनाथ के घर भैंस आगई थी । कहा तो यही कि ससुराल से ले आया है । वहाँ चारे-पानी का इन्तजाम नही था और यहाँ बच्चे दूध-दही को तरसते थे । लोगों ने बौहरेजी को सलाह दी कि तुम रामनाथ के घर से दूध क्यों नही बाँध लेते । नगद रुपए तो पता नही मिलेंगे या नही । रामनाथ ने सुना तो उसने भी यह प्रस्ताव खुशी-खुशी मान लिया । दो-चार दिन दुलारी खुद बढिया 'निपनिया' दूध ले जाकर काकाजू के घर दे आई । पर यह क्रम आठ दिन भी न चला । कभी दुलारी को 'कास्स-बाबा' की खीर चढानी होती तो कभी बेटी के सासरे खोआ भेजना होता । कभी पडिया छूट कर सारा दूध पी गई तो कभी भैंस ही उचक गई । इस तरह बौहरे जी चाय तक को तरस जाते । इससे तो डेरी से ही दूध लेना अच्छा था । मजबूरन वही शुरु कर दिया ।
इधर तो बलीराम इन्तजार करते कि कब रामनाथ अपना करार पूरा करेगा और उधर कोई न कोई सूचना चूल्हे के धुँआ की तरह रामनाथ की पाटौर से निकलकर हवा में फैल ही जातीं थीं और उसकी गन्ध बलीराम बौहरे तक पहुँच ही जाती कि कि रामनाथ के घर 'रेडू' ( रेडियो) बज रहा था कि रामनाथ का लडका आज बढिया 'सुपाडीसूट' (सफारी-सूट) और चमडा के चरमराते जूते पहन कर कहीं गया है । कि दुलारी कल बाजार से नए डिजान की पाजेबें लाई है कि.....भई रामनाथ के तो ठाठ हैं  । ऐसे ही एक दिन अचानक रामनाथ के आँगन में गाया जाने लगा था--"जच्चा मेरी सरद पूनों का चाँद...।"
कैलाबुआ ने नारद की सी भूमिका निभाते हुए राजबाई को सुनाया---"बौहरी सुना तुमने , रामनाथ की लडकी को बेटा हुआ है । खूब तगडे पछ की तैयारियाँ चल रहीं हैं । सबके कपडे ,बच्चे को चाँदी के कंगन ,सोने की हाय दो सूट दो कलसा लड्डू एक में बूँदी के और एक में सोंठ के ।"    
"सोंठ के ?"---राजबाई मन मसोस कर रह गई । दो जापे हुए पर एक बार भी न उसे हरीरा चखने मिला न सोंठ के लड्डू । डाक्टरनी ने साफ कह दिया---"चिकनाई बिल्कुल नहीं । सिर्फ दूध...।"
"दुलारी के हाथ के बने सोंठ के लड्डू तो बस.."..--कैला बुआ ने चटखारे लेकर कहा---"मुझसे तो आधा भी न खाया गया । निचुडवां घी, मेवों की भरमार सोंठ अजवाइन की 'खसबोई' अलग..।"
"तो इस बार भी रामनाथ का वायदा कुम्भ का मेला हुआ समझो ।"--बलीराम ने निराश होकर रामनाथ को बुलवा भेजा ।
"मैं तो खुद ही आ रहा था कक्कू ।"--रामनाथ पाँव छूकर बोला---"तुम्हारा नाती आया है । तुम्हारा 'आसिरबाद' है ।"
"मेरा आशीर्वाद तब मिलेगा रामनाथ जब तू रुपए लौटाएगा ।"--बलीराम ने ताकत लगाकर अपना रोष निकाला---"तूने जैसी मेरी बात खराब की है ,कोई कर नही सकता । जग हँसाई होरही है कि मैं किस फरेबी की सहायता करने चला था । तू एक बार कहदे कि रुपए नही देगा । समझ लूँगा जेब कट गई । उस दिन कैसे बकरी की तरह मिमिया रहा था । और अब रंग ही बदल गया । तेरे जैसा मक्कार आदमी नही देखा ।"    
तुम्हारा गुस्सा बाजिब है काका । पर समधियाने की बात आन पडी है । इसमें मेरी क्या तुम सबकी इज्जत है । पूरे गाँव की ...फिर काकाजू तुम्हारे रुपए तो समझो दूध पी रहे हैं ।
ऐसी-तैसी दूध पी रहे हैं---बौहरे जी बौखलाए---"मुझे अब ये तेरी चिकनी चुपडी नही, ईमानदारी की बात सुननी है आखिरी बार । तू रुपए देगा कि नही । देगा तो कब देगा । अभी बता । फिर जो होगा देखेंगे ।" 
"बस दो महीना बाद ही । गेहूँ चना की फसल आते ही सच्ची । जहाँ मानुस मरे वहाँ सौगन्ध ले लो ..।"--रामनाथ ने छाती पर हाथ रखकर कहा । पीछे से यह भी जोड दिया---" फिर भी कहो तो काका तुम्हारा ही हिसाब कर दूँ । नही भेजूँगा पछ । लडकी को एक धोती भेजकर हाथ जोड लूँगा ।" 
नौटंकी करने में रामनाथ का जबाब नही । जैसे छह साल वैसे दो महीने और सही , यही सोचकर बौहरे जी ने सन्तोष कर लिया पर अब...चैत की फसल आते ही मेला घूमने भी चला गया ठेंगा दिखाकर ।
"लौटेगा तो सही ..आज वह नही कि मैं नही ..।" बौहरे जी तिलमिलाते हुए आँगन में चक्कर काट रहे थे जैसे चौमासे में मक्खियाँ लगने पर बछडा तिलमिलाता है । राजबाई असहाय सी पति को देख रही थी । उसने जानबूझ कर नही बताया था वरना उसे सुबह ही रामो ने बता दिया था । यह भी कि आधीरात से ही दुलारी की कडाही-करछी खनकने लगी थी । 
और कोई मौका होता तो राजबाई कल्पना करती कि कैसे दुलारी के हाथ-पाँव मेंहदी--महावर से रचे होंगे । कैसे ठसके से धरऊआ साडी पहन कर हँसती-गाती गई होगी । ऐसी कल्पना राजबाई को यों तो हमेसा ही भली लगती है लेकिन इस बार उसके मन में उपले से सुलग रहे थे ।
"आग लगे ऐसे मौज-सौख को "--वह पति को सुनाती हुई बोली---"तुम क्यों अपना खून जलाते हो ? वह तो मौज कर रहा होगा पूरे कुनबा के संग..।"
"रुपए तो तूने ही दिलवाए थे अपने बाप को "---बलीराम अपनी पत्नी पर बरस पडे । (हर खटकने वाली चीज उनके लिये राजबाई का बाप होती है चाहे वह बुखार या सिरदर्द ही क्यों न हो ) तब तो कैसे टसुए बहा कर बोली थी दे दो बेचारा मुसीबत में है ...।"
"चलो खाना खा लो । मैंने भरवां भटा और लौकी का रायता बनाया है तुम्हारी पसन्द का..।"
"तू ही खा ले ।" बौहरे ताव से बोले --"मैं तो कौर--ग्रहण उसके हलक में से रुपए निकलवा कर ही करूँगा । भैरों को बुलवाता हूँ । वही इसे ठिकाने पर लाएगा । भय से तो भूत भागते हैं ।"
इधर बौहरे जी रणनीति बना रहे थे उधर रामनाथ सब कुछ भूलकर बाल-बच्चों के साथ मेला घूम रहा था । हाथ में जैसे कुबेर के खजाने की चाबी थी ।
"चन्दा, दीना ,दुलारी जो जो खरीदना हो खरीद ही लो, खाना हो खा लो फिर मत कहना ..उठी हाट मंगलवार को लगती है हाँ नही तो...।"
यही है इनकी जीवनदृष्टि । सुख-दुख बराबर । न दुखों से भागते हैं न खुशी मनाने का मौका छोडते हैं । दुख इनके लिये एक परिवर्तनकारी घटना है जीवन के अभावों और मुश्किलों को भूलने या पीछे छोडने का अवसर । उसे पूरी तरह जीते हैं । दुख चाहे पकी फसल में आग लगने का हो या बछडा मर जाने का । दुलारी खूब डकरा-डकराकर रो लेती है और दुख से मुक्त होजाती है खुशी के लिये मन से तैयार । खुशी चाहे पेड में पहली बार फल आने की हो या गाय 'ब्याने' की । तुलसी और टेसू-झाँझी के विवाह पर वह ऐसे सजती है जैसे उसके बेटे का ब्याह हो । 
जो लोग दुखों को ईमानदारी से नही भोगते वे सुखों का आनन्द नही उठा सकते---इसे अनपढ रामनाथ ने जाने कब कहाँ से सीख लिया है तभी तो बौहरे जी के तकाजों की चिन्ता किये बगैर ,झकाझक सफेद धोती-कमीज पहने ,कानों में कन्नौजिया अतर का फाहा खोंसे शान से मेला घूम रहा था । दुलारी नारियल-बताशे चढाकर मैया को मना रही थी---"हे बहरारेवाली मैया ! जैसे अब बुलाया आगे भी बुलाना..।"
शाम ढले घर लौटते समय दुलारी का मन तृप्त था । वह चन्दा को साथ लेकर गा रही थी---"इन बागनि के फूल मति तोडै माली पत्ते-पत्ते पै बैठी मेरी शेर वाली...।"         
खुसी के चटक रंगों में खोए रामनाथ ने जो अपने चबूतरा पर बलीराम बौहरे के साथ भैरों को बैठे देखा तो सब कुछ समझ में आगया । पत्नी-बच्चों को भीतर जाने को कहकर खुद स्थिति से निपटने  तैयार होगया । भैरों ने उसकी कमीज का कालर पककर कहा--- "क्यों रे भैन के...बेहया ! दूसरों के रुपयों पर गुलछर्रे उडाते जरा भी शरम नही आती ?"
भैरों बलीराम बौहरे का भान्जा ,इलाके का नामी लठैत है । दस-दस आदमियों से अकेले भिडने की ताकत रखता है । मामा के रुपए तो रुपए , वसूलने के लिये उसकी खुद की भी कुछ उधारी थी । एक बार जरा हाथ पकडलेने पर ही दुलारी ने उसकी माँ-बहन को समेटते हुए हंगामा खडा कर दिया था । उसे छिछोरा की उपाधि मिली सो अलग । आज इस सती-सावित्तिरी के गरूर को जरूर देखेगा भैरों । पर देखे किसे । रामनाथ तो पैरों में पडा था ।
"भैरों भैया ! जुबान खराबकर काहे छोटे बनते हो । तुम जो कहोगे करने तैयार हूँ ..।"
कोई सामने अडा हो तो दो दो हाथ करने में मजा आए । गिडगिडाते रामनाथ को देख आधा जोश तो ठंडा ही होगया । फिर भी कडककर बोला---"मामा के रुपए निकाल अभी । बहुत चक्कर लगवा लिये तूने । आज देखता हूँ...।"
"रुपए कहाँ हैं भैया ? चाहो तो मेरे पिरान ले लो ।"
"तेरे प्राणों का क्या अचार डालूँगा ? हमें रुपए चइये अभी ,इसी बखत..नही तो...तो.".--भैरों ने चारों ओर नजर दौडाते हुए कहा और फिर सामने खडी भूरी भैंस को देख आँखें चमकीं--"अरे हरामखोर ! बीस हजार की भैंस बाँध कर बैठा है और कहता है कि पैसे कहाँ हैं..।"
'चाँदुल' ??---एक साथ सबकी छाती पर जैसे किसी ने हथौडा मार दिया हो । दो महीने पहले ही बच्चों के लिये रामनाथ अपनी ससुराल से दूध देने तक के लिये एक भैंस खोल लाया था । वहाँ पहले ही बहुत सारे चौपाए थे । चारा पूरा नही पड रहा था । 'चाँदुल' बच्चों की जान बसती थी लेकिन भैरों जैसे आदमी से कौन जूझे !
भैंरों ने भैस खोल ली । किसी ने चूँ तक न की । गाँव के ज्यादातर लोगों की हमदर्दी बलीराम बौहरे के साथ थी । रामनाथ को सबक मिलना जरूरी है । ठीक किया भैंरों ने ।
भैरों की पीठ होते ही रामनाथ के घर में कोहराम मच गया । दुलारी गा गाकर चिल्ला-चिल्लाकर रोती रही---"अरे राssम ! भला हो इनका । पापी ,मेरे बच्चों के गले पर लात रखकर लेगए । उनके हलक से कौर निकालकर खागए 'धरमार'...।"उज्जैन
"बावरी हुई है क्या !"--रामनाथ समझा रहा था ---"भैंस ही तो ले गए हैं हमारी किस्मत तो नही लेगए । कम से कम रोटी तो चैन से खा सकेंगे । नही तो रुपया..रुपया..रुपया ...। रुपए न हुए बौहरे के प्राण होगए ।" 
उधर बौहरे जी गाँव के दूसरे छोर पर भी मानो सब कुछ साफ-साफ सुन रहे थे । दुलारी के बोल ओले की तरह तड-तड कनपटी से टकरा रहे थे । बच्चों की निगाह बेरी के काँटे सी कसक रही थी । अचानक उन्हें लगा कि उनकी यह उपलब्धि खोखली है सूखी लौकी की तरह । उनसे भैंस की देखभाल नही हो पाएगी । कहाँ बाँधेंगे । कौन दूध दुहेगा । कौन चारा लाएगा । और कौन दुलारी के ताने--उलाहने सुनेगा । भैंस लाकर उन्हें क्या मिला सिर्फ इस तसल्ली के कि होगई कर्जा-वसूली । वह तसल्ली भी भैरों को थी । रुपए तो आए न आए बराबर ही थे । 
जैसे जैसे रात गहरा रही थी बलीराम बौहरे को दुलारी का विलाप ज्यादा सुनाई दे रहा था । इसलिये उन्होंने भैरों को बुलाया और मन पक्का कर बोले---"भैरों ! भैंस को रामनाथ के द्वार पर बाँधकर आ ..हाँ हाँ अभी  इसी बखत..।"       
    

शनिवार, 21 सितंबर 2013

अर्थहीन

यह आमन्त्रण पर लिखी गई दहेज -कथा है । 'इक्कीसवीं सदी की चुनिन्दा दहेज-कथाएं '.-संग्रह ( स.दिनेश पाठक शशि)में शामिल भी है लेकिन आपको पढवाने की लालसावश यहाँ भी दे रही हूँ । आशा है आप पढेंगे और अपनी  बेबाक टिप्पणी से मुझे लाभान्वित करेंगे ।
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वेदप्रकाश को जो दरवाजे पर देखा ,मंजू की छाती में धड-धड होने लगी । चेहरा धूप में मुरझाए पत्ते की तरह लटक गया । 
"अभी पन्द्रह दिन भी नही हुए कि लिवाने भी आ गए ?"--मंजू ने सोचा 
अम्मा जी ने खुद ही तो कहा था कि अबकी बार मंजू को महीना--डेढ--महीना के लिये भेज दूँगी । बेचारी को साल भर से ज्यादा होगया मायके गए । यों साल-दो साल में महीना-पन्द्रह दिन की छूट कोई बडी छूट नही है पर इतनी भी क्या कम है ? 
सात-आठ साल में वह इतना जान चुकी है कि उस घर में बहुओं का मायके जाना कभी सहजता और सरलता से स्वीकार नही किया जाता । लिवाने वाले को एक-दो बार न लौटाया तो ससुराल क्या । ऐसे समय मंजू को सावन का एक लोक गीत याद आता है जिसमें भाई बहन को लिवाने ससुराल आता है । पहले तो सास-ननद की भौंहें तन जातीं हैं । सीधे मुँह बात नही करतीं लेकिन जब बहू खुशामद करती है कि--"तुम कहौ ए सासु पीहर जाउँ ,बारौ बीरन लैवे आइयौ...।" बडी मुश्किल से सासु बहू की बात मानती है पर कई शर्तों के साथ कि "जितनौ ए बहू कोठीनि नाज, उतनौ पीसि धरि जाइयो ,जितनौ ए बहू कुँअलनि नीर उतनौ भरि धरि जाइयो...." .."हे बहू तू मायके जाना चाहती है तो चली जा लेकिन पहले जितना घर में अनाज है सारा पीस कर रख जा । जितना कुओं में पानी है उतना भर कर रख जा..। 
अब जबकि बीसवीं सदी बीतने जा रही है ,ग्वालियर के उस पुराने मोहल्ला में उतनी कठोरता तो नही रही पर बहू के मायके जाने पर आसानी से सहमति तो अब भी नही मिलती । मिल भी जाए तो 'लिबउआ' खातिरदारी के नाम पर  रोककर आज-कल ,आज-कल करके दो-चार दिन तो ऐसे ही निकाल दिये जाते हैं । 
अम्मा की भी तमाम समस्याएं निकल आतीं थीं । दुखी स्वर में कहतीं अब मेरा मन कैसे लगेगा ? कौन भारी-भारी चादरों को धोएगा ? कौन इतनी सुबह ओम का टिफन लगाएगा ? कौन मेरे पैरों में 'नारान ' की मालिश करेगा ? ..
मंजू को खूब याद है कि उसका छोटा भाई इसीलिये उसे लिवाने जाने के लिये तैयार नही होता था ।
छोटे देवर ओमप्रकाश के ब्याह से पहले मंजू को परिवार की इस नीति  और सासु माँ की बातों पर खीज की बजाय हँसी आती थी । रौब और अधिकार भरी ही सही उसे अपने ऊपर सास की और देवरों की निर्भरता बुरी नही लगती थी  बल्कि उसमें अपने  महत्त्व का अनुभव होता था , लेकिन जबसे घर में ओम की बहू आई है उसे वे सभी बातें अखरने लगी हैं । आखिर वे नियम पूजा पर लागू नही क्यों नही होते ?उसका भाई जब चाहे लेने आजाता है और असहमति जताने की बजाय सब पूजा की विदाई तैयारी करने लगते हैं ।
"क्या महीना और क्या पन्द्रह दिन  ! "---वेदप्रकाश मंजू को समझा रहा था--" रहने को तो छह महीना भी कम पड़ेंगे . पर मेरा कुछ ख्याल है कि नही ?"
मंजू की माँ दामाद की बात पर पुलकित हुई । बेटी की सजल आँखें देख प्यार भरी झिडकी दी -- 
"बावरी हुई है क्या ? लल्ला जी का जी नही लगता होगा तेरे बिना । फिर रहना तो तुझे उसी घर में है । क्या चार दिन और क्या चौदह ..। 'घोडी घुडसाल में ही अच्छी लगती है' । समझी ! और यह तो सोच कि  सासरे में तेरी कदर है ,तभी तो ..".
"हाँ खूब कदर है "..मंजू ने कुढते हुए सोचा .
पहले वह भी इसे 'कदर' ही समझती थी भले ही डाँट-डपट और झिडकियों के रूप में । तो क्या हुआ अम्मा के लिये मेरे अलावा और है ही कौन ? माँ कहती है कि डाँटते भी उसी को हैं जिसे सबसे ज्यादा चाहते हैं । लेकिन ओम की बहू के आते ही मंजू को वह कद्र बेकद्री लगने लगी । क्यों ? जिेसे सबसे ज्यादा चाहते हैं क्या सारे छोटे और नीचे काम भी उसी से करवाए जाते हैं ? बर्तन माँजना हो ,बाथरूम साफ करना हो ,रोटियाँ सेकनी हों या कपडे धोने हों ,इन कामों के लिये तो मंजू है और बाजार में खरीददारी करनी हो , मेहमानों से मिलना हो, कहीं रिश्तेदारी में जाना हो तो पूजा .?
मंजू को काम से ऐतराज नही पर भेदभाव कलेजे को छेद कर रख देता है । आखिर पूजा में ऐसा है क्या ?"    
"पूजा भाभी में 'मैनर' है । अक्कल है । लोगों से मिलने ,बात करने का तमीज-तहजीब है । ज्यादा पढी लिखी है ...।"  रमा दीदी को पडोसन से कहते सुना था मंजू ने । 
रमा छोटी ननद है पर वह भाभी को न केवल समझाने का अधिकार रखती है बल्कि अपने नाम से पहले दीदी भी लगवाती है । घर में कितने ही छोटे हों ननद-देवरों का नाम खाली नही बल्कि दीदी और भैया लगाकर लिया जाता है लेकिन यह नियम पूजा के लिये क्यों नही है ? पूजा सबका नाम लेती है .फिर भी पूजा भाभी में 'मैनर' है । लेकिन मंजू खूब समझती है कि यह सब पूजा के मायके के कारण है । पूजा के तीन तो जवान भाई हैं । घर के मजबूत हैं । धौलपुर में बढिया मकान है । तीन-चार दुकानें हैं । पूजा जब भी मायके से आती है साथ में ढेर सारा सामान--दाल, चावल, पापड--बडियाँ ,अचार मुरब्बा कपडे मिठाई लाती है । 
"कुछ भी कहो रिश्तेदार मिलें तो ओम की ससुराल वालों जैसे ।"-- अम्मा की झुर्रियाँ चमक उठतीं हैं । वे सबको सुना कर कहती है । खास तौर पर मंजू को ।
मंजू मन मसोस कर रह जाती है । वह कहाँ से लाए यह सब । उसकी पारिवारिक दशा क्या अम्माजी से छुपी है । बाबूजी हैं नही । मुसीबतें झेलने के लिये अकेली माँ है । बडा भाई एक विधर्मिणी से विवाह करके कहीं दूर जा बसा है । छोटा भाई बिजली का काम करके थोडा बहुत कमा लेता है कुछ माँ कागज की थैलियाँ बना कर कमा लेती है बाकी बाबूजी की पेंशन से गुजारा होजाता है । 
जब रिश्ता हुआ था तब हालात ऐसे थे कि ससुर जी ने खुद बाबूजी से मंजू का हाथ माँगा था । वेदप्रकाश न तो ज्यादा पढे थे ना ही कोई काम-धन्धा करते थे । घरवालों ने सोचा कि शादी करदें बहू आने पर कुछ तो कमाएगा । सो तब सबका ध्यान केवल शादी पर था । देनलेन तो हाशिये पर चला गया था । पर किसन की शादी में जो सामान व नगद रुपया मिला घरवालों का नजरिया बदल गया । मंजू को भूलकर सब पूजा के गुण गाने लगे । जब भी कोई पूजा के मायके से आता है ,बाजार से गरम कचौरियाँ और जलेबियाँ मँगाई जातीं हैं । सौंफ बादाम की ठण्डाई घोंटी जाती है । शुद्ध घी में पूडियाँ तली जातीं हैं । 
बहू के मायके वालों का सम्मान करोगे तभी वह तुम्हारा सम्मान करेगी ।--एक दूर के चाचाजी अक्सर कहते रहते हैं । सभी लोग इसका बराबर पालन करते हैं । लेकिन मंजू के मामले में ऐसा मानने की विवशता किसी के लिये नही है । मंजू का भाई वैसे तो कभी-कभार ही आता है लेकिन उसका वैसा स्वागत कहाँ होता है जैसा पूजा के भाइयों का होता है । 
"गरीब की लुगाई सारे गाँव की भौजाई ।" 
काम के लिये भी हर कोई मंजू पर ही तान तोडता है । 
'पती 'कमाने वाला होता या मायका 'जबर' होता तो उसकी भी पूजा जैसी ही 'पूछ 'होती..। मंजू की भी इच्छा होती है कि पूजा जैसी इज्जत उसे भी मिले ,लेकिन कैसे ? माँ अकेली और असहाय है । कहाँ से क्या करेगी सब...? और उसे अहसास भी कहाँ कि घर में बेटी की पूछ केवल काम के कारण है मजूरों की तरह जाकर जुट जाना है उसी तरह ।  
मंजू की आँखें बरबस छलकी जा रहीं थीं ।
"ना बेटी ,इतनी दुखी मत हो ।"--माँ का दिल भी भर आया । अपने आँसू पौंछ कर बोली--"समधिन जी ने पन्द्रह दिन को भेज दिया यही क्या कम है । उन्हें भी तो बुरा लगता होगा तेरे बिना । तभी तो इतनी जल्दी भेज दिया दामाद को । छोटे का ब्याह होजाएगा तब मैं भी अपनी बहू को अपने से दूर नही रहने दूँगी ।"  यह कहकर अचानक वह उठी और ऊपर से एक बैग लेकर आई ।
"यह क्या है माँ ?"
"इसमें  दो जोडी पेंट शर्ट हैं । दामाद जी और ओम लल्ला के लिये । दो साडियाँ हैं । एक पूजा के लिये । उसके मायके से भी तो तेरे लिये कुछ न कुछ आता रहता है । और एक साडी और पाजेब बिछुआ समधिन जी के लिये ।  होली के बाद गनगौर-पूजन होगा न । थोडी मिठाई और नमकीन और थोडे 'गुना 'भी है...।"
"माँ यह सब ??"---मंजू ने हैरानी से माँ को देखा ।
"अरे कुछ नही ,इस बार तेरे बाबूजी की पेंसन में कुछ रुपए बढ कर मिले सो कुछ सामान ले आई हूँ । समधिन जी को अच्छा लगेगा वैसे भी मैं उनको कहाँ कुछ भेज पाती हूँ । मजबूरियाँ ही ऐसी आ फसीं हैं ।" 
मंजू का दिल भर आया । आजकल तो उल्टे लडकियाँ ही माँ-बाप के लिये कितना कुछ कर रही हैं । और एक वह है जो असहाय अकेली माँ से खर्च करवा रही है । मन हुआ कि मना करदे । कहदे कि अपना खून सुखाकर किसी के लिये कुछ करने की जरूरत नही है माँ । लेकिन उसे सास की सन्तुष्टि इतनी अनिवार्य और महत्त्वपूर्ण लगी कि माँ की मजबूरियाँ छोटी पड गईँ । सारा मलाल हल्का होगया । सोचा चलो इसबार अम्माजी को यह नही लगेगा कि मंजू ऐसे ही चली आती है मायके से । 
"अरे ! आगई !"---मंजू ने अम्माजी के पाँव छुए पिण्डलियाँ दबा-दबाकर । अम्माजी की आँखों में बादलों के बीच की क्षणिक धूप सी चमकी । मंजू ने कुछ पुलक और कुछ गर्व के साथ बैग अम्माजी के आगे रख दिया ।
"इसमें क्या है ?"
"माँ ने आपके लिये 'गनगौर' भेजी है ।"
"अरे ! इस बार समधिनजी को हमारी याद कैसे आगई ?" अम्मा ने कटाक्ष के साथ मुस्कराकर कहा  
"अम्माजी , माँ तो आपको हमेशा याद करती है । लेकिन..".
"मैं समझती हूँ मंजू ।"--अम्मा बीच में ही बोल पडी---"बेकार ही माँ को परेशान किया । क्या जरूरत थी खर्च करने की ? तुझे मना कर देना चाहिये था ।"
"मैंने मना किया था अम्माजी लेकिन माँ नही मानी । बडे मन से भेजा है उन्होंने ।"
"सब मन से ही भेजते हैं बेटा ।"--अम्मा ने बडप्पन के साथ कहा । 
"गनगौर तो पूजा के मायके से दो दिन पहले ही आगई थी । बेचारी माँ को तूने बेकार ही परेशान किया ...।"
मंजू का सारा उत्साह राख होगया । अम्माजी ने माँ के स्नेहमय बडप्पन को उसी तरह नकार दिया ,जिस तरह कम्प्यूटर गलत पासवर्ड को नकार देता है । कलेजा काटकर किये गए खर्च की ऐसी अवमानना देख उसका मन ग्लानि से भर गया । यहाँ बल्व के उजाले में उसने व्यर्थ ही दीपक जलाया है । वह दीपक माँ के अँधेरे कमरे को उजाले से भर सकता था न  !! 

बुधवार, 5 जून 2013

साहब के यहाँ तो.....


'इमरती अभी तक नही आई !'--
रसीदन कनेर की छाँव से समय का अन्दाज लगाते हुए बडबडाई । 
अब तो दो--ढाई का टैम होने को होगा । 'रेसिट' होने ही वाली है और 'रेसिट' के बाद उसके आने का मतलब भी क्या है । खास और जरूरी काम तो लंच होने तक निपटा ही लिये जाते हैं । सभी जरूरी डाक लंच से पहले ही सब जगह लगादी जातीं हैं । क्या तो बाबूजी और क्या मैडम और सर लोग लंच से पहले जितनी चिन्ता और लगन से काम करते हैं, बाद में कहाँ करते हैं । बाबूजी मेज पर कागज फैलाए दस बार चिरोंजी गोपी को बुलाते हैं । 'किलास-टीचरों' का अलग बुलावा---'अरे गोपी यह लैटर लेकर तारागंज जा और चिरोंजी तू गुब्बारा फाटक चला जा...। इन लडकों के माता-पिता को बुलाकर ला । नाम लिखाने के बाद साले चैक लेने के लिये ही स्कूल आते हैं । जैसे सरकार पर कर्जा है इनका ।'..
सुबह-सुबह स्कूल में चपरासियों की कितनी जरूरत होती है ,इसे रसीदनबाई खूब जानती है । साफ-सफाई और पानी भरने जैसे काम जो चपरासी लोगों को ही करने होते हैं, वे तो स्कूल शुरु होने से पहले ही होने होते है । 
'प्रेंसीपलसाब' के आने पर उनके टेबल की घंटी भी जब देखो 'टन्न टन्न' बजती ही रहती है । तब चपरासियों की कितनी टेर मचती है और यह इमरती है कि...!" 
। 
पैंतीस साल की चपरासिन रसीदनबाई भाग्य के साथ-साथ गठिया की भी सताई हुई है । बैठ जाती है तो उठ नही पाती । काले-काले और सूखे टटेरे जैसे हाथों को घुटनों पर टेकती हुई ,मुट्ठी भर की काया को भी कठिनाई से सम्हालते हुए चलने में उसे खासी मुश्किल आती है फिर भी वह ग्यारह बजे से पाँच मिनट पहले ही स्कूल आ जाती है और लोहे के भारी दरवाजे को पूरी ताकत से ठेल कर सबसे पहले देखती है कि गोपी ने अभी तक सफाई शुरु नही की । सफाई के बाद ही तो वह 'पिराथना' की घंटी बजाएगी । एकाध दिन वह लेट होजाती है तो गोपी रसीदन को खूब 'अफसरी' दिखाता है---"अब आ रही है ? यह टैम है आने का ?" 
गलती पर डाँट खाना रसीदन को बुरा नही लगता । आखिर नौकरी तो नौकरी है । जिसका खाते हैं उसकी तो बजानी ही चाहिये न ? आते ही वह सबसे पहले घडी देखती है और समय से दस मिनट पहले आकर चैन की गहरी साँस लेती है । 
तो भैया कायदे से देखा जाए तो लंच के बाद तो स्कूल में आना आना नही होता है कि नही ।--रसीदन गोपी और चिरोंजी से अपनी बात का समर्थन माँगती हुई कहती है ---फिर हम चपरासियों को इतनी छूट देता भी कौन है ? लेकिन यह इमरती तो ....। 
"तू बराबरी करेगी इमरती से ?"--- गोपी उसे झिडकता है --"जान कर भी इतनी अनजानी मत बनाकर । समझी !! और तू कभी पूछ भी मत बैठियो । नही तो ...।"
इमरती भी रसीदनबाई की तरह ही इस शासकीय हाई-स्कूल लालगंज में दैनिक वेतन भोगी भृत्या है । फर्क इतना है कि पैंतीस की उम्र में ही बुढा सी गई रसीदन जहाँ स्कूल की धूल फाँकती हुई, दिनभर कोई न कोई काम करती हुई भी सबकी उपेक्षा का शिकार रहती है वहीं इमरती पूर्व शिक्षामंत्री यादव के वातानुकूलित बँगले पर काम करती है और स्कूल में सिर्फ सूरत दिखाने के लिये आती है फिर भी लोग उसे विशेष जगह देते हैं ।
इमरती की पहुँच सीधे मंत्री जी तक है उसकी सिफारिश या शिकायत किसी के भी ग्रह-नक्षत्र बदल सकती है ,यही सोचता है हर कोई । रसीदनबाई इतना आगे जाकर नही सोच पाती । 
गोपी की बात पर रसीदन कुछ सहमकर तम्बाकू से रचे बडे-बडे दाँतों को होंठों में छुपा लेती है पर अन्दर ईर्ष्या भरा शोर होता रहता है । 
" मंत्री जी ने नौकरी लगाई है पर नाम तो हमारे रजिस्टर में लिखा है उसका । तनखा तो यही से निकलती है न । बल्कि डबल काम करके हमसे ज्यादा ही कमाती होगी फिर भी काम और टैम की छूट उसे क्यों दे रक्खी है प्रेंसीपलसाब ने । हमें तो आधा घंटे की भी मोहलत नही है ।' 
फिर जब तनखा यहाँ से निकलती है तो उसे ज्यादा काम यहीं करना चाहिये ना । पर यहाँ धूल-धक्कड में काम इमरती नही करेगी गोपी भैया ! मंत्री जी के यहाँ काहे की धूल ,काहे का पसीना । मार्बल के 'फरस' पर झट् से पौंछा फेर देती होगी । गैस पर पट् से सबजी-रोटी, 'दाच्चाबल' ,'पुरी-पराँमटे' पका देती होगी । तर माल खाने को मिलते ही होंगे । मौज-मजे की बढिया नौकरी है । ऊपर से 'जबर' का आसरा । सब 'किसमित' का खेल है ..।"  
जब तक यादव मंत्रीपद पर जमे रहे ,इमरती केवल उन्ही का काम करती थी और प्रिंसिपल पाण्डे बराबर उसकी तनखा निकालते रहे । एक बार मन में विरोध का कीडा कुलबुलाया भी कि 'काम चले मंत्री जी का और वेतन निकाले प्रिंसिपल केशव प्रसाद पाण्डे ?' यह तो सरासर गलत है । लेकिन उनकी छठी इन्द्रिय ने उन्हें समझा दिया कि जल में रह कर मगर से बैर करना निरा पागलपन है । सो जैसा कि मंत्री जी का निर्देश था ,इमरती दो-चार महीनों में रजिस्टर में हस्ताक्षर करने स्कूल-टाइम के बाद स्कूल आ जाती थी । या फिर कभी-कभी गोपनीय रूप से रजिस्टर मंत्री जी के बँगले पर पहुँचा दिया जाता था । इस तरह वह बँगले से ही स्कूल के रजिस्टर में बराबर उपस्थित रही । इसकी जानकारी भी बाबू और प्राचार्य के अलावा स्टाफ में कुछ लोगों को थी और कुछ को नही । जिनको जानकारी थी वे भी इस मुद्दे पर कानाफूँसी करके ही सन्तुष्ट हो लेते थे ।
रसीदन बाई दूसरे टाइप के लोगों में थी जिन्हें अर्जुन की तरह हस्ताक्षर करते समय मछली की आँख जैसा केवल अपना ही कालम दिखाई देता है । आजू-बाजू में कौन किस दिन नही आया ,किसकी 'सी एल' लगी और किसकी 'फ्रेंच-लीव' हुई उन्हें कोई खबर नही होती । 
लेकिन एक दिन इमरती स्कूल में साकार उपस्थित होगई । हुआ यों कि उधर तो यादव जी के हाथ से मंत्री-पद छूट गया और इधर पाण्डे जी के आदर्शों ने जोर मारा । उन्हेंने इमरती से साफ कह दिया कि अब ऐसा नही चलेगा । पूरे स्टाफ की तरह समय पर रोज स्कूल आना पडेगा । अब नए मंत्री जी हैं आखिर मुझे भी तो जबाब देना होगा । यादव जी को भी पाण्डे जी की बात माननी पडी । आपसी व्यवहार में इतनी समझ तो रखनी पडती है न । लेकिन पता नही रातों-रात किसने ,किससे ,क्या कहा कि पाण्डे जी के पास संचालक जी का फोन आगया । उनके कडे सिद्धान्त फिर उसी तरह नरम हो गए जिस तरह दबाने कर गदराया लेकिन ठोस आम पिलपिला कर नरम हो जाता है । तय हुआ कि इमरती को स्कूल में आना तो रोज पडेगा लेकिन अपनी सुविधानुसार से दो-तीन बजे तक आकर साइन कर जाए । इस तरह यादव जी की सेवा होती रहेगी और स्कूल की ड्यूटी भी । 
इमरती का इस तरह अवतरण क्या हुआ स्टाफ में रोज की नई कथाएं शुरु होगईं ।  
"आज तो दो-पन्द्रह पर आई है इमरती । लेकिन तीन बजे से ज्यादा थोडी रुकेगी ।...भई पावर है हाथ में । देखो तो कैसी साफ-सुथरी ,चमक-दमक और ठसके से आती है ।....आज फिर नई साडी पहनी है इमरती ने ।....बालों में कहाँ से नित नई किलपें लगाती है ?...इसकी हँसी स्कूल की घंटी की तरह कैसी बुलन्द और सुरीली है ! कोई टेंसन जो नही है । बातों में देखो, कितने लटके-झटके हैं ! ऐसे लटके-झटके दिखा कर ही तो ...। हाँ जी ,इमरती को मंत्री जी का 'सपोट' है तभी हवा में उडती रहती है । सैंया भए कोतवाल अब डर काहे का..।"
"स्कूल क्या आती है ,इसी बहाने थोडी सैर होजाती है ।"---चिरोंजी भी बहती गंगा में हाथ धोना नही भूलता---वैसे यादव साहब अपनी मिसेज के साथ-साथ 'इन्नोवा' में इमरती को भी ले जाते हैं कभी-कभी । भाई नौकरी हो तो ऐसी ..।
"तू भी साथ लग जाया कर मरे..।" रसीदन चिरोंजी को झिडकती है । 
तरह की कथाओं से उसका मन वैसे ही सिकुड जाता है जैसे धूप में पड-पडा बैंगन सिकुड जाता है । गज़ब की मट्ठर औरत है यह इमरती । देर से आकर भी गलती 'फील' नही करती । उल्टे अपने काम और थकान का रोना रोती है । जैसे कि स्कूल में आकर गोपी चिरोंजी या रसीदन पर ही नही सारे स्टाफ पर एहसान करती है । यह मंत्री जी की शह का नतीजा है । हो चुके कामों में भी दस 'नुकस'  निकाल देती है कामों --- 
"अरे रसीदन ! बहन ! झाडू क्या तूने लगाया है ? जरा देख तो पाँव किसकिसा रहे हैं रेत और धूल के मारे । फिर कोनों ने तो कभी झाडू के दर्शन ही नही किये होंगे शायद ।... चिरोंजी भैया ! तुम क्या बैठे-बैठे क्या बढ रहे हो ? लम्बा बाँस या झाडू लाकर ये छत के जाले तो निकालो । गोपी ! देख तो जरा गिलासों को । कितने मटमैलेपन हो रहे हैं ! सहाब के यहाँ तो ऐसे गिलासों को 'डस्टबिन' में डाल देते हैं । काँच के गिलासों में आर पार साफ न दिखे तो कैसी सफाई । रसीदनबाई ! सहाब के कमरे में बिना पूछे भला जाते हैं जो तू जब चाहे मुँह उठाए चल देती है । कदर-कायदा सीखना है तो सहाब जैसे लोगों से सीखो ।...चिरोंजी भैया रे ! जरा इस मेजपोश को दो दिन का आराम भी दे दो । दूसरा बिछादो । इसे मुझे दे देना और नही तो क्या । धोकर ले आऊँगी । गन्दगी मुझे जरा नही सुहाती । सफाई देखनी है तो सहाब के यहाँ देखो । फर्श में अपना चेहरा देखलो ...।"
"चेहरा तो तू खुद ही देखले अपना इमरती रानी " ---- रसीदन नाक सिकोडती हैं ।
यह तो वही बात हुई ना कि 'खाय खसम का ,गीत गाए भैया के' । 
अकड कितनी भरी है । एक औरत होकर भी अपने बराबर की औरत को जरा भाव नही देती । एक दिन उसने तो इमरती को उसके भले के लिये ही समझाया था कि---"बहन ,अपने हाथ बचाकर रखना । नौकरी है तो सब कुछ है । यह रोज-रोज लेट आना भी तुझे दिक्कित में डाल सकता है ।" तो ..! इमरती ने उसका मुँह सा तोडते हुए तडाक् से जबाब दिया था---
"अपनी नौकरी की चिन्ता तुझसे तो ज्यादा ही होगी रसीदन बाई । रहा मेरे लेट आने का सवाल तो इसे 'पिरेंसीफल' जी भी जानते हैं कि मैं यादव साहब के यहाँ काम करती हूँ । और यहाँ मेरे बिना कौनसा काम रुकता है बोल ? काम है ही कितना ,पर वहाँ न जाऊँ तो उनकी गिरस्ती की गाडी जैसे खडी रह जाती है 'टेसन' पर । समझी ।"
"मंत्री जी का हाथ सिर पर क्या रखा है उड रही है आसमान में ।--रसीदन खुद को तसल्ली देती है  ---पर अब तो यादव मंत्री नही है ।"
"साहब मंत्री नही है तो क्या हुआ चलती तो उन्ही की है । उनका एक फोन ही काम कर जाता है आज भी ।" इमरती गर्व से कहती है । 
" भैया रे ,अब भी मिलने वालों की भीड लगी रहती है बँगले पर । उनकी शान-शौकत, खाना-पीना ,गाडी चौकीदार, नौकर तीनचार कुत्ते ...सब कुछ वैसा ही है । जाने कितनी एजेन्सियाँ हैं साहब की । रौब ऐसा कि इधर हुकम हुआ और उधर काम । साहब अगर आम को नीबू कहदें तो किसी की मजाल नही कि उसे आम कह जाय । घर में सफाई ऐसी कि मक्खी भी जाने में शरमाए । "
इमरती की बातों को सब ऐसे सुनते हैं जैसे बच्चे सिंहासन -बत्तीसी की कहानियों को सुनते हैं । स्टाफ में रौनक बढ जाती है । रसीदनबाई उदास होजाती है । 
"यह तो सरासर अंधेर है री माई ..।"
अपने हिस्से के काम निपटाकर रसीदन कनेर की विरल सी छाया में दो पल बैठ कर सुस्ता लेती है । इन कुछ पलों में वह दिमाग को खँगालती रहती है । घर से लेकर स्कूल तक सब उसी की खिंचाई करते हैं । घर में अब्बा ने उसे सुबह चाय बनाने और भतीजे-भतीजियों को स्कूल के लिये तैयार करने और उन्हें टिफिन बना कर देने का काम सौंपा है पर भाभियाँ उसे कपडे प्रेस करने ,बर्तन माँजने और सबका नाश्ता बनाने का काम भी दे देतीं हैं । 
स्कूल में भी उसका काम घडी देख कर प्रेयर और हर 'पीरेड' की घंटी समय पर बजाना और मैडम और सर लोगों को पानी पिलाना है । पाण्डे जी ने खुद उसकी हालत देख कर ये ही काम दिये हैं लेकिन उसे प्रायः गोपी और चिरोंजी के पेडों में पानी देने जैसे काम भी करने पड जाते हैं । चिरोंजी स्कूल की डाक लगाता है और इसी बहाने चाहे जब घर भी हो आता है । गोपी सर लोगों के पास बैठा गप्पें हाँकता रहता है और उनकी जरूरतों जैसे पुडिया सिगरेट लाना ,मैडमों को समोसा-कचौरी या सब्जी लाकर देना आदि करके दो-चार रुपए भी कमा लेता है । साथ ही मीठी बातों से रसीदन को भी 'पोट' लेता है--"अरे मेरी बडी बहन ! जरा गुलमोहर के पौधे को पानी पिलादे । बेचारा सुबह से प्यासा खडा है । तेरा बडा 'पुन्न' होगा । ओ जीजीबाई, जरा उस नीयतखोर बकरिया को तो खदेड कर आ । रोज ही आजाती है बेसरम ।" 
"निकम्मे ,आलसी !"---रसीदन का गुस्सा बनाबटी होता है । उसकी  आदत नही है काम से मना करने की ,पर कोई इसे माने तो ! तारीफ के दो बोल तो बोल दे ! पर नही, उल्टे अगर कोई काम छूट जाए तो गोपी उसे रौब जरूर दिखाता है । ऐसा ही रौबीला है तो अपनी अम्मा इमरती को रौब दिखाकर बताए । गुसाईं जी कह तो गए हैं कि "टेढि जानि संका सब काहू..।" अकेली रसीदन मिल गई है फालतू ही हुकम चलाने..। रसीदन जब हलकान होजाती है तब ऐसा ही कुछ सोचती है ।
'पिच्च'...रसीदन ने पीक थूक कर चुन्नी से होंठ पौंछे । तम्बाकू के साथ जैसे उसने मन की कडवाहट को भी थूक दिया पर गड्ढे में से झाँकती सी आँखें जैसे निकल कर बरबस गेट तक पहुँच ही जातीं थीं । कनेर की छाया लम्बी होती जा रही थी । 
"अभी तक तो कोई अता-पता नही है महारानी का । लंच तक भी आ जाएं तो भी मेहरबानी ही समझो । पट्ठी शान से दो--ढाई बजे तक आती है और दन्न से दसखत ठोकती है रजिस्टर में । हमें तो एक दिन को भी कभी छूट नही मिलती ..।"
"तो कुढ-कुढ कर तू क्यों सूखी जा रही है ?"--गोपाल रसीदन का चेहरा पढ लेता है ।
" सझती क्यों नही कि असली नौकरी तो उसकी अब भी यादव साहब के यहाँ ही है । यहाँ तो रजिस्टर में बस चिडिया बैठाने आती है ।"
रसीदन के कलेजे में एक असंभव सी इच्छा जागी---कितना अच्छा होता कि उसे भी ऐसे ही किसी सहाब के यहाँ काम करने का मौका मिल जाता । सारे 'दलिद्दर' दूर होजाते ..।
"इमरती आगई ।"--स्कूल के कर्मचारी ही नही जैसे दीवारें और पेड-पौधे भी बोल पडे । 
सबने घडी पर नजर डाली । दो बज कर पचास मिनट हो चुके थे । पाँचवा पीरेड भी खत्म होने को  था । यह भी कोई टाइम है आने का ।
"इमरती आजकल तो कुछ ज्यादा ही छूट चल रही है क्या बात है ?" सब देख रहे हैं प्रिंसिपल साहब ने इमरती को डाँटा है । वह सिर झुकाए खडी है । कुछ बुझी-बुझी सी लग रही है नही तो हँस कर ऐसा जबाब देती है कि सामने वाले का गुस्सा उडन-छू होजाता है । 
रसीदन को कुछ ठण्डक का सा अहसास हुआ । आखिर असली नौकरी तो यहीं है । तनखा भी तो यहीं से निकलती है । साहब का डाँटना बाजिब है ।
"क्या बात है इमरती । आज बडी चुप-चुप है ।"--गोपी ने पूछा ।
रसीदन के भीतर आवाज उभरी कि डाँट से बचने के नखरे हैं और क्या..। पर बोल पडा चिरोंजी ---
" इमरती तबियत खराब है क्या ? कुछ परेसान है ।"
"इस चिरोंजी को कुछ ज्यादा ही चिन्ता होती है । 'लुगमेहरा.'...।"--रसीदन और भी कुढ उठी । 
"लेकिन इमरती की आँखों के कोर कुछ गीले तो हैं । सचमुच परेशान तो है । हमेशा खनखनाती सी हँसी बिखराने वाली इमरती । गर्व से तन कर बात करने वाली इमरती । आज क्यों पेड से खींच कर हटाई गई बेल की तरह लग रही है । खुशी का कारण कोई पूछे न पूछे दुख का जरूर पूछता है । रसीदन का बडप्पन जागा ।
"क्या बात है इमरती बहन ।"
"क्या है कुछ भी तो नही ।"--इमरती हँसी । एक फीकी सी हँसी । 
"अरे ,परेशान है तभी तो पूछ रहे हैं री । हमें न बताएगी तो किसे बताएगी !" 
"क्या बताऊँ बहन । तबियत ठीक नही है । हाथ--पैरों से जान सी निकल गई है । उधर छोटा लडका कल सीढियों से गिर पडा सो उसके पैर में गहरी चोट आगई । रात भर दर्द से तडफता रहा । उस मारे सो भी नही पाई । "
रसीदन के मन में कौनसा भाव जागा यह तो पता नही पर उसने इमरती का हाथ थाम कर सान्त्वना दी और कुछ अचरज से बोली-- 
"अरे ..तुझे तो बुखार भी है री ।" 
हाँ ..होगा ।
"होगा क्या । छुट्टी ले लेनी थी ना ।"--रसीदन के भीतर बडी बहन जैसा ममत्त्व उमडा ।
"कैसे ले ले लूँ बहन ? नौकरी भी तो है । कल भी पाण्डे जी ने खूब सुनाईं थीं ।"
'ऐसी बडी नौकरी वाली है । जो काम नही करते वे ही काम का सबसे ज्यादा दिखावा करते हैं ।' रसीदन ने क्षणभर सोचा लेकिन कहा नही ।
बस एक स्नेहमय झिडकी निकली--
"ऐसी कौनसी इमरजेंसी है री ? नौकरी शरीर से बडी तो नही है न । और तेरा बेटा भी तो तकलीफ में है । उसका ख्याल तो कर ।"
"कैसे करूँ ख्याल ? तू ही बता ।---इमरती कुछ असहाय सी होगई--- यहाँ से तो छुट्टी ले भी लूँगी ,लेकिन सहाब के यहाँ तो सात बजे से डेढ-दो बजे तक की 'डूटी' बजानी ही बजानी है ।"
"तकलीफ हो तो भी ?"
"तुझे कभी इस तरह किसी सहाब के यहाँ काम नही करना पडा ना इसलिये । तकलीफ क्या करेगी ,तुम्हें काम तो करना ही है मरो चाहे गिरो ।" 
"ऐसे कैसे ?" अन्तिम शब्दों ने रसीदन के अन्तर-द्वारे खोले---"मर गिर कर कोई नौकरी होती है क्या ? उनके यहाँ ऐसी कौनसी मजबूरी है तेरी ?"  
"मजबूरी"---इमरती उपहास से हँसी । 
"मजबूरी की क्या बात है रसीदनबाई । उन्होंने नौकरी लगवाई है उसका 'औसान' तो चुकाना ही पडेगा कि नही ?"
" ऐहसान कैसा । कोई बिठाल कर खिला रहा है क्या । और अब तो तू परमानेंट होने वाली है और फिर यादव साब अब तो मंत्री भी नही है ।" रसीदन ने उसका मन टटोला । 
"अरे बहन ! अभी परमानेंट हुई तो नही हूँ । फिर बडे लोगों के हाथ बडे लम्बे होते हैं । नौकरी लगवा सकते हैं तो क्या छुटवा नही सकते । एक दिन लेट हो जाती हूँ तो चौकीदार बुलाने आजाता है तुरन्त । ना कहने का तो सवाल ही नही होता । मेरे भरोसे कितने काम पडे रहते हैं उनके ..।"
सन्तुष्टि बडप्पन लाती है । इमरती की बातों ने रसीदन को कुछ ऊँचाई दी लेकिन आखिरी वाक्य ने उसे फिर धम्म से नीचे जमीन पर बिठा दिया । मन में जमीन को कुरेद कर ही कुछ मनमाफिक पाने की चाह जागी । बात बदली--
" चल छोड । मैं तेरी मजबूरी समझती हूँ । जहाँ बात फँसी हो निभानी ही पडती है । पर तनखा तो वहाँ तुझे ठीक-ठाक मिल जाती होगी कि नही । पैसा ठीक मिले तो काम में मन भी लगता है । अपन लोग मेहनत से कब डरते हैं बहन ।"
"तनखा ?"..इमरती हँसी जैसे रसीदन ने बडी नासमझी की बात कहदी हो । 
"एक पैसा तो अलग से मिलता नही और तू तनखा की बात कर रही है । इसी एक तनखा पर दो जगह पिस रही हूँ । माना कि यहाँ कुछ खास काम नही है पर तीन-चार मील आना तो पडता है । दस--पन्द्रह रुपए रोज अलग से तो किराया लगता है । पहले तो वहाँ सौ--दो सौ रुपए दे भी देते थे पर अब तो तीज-त्यौहारों पर भी कुछ नही मिलता । छूछी साग-पूडी पकडा देते हैं वह भी रात की बची हुई । लेकिन काम तो करना पडता है ना । कभी--कभी तो.....।" इमरती आगे कहते--कहते रुक गई । सबसे हर बात तो नही न कही जाती । 
"य़ह तू क्या कह रही है इमरती ?" रसीदन ने जैसे आगे की बात का भी अनुमान लगा लिया । इससे वह सचमुच चकित थी । हमदर्दी से भरी भी ।
"दूसरे की खिचडी में घी ज्यादा लगता ही है । कौन जानता है कि नौकरी को बचाने के लिये मुझे कितना कहाँ पिसना पडता है ।" 
कुछ देर तक उस लम्बे बरामदे में मौन पसरा रहा । फिर अचानक इमरती की हँसी खनकी । हमेशा की तरह पूरे प्रांगण में गूँजती हुई । गोपी को समझाते हुए बोली ---"अरे बाबरे ! अभी तक कुछ नही सीखा तूने । 'पिरेंसीफल' साब के लिये ट्रे में गिलास रख कर लेजाते हैं पानी । सहाब के यहाँ तो....।"
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शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2013

उसके लायक

जैसा कि मैंने पहले ही कहा है यहाँ अधिकांश कहानियाँ वे हैं( कुछ कहानियों को छोड कर ) जो या तो अधूरी पडीं हैं अब तक या कहीं किसी फाइल में गुमनाम । यह कहानी सन् 1989 में लिखी थी । एक दो जगह भेजी पर बात नही बनी । कुछ सुधार के बाद यहाँ दे रही हूँ ।
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वह जिस दिन पहली बार कक्षा में आई थी ,उस दिन तो सबने ऐसा मुँह बना लिया था जैसे धोखे से कडवी ककडी चबा गए हों .....
दो माह पहले मैं शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय के प्रांगण में कचनार के पेड के नीचे बैठा  अनायास ही पन्द्रह साल पहले के उन दिनों को याद करने लगा था जब मैं आठवीं कक्षा पास कर आगे की पढाई के लिये बुआ के पास सुजानगढ में रहा था ।
कस्बा कम देहात ज्यादा लगने वाला सुजानगढ मुख्य सडक से दूर एक पहाडी कस्बा है । गढ के नाम पर एक छोटा सा किला है जहाँ कभी राजा रहा करते थे । तब तो उनका ही राज चलता था पर अब वहां स्कूल ,बैंक और डिस्पेंसरी चलती है । पहाडी के नीचे एक छोटी सी नदी बहती है । इन पन्द्रह सालों में वहाँ इतना अन्तर आया है कि गोपू हलवाई की दुकान बीच बाजार से हट कर बस-स्टैंड पर आगई है और उसके पेडों में अब वह बात नही जो कभी सुजानगढ की पहचान थी । नदी में जहाँ पानी होना चाहिये वहाँ पानी की जगह बच्चे क्रिकेट खेलते हैं और लडकियाँ जो दुपट्टा को कन्धों पर फैला कर और गर्दन को कन्धों के समानान्तर रख कर बहुत जरूरी होने पर ही सडक पर निकलतीं थीं वे निस्संकोच खूब हँसती-बतियाती हुई स्कूल जातीं हैं और हर तरह के बिल भरने तक का काम करतीं हैं । जो बात आज भी वहाँ के लोगों में देखी जाती है वह है लोगों की बेफिक्री व मौजमस्ती । कहो तो ताश खेलते-हँसते पूरा दिन गुजार दें और कहो तो जरा सी बात पर विधानसभा में हंगामा खडा करदें । खैर यह सब मेरी कहानी का हिस्सा बिल्कुल नही है । मेरी कहानी सोलह-सत्रह साल पहले के केवल अपने स्कूल पर केन्द्रित है । स्कूल में भी  हमारी कक्षा और कक्षा में भी उस एकमात्र लडकी पर केन्द्रित है जो मेरे साथ स्कूल में पढी थी हालाँकि नियमित रूप से एक-डेढ साल ही कक्षा में आई थी । बाकी डेढ साल उसने कैसे पढाई की । और परीक्षा-परिणाम क्या रहा ,तब तक मुझे नही मालूम था ।
पहले यह बतादूँ कि जी.पी. कॅालेज के प्रांगण में मैं इस तरह अतीत की गलियों में गुजरने के लिये नही बैठा था । वहाँ मैं एक प्रतियोगी परीक्षा के लिये आया था और मेरे लिये एक-एक पल महत्त्वपूर्ण था । बस नौ बजे ही मुरैना पहुँच गई थी और परीक्षा प्रारंभ होने में अभी एक डेढ घंटा था । तब तक यही बेहतर था कि इधर-उधर भटककर समय गुजारने की बजाय याद किये हुए को दोहरा लूँ ।
सच पूछा जाए तो परीक्षा से ठीक पहले कुछ पढना या याद करना तेज चलती ट्रेन के डिब्बे गिनने जैसी कोशिश करना है । कुछ पल्ले ही नहीं पडता । लेकिन जब तक कोई हाथ से किताब छीन कर न रखदे छोडने का मन भी तो नही होता । लगता है कि कुछ और समय मिल जाए तो पूरी तैयारी हो ही जाएगी । जैसे कि उन पलों की तैयारी पर ही सारी सफलता टिकी होती है । जो भी हो वह परीक्षा मेरे कैरियर की दिशा में बडी महत्त्वपूर्ण ही नही बल्कि अन्तिम परीक्षा भी थी । कुछ ही महीनों बाद मैं ओवरएज जो होने वाला था । और आपको आज यह बात बडी खुशी के साथ बता रहा हूँ कि अब मैं उस परीक्षा में सफल भी हो चुका हूँ । आज ही परिणाम की सूचना मिली है और इस सफलता के बाद तो और भी जरूरी है कि मैं आपको वह सब बताऊँ जो कहीं न कहीं इस परीक्षा से जुडा है । क्योंकि परीक्षा के दौरान जो कुछ हुआ उसके तार मेरे स्कूली जीवन से भी जुडे है ।
जीवन की कई घटनाएं अप्रत्यक्ष रूप से आपस में जुडी होतीं हैं । समय आने पर उनके जुडे होने का अहसास हमें रोमांचित करता है ।
हाँ तो मैं बता रहा था कि मैं कालेज के प्रांगण में एक पेड के नीचे अकेला ही बैठा था और गाइड खोल कर कुछ और भी पढने--समझने की कोशिश कर रहा था कि एक महिला  वहाँ से गुजरी । मैं उसका  चेहरा तो ठीक से नही देख सका पर पर जाने कैसे अचानक मुझे अपनी क्लासमेट सरिता का ध्यान आया । मैं अनायास ही स्मृतियों की उन गलियों में पहुँच गया जहाँ उम्र के वसन्त में हर टहनी पर कलियाँ फूट निकलने को आतुर होतीं हैं । सूरज क्षितिज की बाँहों से छूट कर पूरे आसमान में फैल जाने को उत्साहित रहता है ।
मिडिल स्कूल के छोटे से दायरे से निकल कर बडे स्कूल में पहुँचना मेरे लिये काफी रोमांचक था । नए दोस्त ,नया माहौल ,नए शिक्षक और उम्र के नए अहसास...। अभी पढाई विधिवत् शुरु नही हुई थी । केवल प्रेजेन्ट लेने हिन्दी वाले सर आते थे और नागरिकशास्त्र वाले सर संविधान की कुछ चलताऊ कहानियाँ सुना कर चले जाते थे । बाकी समय में हम लोग या तो चुटकुले सुनाते रहते या स्कूल से भागने की योजना पर अमल करने की सोचते रहते थे तभी एक दिन एक सहपाठी घनश्याम ने एक सूचना दी ----"अरे भाइयो सुनो-सुनो ,ध्यान लगा कर सुनो । अभी-अभी पता चला है कि हमारे क्लास में एक लडकी भी आने वाली है । उसके पिताजी आज ही उसका फार्म व फीस जमा करने आए हैं ।"
उन दिनों किसी लडकी का पढने जाना और वह भी लडकों के स्कूल में किसी ब्रेकिंग न्यूज जैसा था
उस सूचना पर हम सब ऐसे केन्द्रित होगए थे जैसे बरसाती रात में जलते बल्ब के आसपास कीडे-मकोडे जमा होजाते हैं ।
घनश्याम हमारे क्लास का मसखरा था । मस्त व बेफिक्र । बात बात पर चुटकुले सुनाना ,गीत गा गाकर कमर-कूल्हे मटकाना और मिमिक्री करना--ये सारी खूबियाँ उसे खूब लोकप्रिय बनातीं थी । दूसरे स्थानों पर हो न हो लेकिन सुजानगढ के स्कूल में लडकी के पढने आने की बात सचमुच एक खास घटना थी । सुदूर अंचलों में किसी बिसाती के पहुँचने जैसी । पूरे इलाके में एक ही हायर सेकेन्डरी स्कूल था । लडकियों की पढाई के लिये भी वही एक स्कूल था । इसके बावजूद लडकियाँ वहाँ कम ही पढने आतीं थीं । तब देहात में तो लडकियों को कोई पढाता भी नही था । पर सुजानगढ के पढे-लिखे अच्छे घरों की लडकियाँ भी नाम लिखाने के बाद सीधी परीक्षाओं में ही दिखतीं थी । बात यह थी कि सुजानगढ का स्कूल हुल्लडबाजी के लिये जिलेभर में जाना जाता था । वहाँ आकर बाहर गाँवों के सीधे लडकों के भी मानो सींग निकल आते थे ।
'क्या बात कर रहा है तू ।'-- जगदीश एकदम उछल पडा । उस सूचना ने लगभग सभी को जिज्ञासा से भर दिया था ।
"अरे घनश्याम जी बडी मीठी सी खबर लाए हो । जरा हमें तो बताओ कि लडकी कौन है कैसी है ?"-मुंशी ने शरारती अन्दाज में पूछा ।
" जल्दी काहे की बेटा !"--- सुरेश मुस्कराया फिर धीरे से बोला---अरे यार लडकी है तो अच्छी ही होगी"  ।
मुंशी ,जगदीश ,ओम, सुरेश वगैरा दो-दो साल के फेलुअर थे । उनका काम नए लडकों पर रौब चलाना ,शरारतें करना और लडकि'यों पर फब्तियाँ कसना था । रात-रात में जंगल से लकडियाँ काट बेच कर सुबह तक सुजानगढ लौट आते थे । मैं कक्षा में सबसे छोटा था । अपेक्षाकृत होशियार और स्मार्ट भी माना जाता था । इस कारण वे सब मुझे प्रिंस कहते थे । और इसी बहाने अपने छूटे हुए काम मुझसे करवा लेते थे । घनश्याम की बात सुनने के बाद से सब यही सोच रहे थे कि कक्षा में लडकी रहेगी तो रौनक तो रहेगी ही । यही नही बैठने की जगह ,उसकी मदद और उसके साथ जोडी भी बनाने की योजनाएं विधिवत् बना ली गई थीं । जोडी बनाने की बात पर खूब खींचतान हुई । मुंशी उस पर अपना दावा करता और जगदीश अपना । सुरेश ने मेरा भी नाम उसके साथ जोड दिया । मुझे ऐसा सोचना काफी अच्छा भी लगा था । अच्छा और नया ।
लेकिन पहली बार जब वह कक्षा में आई ,उसे देख कर पहले तो यही हुआ कि सबकी हालत फूँक मार कर बुझाई हुई बत्ती जैसी होगई । जो कुछ आँखों के सामने था वह कल्पना से एकदम उल्टा था । एकदम अनगढ पत्थर सी वह लडकी तो लडकी नाम को भी लजा रही थी । न रंग की न रूप की । किसी भी कोण से आकर्षक नही । ऊपर से खींच कर बाँधी गईं चोटियों के कारण आँखें खिंची--खिंची सी होगईं थीं । चेहरे पर चमकता तेल ,पुरानी फ्राक ,प्लास्टिक की सफेद जूतियाँ और कन्धे में टँगा हुआ हाथ का सिला थैला...कुल मिला कर वह एक फूहड और गँवारू लग रही थी । उसे देख कर हमारी आशा व जिज्ञासा दोनों ही मन से निकल गईँ । टायर से जैसे हवा निकल जाती है ।
हमें जल्दी ही पता लग गया कि वह चार-पाँच कि.मी. दूर देहात से पैदल चल कर आती थी । कभी--कभी साइकिल से भी आती थी । उसकी साइकिल काफी पुरानी व जंग खाई थी । उसके हिसाब से काफी ऊँची भी थी । शायद उसके पिता की होगी । उसके पाँव पैडलों तक ठीक से नही पहुँचते थे । पूरा पैडल घुमाने के लिये उसे लगभग आठ-आठ इंच आजू-बाजू झुकना पडता था ।
उसके पिता प्राइमरी स्कूल के मास्टर हैं । सो इतना जरूर समझते होंगे कि भगवान ने अगर रंगरूप देने में कमी करदी है तो उसे पढा-लिखा कर पूरी किया जा सकता है । तभी तो अकेली लडकी को इस तरह पढने भेज दिया है ।----सुरेश ने बताया । उसकी पूरी पत्रिका उन लोगों के पास आ चुकी थी
और सीधा हमारे सिर पर ठीकरा फोड दिया है ।
"यार घनश्याम यह क्या जलेबियों की जगह रूखी रोटियाँ ले आया वह भी बाजरे की ।-"-जैसे ही वह पहली बार कक्षा में आई थी मुंशी रोने की मुद्रा बनाकर बोला । सबको हास-परिहास के लिये बढिया विषय मिल गया । टाइमपास ।
सुरेश ने पुचकारा--"-वत्स चिन्तित न हो । इसके लिये हमारा सुरेन्द्र है न । एकदम फिट । राम मिलाई जोडी एक अंधा एक कोढी ।"
सब लडके हँसने लगे । लडकी चकित सी सबकी ओर देखने लगी ।
सुरेन्द्र हमारी कक्षा का सबसे कुरूप लडका था । गहरा स्याह रंग ,पीले कंचे जैसी आँखें और नाक आँखों के बीच पूरी तरह गायब रह कर सीधी होठों के ऊपर निकली थी । डेल्टा के आकार में । उसके घर में आटा माँगने का काम होता था इसलिये मुंशी उसे चुकट्या कहता था जिसका वह उतना बुरा नही मानता था जितना उसे उस लडकी के साथ जुडने की बात सुन कर लगा । तिलमिला कर बोला---
अच्छा , तो तुम लोगों ने मुझे बस उसके लायक ही समझा है और खुद को सलमान खान समझते हो । कि तुम्हारे लिये कोई माधुरी दीक्षित आएगी ..।
वह वह सहमी सी चुपचाप एक तरफ बैठ गई । उसके बगल वाले लडके इधर-उधर भागने लगे तो हँसी का एक फव्वारा फूट कर बह चला । और कक्षा में इस तरह स्वागत हुआ उस लडकी गँवई सरिता का ।
 सरिता...हाँ यही नाम था उसका । पर लडके उसे सरीता कहते थे । बाद में वह सरीता से सरौंता भी होगई । हाँ मैंने जरूर आज से पहले उसे उसके नाम से कभी नही पुकारा । मुझे लगता है कि नाम लेने का आधार अच्छी जान-पहचान व अपनापन होता है । नही भी होता है तो बनने लगता है । मेरे साथ न तो पहली स्थिति थी न ही दूसरी बनने वाली थी । मेरे लिये तो वह मात्र एक 'परसन' थी । एक लडकी । बस और कुछ नही । उसके लिये अगर कोई भाव था तो वह था उसके समग्र व्यक्तित्त्व से वितृष्णा का । कुछ--कुछ हेयता का भी । यह भाव दो कारणों से था । एक तो यही कि वह लडकी होकर भी लडकों के स्कूल में पढने आगई थी । लडकी का लडकों के साथ बैठ कर पढना यानी लडकों को बदतमीजी करने तथा उसके बदनाम होने के पूरे सौ परसेंट चान्स । दूसरे उसकी बोलचाल व बर्ताव बडा ही उजड्ड व गँवारू सा था । लडकियों वाली कोई बात ही नही थी ।
स्कूल में एक-दो लडकियाँ और भी थीं पर वे थीं काफी सम्पन्न घराने की और सलीके वालीं लडकियाँ  । उनके घरों में न केवल एक-दो लोग अच्छी नौकरियों पर थे और अंग्रेजी बोल सकते थे बल्कि थाने से लेकर मंत्रालय तक उनकी पहुँच थी । उनके विषय में किसी भी प्रकार की टिप्पणी करने का साहस भी नही था किसी में । उनमें एक लडकी बहुत खूबसूरत भी थी । मुंशी वगैरा उसे दबी जुबान से आपस में ही मृगनयनी कहा करते थे । वे लडकियाँ जब भी स्कूल आतीं ,सरिता को ऐसे देखतीं थीं जैसे किसी शानदार मॅाल में कोई ठेठ अनपढ देहाती घुस आया हो । वह एकदम फूहड किस्म की देहातिन लगती भी थी । उसके बालों व फ्राक की जेबों में घास के तिनके या कुट्टी के टुकडे मिलते थे । शायद घर में भैंस-गाय होंगी । उसके होंठ खुले रहते थे । और कभी-कभी नाक भी भरी हुई रहती थी । कपडे भी एक ही जोड थे क्योंकि कई बार उसका पाजामा मुचडा या अधसूखा होता था ।
वह या तो बिल्कुल ही नासमझ थी या फिर नासमझी का दिखावा करती थी हालाँकि दिखावा करने लायक अक्ल उसमें लगती नही थी । क्योंकि वह हमारी उपेक्षा से अनजान लडकों से ही कई तरह के सवाल करने में नही हिचकिचाती थी जैसे कि , "चार बजे यहाँ से कौनसी बस जाती है । कि अँग्रेजी में सर ने कितना पढा दिया है । या कि एक दिन के लिये अपनी कापी दे दो भैया ..।"
"भैया...अरे यार क्या मजाक है ? यह तो बहन-भाई का रिश्ता जोडने लगी "--मुंशी रुआँसी मुद्रा में कहता । सुरेश हँसता--"अच्छा है न । दूसरे रिश्ते लायक वह है भी नही । "
फिर भी वह लडकी थी । हमसे बिल्कुल अलग । उसकी मौजूदगी को  नजरअन्दाज भी तो नही कर सकते थे । यही नही जगदीश ,मुंशी और दूसरे लडके अक्सर उसे सुनाने के लिये बहुत ही फालतू से कमेंन्ट्स करते रहते थे । जैसे कि---
" यार सुरेश पेड में ढंग से पानी नही दिया होगा वरना इसमें भी अब तक फूल--फल तो आ ही जाते ।"
" एक तो गिलोय ऊपर से नीम चढी यार कैसे पीसें और पियें । "
यही नही वह आकर जहाँ भी बैठती कोई न कोई अपनी किताबें रख देता वह खडी रहती । शिक्षक जब क्लास में आते तो चुपके से जगह खाली कर देते । यह सब वह चुपचाप देखती रहती पर किसी से कोई शिकायत करना ही नही जानती थी । उसे अपने होने का कोई भान ही नही था जैसे । तभी तो लडकों की गोलमोल सी टिप्पणियों को सुन कर प्रतिक्रियाहीन बनी रहती थी ।
एकदिन तो गजब ही होगया---
मुंशी लडकी की ओर इशारा कर जगदीश से कह रहा था---"ए टेक माइ पेन्....।"
जगदीश को पूरा यकीन था कि मुंशी ने इसके आगे भी कुछ अक्षर जोडे थे जिन्हें वह साँसों में ही बोल गया था सो ढिठाई से हँसता हुआ बोला---"मुझे नही चाहिये । मेरे पास तो अपना है । उसे दे दे जिसको जरूरत हो । जगदीश का इशारा भी लडकी की तरफ था ।"
"चल हट मेरी चीज ऐसे-वैसे लोगों के लिये नही है ..।"
सुन कर सब हँस पडे । वह लडकी भी हँस पडी । एक अबोध सी हँसी । जगदीश बोला---"यह तो सचमुच निरी बेवकूफ है ।
अभी बच्ची है ।"--सुरेश ने भी दया दिखाई ।
इस तरह अनगढ पत्थर सी वह नासमझ लडकी हमारे किसी काम की नही थी । कक्षा में उसके होने न होने का कोई अर्थ नही था । पूरे साल वह इस तरह कक्षा में बनी रही जिस तरह किसी के बाजू वाले फ्लैट में कोई सालों साल रह जाता है पर न कोई विवाद और नही कोई संवाद ।  
 दादी के शब्दों में उसे---बिल्ली का गू ,कहा जासकता था । न लीपने का न थापने का ।
जोडी बनाने की बात पर सबने एक दूसरे को जलती आखों से देखा ।

लेकिन दसवीं पास करते-करते कहानी में मोड और दिलचस्पी आई ।
उम्र के साथ चेहरे में कुछ लोच और आकर्षण भी आगया और फिर  साथ रहने वाले तो जानवर के प्रति भी एक जुडाव सा होजाता है फिर वह तो एक लडकी थी । असुन्दर ही सही पर चढती नई उम्र में लडकी वसन्त की टहनी सी आकर्षक लगती है । उस पर अकेली । उसके प्रति लडकों का नजरिया भी धीरे-धीरे बदल गया । मुंशी उससे कोई परेशानी होने पर बेझिझक मदद माँगने का आग्रह करता तो जगदीश उससे किसी न किसी अधूरे रहे होमवर्क के बारे में पूछता । तो सुरेश ,जब भी वह कुछ पढती सबको ऊँची आवाज में निर्देश देता--"अरे यार डिस्टर्ब मत करो । पढने वालों को पढने दो ।"
लेकिन वह गजब की मट्ठर थी । इन गतिविधियों से बेअसर जैसे भारी वर्षा में कोलतार की सडक । व्यवहार में नाम का भी लोच नही आया । मदद माँगना तो दूर ,अब वह एक दूरी सायास बनाए रखती थी तथा सबसे अलग अनजान बनी सी अपनी किताबें पढती रहती थी । हालाँकि मेरी नजर में एक लडकी के लिये यह उचित भी था । मेरा तो यह भी मानना था कि वह इन लोगों की बातों से बचने के लिये ही व्यस्त रहने का दिखावा करती थी । पढाई क्या खाक करती होगी । पर उसका यों कट कर रहने के लिये पढने का बहाना खोजना मुंशी और उसी जैसे दूसरे लडकों को अपना अपमान लगने लगा । ऐसा कैसे हो सकता था कि एक लडकी उनके होते हुए न केवल पढती रहे , बल्कि उन्हें नजरअन्दाज भी करती रहे । उनके कमेंट्स पर भी ध्यान न दे । अकड और गरूर तो सिर्फ खूबसूरत लडकियों को शोभा देता है ।यह किस बात पर अकड दिखाती है । उस पर यह भी गजब कि कक्षा में वही सबसे पहले अपना काम पूरा करके शाबासी पाती । सर लोग हम सब लडकों को सम्बोधित कर कहते--
"सरिता को देखो और सीखो कि जब काम करना ही होता है तो कोई बहाना नही चलता । यह लडकी होकर भी गाँव से पढने आती है घर के काम करती है और तुम सबसे अच्छा काम करके दिखाती है।"
"अच्छा तो अब इसके कारण हमें बेइज्जती भी सहनी होगी ..।"--हमें अहसास हुआ ।
एक दिन बात बहुत बढ गई । हुआ यह कि पीरियड खाली था । मुंशी रजिस्टर से तबला बजा कर  भद्दा सा गीत गाने लगा ---हाय करिहा के दरद ने ....। लडके ताली पीटने लगे ।
वह लडकी क्लास से बाहर जाकर आफिस के पास पडे स्टूल पर बैठ कर पढने लगी । गुप्ता सर ने उसे यही निर्देश दे रखा था । लेकिन हमारी बदकिस्मती से सिंह साहब (प्रिंसिपल) ने यह सब देख लिया । यानी लडकी को कक्षा से बाहर बैठे और हमें गाते बजाते । सिंह साहब अपने अनुशासन के लिये जिले भर में जाने जाते थे । बस हम चार-पाँच लडकों को बुलवाया । जरूर पहले से भी उन तक कोई जानकारी पहुँच रही थी  हमारे बारे में वरना नाम लेकर हमें ही क्यों बुलवाते । बुलाकर उन्होंने हमें पहले खूब लताडा फिर एक लम्बी नसीहत व चेतावनी दीं कि अगर ऐसी वैसी हरकतें कीं ,  लडकी को परेशान किया तो ठीक नही होगा । सारा लफंगापन निकाल देंगे ।  स्कूल से रेस्टीकेट कर देंगे आदि..।
इस घटना के बाद मैं और सुरेन्द्र जैसे भलमनसाहत का लेबल चिपकाए बैठे लडके तो मामले से चुपचाप दूर खिसक लिये पर ओम के मन में तो जैसे आग ही सुलग उठी । ओमपाल शर्मा तेजपाल शर्मा का बेटा था जो सुजानगढ के जाने माने लोगों में से था और जनपद अध्यक्ष भी । यह जाना-माना-पन केवल धन का ही नही तमाम हथकण्डों का भी था जिनके बल पर अपनी सत्ता जमाए था । सत्ता को बनाए रखना सत्ता हासिल करने से कम कठिन नही होता ।
"अब तो यह अपना  प्रस्टेज पाइंट बन गया समझो । दो कौडी की लडकी के कारण हम अपमानित हो रहे हैं ।'--मुंशी ने दाँत चबाते हुए कहा--- "परेशान अब तक तो नही किया था पर अब करके दिखाएंगे । नदी में रह कर मगर से बैर । अब यह सुजानगढ में नही पढ पाएगी । हमने सोचा था कि चलो गाँव की सीधी-सादी लडकी है ..। पर यह तो हमें ही रास्ता बताने लगी ।"
इसके बाद ऊपर से सब शान्त पर भीतर भारी उथल-पुथल । संकल्प । पुरुष को जो सबसे ज्यादा अखरता है वह है स्त्री की अपराजेयता । उसे तोडना ही उसके लिये जैसे सबसे जरूरी काम होजाता है । फिर सचमुच उसके लिये बहुत सारी मुश्किलें पैदा की गईं । कभी उसकी किताबें गायब की जाने लगीं । कभी उसके नाम चिट्ठियाँ डाली जाने लगीं । यही नही उसके नाम के साथ दीवारों ,फर्श ,छत और रास्ते में कहीं भी अश्लील बातें लिखी जाने लगीं । पहले तो स्कूल में खूब हलचल मची । सर लोगों को लाख कोशिशों के बाद कोई सबूत हाथ नही लगा । क्योंकि राइटिंग किसी से मेल ही नही खाती थी । बिना सबूत के तो चोर राजा बराबर ही होता है । धीरे-धीरे पूरे सुजानगढ में इसकी चर्चा होने लगी । लडकी जिधर से भी निकलती ,उसे देखते ही हर कोई कहता ---"अरे देखो वो लडकी है जिसका नाम कोई बडे गन्दे तरीके से लिख जाता है । बाप जी उसे बनाने चले थे' पिराम मिनस्टर '। हमारी भी तो लडकियाँ हैं ।"
उस लडकी के गाँव के दूसरे लडके भी पढने आते थे । उन्होंने हमें बताया कि थू-थू हो रही है सब जगह । गाँव में जहाँ देखो यही कहा जा रहा है कि मास्टर से  कितनी मना करी थी कि लडकी को मत पढाओ । जमाना खराब है पर कान्तीलाल को तो धुन सवार हुई कि लडकी को पढा लिखा कर काबिल बनाना ही है । अब देखो कालिख पुत रही है कि नही । कोई भला आदमी तो ब्याहने भी राजी नही होगा । कुशल चाहो तो अपनी लडकियों को दूर ही रखना उससे । मजे की बात यह कि लगभग सभी ने दोषी अपशब्द लिखने वाले को नही बल्कि उस लडकी को माना जिसके लिये वह सब लिखा गया । आखिर बदनामी लडकी की ही होती है न ।तो चिन्ता भी उसी को करनी चाहिये कि नही ।
इस सबका असर यह हुआ कि वह अकेली पड गई । स्कूल में तो वह अकेली थी ही पर अब गाँव से भी उसके साथ कोई नही आता था । सुनसान रास्तों से अकेली कब तक स्कूल जाती । आखिर लडकी ही तो थी ।
और अन्ततः उस लडकी का स्कूल आना बन्द हो ही गया । मुंशी ने सिकन्दर की तरह सबको देखा । छाती ठोकी । मुझे लगा कि लडकी ने यह ठीक ही किया । पढ लिख कर भी वह कौनसी इन्दिरा गान्धी बन जाती । इतनी बदनामी झेल कर पढना क्या जरूरी है । कम से कम लडकी के लिये तो बिल्कुल नही ।
हैरानी की बात यह हुई कि उसके घर से कोई शिकायत करने भी नही आया । अगर उसके पिता ने कोई सख्त कदम उठा या होता तो शायद  हम लडके कमजोर पड जाते ।यह हमारी जीत थी ।
"कौन आता ! पिता तो वैसे ही शर्म के मारे गर्दन झुकाए बैठा होगा ।"--जगदीश बोला --मेरी दादी कहती थी कि रूप और गुणहीन कन्या का पिता सबसे ज्यादा बेचारा होता है फिर यह तो बदनाम भी होगई थी । हाँ परीक्षा देने के लिये वह जरूर आई थी लेकिन वैसे ही जैसे कोई सुरक्षा के बीच कोई अपराधी लाया जाता है । इसके बाद क्या हुआ । वह पास हुई या फेल ( वैसे फेल होने के चांस ही ज्यादा लग रहे थे ।) शादी हुई या नही कुछ पता नही चला । इसकी कोई जरूरत भी नही थी । हमारे लिये वह गए साल के कैलेण्डर की तारीख भर थी । पर उस साल के गुजर जाने का कही हल्का सा भी मलाल नही था ,यह कहना भी मुश्किल था । दूब की जड की तरह वह घटना मन की जमीन में कहीं दबी थी तभी तो एक महिला को देख कर एकदम हरियाने लगी थी । हालाँकि यहाँ इतने बडे कालेज में उसके मिलने की कल्पना मुझे एक बारगी निरर्थक ही लगी ।
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परीक्षा प्रारंभ हुई । पेपर देख कर मुझे पहले तो पसीना ही आगया । उसमें हिन्दी वाला भाग मुझे सबसे ज्यादा मुश्किल लगा । वैसे जितनी भी कठिनाइयाँ हैं वह हिन्दी में ही आतीं हैं । वह भी साहित्य के इतिहास और काव्य सिद्धान्त में । मैं खीज उठा । अब इससे क्या फर्क पडता है कि दुष्यन्त कुमार गीतकार हैं या गजलकार कि निराला जी छायावाद के कवि हैं । पर उनकी कविताओं में प्रगतिवाद के स्वर सबसे ज्यादा हैं कि ध्वनि सिद्धान्त क्या है, और साधारणीकरण किसका होता है । किस काम के हैं ये सवाल ?
अब समझ आ रहा है कि लडके-लडकियाँ ऐसे सवालों को छोड क्यों तकनीकी शिक्षा में जा रहे हैं ।उन्हें हिन्दी आए न आए पर अशिक्षित मजदूर वर्ग में बच्चों की पैदावार की तरह ही उग रहीं कम्पनियाँ उन्हें धडाधड नियुक्तियाँ दे रही है । मैं सोच रहा था कि क्यों नही मैंने भी उस तरफ ध्यान क्यों नही दिया । खैर....।
पिछली बार की अपेक्षा इस बार पेपर कुछ ठीक रहा और मैं उम्मीद के साथ लिखने में व्यस्त था कि एक गुलशन ग्रोवर टाइप एक व्यक्ति ने अचानक आकर मेरी कापी उठाली और कडक कर कहा --"आउट । अब भी ऐसी बचकानी हरकतें कर रहे हो ।" उसे मेरे पास ही पडी दो चिटें मिलीं थी और संयोग से मैं वही सब लिख भी रहा था ।
"सर वो मेरी नही हैं । आप यकीन करें मैंने कुछ नही किया ।"--मैंने गिडगिडाते हुए कहा ।
ऐसे में कैसी दयनीय हालत हो जाती है । पर वह मुझसे फार्म भरवाने अडा ही रहा ।
"फार्म भर कर तो मेरा कैरीयर चौपट हो जाएगा सर ।"--मैं फिर गिडगिडाया ।
"यह पहले नही सोचा था ?"-- वह बोला । वह सचमुच बडा ही कठोर अधिकारी था । जरा नही पिघला  ।  एक-दो लोग और भी आगए । मन का ज्वाला मुखी ठंडा पड चुका था । वरना इतना सुनने के बाद कौन चुप रहता । मैं इस तरह अपनी बेइज्जती सहने का आदी कहाँ था । पर गरज जो थी । पिताजी व माँ की उम्मीदभरी आँखें मन में ज्वार उठा रही थी । मैंने असहाय होकर चारों ओर देखा । बचने का कोई उपाय नजर नही आ रहा था । काश यहाँ अपना कोई परिचित होता ...। तभी एक पतली मगर मजबूत आवाज आई----"राजीव जी, वहाँ मैं देखती हूँ आप इधर आइये...। आपको हिन्दी के विभागाध्यक्ष श्री तोमर साहब याद कर रहे हैं ।"
मैं चौंका । यह तो वही महिला थी जो प्रांगण में मेरे सामने से गुजरी थी । जिसे देख कर मुझे सरिता वर्मा का ध्यान आया । अब वह ध्यान और भी निरन्तर होगया । इसकी तो आवाज भी सरिता जैसी है । कहीं यह वही तो नही ...। हाँ वही तो है । एकदम सरिता वर्मा । बाकी कमी उसकी टिप्पणी ने करदी जो बात में अतीत को चिपकाती हुई मुखर हुई----"यह क्या है ? आप अपने कैरियर के प्रति आज भी सचेत नही हैं ?
मैं मुश्किल से ही उसे देख पाया । वह काफी सुलझी सँवरीथी । सुरुचिपूर्ण वेश में शालीन भी लग रही थी । यहाँ उसकी ऐसी स्थिति है कि उसकी आवाज पर ही निरीक्षक मेरे नकल प्रकरण को छोड कर उसके पीछे चला गया । मेरे लिये यह सब अप्रत्याशित था । और दिल--दिमाग पर पूरी तरह छा जाने वाला भी पर वह समय केवल परीक्षा देने का था । मैं कुछ समय सब कुछ भूलकर उत्तर लिखने लगा । लेकिन उसकी बात अन्त तक दिमाग में गूँजती रही ।
परीक्षा देकर जैसे ही मैं बाहर जाने लगा ,एक आदमी ने मुझे पुकारा---"ओ भाई ,आपको वो मैडम बुला रहीं हैं । छह न.वाले रूम में ।"
उसी आदमी से मुझे पता चला कि सरिता यहाँ असिस्टेंट प्रोफेसर है । उसके पति भी इसी कालेज में ही हैं । वाह सरिता वर्मा कैसी हार उपहार में दी है तुमने । मुझे याद आया कि लडके उसे व्यंग्यवश मैडम क्यूरी , लैक्चरारनी , प्रोफेसरनी ..और न जाने किन किन उपाधियों से नवाजते थे । जगदीश कहता---"इतना मत जलो ,मास्टरनी तो वह बन जाएगी ।"
"अरे भाई जगदीश की बातें हैं ...वरना यह मुँह और मसूर की दाल..।"
मैं कक्ष में जाने में झिझक रहा था । किस मुँह से सामने जाऊँ । पुरानी बातें पीछे छोड भी दे तो इस हाल की बात पर क्या शर्मिन्दा न करेगी यह सरिता वर्मा ।
"अन्दर आओ । "--उसने मुझे दरवाजे पर ही खडा झिझकता हुए देख लिया ।
उसकी आवाज पर मैं फिर चौंक उठा । वह कह रही थी ---"मैंने तुम्हें देखते ही पहचान लिया । अन्दर आओ ।" मैंने कृतज्ञता दिखाते हुए अभिवादन किया ।
आप यहाँ । मैडम ...वाह क्या बात है एकदम अप्रत्याशित । कहाँ तो  वे .... और कहाँ आप...। मैं तो एकदम ....।
"अरे वह सब छोडो ।--उसने मेरी बात को पीछे करके पूछा--- यह बताओ पेपर कैसा गया ? कौनसा अटेम्प्ट है यह ?
"मैडम आखिरी है बस । देखते हैं...।"
"इस बार तो निकल जाओगे मेरा विश्वास है । लेकिन वह क्या मामला था जो भदौरिया जी कापी छीन रहे थे । उन्हें मैंने ही वहाँ से हटाया था । वैसे सचमुच तो चीटिंग नही थी कहीं "---वह हल्का सा मुस्कराई । पर मैं अभी भी संकुचित था ।
" जी नही यकीनन उसमें मेरी गलती नही थी मैडम ..।"
"अरे, यह मैडम--मैडम क्या लगा रखी है ? मैं सरिता हूँ भाई । आपकी क्लासमेट । ..और उन लोगों के क्या हाल हैं ? मुंशी ,सुरेश ..जगदीश.. ओम..।"
"ये लोग बडे शरारती थे-"--हँसते हुए उसने अपने पति को बताया---"दिमाग में जाने क्या-क्या चलता रहता था । एकदम निरर्थक । लेकिन मुश्किल यह है कि असल में भविष्य के तय होने का समय भी वही होता है न ! "
मैं अवाक् था । उसकी बातों में सहजता थी । अतीत की कोई स्मृति , कटुता या मलाल नही था । आज भी अगर वह न होती तो....।
उस दिन मुझे लगा कि अचानक मेरा कद बहुत छोटा होगया है । बौना कहलाने लायक । मुझे एक बार फिर याद आया कि सुरेन्द्र जैसा लडका भी सरिता वर्मा को अपने लायक नही समझता था लेकिन आज यह सच साबित हो ही गया कि उसके लायक तो वहाँ कोई था ही नही । न सुजानगढ के सर्वसम्पन्न और प्रतिष्ठित घर का ओम और न ही स्कूल भर में प्रिंस कहाने वाला मैं ।
"रिजल्ट आए तो बताना जरूर---" ग्लानिबोध के साथ जब मैं पीछा छुडाता हुआ सा वहाँ से भाग रहा था ,उसकी आवाज मेरा पीछा कर रही थी ।


शनिवार, 19 जनवरी 2013

अपराजिता

यह कहानी भी  'अपनी खिडकी से ' संग्रह में है लेकिन अधूरी ।जाने कैसे यह भूल प्रकाशक से हुई है या प्रूफ देखने में मुझसे । इसलिये कहानी को मूल व सम्पूर्ण रूप में यहाँ दे रही हूँ ।
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वह लडकी ,जो आँगन में अक्सर कंकड उछाल-उछाल कर खेलती रहती है और जहाँ-तहाँ उछलती-फुदकती रहती है ,चाहे इसके लिये उसे कितना ही रोका-टोका जाए ,उसका नाम कंकू  है । कंकू यानी कंकुम कुछ ही दिन पहले नानी के घर से आई है और सबके लिये खासतौर पर मेरे लिये एक चुनौती बन गई है ।
कंकुम का भाई छोटा है और माँ को ज्यादा प्यारा भी लेकिन जब भी मन होता है वह भाई को खोह देकर माँ की गोद पर कब्जा कर लेती है चाहे भाई रोए या माँ धकेलती रहे ।
"आखिर दिन भर माँ की गोद में यही तो घुसा रहता है । मैं तो जरा सी देर के लिये ही बैठी हूँ ।"
उसके पास हमेशा एक मजबूत तर्क होता है । उसे गोद से उतारने के लिये माँ को कंकू की खूब मिन्नतें करनी होतीं हैं ।
दूध भाई के लिये आता है पर आधे से अधिक दूध जाता है कंकू के पेट में । कहती है --"जब मुन्ना दूध पी सकता है तो मैं क्यों नही । दूध मुझे भी तो अच्छा लगता है । "
साँवली दुबली-पतली कंकू बहुत चंचल है ।  आँखों में एक विशेष चमक है । बाल अक्सर  उलझे और बिखरे रहते हैं और नाक भी बहती रहती है .
"नाक है कि परनाला-"-माँ नाक पौंछते समय खीज उठती है । कभी-कभी जोर से रगड भी देती है मानो नाक को उखाड कर सारा झंझट ही मिटा देना चाहती हो पर कंकू खिलखिलाती है । माँ की खीज को जबरन ही दबी-दबी हँसी में बदल देती है ।
कंकू से जान-पहचान करने की पहल किसी को करनी नही पडती । यह काम वह खुद ही बखूबी कर लेती है । और कर ही नही लेती दीदी ,मौसी, नानी, भैया मामा ,चाचा, आदि सम्बोधन भी फिट कर लेती है ।
कंकू ने मेरे साथ भी यही किया । एक दिन जब मैं अपनी बालकनी मैं खडा यों ही गली में गुजरते लोगों को देख रहा था कि किसी ने मुझे बडी लय के साथ पुकारा---"राजू भैयाsss,क्या कर रहे हो ?"
मैंने चौंक कर देखा कि पाँच--छह साल की एक दुबली पतली लडकी बडी आत्मीयता से मेरी ओर मुस्करा रही है । मैं हैरान हुआ । कमाल है न जान न पहचान ,बडे मियां सलाम । लेकिन इतने अपनेपन से पुकारे जाने पर जबाब तो देना ही था सो मैंने हाथ हिलाया । बस उसे तो जैसे सिग्नल मिल गया । तुरन्त आ खडी हुई ।
"पता है ,मेरा नाम कुंकुम है पर प्यार से सब कंकू कहते हैं । मैं सामने वाले घर में रहती हूँ ।"---उसने फटाफट अपना परिचय दे डाला । मैं कुछ कहता इससे पहले ही उसने सवालों और जानकारियों की लाइन लगा दी ।
"तुम पहले तो यहाँ नही थे फिर कहाँ रहते थे भैया ? कि तुम क्या करते हो ? पढने के साथ पढाते भी हो । तो क्या तुम भी बच्चों को पीटते हो जैसे एक ट्यूशन वाले सर पीटते हैं । उनके पास नीम की हरी संटी रहती है ..। राजू भैया क्या तुमने बुलबुल को देखा है ? नही देखा हो तो हमारे घर आना । आँगन में जो मनीप्लांट है न उसी में बुलबुल ने घोंसला बनाया है । पता है उसमें कितने बच्चे...?"
"उफ्..किस मुसीबत को बुला लिया .मैंने । फालतू समय खराब करेगी ।" मैं पहली बार उस बतोडी लडकी से ऊब गया । और उसे टालने के लिये कहा ---
"कुंकुम अब तुम घर जाओ बच्चे । माँ परेशान होगी ।"
"मेरी माँ परेशान नही होती । उसे पता है कि मैं आसपास ही खेलती हूँ ।"--वह स्टूल पर बैठ गई ।
"लेकिन मुझे अभी कहीं जाना है जरूरी काम से ...। "
"अच्छा ठीक है ।" उसने मेरी बात मान कर जैसे मुझपर उपकार किया फिर अधिकार से कहा "लेकिन मैं फिर आऊँगी जरूर ।"  पूछने की तो जरूरत ही कहाँ थी ।
अब वह जब चाहे मेरे कमरे में आजाती है और मेरी हर बात का निरीक्षण सा करती रहती है ---"राजू भैया ,अभी क्या पढ रहे थे ? किताब तो थी पर बन्द क्यों करदी ? मैं पढने से थोडी रोकूँगी ।...राजू भैया क्या खा रहे थे अभी ? खा कैसे नही रहे मुँह तो चल रहा था ।... वहाँ धूप में मत बैठा करो । मेरी मम्मी कहती है कि धूप में रंग काला हो जाता है । ....अरे यह नही ,आप पर वो चैक वाली शर्ट अच्छी लगती है ।"
मैं बौखला कर उस बित्ते भर की लडकी को देखता हूँ  जो बेझिझक मेरे बडेपन पर हमला सा करती रहती है । मेरी दादी सही कहती थी कि लडकियों को इतना बोलना शोभा नही देता ।
"कम बोला कर ।" मैं डाँटता हूँ । पर मेरी डाँट पर वह हँस पडती है मानो मैंने कोई चुटकुला सुना दिया हो और फिर दूसरी बात करने लगती है -- "राजू भैया वो पतंग ,जो दीवार पर टँगी है ,तुमने बनाई है । मेरे लिये बना दोगे ?"
"तेरे लिये ?"--मैंने उसे आश्चर्य से देखा--"तू क्या करेगी पतंग का ?"
"उडाऊँगी "--वह बडे विश्वास के साथ कहती है ।
"तू ?? तू पतंग उडएगी !!"---मैं और भी चकित होता हूँ । मेरे सवाल पर वह हँसती है जैसे मैंने कोई बचकानी बात कहदी हो ।बोली---"राजू भैया पतंग तुम भी तो उडाते हो । मन्नू ,डबलू और डौलू उडाते हैं फिर मैं पतंग क्यों नही उडा सकती ? जरूर उडा सकती हूँ ।"
"अच्छा ,अब मेरा दिमाग मत खा । जा यहाँ से मुझे पढने दे ।"
"अच्छा पढना है ?"--वह जाने की बजाए कभी मेरा उठाती है कभी किताब पलटती है ।
"तू पढती-लिखती तो है नही क्या करेगी ये पेन किताब देख कर ?" मैंने कहा । उसकी माँ एक दिन कह रही थी कि पाँच साल की होगई अभी तक अक्षर ज्ञान तक नही है । पढाई में दिमाग ही नही लगता । नाम डुबाएगी बस और क्या...।
"मैं बडी हो जाऊँगी तब खूब पढूँगी । मेरे बाबा कहते हैं कि तू अभी छोटी है ।"
"छोटी है !"---मुझे हैरानी होती है---"बडों-बडों के कान काटती है और कहती है कि छोटी है । बिल्कुल चालाक लोमडी लगती है ।"
मेरी बात पर वह खिलखिला उठती है । मैं हारा हुआ सा देखता हूँ
लेकिन कोई यह समझने की गलती न करे कि कंकू सिर्फ हँस कर परास्त करती है । जहाँ हँसी काम नही करती वहाँ रोकर भी काम चलाती है । रोना भी ऐसा-वैसा नही । कानों को पार कर जाने वाला । चेहरा लाल होजाता है आँखें निकलीं पडतीं हैं भले ही आँसू न दिखें ।
एक दिन उसकी माँ ने जाने कैसे उसके सामने ही कह दिया---"लडकी बहुत तंग करती है । इससे तो डौलू ही अच्छा है ...।"
"अच्छा मैं काम नही करती ? सुबह अंकल की दुकान से माचिस लाकर डौलू ने दी थी ?? छोटू सोगया तो उसे डौलू झुलाता रहा था ?और छत से सूखे कपडे क्या डौलू ने उतारे ? दूध खतम होजाता है तब डेयरी से दूध कौन लाता है ? डौलू ? डौलू ही तुम्हारा प्यारा बेटा है न ? अब हर काम उसी से करवा लेना ।
कहते-कहते कंकू फूट पडी और रो रोकर ऐसी आफतखडी की कि माँ को कहना पडा कि, "कहाँ के डौलू-वौलू , मेरी तो कंकू ही सबसे अच्छी है । मेरा कितना सारा काम वही तो करती है ।"
जब से कंकू आई है ,मोहल्ले के सभी बच्चों ने उसके विरुद्ध संगठन बना लिया है । उसे कोई पास तक नही आने देता । पर उसे किसी की परवाह नही वह अकेली जोर-जोर से कविता गाती है ---'तितली उडी ,बस में चढी...।'
"यह तो हमारी कविता है "-- कविता सुनकर संजू और डौलू भडक उठे--- "चोर, कविता--चोर,..एक चोट्टी ने हमारी कविता चुराई है।"
"हमने किसी की कविता नही चुराई । हमें तो एक लडके ने सुनाई थी ।"-- कंकू भी अकड कर बोली ।
"किस लडके ने बता । मजा चखाएंगे उसे..।" एक लडका सीना तान कर बोला ।
"हाँ जरूर मजा चखाओ "--कंकू मुस्करा उठी ---"वह लडका थोडा छोटा है ,थोडा मोटा है ..। नीली नेकर और धारियों वाली शर्ट पहने है । हमारे घर के सामने ही रहता है ।"
"तू मेरा नाम लेती है !!"--डौलू गुर्राया---"भला मैं तुझे सुनाऊँगा ?? पागल लडकी । अच्छा सुन, तुझे हमारी कविता सीखने की जरूरत नही है समझी ।"
"जोर से गाओगे तो हम खूब सीखेंगे ।"--कंकू हँस पडी । अब डौलू जी जब भी कोई गीत या कविता सीख कर आते हैं अपने कमरे में ही गा लेते हैं ।
एक दिन संजू महाशय नई कार लेकर आए । उसे जमीन पर रगडकर चलाने पर अलग आवाज और रोशनी होती थी । सब बच्चे उसे देखकर खासे प्रभावित हुए । कुछ ललचाए भी । इतना अच्छा खिलौना उनके पासजो नही था लेकिन सबके लिये उस कार का बढिया उपयोग था कि मिल कर कंकू को ललचाएं । बस वे कार को कंकू के घर के सामने आकर चलाने लगे और उसे सुना सुना कर कहने लगे-----" अर् रे...वाह , इतनी सुन्दर कार !! किसी--किसी ने तो देखी भी नही होगी । चलाना तो दूर की बात है ।"
कंकू उस दिन कुछ नही बोली । लडकों को अपनी कामयाबी पर बडी खुशी हुई लेकिन उनकी खुशी दूसरे दिन उडन-छू होगई जब उन्होंने कंकू को चहकते हुए देखा ।
"मेरे पास तुम्हारी कार से ज्यादा अच्छी चीज है-"---कंकू ने सुनाया---" कार में कोई बैठ तो नही सकता पर मैं अपनी गाडी में बैठ भी सकती हूँ और उसे खुद ही चला भी सकती हूँ ।"
"हाँssss...?"--सबने विस्मय से देखा । कंकू ने चबूतरा के किनारे एक मुडे तार पर लकडी का छोटा सा तख्ता रखा था । और उस पर बैठ कर तार को घुमा रही थी । तख्ता तेजी से आगे सरक रहा था और कंकू खिलखिला रही थी ।
"यह भी कोई खिलौना है !"--लडकों ने उपेक्षा से कहा ---"बाजार से तो नही खरीदा गया न । पैसे जो लगते हैं ।"
लेकिन  दूसरे दिन मैंने उन लडकों के हाथ में वैसा ही मुडा हुआ तार देखा । वे सपाट पत्थर या लकडी की तलाश में थे । खासतौर पर डौलू इस फिराक में था कि वह किसी तरह कंकू का पटरा और तार पार करदे ।
वैसे भी डौलू जी की हालत आजकल खस्ता है । उन्हें खासकर जो काम दिया जाता है उसे कंकू जाने कहाँ से प्रकट होकर तुरन्त कर देती है और यह जताना भी नही भूलती कि मम्मी का काम हमने कर दिया । कि राजू भैया को तो सिर्फ मेरा काम अच्छा लगता है ..। फिर डौलू जी चाहे नोंचें खसोटें ,कंकू मुस्कराती रहती है । कुल मिला कर हाल यह है कि सब बच्चे कंकू को अपनी प्रतिद्वन्दी मानते हैं और कुछ न कुछ कह कर उसे चिढाने की कोशिशें करते रहते हैं ।
"एक लडकी ..जिद्दी और गन्दी....इसकी नाक कितनी छोटी है ।"
"उसके दो ही काम हैं ...एक दिन भर खाना और रोना...।"
"एक और काम है "---डौलू आवाज को ऊँची करके कहता है ---"दूसरों की कविता चुराना ..।"
"वह अक्सर दूसरों के आजू--बाजू मँडराती रहती है  । उसके पास एक ही फ्राक है । पुरानी और बदरंग...."
"मेरे पापा रक्षा-बन्धन पर लाए थे ।"---कंकू यह सुन कर बोले बिना नही रह पाती । गर्व से कहती है----"जब यह नई थी तब बहुत अच्छी लगती थी । अब भी ,मेरी नानी कहती है कि तू इसमें बहुत सुन्दर लगती है ।"
"सुन्दर..! यह लडकी..!! हो ..हो ..हो "---लडके ताली बजा कर हँसते हैं ।
"हो..हो..हो..."---कंकू उनसे भी तेज हँसती है ।
मैं हैरान होता हूँ । यह लडकी कमअक्ल है क्या । पर ऐसा लगता तो नही है । उसमें चीजों को समझने व पकडने की क्षमता दूसरे बच्चों से ज्यादा है । वह दूर से ही सूँघ कर बता देती है कि कमरे में आम रखे हैं या केले । संजू पाठ्यपुस्तक पढ रहा है या उसमें छुपाकर कामिक्स । मेरे गिलास में कडवी दवा नही मीठा शरबत है । मैं उसे अ से अनार पढाता हूँ तो मुझे पीछे छोड कर वह अनार के पेड का पूरा इतिहास--भूगोल बताने लगती है---
राजू भैया ,अनार का पेड तो कितना सुन्दर होता है । तुम्हें पता है ,अनार में सफेद दाने भी होते हैं और लाल गुलाबी भी होते हैं और मरून रंग के दाने भी । पडोस के अंकल हैं न वे अनार के छिलकों से दाँतों का मंजन बनाते हैं । पहले हमारे आँगन में भी अनार का पेड था । पर दादी ने एक दिन उस पेड को कटवा दिया । कहती थी कि इसे घर में लगाना अशुभ होता है । दादी को कुछ भी पता नही है न ।...राजू भैया तुम अनार खाया करो । पापा कहते हैं कि इससे खून बढता है ।
किसी अक्लमन्द के पास भी अब कुछ शेष रह गया पढाने को ??
कुंकुम का आना धीरे-धीरे मेरी दिनचर्या का एक जरूरी व रोचक प्रसंग बन गया है । वह जब तक नही आती मेरा सबेरा नही होता ।
मैं जब तब उसके लिये चाकलेट बिस्किट या खट्टी--मीठी टाफियाँ ले आता हूँ लेकिन उसे ये चीजें प्रलोभित करेंगी या वह मेरे प्रति कोई कृतज्ञता का भाव रखेगी यह सोचने की भूल अब नही करता । एक बार मैंने ऐसा करना चाहा था ।
बात यों हुई कि मैं एक दिन खूब सारे पके आम लाया था । मुझे पता था कि कंकू को भी आम बहुत पसन्द हैं और अपनी माँ से आए दिन आम लाने की माँग करती है । मेरा विचार था कि मेज पर रखे पके खुशबू वाले आमों को देख वह चहक उठेगी और मैं उसकी नजर में बडा और सम्माननीय हो जाऊँगा लेकिन उसने आम ऐसे नजरअन्दाज कर दिये जैसे मलाई वाला दूध पीने वाली बिल्ली पानी मिले पतले दूध को अनदेखा कर देती है । और जैसे अपने आप से ही कहने लगी---
मेरे पापा बहुत अच्छे हैं । मेरे लिये पके मीठे वाले आम लाते हैं । अब भी जब आऐंगे न ,तब बहुत सारे आम लाऐंगे..।"
मैंने उसे पास बिठा कर जताया---" कंकू ,मैं भी तो ये आम तो तेरे लिये ही लाया हूँ । तुझे पसन्द हैं न । ये आम इतने मीठे हैं कि इनके बाद दूसरे आम तो फीके ही लगेंगे ।"
"मेरे पापा भी ऐसे ही लाते हैं ।" उसने मेरी बात को एक तरफ सरकाते हुए गर्व से कहा । यानी कि मेरी दी हुई चीज का कोई महत्त्व ही नही ।
यह तो सरासर मेरी भावनाओं की तौहीन थी । अपनी महत्ता बनाए रखने के लिये मैने अपनी बात पर जोर देकर कहा--- "वह तो ठीक है कंकू लेकिन मैं जो तेरे लिये चीजें इतने प्यार से लाता हूँ , वो कुछ नही...??"
"जब मेरे पापा लाऐंगे मैं तुम्हें बहुत सारे आम दे जाऊँगी ।"
मैं अवाक् रह गया । शब्द ही नहीं ,भावों और इरादों को भी समझ जाने वाली यह लडकी कहीं भी कमजोर नही पडती । मैं चाहता था कि वह कहीं कमजोर व छोटी पडे तो मैं बडापन और हमदर्दी दिखा सकूँ ।
एक दिन ऐसा अवसर आया भी । हुआ यूँ कि किसी बात पर उसकी माँ उसे बेतरह पीट रही थी । हर तमाचा ऐसा कि लगते ही कंकू गिर पडे । मेरे अन्दर खदबद सी होने लगी । बच्चों की पिटाई मुझे अपने बचपन से जुडी हुई महसूस होती है । मुझे पता है कि थप्पड लगते ही कुछ समझ आना तो दूर , उल्टे  दिमाग पर ताला ही लग जाता है । इसी बात पर मेरी चाची से मेरा अक्सर झगडा होजाया करता है । वह जब भी नन्नू को पढाती हैं बिना संटी के बात ही नही करती । और मैं हमेशा झपट कर उनसे संटी छीन कर फेंक देता हूँ । वे गुस्सा होजातीं हैं । होती रहें । कंकू की माँ पर भी मुझे गुस्सा आया और उन्हें रोकने पहुँच गया । पर उसकी माँ ने दूर से ही कह दिया---
"राजू ,तुझे बीच में आने की जरूरत नही । इसे फालतू की शह मिलेगी । यह लडकी बहुत बिगड रही है । चाहे जिस बात पर अड जाती है चट्टान की तरह । बिना मार के सीधी न होगी ।"
मेरी आँखों में दिन भर रोती हुई कंकू की तस्वीर घूमती रही । शाम को जब वह मेरे पास आई तो उसकी आँखें अनार के फूल सी लाल और फूली हुईं थीं । मुझे उस बच्ची पर बडा प्यार और तरस आया ।
"कंकू ,बेटू ऐसी जिद क्यों करती है कि इतनी बडी सजा मिल जाती है ।----- मैंने उसके बालों को सहलाते हुए पूछा ।
"राजू भैया "---उसने मेरी बात जैसे सुनी ही नही---"अब मैं रस्सी कूदना सीख गई हूँ । मैं कूद कर दिखाऊगी । तुम गिनोगे..?"
"उफ्."..मैं कहीं हल्का सा आहत हुआ । मैं चाहता था कि वह अपनी पीडा या गुबार मेरे सामने निकाले और मैं उसे सहानुभूति देने का बडप्पन पा सकूँ ।
"जो भी हो ..लेकिन कंकू आज जो हुआ मुझे बहुत बुरा लगा । माँ को तुझे इस तरह पीटना नही चाहिये था  ।"
"माँ मुझे प्यार भी तो करती है ।"--उसने मेरी बात काट कर कहा ----
"अब मैं रस्सी कूदूँगी । तुम गिनना...।"
मैं हैरान पर पराजित सा उस लडकी को देखने लगा जो रस्सी कूदती हुई उजाला सा फैला रही थी । चाँदनी के फूलों की तरह ।------------------------------------------------------------------------------------